मत्स्य पुराण

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मत्स्य पुराण (मत्स्य = मछली) में भगवान श्रीहरि के मत्स्य अवतार की मुख्य कथा के साथ अनेक तीर्थ, व्रत, यज्ञ, दान आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। इसमें जल प्रलय, मत्स्य व मनु के संवाद, राजधर्म, तीर्थयात्रा, दान महात्म्य, प्रयाग महात्म्य, काशी महात्म्य, नर्मदा महात्म्य, मूर्ति निर्माण, राजाओं की विजयार्थ यात्रा का विधान, एवं त्रिदेवों की महिमा आदि पर भी विशेष प्रकाश डाला गया है।[1] चौदह हजार श्लोकों वाला यह पुराण भी एक प्राचीन ग्रंथ है।

संक्षिप्त परिचय[संपादित करें]

मत्स्य अवतार

इस पुराण में सात कल्पों का कथन है, नृसिंह वर्णन से शुरु होकर यह चौदह हजार श्लोकों का पुराण है। मनु और मत्स्य के संवाद से शुरु होकर ब्रह्माण्ड का वर्णन ब्रह्मा देवता और असुरों का पैदा होना, मरुद्गणों का प्रादुर्भाव इसके बाद राजा पृथु के राज्य का वर्णन, वैवस्त मनु की उत्पत्ति, व्रत और उपवासों के साथ मार्तण्डशयन व्रत, द्वीप और लोकों का वर्णन, देव मन्दिर निर्माण, प्रासाद (महल) निर्माण आदि का वर्णन है।

इस पुराण के अनुसार मत्स्य (मछली) के अवतार में भगवान विष्णु ने एक ऋषि को सब प्रकार के जीव-जन्तु एकत्रित करने के लिये कहा और पृथ्वी जब जल में डूब रही थी, तब मत्स्य अवतार में भगवान ने उस ऋषि की नांव की रक्षा की थी। इसके पश्चात ब्रह्मा ने पुनः जीवन का निर्माण किया। एक दूसरी मान्यता के अनुसार एक राक्षस ने जब वेदों को चुरा कर सागर में छुपा दिया, तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को प्राप्त किया और उन्हें पुनः स्थापित किया।

वर्णित विषय[संपादित करें]

मत्स्यपुराण में राजधर्म[संपादित करें]

मत्स्य पुराण का 'राजकृत्य' और 'राजधर्म' वर्णन विशेष रूप से महत्व रखता है। इसमें केवल प्रजा पालन करने और दान-पुण्य का ही जिक्र नहीं किया गया है, वरन् खास तौर पर इस विषय का व्याव हारिक ज्ञान दिया गया है। यद्यपि वर्तमान वैज्ञानिक युग में ये बातें बहुत अधिक बदल गई हैं-तलवार तथा तीरों के युद्ध के बजाय वायु- यानों से बम वर्षा और राकेटों से युद्ध होने का जमाना आ गया है तो भी अब से दो चार सौ वर्ष पहले तक भारतीय नरेशों के लिये राज्य व्यवस्था और शासन संचालन के ये नियम और विधियाँ ही उपयोग में आती थीं। प्राचीनकाल में राज्य का पूरा अस्तित्व एक मात्र राजा पर ही रहता था । यदि उसे किसी भी उपाय से नष्ट कर दिया जाय तो सारी राजव्यवस्था खण्ड-खण्ड हो जाती थी । इसलिए अन्य बातों के साथ राजा को अपनी सुरक्षा के लिये भी सदैव सजग रहना पड़ता था । इस सम्बन्ध में 'मत्स्य पुराण' का निम्न वर्णन दृष्टव्य है-[2]

राजा को सदैव कौए के समान शंका युक्त रहना चाहिये । बिना परीक्षा किये राजा को कभी भोजन और शयन नहीं करना चाहिये | इसी भांति पहले से ही परीक्षा करके वस्त्र, पुष्प, अलंकार तथा अन्य वस्तुओं को उपयोग में लाना चाहिये। कभी भीड़भाड़ में न घुसना चाहिये और न अज्ञात जलाशय में उतरना चाहिये। इन सबकी परीक्षा पहले विश्वासी पुरुषों द्वारा करा लेनी चाहिये। राजा को उचित है कि अनजान हाथी और घोड़े पर कभी सवार न हो और न किसी अज्ञात स्त्री के सम्पर्क में आये । देवोत्सव के स्थान में उसे निवास करना नहीं चाहिये | अपने राज्य तथा दूसरे राज्यों में भी उसको जाने हुये विचरण बुद्धि वाले कष्ट सहिष्णु और संकट से न घबराने वाले, गुप्तचरों (जासूसों) को नियुक्त करना चाहिए जो उसे सब प्रकार के रहस्यों की सूचना देते रहें। फिर भी के कथन पर विश्वास नहीं कर लेना चाहिये। जब दो-चार गुप्तचरों की रिपोर्ट से उस बात का समर्थन हो जाय तब उस पर भरोसा करे ।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. "गीताप्रेस डाट काम". मूल से 12 मई 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 मई 2010.
  2. मत्स्यपुराण[मृत कड़ियाँ] (सम्पादक एवं अनुवादक - श्रीराम शर्मा आचार्य)

बाहरी कडियाँ[संपादित करें]