परीक्षित

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परीक्षित
कुरु
शुकदेव और राजा परीक्षित
पूर्ववर्तीयुधिष्ठिर (बड़े दादाजी)
उत्तरवर्तीजनमेजय (पुत्र)
जीवनसंगीमदरावती (पहली पत्नी),अद्रिका (दूसरी पत्नी)
संतानजनमेजय
पिताअभिमन्यु
माताउत्तरा

महाभारत के अनुसार परीक्षित अर्जुन के पौत्र अभिमन्यु और उत्तरा के पुत्र तथा जनमेजय के पिता थे। जब ये गर्भ में थे तब अश्वत्थामा ने ब्रम्हशिर अस्त्र से परीक्षित को मारने का प्रयत्न किया था । ब्रम्हशिर अस्त्र का संबंध भी भगवान ब्रम्हा से है तथा ब्रम्हा के ही महान अस्त्र ब्रह्मास्त्र के समान शक्तिशाली, अचूक और घातक कहा गया है। इस घटना के बाद योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने योगबल से उत्तरा के मृत पुत्र को पुनः जीवित कर दिया था । महाभारत के अनुसार कुरुवंश के परिक्षीण होने पर जन्म होने से वे 'परीक्षित' कहलाए।

ऐतिहासिकता[संपादित करें]

माइकल विटजेल के अनुसार १२ वीं -११ वीं शताब्दी ईसा पूर्व में कुरु साम्राज्य के पौरिकिता राजवंश से संबंधित हैं। एच.सी.रायचौधुरी ने परीक्षित को नौवीं शताब्दी ईसा पूर्व का माना है। [१२]

वैदिक साहित्य में केवल एक परीक्षित का उल्लेख है । परंतु उत्तर-वैदिक साहित्य (महाभारत और पुराण) इस नाम से दो राजाओं के अस्तित्व का संकेत देते हैं, एक जो कुरुक्षेत्र युद्ध से पूर्व हुए एवं पांडवों के पूर्वज थे और दूजे वह जो पांडवों के अग्रज थे। इतिहासकार एच‌‌.सी.रायचौधरी का मानना है कि दूसरे परीक्षित का वर्णन वैदिक राजा से उपर्युक्त ढंग से मेल खाता है, जबकि पूर्वज 'परीक्षित' के बारे में उपलब्ध विवरण अत्यंत अल्प और असंगत है, साथ ही रायचौधरी प्रश्न करती हैं कि 'क्या वास्तविकता में एक ही नाम के ऐसे दो अलग शासक थे ?'

किंवदंती[संपादित करें]

युधिष्ठिर आदि पांडव संसार से भली-भाँति उदासीन हो चुके थे और तपस्या के अभिलाषी थे। अतः वे शीघ्र ही परीक्षित को हस्तिनापुर का शासन सौंप द्रौपदी समेत तपस्या हेतु प्रस्थान कर गए। परीक्षित जब राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए तो महाभारत युद्ध की समाप्ति हुए कुछ समय ही व्यतीत हुआ था, भगवान कृष्ण उस समय तक परमधाम प्रस्थान कर चुके थे और युधिष्ठिर को शासन किए ३६ वर्ष व्यतीत हो चुके थे। राज्य प्राप्ति के अनंतर गंगातट पर उन्होंने तीन अश्वमेघ यज्ञ किए जिनमें अंतिम यज्ञ में देवताओं ने प्रत्यक्ष आकर 'बलि' ग्रहण किया था। परीक्षित के विषय में प्रमुख तथ्य यह है कि इन्हीं के शासनकाल में द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ होना माना जाता है। इस संबंध में भागवत में एक कथा है - 'एक दिवस राजा परीक्षित को ज्ञात हुआ कि कलियुग उनके राज्य में प्रवेश कर गया है और अधिकार स्थापित करने का अवसर ढूँढ़ रहा है। परीक्षित उसे अपने राज्य से निकाल बाहर करने के लिये ढूँढ़ने निकले। एक दिवस इन्होंने देखा कि एक गौ, एक बैल अनाथ और कातर भाव से खड़े हैं और एक शूद्र जिसका वेष, भूषण और ठाट-बाट राजा के समान था, दंड से उनको प्रताड़ित कर रहा है। बैल के मात्र एक पग (पैर) था। पूछने पर परीक्षित को गौ, बैल और राजवेषधारी शूद्र तीनों ने अपना-अपना परिचय दिया। गौ पृथ्वी, बैल धर्म और शूद्र कलिराज था। धर्मरूपी बैल के सत्य, तप और दयारूपी तीन पग कलियुग ने विच्छेदित कर डाले थे, मात्र एक पग दान के सहारे वह भाग रहा था, उसको भी विच्छेदित कर डालने के लिये कलियुग सतत् उसका पीछा कर रहा था। यह वृत्तांत जानकर परीक्षित को कलियुग पर बड़ा क्रोध हुआ और वे उसका वध करने को उद्यत हुए। कलि के गिड़गिड़ाने पर उन्हें उस पर दया आ गई और उन्होंने उसके रहने के लिये ये स्थान बता दिए - जुआ, काम, मद्य, हिंसा और स्वर्ण। इन पंच स्थानों को छोड़कर अन्यत्र न रहने की कलि ने प्रतिज्ञा की। राजा ने पंच (पांच) स्थानों के साथ साथ ये पंच वस्तुएँ भी उसे दे डालीं - मिथ्या, मद, काम, हिंसा और बैर। इस घटना के कुछ समय पश्चात महाराज परीक्षित एक दिवस आखेट पर निकले। कलियुग सतत् इस घात में था कि किसी प्रकार परीक्षित का अस्तित्व मिटाकर निष्कंटक शासन करे। राजा के मुकुट में स्वर्ण था ही, कलियुग उसमें प्रविष्ट हो गया। राजा ने वन में आखेट की इच्छा से एक हरिण (हिरन) के पीछे घोड़ा दौड़ा दिया। बहुत दूर तक पीछा करने के पश्चात भी हरिण हाथ ना आया। शिथिलता के कारण उन्हें तृष्णा (प्यास) भी हो आई थी। वन मार्ग में एक वृद्ध ऋषि (शमीक) का आश्रम मिला। राजा ने उनसे प्रश्न किया कि 'क्या वह बता सकते हैं कि हरिण किस ओर गया है ? ऋषि मौनी थे, इसलिये राजा की प्रश्न का कुछ उत्तर न दे सके। क्लांत और प्यासे परीक्षित को ऋषि के इस व्यवहार से बड़ा क्रोध हुआ। कलियुग सिर पर सवार था ही, परिक्षित ने निश्चय कर लिया कि ऋषि ने घमंड के वशीभूत हो उत्तर नही दिया और इस अपराध का उन्हें दंड अवश्य मिलना चाहिए। निकट ही एक मृत सर्प पड़ा था। राजा ने तुणीर (तीर) की नोक से उसे उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और प्रस्थान लिया। (महाभारत, आदिपर्व ३६, १७-२१) ऋषि के श्रृंगी नाम का एक महातेजस्वी पुत्र था। वह घटना के समय आश्रम पर नही था। आश्रम लौटने पर उसने पिता के गले में मृत सर्प लटका देखा। कोपशील श्रृंगी ने पिता के इस अपमान को देखकर हाथ में जल लेकर श्राप दिया कि जिस पापत्मा ने मेरे पिता के गले में मृत सर्प डाला है, सात दिवस के भीतर ही तक्षक नाम का सर्प उसे डसकर मृत्युलोक पहुंचा दे। ऋषि को पुत्र के इस अविवेक पर अपार दुःख हुआ और उन्होंने एक शिष्य द्वारा परीक्षित को श्राप का समाचार कहला भेजा जिससे कि वे सतर्क रहें। परीक्षित ने ऋषि के श्राप को अटल समझ अपने पुत्र जनमेजय को शासक पद पर प्रतिष्ठित कर दिया और स्वयं एक ऊंचे प्रासाद पर सब ओर से सुरक्षित होकर रहने लगे । सातवें दिवस तक्षक ने आकर उन्हें डस लिया और विष की घातक प्रभाव से उनका शरीर मृत्यु को प्राप्त हो गया। कहते हैं, तक्षक जब परीक्षित को डसने चला तब मार्ग में उसे कश्यप ऋषि मिले। पूछने पर ज्ञात हुआ कि वे उसके विष से परीक्षित की रक्षा करने जा रहे हैं। तक्षक ने एक वृक्ष पर दाँत मारा, वह तत्काल जलकर भस्म हो गया। कश्यप ने अपनी विद्या से पुनः उसे हरा-भरा कर दिया। इस पर तक्षक ने बहुत सा धन देकर उन्हें बीच मार्ग से लौटा दिया। देवी भागवत में विवरण आता है कि, श्राप का समाचार पाकर परीक्षित ने तक्षक से अपनी प्राणरक्षा के लिये एक सप्त तल प्रासाद निर्मित करवाया और उसके चहुंओर उत्कृष्ट सुरक्षा व्यवस्था स्थापित कर दी। तक्षक को जब यह ज्ञात हुआ तो वह उद्विग्न हो उठा। अंत में परीक्षित तक पहुँचने का उसे एक उपाय सूझा। उसने एक अपने सजातीय सर्प को तपस्वी का रूप देकर उसे कुछ फल दिए और एक फल में एक सूक्ष्म कीट का रूप धरकर आप ही जा बैठा। तपस्वी बना हुआ सर्प तक्षक के निर्देसानुसार परीक्षित के उपर्युक्त सुरक्षित प्रासाद तक जा पहुँचा। प्रहरियों ने इसे भीतर जाने से निषेध कर दिया, परीक्षित को ज्ञात होने पर परीक्षित ने उस तपस्वी रुप धारण किए सर्प को अपने पास बुलवा भेजा और फल लेकर ससम्मान विदा किया। एक तपस्वी मुझे यह फल दे गया है, अतः इसे ग्रहण करने से अवश्य मेरा उपकार होगा, यह सोच उन्होंने शेष फल तो मंत्रियों में वितरित करवा दिए, परंतु दुर्योग से उस एक फल जिसमें तक्षक कीट रुप में उपस्थित था को स्वयं ग्रहण करन के उद्देश्य से काटा। फल से एक कीट निकला जो रक्तवर्ण था एवं उसके नेत्र कृष्णवर्ण थे। परीक्षित ने मंत्रियों से कहा - 'अब सूर्य भी अस्ताचलगामी है, अतः अब तक्षक से मुझे कोई भय नहीं। परन्तु ब्राह्मण के श्राप की भी मानरक्षा होना चाहिए। इसलिये इस कीट से डसने की विधि पूर्ण करवा लेता हूँ।' यह कहकर उन्होंने उस कीट को कंठ पर लगा लिया। परीक्षित के कंठ से स्पर्श होते ही वह नन्हा सा कीट भयंकर सर्प में परिवर्तित हो गया और उसके दंश के साथ परीक्षित का शरीर मृत्यु को प्राप्त हो गया। इस समय परीक्षित की अवस्था ९६ वर्ष की थी। परीक्षित की मृत्यु पश्चात कलियुग का निषेध करनेवाला कोई न रहा और वह उसी दिवस से निष्कंटक शासन करने लगा। पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिये ही जनमेजय ने सर्पसत्र/सर्पयज्ञ का आयोजन किया था, जिसमें समस्त ब्रह्माण्ड के सर्प (नाग) मंत्रबल से आकर्षित हो यज्ञ की अग्नि में आहूत हुए।

अन्य परीक्षित[संपादित करें]

इनके अतिरिक्त 'परीक्षित' नाम के चार अन्य राजा और हुए हैं जिनमें तीन कुरुवंशीय थे और एक इक्ष्वाकुवंशीय। पहले तीनों में प्रथम वैदिककालीन राजा थे। इनके राज्य की समृद्धि और शांति का उल्लेख अथर्ववेद (२०. १२७, ७-१०) में हुआ है। इनकी प्रशस्ति में आए मंत्र 'पारिक्षित्य मंत्र', के रूप में प्रसिद्ध हैं (ऐतरेय ब्राह्मण. ६, ३२, १०)। दूसरे राजा, अरुग्वत् तथा मागधी अमृता के पुत्र और शंतनु के प्रपितामह थे (महाभारत, आदिपर्व, ९०, ४३-४८)। तीसरे कुरु अविक्षित और वहिन के ज्येष्ठ पुत्र थे (महाभारत आदिपर्व, ८९/४५-४६)। चौथे परिक्षित् अयोध्या के इक्ष्वाकुवंशीय नरेश थे जिनका विवाह मंडूकराज आयु की कन्या सुशोभना से इस शर्त पर हुआ कि वह जल नहीं देखेगी और दिखाई पड़ जाने पर उसे छोड़कर चली जाएगी। किंतु वह शर्त निभ न सकी और वह एक दिन सरोवर का जल देखते ही लुप्त हो गई। राजा बहुत क्रुद्ध हुए और उन्होंने मंडूकवध का सत्र आरंभ कर दिया। अंत में मंडूकराज आयु से उसे पुन: प्राप्त करने पर वे सत्र से विरत हुए (महाभारत वनपर्व, १९०)।