जनमेजय
जनमेजय | |
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कुरु राजा | |
पूर्ववर्ती | परीक्षित |
उत्तरवर्ती | अश्वमेधादत्त |
जीवनसंगी | वपुष्टम[1] |
संतान | कटनिका, संकुकर्ण |
पिता | परीक्षित |
माता | मद्रावती |
जनमेजय महाभारत के अनुसार कुरुवंश के राजा थे। महाभारत युद्ध में अर्जुनपुत्र अभिमन्यु जिस समय वीरगति को प्राप्त हुए, उसकी पत्नी उत्तरा गर्भवती थी। उसके गर्भ से राजा परीक्षित का जन्म हुआ जो महाभारत युद्ध के बाद हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठे। जनमेजय इसी परीक्षित तथा मद्रावती के पुत्र थे। महाभारत के अनुसार (१.९५.८५) मद्रावती उनकी जननी थीं, किन्तु भगवत् पुराण के अनुसार (१.१६.२), उनकी माता ईरावती थीं, जो कि उत्तर की पुत्री थीं।[2]
ऐतिहासिकता
[संपादित करें]एच.सी. रायचौधरी ने अपने पिता परीक्षित को नौवीं शताब्दी ईसा पूर्व में बताया था। माइकल विटजेल ने 12 वीं -11 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में कुरु साम्राज्य के पौरिकिता राजवंश को जन्म दिया था।
महाभारत के संदर्भ में
[संपादित करें]महाभारत में जनमेजय के छः और भाई बताये गये हैं। यह भाई हैं कक्षसेन, उग्रसेन, चित्रसेन, इन्द्रसेन, सुषेण तथा नख्यसेन।[3] महाकाव्य के आरम्भ के पर्वों में जनमेजय की तक्षशिला तथा सर्पराज तक्षक के ऊपर विजय के प्रसंग हैं। सम्राट जनमेजय अपने पिता परीक्षित की मृत्यु के पश्चात् हस्तिनापुर की राजगद्दी पर विराजमान हुये। पौराणिक कथा के अनुसार परीक्षित पाण्डु के एकमात्र वंशज थे। उनको श्रंगी ऋषि ने शाप दिया था कि वह सर्पदंश से मृत्यु को प्राप्त होंगे। ऐसा ही हुआ और सर्पराज तक्षक के ही कारण यह सम्भव हुआ। जनमेजय इस प्रकरण से बहुत आहत हुये। उन्होंने सारे सर्पवंश का समूल नाश करने का निश्चय किया। इसी उद्देश्य से उन्होंने सर्प सत्र या सर्प यज्ञ के आयोजन का निश्चय किया। यह यज्ञ इतना भयंकर था कि विश्व के सारे सर्पों का महाविनाश होने लगा। उस समय एक बाल ऋषि अस्तिक उस यज्ञ परिसर में आये। उनकी माता भगवान शिव की पुत्री मानसा एक नाग थीं तथा उनके पिता एक ब्राह्मण थे।
इस संदर्भ में यह बताना उचित होगा कि हिन्दु ग्रंथों पुराण, रामायण, महाभारते,पुराणो के वर्णित आख्यानो में यह स्पृष्ट लिखा है की प्रजापति दक्ष की कई पुत्रीयों का विवाह सप्त ऋषियो से हुआ था उन्ही में से एक प्रजापति ऋषि कश्यप थे कुछ ग्रंथों में उनकी 13 पत्निया कुछ में 16 और कुछ में 8 ।कथा अनुसार कश्यप ऋषि की प्रत्येक पत्नी से अलग अलग संतान हुई (अदिति से आदित्य{देवता} दिति से दैत्य विनीता से गरूण पक्षी कद्रू से नाग दानू से दानव मनु से मनुष्य{ब्रह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र} बाकि अन्य पत्नियों से अन्य सभी जीव जन्मे थे। इस यज्ञ में महाराज जनमेजय द्वारा अपने पिता की मृत्यु का दुःख और नागो से प्रतिशोध की भावना थी फिर भी आस्तिक मुनि के कहने से राजा अपना रोष छोडकर यज्ञ रोक देते है बाकि के सर्प बच जाते है जो आजतक जीवित है।
विशेष:-इस कथा में और दुसरे राक्षसो की जो कहानीयां है उनको विधर्मी वामपंथी "आर्य द्रविड़" ब्राह्मण शूद्र" क्षत्रिय शूद्र" तथा आर्य और दूसरी तथाकथित जाति बनाकर हिन्दू धर्म को शोषण करने वाला बताना चाहते है क्योंकि वो जिस विचार का समर्थन करते हैं वहां शोषण ही होता है । इसलिए ही ये राक्षसों को , दैत्यों को जबरदस्ती दलित शूद्र अनार्य द्रविड़ आदिवासी नाग यानि आर्य से अलग बताएंगे और आर्यों , हिन्दूऔ और द्विजों को राक्षसों दानवो आदि का शत्रु बताएंगे ताकि उनका अपने निकृष्ट पंथ में मतांतर कर सके।
तब वेद व्यास के सबसे प्रिय शिष्य वैशम्पायन वहाँ पधारे। जनमेजय ने उनसे अपने पूर्वजों के बारे में जानकारी लेनी चाही। तब ऋषि वैशम्पायन ने जनमेजय को भरत से लेकर कुरुक्षेत्र युद्ध तक कुरु वंश का सारा वृत्तांत सुनाया। और इसे उग्रश्रव सौती ने भी सुना और नैमिषारण्य में जाकर सारे ऋषि समूह, जिनके प्रमुख शौनक ऋषि थे, को सुनाया।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ https://web.archive.org/web/20100116130453/http://www.sacred-texts.com/hin/m01/m01096.htm
- ↑ Raychaudhuri, H.C. (1972). Political History of Ancient India: From the Accession of Parikshit to the Extinction of the Gupta Dynasty. University of Calcutta. पाठ " pp.15,35n" की उपेक्षा की गयी (मदद)
- ↑ University of Calcutta (Dept. of Letters), संपा॰ (1923). "Journal of the Department of Letters". पाठ " p2" की उपेक्षा की गयी (मदद); नामालूम प्राचल
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