आदि शंकराचार्य
शिवावतार भगवान श्रीमद् आदि शंकराचार्य | |
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शिष्यों के मध्य में जगदगुरु आदि शंकराचार्य, राजा रवि वर्मा द्वारा (1904) में चित्रित | |
जन्म |
योगी शंकरनाथ लगभग 700 ई॰[note 1] लगभग 750 ई॰[note 1] |
मृत्यु |
केदारनाथ, पाल साम्राज्य वर्तमान में उत्तराखण्ड, भारत |
गुरु/शिक्षक | योगी गोविन्द नाथ |
खिताब/सम्मान | शिवावतार, शंकराचार्य योगी, आदिगुरु, श्रीमज्जगदगुरु, धर्मचक्रप्रवर्तक, यतिचक्र चुरामणि, धर्मसम्राट, भगवान |
कथन | अहं ब्रह्मास्मि, प्रज्ञानं ब्रह्म, तत्त्वमसि, ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या |
धर्म | हिन्दू |
दर्शन | अद्वैत वेदान्त, नाथ संप्रदाय का साहित्य |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
आदि शंकर (संस्कृत: आदिशङ्कराचार्यः) भारत के एक महान दार्शनिक एवं धर्मप्रवर्तक और योगी थे। उन्होने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया। भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर लिखी हुई इनकी टीकाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। उन्होंने सांख्य दर्शन का प्रधानकारणवाद और मीमांसा दर्शन के ज्ञान-कर्मसमुच्चयवाद का खण्डन किया। उन्होंने नाथ संप्रदाय के अंदर ही उप संप्रदाय दसनामी संप्रदाय शुरू किया।
योगी शंकराचार्य जी का जन्म सन ५०८ - ५०९ ई.पू. में हुआ था।[1][2][3][4][5][6][7][8][9][10][11] इन्होंने भारतवर्ष में चार कोनों में चार मठों की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिन पर आसीन संन्यासी 'शंकराचार्य' कहे जाते हैं। वे चारों स्थान ये हैं- (१) ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, (२) श्रृंगेरी पीठ, (३) द्वारिका शारदा पीठ और (४) पुरी गोवर्धन पीठ। इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दीक्षित किया था। ये शंकर के अवतार माने जाते हैं। इन्होंने ब्रह्मसूत्रों की बड़ी ही विशद और रोचक व्याख्या की है।[12]
उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारतवर्ष में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित किया।
कलियुग के प्रथम चरण में विलुप्त तथा विकृत वैदिक ज्ञानविज्ञान को उद्भासित और विशुद्ध कर वैदिक वाङ्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर समृद्ध करने वाले एवं राजर्षि सुधन्वा को सार्वभौम सम्राट ख्यापित करने वाले चतुराम्नाय-चतुष्पीठ संस्थापक नित्य तथा नैमित्तिक युग्मावतार श्रीशिवस्वरुप भगवत्पाद शंकराचार्य की अमोघदृष्टि तथा अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है।
सतयुग की अपेक्षा त्रेता में, त्रेता की अपेक्षा द्वापर में तथा द्वापर की अपेक्षा कलि में मनुष्यों की प्रज्ञाशक्ति तथा प्राणशक्ति एवं धर्म औेर आध्यात्म का ह्रास सुनिश्चित है। यही कारण है कि कृतयुग में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किया। त्रेता मे गुरु दत्तात्रेय जिनको ब्रह्मा, विष्णु औऱ महेश भगवान द्वारा ज्ञान प्रदान किया गया था, उन्होने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायणावतार भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा पुराणादि की एवं ब्रह्मसूत्रों की संरचनाकर एवं शुक लोमहर्षणादि कथाव्यासों को प्रशिक्षितकर धर्म तथा आध्यात्म को उज्जीवित रखा। कलियुग में भगवत्पाद श्रीमद् शंकराचार्य ने भाष्य , प्रकरण तथा स्तोत्रग्रन्थों की संरचना कर , विधर्मियों-पन्थायियों एवं मीमांसकादि से शास्त्रार्थ , परकायप्रवेशकर , नारदकुण्ड से अर्चाविग्रह श्री बदरीनाथ एवं भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्रीजगन्नाथ दारुब्रह्म को प्रकटकर तथा प्रस्थापित कर , सुधन्वा सार्वभौम को राजसिंहासन समर्पित कर एवं चतुराम्नाय - चतुष्पीठों की स्थापना कर अहर्निश अथक परिश्रम के द्वारा धर्म और आध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया।
व्यासपीठ के पोषक राजपीठ के परिपालक धर्माचार्यों को श्रीभगवत्पाद ने नीतिशास्त्र , कुलाचार तथा श्रौत-स्मार्त कर्म , उपासना तथा ज्ञानकाण्ड के यथायोग्य प्रचार-प्रसार की भावना से अपने अधिकार क्षेत्र में परिभ्रमण का उपदेश दिया। उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना के लिये व्यासपीठ तथा राजपीठ में सद्भावपूर्ण सम्वाद के माध्यम से सामंजस्य बनाये रखने की प्रेरणा प्रदान की। ब्रह्मतेज तथा क्षात्रबल के साहचर्य से सर्वसुमंगल कालयोग की सिद्धि को सुनिश्चित मानकर कालगर्भित तथा कालातीतदर्शी आचार्य शंकर ने व्यासपीठ तथा राजपीठ का शोधनकर दोनों में सैद्धान्तिक सामंजस्य साधा।
दसनामी गुसांई गोस्वामी (नाथ संप्रदाय का उप संप्रदाय ) जिसमें सरस्वती,गिरि, पुरी, बन,योगी, पर्वत, अरण्य, सागर, नाथ, तीर्थ, आश्रम और भारती उपनाम वाले गुसांई, योगी ,गोसाई, गोस्वामी) इनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माने जाते हैं और उनके प्रमुख सामाजिक संगठन का नाम "अंतरराष्ट्रीय जगतगुरु दसनाम गुसांई नाथ गोस्वामी एकता अखाड़ा परिषद" है। शंकराचार्य ने पूरे भारत में मंदिरों और शक्तिपीठों की पुनः स्थापना की। नील पर्वत पर स्थित चंडी देवी मंदिर इन्हीं द्वारा स्थापित किया माना जाता है। शिवालिक पर्वत शृंखला की पहाड़ियों के मध्य स्थित माता शाकंभरी देवी शक्तिपीठ में जाकर इन्होंने पूजा अर्चना की और शाकंभरी देवी के साथ तीन देवियां भीमा, भ्रामरी और शताक्षी देवी की प्रतिमाओं को स्थापित किया। कामाक्षी देवी मंदिर भी इन्हीं द्वारा स्थापित है जिससे उस युग में धर्म का बढ़-चढ़कर प्रसार हुआ था।
जीवनचरित
[संपादित करें]शंकर आचार्य का जन्म 507 ई.स.पू. में केरल में कालड़ी अथवा 'काषल' नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम शिवगुरु भट्ट माता का नाम अयंबा था। बहुत दिन तक सपत्नीक शिव को आराधना करने के अनंतर शिवगुरु ने पुत्र-रत्न पाया था, अत: उसका नाम शंकर रखा। जब ये तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था। इनके संन्यास ग्रहण करने के समय की कथा बड़ी विचित्र है। कहते हैं, माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। तब एक दिन नदीकिनारे एक मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर पकड़ लिया तब इस वक्त का फायदा उठाते शंकराचार्यजी ने अपने माँ से कहा " माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो नहीं तो हे मगरमच्छ मुझे खा जायेगी ", इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा प्रदान की ; और आश्चर्य की बात है कि, जैसे ही माता ने आज्ञा दी वैसे तुरन्त मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर छोड़ दिया। और इन्होंने गोविन्द नाथ से संन्यास ग्रहण किया।[13]
पहले ये कुछ दिनों तक काशी में रहे, और तब इन्होंने विजिलबिंदु के तालवन में मण्डन मिश्र को सपत्नीक शास्त्रार्थ में परास्त किया। इन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया तथा वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया।
३२ वर्ष की अल्प आयु में सम्वत 475 ई.पू. में केदारनाथ के समीप शिवलोक गमन कर गए थे।
काल
[संपादित करें]भारतीय संस्कृति के विकास एवं संरक्षण में आद्य शंकराचार्य का विशेष योगदान रहा है। आचार्य शंकर का जन्म पश्चिम सुधन्वा चौहान, जो कि शंकर के समकालीन थे, के ताम्रपत्र में शंकर का जन्म युधिष्ठिराब्द २६३१ शक् (५०७ ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द २६६३ शक् (४७५ ई०पू०) सर्वमान्य है। इसके प्रमाण सभी शांकर मठों में मिलते हैं।
आदिशंकराचार्य जी ने जो चार पीठ स्थापित किये, उनके काल निर्धारण में उत्थापित की गई भ्रांतियाँ--
1. उत्तर दिशा में बदरिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ : स्थापना-युधिष्ठिर संवत् 2641-2645
2. पश्चिम में द्वारिका शारदापीठ- यु.सं. 2648
3.दक्षिण शृंगेरीपीठ- यु.सं. 2648
4. पूर्व दिशा जगन्नाथपुरी गोवर्द्धनपीठ - यु.सं. 2655
आदिशंकर जी अंतिम दिनों में कांची कामकोटि पीठ 2658 यु.सं. में निवास कर रहे थे।
शारदा पीठमें लिखा है -
- "युधिष्ठिर शके 2631 वैशाखशुक्लापंचम्यां श्रीमच्ठछंकरावतार:।
- ……तदनु 2663 कार्तिकशुक्लपूर्णिमायां ……श्रीमच्छंकरभगवत्पूज्यपादा…… निजदेहेनैव…… निजधाम प्राविशन्निति।
अर्थात् युधिष्ठिर संवत् 2631 में वैशाखमासके शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को श्रीशंकराचार्य का जन्म हुआ और युधि. सं.2663 कार्तिकशुक्ल पूर्णिमा को देहत्याग हुआ। [युधिष्ठिर संवत् 3139 B.C. में प्रवर्तित हुआ था]
राजा सुधन्वा के ताम्रपत्र का लेख द्वारिकापीठके एक आचार्य ने "विमर्श" नामक ग्रन्थ में प्रकाशित किया है-
- 'निखिलयोगिचक्रवर्त्ती श्रीमच्छंकरभगवत्पादपद्मयोर्भ्र
- मरायमाणसुधन्वनो मम सोमवंशचूडामणियुधिष्ठिरपारम्पर्
- यपरिप्राप्तभारतवर्षस्यांजलिबद्धपूर्वकेयं राजन्यस्य विज्ञप्ति:………युधिष्ठिरशके 2663 आश्विन शुक्ल 15।
एक अन्य ताम्रपत्र संस्कृतचंद्रिका (कोल्हापुर) के खण्ड 14, संख्या 2-3 में प्रकाशित हुआ था। उसके अनुसार गुजरात के राजा सर्वजित् वर्मा ने द्वारिकाशारदापीठ के प्रथम आचार्य श्री सुरेश्वराचार्य (पूर्व नाम-मंडनमिश्र) से लेकर 29वें आचार्य श्री नृसिंहाश्रम तक सभी आचार्यों के विवरण हैं। इसमें प्रथम आचार्य का समय 2649 युधि. सं. दिया है।
सर्वज्ञसदाशिवकृत "पुण्यश्लोकमंजरी" आत्मबोध द्वारा रचित "गुरुरत्नमालिका" तथा उसकी टीका "सुषमा"में कुछ श्लोक हैं। उनमें एक श्लोक इस प्रकार है-
- तिष्ये प्रयात्यनलशेवधिबाणनेत्रे, ये नन्दने दिनमणावुदगध्वभाजि ।
- रात्रोदितेरुडुविनिर्गतमंगलग्नेत्याहूतवान् शिवगुरु: स च शंकरेति ॥
अर्थ- अनल=3 , शेवधि=निधि=9, बाण=5,नेत्र=2 , अर्थात् 3952 | 'अंकानां वामतोगति:' इस नियमसे अंक विपरीत क्रम से रखने पर 2593 कलिसंवत् बना| [कलिसंवत् 3102 B.C. में प्रारम्भ हुआ ] तदनुसार 3102-2593=509 BC में आदि शंकराचार्य जी का जन्म वर्ष निश्चित होता है।
कुमारिल भट्ट जो कि शंकराचार्य के समकालीन थे , जैनग्रंथ जिनविजय में लिखा है -
- ऋषिर्वारस्तथा पूर्ण मर्त्याक्षौ वाममेलनात्।
- एकीकृत्य लभेतांक:क्रोधीस्यात्तत्र वत्सर:। ।
- भट्टाचार्यस्य कुमारस्य कर्मकाण्डैकवादिन:।
- ज्ञेय: प्रादुर्भवस्तस्मिन् वर्षे यौधिष्ठिरे शके।।
जैन लोग युधिष्ठिरसंवत् को 468 कलिसंवत् से प्रारम्भ हुआ मानते हैं।
श्लोकार्थ- ऋषि=7,वार=7,पूर्ण=0, मर्त्याक्षौ=2, 7702 "अंकानांवामतोगति" 2077 युधिष्ठिर संवत् आया अर्थात् 557 B.C. कुमारिल 48 वर्ष बड़े थे => 509 B.C. श्रीशंकराचार्य जी का जन्मवर्ष सिद्ध होता है।
"जिनविजय" में शंकराचार्यजीके देहावसान के विषयमें लिखा है --
- ऋषिर्बाणस्तथा भूमिर्मर्त्याक्षौ वांममेलनात्।
- एकत्वेन लभेतांकस्ताम्राक्षस्तत्र वत्सर: ॥
2157 यु. सं. (जैन) 476 B.C. में आचार्य शंकर ब्रह्मलीन हुए !
बृहत्शंकरविजय में चित्सुखाचार्य (शंकराचार्य जी के सह अध्यायी) ने लिखा है--
- षड्विंशकेशतके श्रीमद् युधिष्ठिरशकस्य वै।
- एकत्रिंशेऽथ वर्षेतु हायने नन्दने शुभे॥
- ………………………………|
- प्रासूत तन्वंसाध्वी गिरिजेव षडाननम्॥
यहाँ युधिष्ठिर शक 2631 में अर्थात् 508 ई. पू. में आचार्य का जन्म संवत् बताया गया है।
वर्तमान इतिहासकार जिन शंकराचार्य को 788 - 820 ई. का बताते हैं वे वस्तुत: कामकोटि पीठके 38वें आचार्य श्री अभिनवशंकर जी थे। वे 787 से 840 ईसवीसन् तक विद्यमान थे। वे चिदम्बरम वासी श्रीविश्वजी के पुत्र थे। इन्होंने कश्मीर के वाक्पतिभट्ट को शास्त्रार्थ में पराजित किया और 30 वर्ष तक मठ के आचार्य पद पर रहे।
प्रमुख कार्य
[संपादित करें]शंकर दिग्विजय, शंकरविजयविलास, शंकरजय आदि ग्रन्थों में उनके जीवन से सम्बन्धित तथ्य उद्घाटित होते हैं। दक्षिण भारत के केरल राज्य (तत्कालीन मालाबारप्रांत) में आद्य शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। उनके पिता शिव गुरु तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी भट्ट ब्राह्मण थे। भारतीय प्राच्य परम्परा में आद्यशंकराचार्य को शिव का अवतार स्वीकार किया जाता है। कुछ उनके जीवन के चमत्कारिक तथ्य सामने आते हैं, जिससे प्रतीत होता है कि वास्तव में आद्य शंकराचार्य शिव के अवतार थे। आठ वर्ष की अवस्था में श्री गोविन्द नाथ के शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो जाना, पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा में जाकर मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना - इत्यादि कार्य इनके महत्त्व को और बढ़ा देता है। दशनाम गोस्वामी समाज (सरस्वती, गिरि, पुरी, बन, भारती, तीर्थ, सागर, अरण्य, पर्वत और आश्रम ) की सस्थापना कर, हिंदू धर्मगुरू के रूप में हिंदुओं के प्रचार प्रसार व रक्षा का कार्य सौपा और उन्हें अपना आध्यात्मिक उत्तराधिकारी भी बताया।
मठ
[संपादित करें]चार धार्मिक मठों में दक्षिण के शृंगेरी शंकराचार्यपीठ, पूर्व (ओडिशा) जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा बद्रिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ भारत की एकात्मकता को आज भी दिग्दर्शित कर रहा है। कुछ लोग शृंगेरी को शारदापीठ तथा गुजरात के द्वारिका में मठ को काली मठ कहते हैं। उक्त सभी कार्य को सम्पादित कर 32वर्ष की आयु में ब्रह्मलीन हुए।
शास्त्रीय प्रमाण
[संपादित करें]- सर्गे प्राथमिके प्रयाति विरतिं मार्गे स्थिते दौर्गते
- स्वर्गे दुर्गमतामुपेयुषि भृशं दुर्गेऽपवर्गे सति।
- वर्गे देहभृतां निसर्ग मलिने जातोपसर्गेऽखिले
- सर्गे विश्वसृजस्तदीयवपुषा भर्गोऽवतीर्णो भुवि। ।
अर्थ:- " सनातन संस्कृति के पुरोधा सनकादि महर्षियों का प्राथमिक सर्ग जब उपरति को प्राप्त हो गया , अभ्युदय तथा नि:श्रेयसप्रद वैदिक सन्मार्ग की दुर्गति होने लगी , फलस्वरुप स्वर्ग दुर्गम होने लगा ,अपवर्ग अगम हो गया , तब इस भूतल पर भगवान भर्ग ( शिव ) शंकर रूप से अवतीर्ण हुऐ। "
भगवान शिव द्वारा द्वारा कलियुग के प्रथम चरण में अपने चार शिष्यों के साथ जगदगुरु आचार्य शंकर के रूप में अवतार लेने का वर्णन पुराणशास्त्र में भी वर्णित हैं जो इस प्रकार हैं :-
- कल्यब्दे द्विसहस्त्रान्ते लोकानुग्रहकाम्यया।
- चतुर्भि: सह शिष्यैस्तु शंकरोऽवतरिष्यति। । ( भविष्योत्तर पुराण ३६ )
अर्थ :- " कलि के दो सहस्त्र वर्ष व्यतीत होने के पश्चात लोक अनुग्रह की कामना से श्री सर्वेश्वर शिव अपने चार शिष्यों के साथ अवतार धारण कर अवतरित होते हैं। "
- निन्दन्ति वेदविद्यांच द्विजा: कर्माणि वै कलौ।
- कलौ देवो महादेव: शंकरो नीललोहित:। ।
- प्रकाशते प्रतिष्ठार्थं धर्मस्य विकृताकृति:।
- ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनापि शंकरम्। ।
- कलिदोषान्विनिर्जित्य प्रयान्ति परमं पदम्। (लिंगपुराण ४०. २०-२१.१/२)
अर्थ:- " कलि में ब्राह्मण वेदविद्या और वैदिक कर्मों की जब निन्दा करने लगते हैं ; रुद्र संज्ञक विकटरुप नीललोहित महादेव धर्म की प्रतिष्ठा के लिये अवतीर्ण होते हैं। जो ब्राह्मणादि जिस किसी उपाय से उनका आस्था सहित अनुसरण सेवन करते हैं ; वे परमगति को प्राप्त होते हैं। "
- कलौ रुद्रो महादेवो लोकानामीश्वर: पर:।
- न देवता भवेन्नृणां देवतानांच दैवतम्। ।
- करिष्यत्यवताराणि शंकरो नीललोहित:।
- श्रौतस्मार्त्तप्रतिष्ठार्थं भक्तानां हितकाम्यया। ।
- उपदेक्ष्यति तज्ज्ञानं शिष्याणां ब्रह्मासंज्ञितम।
- सर्ववेदान्तसार हि धर्मान वेदनदिर्शितान। ।
- ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनोपचारत:।
- विजित्य कलिजान दोषान यान्ति ते परमं पदम। । ( कूर्मपुराण १.२८.३२-३४)
अर्थ:- " कलि में देवों के देव महादेव लोकों के परमेश्वर रुद्र शिव मनुष्यों के उद्धार के लिये उन भक्तों की हित की कामना से श्रौत-स्मार्त -प्रतिपादित धर्म की प्रतिष्ठा के लिये विविध अवतारों को ग्रहण करेंगें। वे शिष्यों को वेदप्रतिपादित सर्ववेदान्तसार ब्रह्मज्ञानरुप मोक्ष धर्मों का उपदेश करेंगें। जो ब्राह्मण जिस किसी भी प्रकार उनका सेवन करते हैं ; वे कलिप्रभव दोषों को जीतकर परमपद को प्राप्त करते हैं। "
- व्याकुर्वन् व्याससूत्रार्थं श्रुतेरर्थं यथोचिवान्।
- श्रुतेर्न्याय: स एवार्थ: शंकर: सवितानन:। । ( शिवपुराण-रुद्रखण्ड ७.१)
अर्थ:- "सूर्यसदृश प्रतापी श्री शिवावतार आचार्य शंकर श्री बादरायण - वेदव्यासविरचित ब्रह्मसूत्रों पर श्रुतिसम्मत युक्तियुक्त भाष्य संरचना करते हैं। "
महत्त्व
[संपादित करें]शंकराचार्य के विषय में कहा गया है-
- अष्टवर्षेचतुर्वेदी, द्वादशेसर्वशास्त्रवित् षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात्
अर्थात् आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्यतथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग दिया। ब्रह्मसूत्र के ऊपर शांकरभाष्यकी रचना कर विश्व को एक सूत्र में बांधने का प्रयास भी शंकराचार्य के द्वारा किया गया है, जो कि सामान्य मानव से सम्भव नहीं है। शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन, कर सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है। जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से युक्त है। तत्त्वमसि तुम ही ब्रह्म हो; अहं ब्रह्मास्मि मैं ही ब्रह्म हूं; 'अयामात्मा ब्रह्म' यह आत्मा ही ब्रह्म है; इन बृहदारण्यकोपनिषद् तथा छान्दोग्योपनिषद वाक्यों के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्न शंकराचार्य जी ने किया है। ब्रह्म को जगत् के उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का निमित्त कारण बताए हैं। ब्रह्म सत् (त्रिकालाबाधित) नित्य, चैतन्यस्वरूप तथा आनंद स्वरूप है। ऐसा उन्होंने स्वीकार किया है। जीवात्मा को भी सत् स्वरूप, चैतन्य स्वरूप तथा आनंद स्वरूप स्वीकार किया है। जगत् के स्वरूप को बताते हुए कहते हैं कि -
- नामरूपाभ्यां व्याकृतस्य अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियत देशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसापि अचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभंगंयत:।
अर्थात् नाम एवं रूप से व्याकृत, अनेक कर्ता, अनेक भोक्ता से संयुक्त, जिसमें देश, काल, निमित्त और क्रियाफल भी नियत हैं। जिस जगत् की सृष्टि को मन से भी कल्पना नहीं कर सकते, उस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय जिससे होता है, उसको ब्रह्म कहते हैं। सम्पूर्ण जगत् के जीवों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करना, तथा तर्क आदि के द्वारा उसके सिद्ध कर देना, आदि शंकराचार्य की विशेषता रही है। इस प्रकार शंकराचार्य के व्यक्तित्व तथा कृतित्वके मूल्यांकन से हम कह सकते हैं कि राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का कार्य शंकराचार्य जी ने सर्वतोभावेनकिया था। भारतीय संस्कृति के विस्तार में भी इनका अमूल्य योगदान रहा है।
शास्त्रार्थ
[संपादित करें]आदि शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म सहित अपने समय के विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं से धार्मिक वाद-विवाद किया और शास्त्रार्थ में कुछ उल्लेखनीय लोगों को सार्वजनिक रूप से हराया।[14] वे केरल से लंबी पदयात्रा करके नर्मदा नदी के तट पर स्थित ओंकारनाथ पहुँचे। वहाँ गुरु गोविंदपाद से योग शिक्षा तथा अद्वैत ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने लगे। तीन वर्ष तक आचार्य शंकर अद्वैत तत्त्व की साधना करते रहे। तत्पश्चात गुरु आज्ञा से वे काशी विश्वनाथ जी के दर्शन के लिए निकल पड़े। जब वे काशी जा रहे थे कि एक चांडाल उनकी राह में आ गया। उन्होंने क्रोधित हो चांडाल को वहाँ से हट जाने के लिए कहा तो चांडाल बोला- ‘हे मुनि! आप शरीरों में रहने वाले एक परमात्मा की उपेक्षा कर रहे हैं, इसलिए आप अब्राह्मण हैं। अतएव मेरे मार्ग से आप हट जायें।’ चांडाल की देववाणी सुन आचार्य शंकर ने अति प्रभावित होकर कहा-‘आपने मुझे ज्ञान दिया है, अत: आप मेरे गुरु हुए।’ यह कहकर आचार्य शंकर ने उन्हें प्रणाम किया तो चांडाल के स्थान पर शिव तथा चार देवों के उन्हें दर्शन हुए। काशी में कुछ दिन रहने के दौरान वे माहिष्मति नगरी (बिहार का महिषी) में आचार्य मंडन मिश्र से मिलने गए। आचार्य मिश्र के घर जो पालतू मैना थी वह भी वेद मंत्रों का उच्चारण करती थी। मिश्र जी के घर जाकर आचार्य शंकर ने उन्हें शास्त्रार्थ में हरा दिया। पति आचार्य मिश्र को हारता देख पत्नी आचार्य शंकर से बोलीं- ‘महात्मन! अभी आपने आधे ही अंग को जीता है। अपनी युक्तियों से मुझे पराजित करके ही आप विजयी कहला सकेंगे।’
तब मिश्र जी की पत्नी भारती ने कामशास्त्र पर प्रश्न करने प्रारम्भ किए। किंतु आचार्य शंकर तो बाल-ब्रह्मचारी थे, अत: काम से संबंधित उनके प्रश्नों के उत्तर कहाँ से देते? इस पर उन्होंने भारती देवी से कुछ दिनों का समय माँगा तथा पर-काया में प्रवेश कर उस विषय की सारी जानकारी प्राप्त की। इसके बाद आचार्य शंकर ने भारती को भी शास्त्रार्थ में हरा दिया। काशी में प्रवास के दौरान उन्होंने और भी बड़े-बड़े ज्ञानी पंडितों को शास्त्रार्थ में परास्त किया और गुरु पद पर प्रतिष्ठित हुए। अनेक शिष्यों ने उनसे दीक्षा ग्रहण की। इसके बाद वे धर्म का प्रचार करने लगे। वेदांत प्रचार में संलग्न रहकर उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना भी की। अद्वैत ब्रह्मवादी आचार्य शंकर केवल निर्विशेष ब्रह्म को सत्य मानते थे और ब्रह्मज्ञान में ही निमग्न रहते थे। एक बार वे ब्रह्म मुहूर्त में अपने शिष्यों के साथ एक अति सँकरी गली से स्नान हेतु मणिकर्णिका घाट जा रहे थे। रास्ते में एक युवती अपने मृत पति का सिर गोद में लिए विलाप करती हुई बैठी थी। आचार्य शंकर के शिष्यों ने उस स्त्री से अपने पति के शव को हटाकर रास्ता देने की प्रार्थना की, लेकिन वह स्त्री उसे अनसुना कर रुदन करती रही। तब स्वयं आचार्य ने उससे वह शव हटाने का अनुरोध किया। उनका आग्रह सुनकर वह स्त्री कहने लगी- ‘हे संन्यासी! आप मुझसे बार-बार यह शव हटाने के लिए कह रहे हैं। आप इस शव को ही हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते?’ यह सुनकर आचार्य बोले- ‘हे देवी! आप शोक में कदाचित यह भी भूल गई कि शव में स्वयं हटने की शक्ति ही नहीं है।’ स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- ‘महात्मन् आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है। फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता?’ उस स्त्री का ऐसा गंभीर, ज्ञानमय, रहस्यपूर्ण वाक्य सुनकर आचार्य वहीं बैठ गए। उन्हें समाधि लग गई। अंत:चक्षु में उन्होंने देखा- सर्वत्र आद्याशक्ति महामाया लीला विलाप कर रही हैं। उनका हृदय अनिवर्चनीय आनंद से भर गया और मुख से मातृ वंदना की शब्दमयी धारा स्तोत्र बनकर फूट पड़ी।
अब आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए, जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टा द्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार की भक्ति की धाराएँ एक साथ हिलोरें लेने लगीं। उन्होंने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन भूमि पर यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है। उन्होंने ‘ब्रह्मं सत्यं जगन्मिथ्या’ का उद्घोष भी किया और शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि के भक्तिरसपूर्ण स्तोत्र भी रचे, ‘सौन्दर्य लहरी’, ‘विवेक चूड़ामणि’ जैसे श्रेष्ठतम ग्रंथों की रचना की। प्रस्थान त्रयी के भष्य भी लिखे। अपने अकाट्य तर्कों से शैव-शाक्त-वैष्णवों का द्वंद्व समाप्त किया और पंचदेवोपासना का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने आसेतु हिमालय संपूर्ण भरत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना करके पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भौगोलिक एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया। उन्होंने समस्त मानव जाति को जीवन्मुक्ति का एक सूत्र दिया-
- दुर्जन: सज्जनो भूयात सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।
- शान्तो मुच्येत बंधेम्यो मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥
अर्थात् दुर्जन सज्जन बनें, सज्जन शांति बनें। शांतजन बंधनों से मुक्त हों और मुक्त अन्य जनों को मुक्त करें। अपना प्रयोजन पूरा होने बाद तैंतीस वर्ष की अल्पायु में उन्होंने इस नश्वर देह को छोड़ दिया।
दर्शन और विचार
[संपादित करें]संक्षेप में अद्वैत
[संपादित करें]शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे। उन्हें सनातन धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। एक तरफ उन्होने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ उन्होने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया।
आदि शकराचार्य जी महाराज की 108 फूट की मूर्ति ओम्कारेश्वर जिला खंडवा मध्यप्रदेश में स्थापित की जा रही है
कई यूरोपीय विद्वानों का हवाला देते हुए, Lucian Blaga समझता है कि आदि शंकराचार्य 'सभी समय का सबसे बड़े तत्वमीमांसा का विद्वान है'।[15] आदि शंकराचार्य ने कहा कि ज्ञान के दो प्रकार के होते हैं। एक पराविद्या कहा जाता है और अन्य में अपराविद्या कहा जाता है। पहला सगुण ब्रह्म (ईश्वर) होता है लेकिन दूसरा निर्गुण ब्रह्म होता है।[16]
- शंकर के अद्वैत का दर्शन का सार-
- ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं। हमे जो भी अंतर नज़र आता है उसका कारण अज्ञान है।
- जीव की मुक्ति के लिये ज्ञान आवश्यक है।
- जीव की मुक्ति ब्रह्म में लीन हो जाने में है।
बौद्ध धर्म का पतन
[संपादित करें]उन्होंने अपने समय में अस्तित्वहीन रीति-रिवाजों, ईश्वरविहीन बौद्ध धर्म और कई अन्य परंपराओं के प्रतिकारक रूप का विरोध किया। अद्वैत परंपरा के अनुयायियों का दावा है कि वह "बौद्धों को दूर भगाने" के लिए भी जिम्मेदार थे। ऐतिहासिक रूप से भारत में बौद्ध धर्म का पतन शंकर या यहां तक कि कुमारिल भट्ट (जिन्होंने एक परंपरा के अनुसार "बौद्धों को वाद-विवाद में हराकर" उनका रंग फीका किया था) के बाद लंबे समय तक जाना जाता है, अफगानिस्तान में मुस्लिम आक्रमण से कुछ समय पहले (पहले गांधार)। परंपरा के अनुसार, उन्होंने रूढ़िवादी हिंदू परंपराओं और विधर्मी गैर-हिंदू-परंपराओं दोनों से अन्य विचारकों के साथ प्रवचन और तात्विक तर्क-वितर्क के माध्यम से अपने दर्शन का प्रचार करने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप में यात्रा की। यद्यपि अद्वैत के आज के अनुयायी मानते हैं कि शंकर ने व्यक्तिगत रूप से बौद्धों के खिलाफ तर्क दिया, एक ऐतिहासिक स्रोत, माधवीय शंकर विजयम, इंगित करता है कि शंकर ने मीमांसा, सांख्य, न्याय, वैशेषिक और योग विद्वानों के साथ बहस की उतनी ही उत्सुकता से मांग की जितनी कि किसी भी बौद्ध के साथ।
विन्सेंट स्मिथ सहित कई विद्वानों का भी तर्क है कि भारत में बौद्ध धर्म के पतन में आदि शंकराचार्य की कुछ प्रमुख भूमिका रही होगी।[17][18] आदि शंकराचार्य के आने से भारतीय उपमहाद्वीप पर बौद्ध धर्म का प्रभाव कम हो गया। इसके साथ ही एक बार फिर वैदिक धर्म का पुनः पुनरुद्धार होना शुरू हुआ।
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक प्रभाव
[संपादित करें]शङ्कराचार्य ने अपने वेदान्त को सुप्रतिष्ठित करने के लिए निम्नांकित कार्य सम्पादित किए-
- (१) उन्होंने स्पष्ट किया कि वैशेषिक, न्याय तथा सांख्य वैदिक दर्शन नहीं है यद्यपि यह वेद में आस्था रखते हैं। सांख्य के ईश्वरवादी तथा स्वयं को वेदाधारित होने के दावे को आचार्य बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र में तथा शङ्कराचार्य ने अपने भाष्य में किया। शङ्कराचार्य ने सांख्य को वेदान्त का ‘प्रधानमल्ल’ अर्थात् मुख्य प्रतिद्वन्दी बताया।
- (२) आचार्य ने पूर्वमीमांसाकृत वेद की कर्मपरक व्याख्या का खण्डन किया। पूर्वमीमांसा के अनुसार वेद के वह भाग जो स्पष्ट रूप से कर्मपरक नहीं है वह परोक्ष रूप से कर्म के अप्र बनकर ही सार्थक होते हैं। शङ्कराचार्य ने यह सिद्ध किया कि वेद का मुख्य लक्ष्य परमतत्त्व को प्रकाशित करना है अतः वेद के ज्ञानपूर्ण मन्त्रभाग और उपनिषद् भाग मुख्य हैं। वेद के उपासना और कर्मपरक भाग गौण हैं क्योंकि इनका उद्देश्य चित्त की शुद्धि करना है।
- (३) इन्होंने उपनिषद् के प्राचीन व्याख्याकार जैसे भर्तृप्रपञ्च आदि के ब्रह्मपरिणामवाद अथवा भेदाभेदवाद मत का खण्डन किया। उसके स्थान पर आचार्य ने अद्वैतवाद का प्रतिपादन किया।
- (४) इन्होंने सिद्ध किया कि निर्विशेष या निर्गुण ब्रह्म ‘शून्य’ नहीं है। ‘नेति-नेति’ ब्रह्म विषयक निर्वचनों का निषेध करता है, स्वयं ब्रह्म का नहीं। निर्विशेष ब्रह्मवाद निरपेक्ष अद्वैतवाद है।
- (५) आचार्य ने बौद्धों के विज्ञानवाद का मार्मिक खण्डन किया तथा अपने नित्य औपनिषद् आत्मचैतन्यवाद को उससे पृथक् सिद्ध किया।
- (६) उन्होंने सिद्ध किया कि माया या अविद्या ब्रह्म की अनिर्वचनीय शक्ति के रूप में उपनिषद् सिद्धान्त है। उपनिषद् में तात्विक भेद, द्वैत, परिणाम आदि का कोई स्थान नहीं है।
रचनाएँ
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लघु तत्त्वज्ञानविषयक रचनाएँ
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इन्हें भी देखें
[संपादित करें]- अद्वैतवाद
- कुमारिल भट्ट
- मण्डन मिश्र
- पद्मपादाचार्य
- शंकराचार्य
- मठाम्नाय महानुशासन (आद्य शंकराचार्य द्वारा रचित ग्रन्थ जिसमें मठों के संचालन का विधान है।)
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ Londhe, Sushama (2008). A Tribute to Hinduism: Thoughts and Wisdom Spanning Continents and Time about India and Her Culture (Hardcover) (Eng में). Pragun Publication. पृ॰ 3. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788189920661.
Adi Shankaracharya ( 508 - 477 BCE ) was undoubtedly an immortal spiritual leader..
सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link) - ↑ Brahmavadi, Parshuram Thakur (2013-01-01). Vikramshila Ka Itihas: Vikramshila Ka Itihas: The History of Vikramshila University by Parshuram Thakur Brahmavadi. Prabhat Prakashan. पृ॰ 150. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7721-218-1.
इतिहासकारों ने आदि शंकराचार्य का समय आठवीं सदी मानकर हिंदी साहित्य के इतिहास को भी अंधकार युग में ढकेल दिया है , जबकि बिहार , वैशाली स्थित प्राकृत अनुवादक डॉ . डी . एम . त्रिवेद के एक शिलालेख के अनुसार शंकराचार्य काल ई . पू . 508 , बुद्ध ई . पू . 527 साबित होता है । ' क्रॉनिकल ऑफ नेपाल हिस्टरी , में बुद्ध का काल ई . पू . 1887 ई . पू . तक दरशाया है , यानी बुद्ध 1887 ई . पू . से 1807 ई . पू तक जीवित थे । वहीं आचार्य शंकर की जन्मतिथि ई . पू . 509 का प्रमाण एक जैन अभिलेख में भी मिलता है ।
- ↑ Society, Indian History and Culture (1983). Studies in Religion and Change (अंग्रेज़ी में). Books & Books. पृ॰ 73.
Guruparampara - Smritis of Dwaraka and , Govardhana - Puri Peetham too agree with this date of Adi Sankara , i.e. K.E. 2593 corresponding to 508 B.C.
सीएस1 रखरखाव: तिथि और वर्ष (link) - ↑ "Journal of Indian History". Department of Modern Indian History. 57: 225–30. 1979.
- ↑ Kanchi Kamakoti Math, a Myth (अंग्रेज़ी में). Varanasi Raj Gopal Sharma. 1987. पृ॰ 64.
Sri Adi Sankar's time ( 508 B.C ) . They claim this plate as their own since the plate mentions the recipient living in a math near Hastishailanatha temple .
- ↑ Chaudhuri, Puspendu (1998). History Revealed by the Rāmāyaṇa Astronomy (अंग्रेज़ी में). Firma KLM. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-7102-097-3.
Shri Vivekananda Choudhury , however , in his aforesaid book proved that Adi Shankara was born on April 22 , Sunday , 508 B.C
- ↑ "Ritual Journeys in South Asia: Constellations and Contestations of Mobility and space". Ritual Journeys in South Asia. Christoph Bergmann. 9. 2019.
- ↑ "Swarajya". Swarajya. T. Sadavisam. 23: 2. 1979.
- ↑ N. Oak, Purushottam; भट्ट, श्री जगमोहन राव (1971). भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें ( Some Blunders of Indian Historical Research का हिन्दी अनुवाद ). पपृ॰ 190–207. अभिगमन तिथि 2017-01-25.सीएस1 रखरखाव: तिथि और वर्ष (link)
- ↑ A Religious History of Ancient India, Upto C. 1200 A.D.: Smarta, epic-Pauranika and Tantrika Hinduism, Christianity and Islam (अंग्रेज़ी में). Śrīrāma Goyala. 1986. पृ॰ 60.
Adi Sankara was born in 508 or 509 B.C.
- ↑ Age of Buddha, Milinda & Amtiyoka and Yugapurana (Original PDF) (अंग्रेज़ी में). Kota Venkatachelam. 1956. पृ॰ 201. अभिगमन तिथि 2020-03-22.
Birth of Adi Sankara 509 BC
- ↑ "Adi Shankaracharya Praktotsav: आश्चर्य से भर देती है आदि शंकराचार्य की वह अद्भुत यात्रा". jagran.
- ↑ "आदि शंकराचार्य के जन्म के बारे में फैला भ्रम, जानिए सचाई". Hindi Webdunia. मूल से 25 जुलाई 2019 को पुरालेखित.
- ↑ https://www.google.co.uk/books/edition/Science_of_the_Mystical/ULvtDwAAQBAJ?hl=en&gbpv=1&dq=adi+shankara+defeated+buddhism&pg=PT59&printsec=frontcover Science of the Mystical: An Eye Opener to the Scientific Substratum in Spirituality
- ↑ लुचीयान बलागा, धर्म के दर्शन का कोर्स, पेरिस, अल्बा -यूलिया, फरोनदे का प्रकाशन संस्था, एक हजार नौ सौ नब्बे चार, उनहत्तर का पृष्ठ। (ISBN 973-963-1215)
- ↑ मीर्चा ईटु, भारतीय दर्शन और भारतीय धर्म, ब्राशोव, लैटिन पूरबी का प्रकाशन संस्था, दो हज़ार चार, सड़सठ और अड़सठ के पृष्ठों। (ISBN 973-9338-70-4)
- ↑ rajnish, manu. STATE OF MIND (अंग्रेज़ी में). manu rajnish. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-5087-127-0.
- ↑ Ph.D, M. Jankiraman (2020-11-03). Perspectives in Indian History: From the Origins to AD 1857 (अंग्रेज़ी में). Notion Press. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-64983-995-4.
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- श्री शंकर विरचित ब्रह्मसूत्रभाष्य
- श्रीमच्छङ्करभगवत्पूज्यपादविरचितम् ब्रह्मसूत्रभाष्यम्
- शंकराचार्य के चार मठ
- आदि शंकराचार्य का संपूर्ण रचना संसार
- Complete Works of Sri Sankaracharya संस्कृत में - 20 Volumes
- आठ साल की उम्र में याद कर लिए थे सभी वेद : आदि गुरु शंकराचार्य
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