कुमारिल भट्ट

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कुमारिल भट्ट (लगभग ६५० ई) भारत के प्रसिद्ध दार्शनिक थे। वे मीमांसा दर्शन के दो प्रधान सम्प्रदायों में से एक भट्टसम्प्रदाय के संस्थापक थे। उन्होने मीमांसा पर अनेक ग्रन्थों की रचना की जिसमें मीमांसाश्लोकवार्त्तिक सर्वाधिक प्रसिद्ध है। उन्होने वेदों को अपौरुषेय सिद्ध किया। मणिक्क वचगर का विचार है कि कुमारिल सगुण ब्रह्म में विश्वास करते थे। श्लोकवार्तिक तथा तन्त्रवार्तिक में कुमारिल के असाधारण पाण्डित्य तथा प्रतिभा का परिचय मिलता है।

परिचय[संपादित करें]

कुमारिल भट्ट के जन्मस्थान के बारे में निश्चित रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं है। कोई उन्हें कामरूप (वर्तमान असम) का निवासी बताता है, कोई मिथिला का, तो कोई दक्षिण भारत का। एक विचार के अनुसार वे कामरूप निवासी उद्भट्ट ब्राह्मण थे। तारानाथ उन्हें दक्षिण भारत का निवासी बताते हैं। उनके काल के विषय में विद्वानों में मतभेद है। किन्तु सामान्य रूप से उनका समय ईसा की सातवीं शताब्दी में रखा जा सकता है। वे शंकराचार्य से पहले हुए। वे वाचस्पति मिश्र (850 ई.) के भी पूर्ववर्ती हैं और मंडन मिश्र उनके अनुयायी हैं। कुमारिल भवभूति (620 ई.-680 ई.) के गुरु थे। कुमारिल का यश हर्षवर्धन के अंतिम काल में अच्छी तरह फैल चुका था।

रचनाएँ[संपादित करें]

कुमारिल ने शाबर भाष्य पर तीन प्रसिद्ध वृत्तिग्रन्थ रचे।

  • (1) श्लोकवार्तिक - यह प्रथम अध्याय के प्रथम पाद की व्याख्या है।
  • (2) तन्त्रवार्तिक - इसमें पहले अध्याय के दूसरे पाद से लेकर तीसरे अध्यायों की संक्षिप्त व्याख्या की गई है।
  • (3) टुप्टीका - इसमें अंतिम नौ अध्यायों की संक्षिप्त व्याख्या की गई है।

कुमारिल भट्ट का दर्शन[संपादित करें]

कुमारिल के दर्शन का तीन मुख्य भागों में अध्ययन किया जा सकता है- ज्ञानमीमांसा, तत्वमीमांसा और आचारमीमांसा। ज्ञान के स्वरूप तथा उसके साधनों का कुमारिल ने विस्तार से विवेचन किया है (यहाँ ज्ञान का अर्थ बुद्धि-विवेक नहीं, बल्कि 'विदित होना' है )। ज्ञान के विषय में पहला प्रश्न है कि यथार्थ ज्ञान अथवा प्रमा का स्वरूप क्या है - यानि जो दीखता, सूंघा जाता, चखा जाता वह कैसे पता चलता है मन को। मीमांसा के अनुसार, पहले से अज्ञात तथा सत्य वस्तु के ज्ञान को प्रमा कहते हैं। इस ज्ञान का किसी अन्य ज्ञान द्वारा बाध अथवा निराकरण नहीं होता और यह ज्ञान निर्दोष कारणों से उत्पन्न होता है। जिस साधन द्वारा प्रमा अथवा यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति होती है उसे प्रमाण कहते हैं। कुमारिल के मत से प्रमाण छह प्रकार के हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और अनुपलब्धिअद्वैत वेदान्त भी उपयुक्त छह प्रमाणों को स्वीकार करता है। मीमांसा, ज्ञान को स्वतःप्रामाण्य मानती है। कुमारिल के अनुसार ज्ञान की प्रामाणिकता अथवा सत्यता की प्रतीति उसके उत्पन्न होने के साथ होती है। जिस समय किसी वस्तु का ज्ञान होता है उसी समय उसकी सत्यता का भी ज्ञान हो जाता है। उसकी सत्यता सिद्ध करने के लिए किसी अन्य प्रमाणों की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु ज्ञान की असत्यता अथवा अप्रमाणिकता का बोध तब होता है जब उसका बाद में वस्तु के वास्तविक स्वरूप से विरोध दिखाई पड़ता है या उसको उत्पन्न करनेवाले कारणों के दोषों का ज्ञान हो जाता है। अतः मीमांसा ज्ञान के विषय में स्वतःप्रामाण्यवाद को मानती है। मीमांसा के अनुसार ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः और अप्रमाण्य परतः होता है। कुमारिल और प्रभाकर दोनों ही इस मत का प्रतिपादन करते हैं।

पदार्थ - द्रव्य, गुण, उनमें समानता और उनका दूसरों से विशेष[संपादित करें]

वे बाह्य वस्तुओं के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। संसार को वे अद्वैत वेदान्त अथवा महायान बौद्ध दर्शन की तरह मिथ्या नहीं मानते। संसार सत्य है। संसार का तथा पदार्थों का मन से स्वतंत्र अस्तित्व है। उनके मत से पदार्थ पाँच प्रकार के हैं : द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य तथा अभाव। इनको वे दो भागों में विभाजित करते हैं : भाव और अभाव। प्रथम चार भाव पदार्थ कहलाते हैं। अभाव को वैशेषिकों की तरह उन्होंने चार प्रकार का माना है : प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यंताभाव तथा अन्योन्याभाव।

द्रव्य वह है जिसमें गुण रहते हैं। कुमारिल के अनुसार यह ग्यारह प्रकार का है : पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, आत्मा, मन, माल, दिक्, अंधकार और शब्द। इनमें प्रथम नौ द्रव्य वैशेषिक दर्शन से ही लिए गए हैं। कुमारिल ने अंधकार तथा शब्द को भी द्रव्य की ही मान्यता दी है।

गुणों के विषय में भी कुमारिल पर वैशेषिक का पर्याप्त प्रभाव प्रतीत होता है। प्रशस्तपाद की तरह वे भी 24 गुण मानते हैं। ये हैं रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, ज्ञान, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुख, संस्कार, ध्वनि, प्राकट्य और शक्ति। गुणों की इस सूची में उन्होंने प्रशस्तवाद के शब्द के स्थान पर ध्वनि तथा धर्म और अधर्म के स्थान पर प्राकट्य और शक्ति रखा है। कर्म को भी वैशेषिक की तरह वे पाँच प्रकार का मानते हैं : उन्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण और गमन। प्रभाकर के अनुसार कर्म अनुमान का विषय है किंतु कुमारिल का मत है कि इसका प्रत्यक्ष होता है। सामान्य को प्रभाकर तथा कुमारिल दोनों सत्य मानते हैं। उनके अनुसार इसका इंद्रियों से साक्षात् ग्रहण होता है। इस विषय में इनका बौद्धों से पूर्ण विरोध है क्योंकि वे सामान्य की सत्ता स्वीकार नहीं करते।

आदि सृष्टि और प्रलय[संपादित करें]

कुमारिल संसार की उत्पत्ति तथा प्रलय नहीं मानते। संसार में वस्तुएँ उत्पन्न तथा नष्ट होती रहती हैं। जीवों के जन्म मरण का प्रवाद चलता रहता है किंतु समग्र संसार की न तो उत्पत्ति ही होती है, न विनाश। न्याय की तरह कुमारिल ईश्वर को जगत् का कारण नहीं मानते। अनेक तर्कों द्वारा उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि ईश्वर को जगत् का कारण मानना युक्तिसंगत नहीं है।

कुमारिल के अनुसार आत्मा एक नित्य द्रव्य है। वह विभु अथवा व्यापक है। वह कर्ता तथा कर्म-फल-भोक्ता दोनों ही है। आत्मा शरीर, इंद्रिय, मन तथा बुद्धि से भिन्न है। वह विज्ञानों की संतान मात्र नहीं है। कुमारिल ने बौद्धों के अनात्मवाद तथा विज्ञानसंतान के सिद्धांत का अनेक प्रबल तर्कों द्वारा खंडन किया है। उनके अनुसार नित्य आत्मा के अस्तित्व की अनुभूति तथा स्मरण आदि क्रियाओं की व्याख्या नहीं की जा सकती। आत्मा परिणामी तथा नित्य है। आत्मा अंशत: जड़ तथा अंशत: चेतन है। चिदंश से आत्मा वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करता है : अचिदंश से वह ज्ञान, सुख, दुख, इच्छा, प्रयत्न आदि के रूप में औपाधिक गुण है जो विशेष परिस्थिति, जैसे इंद्रिय का विषय से संयोग, होने पर उत्पन्न होता है। सुषुप्ति तथा मोक्ष की अवस्था में आत्मा में चेतना नहीं रहती। कुमारिल के मत से आत्मा ज्ञाता तथा ज्ञान का विषय, दोनों ही है। वेद के वाक्य कि मै आत्मा अथवा ब्रह्म हूँ, आत्मा को जानो इस मत की पुष्टि करते हैं।

कर्म[संपादित करें]

मीमांसा दर्शन का प्रधान उद्देश्य धर्म का निरूपण करना है। जैमिनि के अनुसार धर्म का लक्षण है चेतना (प्रेरणा) अर्थात क्रिया का प्रवर्त्तक वचन अथवा वेद का विधिवाक्य। मीमांसकों के अनुसार वेद का मुख्य तात्पर्य क्रियापरक अथवा विधिवाक्यों का प्रतिपादन करना है। वेद में प्रतिपादित कर्म तीन प्रकार के हैं : काम्य, प्रतिषिद्ध तथा नित्य नैमित्तिक। कुमारिल के अनुसार:

  • काम्य कर्म - किसी कामना की सिद्धि के लिये किए जाते हैं, जैसे स्वर्ग की इच्छा करने वाला व्यक्ति यज्ञ करे।
  • प्रतिषिद्ध कर्म - जिनका वेदों में निषेध माना गया है।
  • नित्य कर्म - जिनका प्रतिदिन करना आवश्यक माना गया है, जैसे सन्ध्यावन्दन आदि (योगाभ्यास, उपासना आदि)।

नैमित्तिक कर्म विशेष अवसरों पर किए जाते है, जैसे श्राद्ध। मनुष्य को अपने किए अच्छे बुरे कर्मो का फल अवश्य प्राप्त होता है। वर्तमान में किये हुए यज्ञादि कर्मों का फल भविष्य अथवा जन्मान्तर में कैसे प्राप्त होता है? इसे समझाने के मीमांसक अपूर्व की कल्पना करते है। कुमारिल के अनुसार अपूर्व एक अदृश्य शक्ति है जो किसी कार्य को करने से उत्पन्न होती है। अपूर्व के ही कारण आत्मा को अपने कर्मों के अनुरूप फल की प्राप्ति होती है। इससे कर्म और फल के बीच अपूर्व एक अदृश्य कड़ी है।

कुमारिल के अनुसार वेदान्त का अध्ययन एवं चिन्तन मोक्षप्राप्ति में सहायक होता है। मोक्ष की अवस्था आत्मा का शरीर, इंद्रिय, बुद्धि तथा संसार की इन वस्तुओं से संबंध सदा के लिए समाप्त हो जाता है। आत्मा दुख से पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है। उस अवस्था में सुख की भी कोई अनुभूति नहीं रहती। यह पूर्ण स्वतंत्रता तथा शांति की अवस्था है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए मनुष्य को काम्य और निषिद्ध कर्मों का त्याग करना चाहिए। किंतु नित्य नैमित्तिक कर्मो का संपादन नित्य करते रहना आवश्यक है। वेदविहित कर्मों का अनुष्ठान मोक्ष का साधक है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]