सामग्री पर जाएँ

भाष्य

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

संस्कृत साहित्य की परम्परा में उन ग्रन्थों को भाष्य (शाब्दिक अर्थ - व्याख्या के योग्य), कहते हैं जो दूसरे ग्रन्थों के अर्थ की वृहद व्याख्या या टीका प्रस्तुत करते हैं।[1] मुख्य रूप से सूत्र ग्रन्थों पर भाष्य लिखे गये हैं।

सूत्रार्थो वर्ण्यते यत्र, पदैः सुत्रानुसारिभिः।
स्वपदानि च वर्ण्यन्ते, भाष्यं भाष्यविदो विदुः ॥
(अनुवाद : जिस ग्रन्थ में सूत्र में आये हुए पदों से सूत्रार्थ का वर्णन किया जाता है, तथा ग्रन्थकार अपने द्वारा पद प्रस्तुत कर उनका वर्णन करता है, उस ग्रन्थ को भाष्य के जानकार लोग "भाष्य" कहते हैं।)

भाष्य, मोक्ष की प्राप्ति हेतु अविद्या (ignorance) का नाश करने के साधन के रूप में जाने जाते हैं। वेदों, ब्राह्मणों, एवं आरण्यकों का सायणाचार्य कृत भाष्य, प्रस्थानत्रयी (उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र एवं गीता) का शंकराचार्य कृत भाष्य और पाणिनि के अष्टाध्यायी पर पतंजलि का व्याकरणमहाभाष्य आदि कुछ प्रसिद्ध भाष्य हैं।[2]

भाष्यकार

[संपादित करें]

महीधर में भाष्यकार के पाँच कार्य गिनाये गये हैं-

पदच्छेदः पदार्थोक्तिर् विग्रहो वाक्ययोजना।
आक्षेपेषु समाधानं व्याख्यानं पञ्चलक्षणम् ॥

सूत्रग्रन्थों को पढ़ने के लिये पराशर पुराण में छः नियम और उनके क्रम का निरूपण निम्नलिखित श्लोक द्वारा किया गया है-

पदच्छेद पदार्थोक्ति विग्रहो वाक्ययोजना ।
आक्षेपश्च समाधानं व्याख्यानं षडविध मतम् ॥

अर्थात् पदच्छेद, प्रतिपाद्य का अभिकथन व्युत्पत्ति का प्रदर्शन, वाक्य की योजना, आक्षेप और समाधान रूपी छः विधियों का अनुप्रयोग करते हुए किसी शास्त्र के उस ग्रन्थ का व्याख्यान किया जाय जो सूत्रों की संहति में प्रस्तुत हुआ हो तो उस ग्रन्थ का निहितार्थ सम्यक् रूप से उद्घाटित हो जाता है। व्याख्याकार सर्वप्रथम व्याख्येय प्रसंग के वाक्यों को पदों में बांटता है। इसी को पदच्छेद अथवा अन्वय कहते हैं।

विष्णुधर्मोत्तर पुराण में अन्यथा भी छह प्रकार से सूत्रों की व्याख्या करने की बात दुहराई गई है।

आरम्भोऽथापि सम्बन्धः सूत्रार्थस्तद विशेषणम् ।
चोदकं परिहारस्य व्याख्या सूत्रस्य षडविधा ॥

अर्थात् पूर्वापर सम्बन्धात्मक संगति (अवतरण) विषय के साथ प्रकरण का सम्बन्ध प्रतिपाद्य का अभिकथन, उसके विशेषण के अभिप्राय का परिष्कार, पूर्वपक्ष का उत्थापन और उसका परिहार करना सूत्र की व्याख्या में अपेक्षित होता है। इसी बात को अन्यत्र भी थोड़े शब्दान्तर से कहा गया है। वह यह कि व्याख्या के लिए सूत्रार्थ, पदार्थ, हेतु क्रम और निरुक्ति तथा सम्यक् प्रस्तुति आवश्यक है।

सूत्रार्थश्च पदार्थश्च हेतुश्च क्रमशस्तथा ।
निरुक्तमय विन्यासो व्याख्या योगस्य षडविधा ॥

एक अन्य बहुश्रुत श्लोक में भी व्याख्या के षडविध तंत्रों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि व्याख्या के लिए भूमिका अर्थात् अवतरण के साथ व्युत्पत्ति का प्रदर्शन पूर्वक प्रतिपादय का कथन, संदेह का उत्थापन एवं उसका निराकरण करते हुए सिद्धान्त पक्ष की उपस्थापना विवक्षित है। यहाँ केवल वाक्य योजना की बात नहीं कही गई है लेकिन इसे तंत्रगत स्वयं ही गतार्थ माना जा सकता है।

उपोद्घातः प्रथमतः पदार्थः पदविग्रहः ।
अविमर्शः प्रत्यवस्था व्याख्या तंत्रस्य षडविधा ॥

उपर्युक्त षडतंत्री व्याख्या पद्धति से मिलती-जुलती एक पंचसूत्री व्याख्या पद्धति भी है जो पूर्वमीमांसा व्याख्या पद्धति के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अनुसार किसी भी विषय पर विचार करते समय पक्ष-विपक्ष के बलाबल की चिन्ता करते हुए निर्णय तक पहुँचने की प्रक्रिया मीमांसाशास्त्र में अपनाई गई है। केवल विषय का उल्लेख मात्र निर्णय के लिए पर्याप्त नहीं है अपितु उस विषय में उहापोह के पश्चात् इदमित्थं का अवधारण किया जाता है। यहाँ पाँच प्रकार से उहापोह करने की प्रक्रिया निर्दिष्ट की गई है। पहले विवाद का विषय प्रस्तुत किया जाता है और फिर उस विषय में सम्भावित संशय (शंका) उठाई जाती है। पूर्वपक्ष की युक्तियाँ प्रदर्शित की जाती हैं, पुनश्च उसके निराकरण हेतु बाधक प्रमाण दिखाकर उत्तरपक्ष अर्थात् सिद्धांत पक्ष के साधक प्रमाण दिखाये जाते हैं। इस तरह स्वाभिमत में बाधक प्रमाणों का अभाव दिखाकर साधक प्रमाणों की संगति पूर्वक सिद्धान्त स्थिर होता है।

विषयोविशयश्चैव पूर्वपक्षस्तथोत्तरम् ।
निर्णयश्चेति पञ्चाङ्गं शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् ॥"
विषय, विशय, पूर्वपक्ष, उत्तर और निर्णय - इसी पञ्चाङ्ग को अधिकरण कहते हैं। पञ्चाङ्ग का विस्तृत विवरण इस तरह है -(१) विषय - अर्थात् विचारके अन्य प्रकरणको सिद्ध करनेवाली सिद्धि, जिस सिद्धिसे योग्य वाक्य, (२) विशय अर्थात संशय - किसी के अर्थ निश्चय न होने का संशय, (३) पूर्वपक्ष- प्रकृत अर्थ का विरोधी तर्क, (४) उत्तर- किसी विषय का सिद्धान्त करने पर उसके अनुकूल तर्क, और (५) निर्णय- महावाक्य के तात्पर्य का निश्चय ।

भाष्य कई प्रकार के होते हैं - प्राथमिक, द्वितीयक या तृतीयक। जो भाष्य मूल ग्रन्थों की टीका करते हैं उन्हें प्राथमिक भाष्य कहते हैं। किसी ग्रन्थ का भाष्य लिखना एक अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण कार्य माना जाता है।

अपेक्षाकृत छोटी टीकाओं को वाक्य या वृत्ति कहते हैं। जो रचनायें भाष्यों का अर्थ स्पष्ट करने के लिये रची गयी हैं उन्हें वार्तिक कहते हैं।

प्रमुख भाष्यों की सूची

[संपादित करें]
वेदों के भाष्य स्कन्दस्वामी, वेंकटमाधव, सायण, स्वामी दयानन्द सरस्वती, श्रीपाद दामोदर सातवलेकर
निघण्टु के भाष्ययास्क द्वारा
पाणिनि के अष्टाध्यायी का भाष्यपतंजलि का व्याकरणमहाभाष्य
ब्रह्मसूत्र के भाष्यआदि शंकराचार्य का भाष्य (शारीरकभाष्य); रामानुज का ब्रह्मसूत्र भाष्य (श्रीभाष्य)
उपनिषदों के भाष्यशंकराचार्य ने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वतर- इन ग्यारह उपनिषदों का भाष्य किया है। वाचस्पति मिश्र ने वैशेषिक दर्शन को छोड़कर बाकी पाँचो दर्शनों पर भाष्य लिखा है।
योगसूत्र के भाष्यव्यासभाष्य, वाचस्पति मिश्र कृत तत्त्ववैशारदी, विज्ञानभिक्षु कृत योगवार्तिक, भोजवृत्ति
न्यायदर्शन के भाष्यवात्स्यायनकृत न्यायभाष्य; वाचस्पति मिश्र का न्यायसूची, वात्स्यायन के न्यायभाष्य पर उद्योतकर की टीका - न्यायवार्तिक; न्यायवार्तिक पर वाचस्पति मिश्र की टीका - न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका
मीमांसा के भाष्यशाबरभाष्य; शाबर भाष्य पर कुमारिल भट्ट के तीन वृत्तिग्रंथ हैं - श्लोकवार्तिक, तंत्रवार्तिक तथा टुप्टीका; वाचस्पति मिश्र कृत न्यायकणिका तथा तत्त्वविन्दु
वेदान्त के भाष्यआदि शंकराचार्य का भाष्य ; वाचस्पति मिश्र कृत शांकरभाष्य पर टीका - भामती ; मंडन मिश्र के ब्रह्मसिद्धि पर वाचस्पति मिश्र की व्याख्या - ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा
वैशेषिकसूत्र के भाष्यरावणभाष्य तथा भारद्वाजवृत्ति ; प्रशस्तपाद कृत पदार्थधर्मसङ्ग्रह यद्यपि एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है, किन्तु इसे वैशेषिकसूत्र का भाष्य कहा जाता है।
सांख्यदर्शन के भाष्यविज्ञानभिक्षु कृत 'सांख्यप्रवचनभाष्य'
गीता के भाष्यआदि शंकराचार्य का भाष्य
काव्यप्रकाशइसकी सौ से अधिक टीकाएँ हैं। प्रमुख टीकाएँ ये हैं- अलंकारसर्वस्व (रुय्यक), संकेत टीका (माणिक्यचंद्र सूरि), दीपिका (चण्डीदास), काव्यप्रदीप (गोविन्द ठक्कुर), सुधासागर या सुबोधिनी (भीमसेन दीक्षित), दीपिका (जयन्तभट्ट), काव्यप्रकाशदर्पण (विश्वनाथ कविराज), विस्तारिका (परमानन्द चक्रवर्ती)
आर्यभटीय के भाष्यभास्कर प्रथम (आर्यभटतन्त्रभाष्य), ब्रह्मगुप्त, सोमेश्वर, सूर्यदेव (भटप्रकाश), नीलकण्ठ सोमयाजि (आर्यभटीयभाष्य), परमेश्वर (भटदीपिका) आदि।[3]
गणित के अन्य भाष्यब्राह्मस्फुटसिद्धान्त पर पृथूदक स्वामी वासनाभाष्य, महाभास्करीय पर गोविन्दस्वामी का भाष्य, लल्ल के शिष्यधीवृद्धितन्त्र पर भास्कराचार्य का 'विवरण', भास्कराचार्य द्वारा अपने ही लीलावती, बीजगणितम् और सिद्धान्तशिरोमणि पर 'वासना' नामक वृत्ति, गोविन्दस्वामी के भाष्य पर परमेश्वर द्वारा सिद्धान्तदीपिका, नीलकण्ठ सोमयाजि के तन्त्रसंग्रह पर शंकर वार्यर् कृत युक्तिदीपिका, भास्कराचार्य के बीजगणित पर सूर्यदास कृत 'सूर्यप्रकाश'
जैनदर्शन में भाष्यतत्त्वार्थसूत्र पर गन्धहस्तीमहाभाष्य (वर्तमान में अप्राप्त), तत्त्वार्थाधिगमभाष्य

इन्हें भी देखें

[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ

[संपादित करें]

सन्दर्भ

[संपादित करें]
  1. Monier Monier-Williams (2002), A Sanskrit-English Dictionary, Etymologically and Philologically Arranged to cognate Indo-European Languages, Motilal Banarsidass, page 755
  2. A Datta (2009), Encyclopaedia of Indian Literature, Volume 2, Sahitya Akademi, ISBN 978-8126023844, page 1338
  3. "महान खगोलविद आर्यभट ; पृष्ठ ३६". 21 अगस्त 2016 को मूल से पुरालेखित. अभिगमन तिथि: 4 मई 2018.