संन्यासोपनिषद
संन्यासोपनिषद | |
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लेखक | वेदव्यास |
चित्र रचनाकार | अन्य पौराणिक ऋषि |
देश | भारत |
भाषा | संस्कृत |
श्रृंखला | सामवेदिय उपनिषद |
विषय | ज्ञान योग, द्वैत अद्वैत सिद्धान्त |
प्रकार | हिन्दू धार्मिक ग्रन्थ |
संन्यासोपनिषद् सामवेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। इस उपनिषद् में संन्यास विषय की विशद विवेचना की गयी है। इसलिए इस उपनिषद् को संन्यासोपनिषद् के नाम से जाना जाता है।
इस उपनिषद् में कुल दो अध्याय हैं जिसके प्रथम अध्याय में संन्यास क्या है, सन्यास कैसे ग्रहण किया जाता है, एवं उसके लिए कैसा आचार-व्यवहार होना चाहिए आदि विषयों का विशद वर्णन किया गया है। इस उपनिषद् का दूसरा अध्याय अति विशाल है। इसका आरम्भ साधन चतुष्टय (विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति, मुमुक्षुत्व) से की गई है। संन्यास का अधिकारी कौन है, इसकी विस्तृत गवेषणा इस अध्याय में की गई है। संन्यासी के ४ भेद ( वैराग्य संन्यासी, ज्ञान संन्यासी, ज्ञान-वैराग्य संन्यासी और कर्म संन्यासी) बताते हुए इनकी विस्तृत व्याख्या की गई है।
आगे चलकर छः प्रकार के संन्यास का क्रम उल्लिखित हुआ है- कुटीचक, बहूदक, हंस, परमहंस, तुरीयातीत और अवधूत। इस प्रकार से 6 प्रकार के सन्यास का वर्णन किया गया है। इसी क्रम में आत्मज्ञान की स्थिति और स्वरूप का भी वर्णन उपनिषद्कार ने किया है। संन्यासी के लिए आचरण की पवित्रता और भिक्षा में मिले स्वल्प भोजन में ही संतुष्ट होने का विधान बताया गया है। उसे स्त्री, भोग आदि शारीरिक आनन्द प्राप्ति से दूर रहने का निर्देश है। इस प्रकार आहार-विहार का संयम बरतते हुए नित्य प्रति आत्म चिन्तन में तल्लीन रहना चाहिए। ॐकार का जप करते रहना चाहिए इसी से उसके अन्तःकरण में ब्रह्म का प्रकाश प्रकट होता है और वह मोक्ष प्राप्ति का अधिकारी बनता है।
संन्यासोपनिषद का प्रथम चरण और उसका अर्थ नीचे दिया है-
- अथातः संन्यासोपनिषदं व्याख्यास्यामो योऽनुक्रमेण संन्यस्यति स संन्यस्तो भवति। कोऽयं संन्यास उच्यते । कथं संन्यस्तो भवति । य आत्मानं क्रियाभिर्गुप्तं करोति मातरं पितरं भार्यां पुत्रान्बन्धूननुमोदयित्वा ये चास्यर्त्विजस्तान्सर्वांश्च पूर्ववद्वृणीत्वा वैश्वानरेटिं निर्वपेत्स-र्वस्वं दद्याद्यजमानस्य गा ऋत्विजः सर्वैः पात्रैः समारोप्य यदाहवनीये गार्हपत्ये वान्वाहार्यपचने सभ्यावसथ्ययोश्च प्राणापानव्यानोदानसमानान्सर्वान्सर्वेषु समारोपयेत्।सशिखान्केशान्विसृज्य यज्ञोपवीतं छित्त्वा पुत्रं दृष्ट्वा त्वं यज्ञस्त्वं सर्वमित्यनुमन्त्रयेत्। यद्यपुत्रो भवत्यात्मानमेवेमं ध्यात्वा- ऽनवेक्षमाणः प्राचीमुदीचीं वा दिशं प्रव्रजेच्च।चतुर्षु वर्णेषु भिक्षाचर्यं चरेत्। पाणिपात्रेणाशनं कुर्यात् औषधवदशनमाचरेत्। औषधवदशनं प्राश्नीयात् । यथालाभमश्नीयात्प्राणसंधारणार्थं यथा मेदोवृद्धिर्न जायते । कृशो भूत्वा ग्राम एकरात्रं नगरे पञ्चरात्रं चतुरो मासान्वार्षिकान्ग्रामे वा नगरे वापि वसेत् । पक्षा वै मासो इति द्वौ मासौ वा वसेत् । विशीर्णवस्त्रं वल्कलं वा प्रतिगृह्णीयान्नान्यत्प्रतिगृह्णीयाद्यद्यशक्तो भवति क्लेशतस्तप्यते तप इति । यो वा एवं क्रमेण संन्यस्यति यो वा एवं पश्यति किमस्य यज्ञोपवीतं कास्य शिखा कथं वास्योपस्पर्शनमिति । तं होवाचेदमेवास्य तद्यज्ञोपवीतं यदात्मध्यानं विद्या शिखा नीरैः सर्वत्रावस्थितैः कार्यं निर्वर्तयन्नुदरपात्रेण जलतीरे निकेतनम्। ब्रह्मवादिनो वदन्त्यस्तमित आदित्ये कथं वास्योपस्पर्शनमिति । तान्होवाच यथाहनि तथा रात्रौ नास्य नक्तं न दिवा तदप्येतदृषिणोक्तम्। सकृद्दिवा हैवास्मै भवति य एवं विद्वानेतेनात्मानं संधत्ते ॥
- अर्थ - अब संन्यास उपनिषद् का वर्णन करते हैं। क्रमानुसार नश्वर जगत् का परित्याग कर देने वाला विरक्त ही संन्यासी होता है। (प्रश्न) संन्यास किसे कहते हैं? संन्यासी किस तरह का होता है ? (उत्तर) संन्यासी वह है,जो आत्मा के उत्थान हेतु माता-पिता, स्त्री-पुत्र, बान्धव आदि के द्वारा अनुमोदित पूर्व में कही क्रियाओं का परित्याग कर देता है; जो हमेशा की तरह ऋत्विजों को नमन-वंदन करने के पश्चात् वैश्वानर यज्ञ सम्पन्न करता है। इस पुनीत अवसर पर यजमान अपना सभी कुछ दान कर दे तथा ऋत्विज् सम्पूर्ण सामग्री को पात्रों समेत हवन कर दे। संन्यासी द्वारा आहवनीय, गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि इन तीनों अग्नियों तथा सभ्य (वैदिक कालीन अग्नि) एवं आवसथ्य (स्मृतिकालीन अग्नि) को प्राण, अपान, व्यान, उदान एवं समान पाँचों वायुओं में आरोपित करना चाहिए। शिखा (चोटी) सहित सभी केशों का मुण्डन करा देना चाहिए। यज्ञोपवीत को त्याग दे एवं पुत्र को देखकर इस तरह कहे कि तुम यज्ञ रूप हो, सर्वस्वरूप हो। यदि पुत्र न हो, तो वह अपनी आत्मा को ही लक्ष्य करके उपदेश देकर पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर गमन कर जाए। चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र) से भिक्षा स्वीकार करनी चाहिए। हाथ रूपी पात्र में भिक्षा ग्रहण कर भोजन करना चाहिए। भोजन को औषधि के समान ग्रहण करना चाहिए अर्थात् मात्र प्राण रक्षा की दृष्टि से आहार लेना चाहिए और जो कुछ प्राप्त हो जाए, वही ग्रहण करना चाहिए, जिससे चर्बी की वृद्धि न हो। इस प्रकार क्षीणकाय होकर गाँव में एक रात्रि एवं नगर में पाँच रात्रि तक निवास करना चाहिए। चातुर्मास (वर्षा के मास) में एक ही गाँव अथवा नगर में रुक जाना चाहिए या फिर पक्ष (पखवारा) को ही मास समझकर दो महीने तक निवास करना चाहिए। फटे वस्त्र अथवा वल्कल वस्त्र ही धारण करना चाहिए, अन्य वस्त्रों को ग्रहण न करे। इस तरह क्लेश सहना ही तप-तितिक्षा है। जो इस क्रम से संन्यास धारण करता है, उसके लिए यज्ञोपवीत क्या है? शिखा क्या है? आचमन किस तरह का है? इन सभी का उत्तर इस प्रकार है- आत्मा का ध्यान ही संन्यासी का यज्ञोपवीत है। विद्या ही उसकी शिखा (चोटी) है। सर्वत्र स्थित जल के लिए उदर (पेट) ही संन्यासी का पात्र है तथा जलाशय का तट ही उसका आश्रय-स्थल है। इसी प्रकार का ब्रह्मवादी भी होता है। उसके लिए सूर्य के अस्ताचल की ओर गमन करने पर आचमन किस तरह का है? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-उस (संन्यासी) के लिए रात्रि एवं दिन दोनों ही एक जैसे हैं। उसके लिए न रात्रि होती है, न दिन होता है। जो (संन्यासी अथवा साधक) अपनी आत्मा के अनुसंधान में सतत लगा रहता है, विद्वज्जनों के अनुसार उसके लिए सदैव दिन ही है ॥<ref>संन्यासोपनिषद, प्रथम श्लोक
सन्दर्भ
[संपादित करें]इन्हें भी देखें
[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- संन्यासोपनिषत् (संस्कृत विकिस्रोत)
- संन्यासोपनिषद, हिन्दी अर्थ सहित