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राम

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श्रीराम
  • मर्यादा पुरुषोत्तम
    धर्म, मर्यादा, पराक्रम, विद्या, मोक्ष के ईश्वर
    विष्णु के सातवें तथा सर्वश्रेष्ठ अवतार
    परब्रह्म पुरुषोत्तम नारायण
Member of दशावतार

धनुष और बाण लेकर खड़े हुए श्याम वर्ण राम
अन्य नाम परमपुरुष,सनातन पुरुष,वैकर्तन , राघव, श्रीरामचंद्र, श्रीदशरथसुत, श्रीकौशल्यानंदन, श्रीसीतावल्लभ, श्रीरघुनन्दन, श्रीरघुवर, श्रीरघुनाथ, काकुत्स्थ, श्रीरामचन्द्र, श्रीराम, राम पण्डित , बोधिसत्वककुत्स्थकुलनंदन, रामजानकीवल्लभ , ककुत्स्थकुलनंदनसीतापती, मायापति आदि।
देवनागरी राम
संस्कृत लिप्यंतरण Rāma
संबंध भगवान के सातवें तथा सर्वश्रेष्ठ अवतार, सर्वोच्च भगवान
निवासस्थान
मंत्र जय श्री राम
जय सियाराम
ॐ श्रीरामचंद्राय नमः ।।
ॐ जानकीवल्लभाय नमः ।
हरे राम
सीताराम repetition
अस्त्र कोदंड धनुष्य तथा बाण, कौमुदी गदा, तलवार
प्रतीक कोदंड/ सारंग धनुष
बाण
शंख
कमल
दिवस गुरुवार
जीवनसाथी सीताजी[1]
माता-पिता
भाई-बहन
संतान
सेना वानर सेना
वैष्णवी सेना
शास्त्र वाल्मीकि रामायण
रामचरितमानस
विष्णु पुराण
भागवत पुराण
अध्यात्म रामायण
अदभुत रामायण
दसरथ जातक
पद्मपुराण
त्यौहार
दशावतार क्रमांक
पूर्ववर्तीपरशुराम
उत्तरवर्तीकृष्ण

श्रीराम एक प्रसिद्ध हिंदू देवता हैं, जिन्हें भगवान विष्णु का सातवां तथा सर्वश्रेष्ठ अवतार माना जाता हैं। उनका उच्च धर्म युक्त निष्कलंक जीवन एक आदर्श होने के कारण उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम भी कहा जाता है। [2]

वैष्णव परंपराओं में उनको सर्वोपरि भगवान के रुप में पूजा जाता है। उनके जीवन पर आधारित वाल्मीकि रामायण महाकाव्य ऐतिहासिक रूप से लोकप्रिय है। राम को भारत तथा संपूर्ण दक्षिण एशिया में व्यापक तौर पर पूजा जाता है।

रामचन्द्रजी के जीवनचरित्र का मुख्य आधार संस्कृत भाषा का आदिकाव्य महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण है। गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस एवं कम्ब रामायण इत्यादि अनेक ग्रंथों के अनुसार त्रेतायुगमें जब लंका का राजा राक्षसराज रावण पूरे विश्व में अधर्म, अत्याचार फैला रहा था, देवताओं, ऋषियों ओर निर्दोष जीवो को दुख दे रहा था तभी अयोध्या के महाराज दशरथ और उनकी तीन महारानी कौशल्या,सुमित्रा, कैकयी वर्षों बाद भी पुत्रहीन थे। रावण के अत्याचारों का अंत करने एवं धर्म के रक्षा करने के लिए भगवान विष्णुने कौशल्या के गर्भ से रामावतार धारण किया, उनकी सहायता के लिए उनकी संगिनी लक्ष्मीजी ने देवी सीता, शेषनाग ने लक्ष्मण, शिवजी ने हनुमानजी आदि रूप में अवतार लिया। चैत्र सुद नवमी के दिन राम,लक्ष्मण, भरत,शत्रुघ्न का जन्म हुआ। बाल्यकाल में अनेक लीलाएं करके उन्होंने कुलगुरु वशिष्ठ से शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा प्राप्त करके राम-लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ ऋषिआश्रमों में राक्षसों का संहार करने गए। राक्षसदमन तथा यज्ञ की रक्षा करने के बाद उन्होंने मिथिला में सीता स्वयंवर में भाग लिया। जहां रामने शिव धनुष पिनाक भंग करके अपनी शाश्वत संगिनी देवी सीताजी से विवाह किया। कुछ समय बाद वहीं राजा दशरथ ने अपने प्रिय पुत्र राम को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया, लेकिन महारानी कैकयी षडयंत्र रचके वचनपालक दशरथ से वचन में राम को १४ वर्षका वनवास और अपने पुत्र भरत को अयोध्या का राज्य दिलवाया।

अपने माता पिता के वचन और आज्ञा को शिरोधार्य कर राजसुख त्याग कर श्रीराम ने अपना कर्तव्य निभाया महान आदर्श स्थापित किया। भ्रातृभक्त लक्ष्मण और पतिव्रता देवी सीताने भी राम का साथ दिया। वनवास के दौरान रामचन्द्रजी ने अनेक राक्षसों का संहार भी किया, अंत में दंडकारण्य में निवास किया। वहां श्रीराम ने रावण के भाई खर और दूषण का सेना समेत नाश किया और रावण की कामी बहन शूर्पणखा का अपमान किया क्योंकि वह दुष्ट राक्षसी काम के वशीभूत होकर श्रीराम से विवाह करना चाहती थी। रावण ने शूर्पणखा के भड़काने पर अहंकारवश श्रीराम से बदला लेने के लिए देवी सीताजी का ब्राह्मण के छद्मवेष में कपट से अपहरण किया, और देवी सीता की रक्षा करने के कारण जटायु को भी मार डाला।

राम-लक्ष्मण ने जटायु ओर माता शबरी को सदगती दे कर वानरराज सुग्रीव से मित्रता की। रामने पापी बाली का वध कर सुग्रीव को राजा बनाया। रामने समस्त वानर और रिंछ जाति की सहायता से सीताजी को ढूंढा, रामचंद्रजी ने अपने प्रताप से समुद्र पर रामसेतु बांधा, रामेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना की। लंकादहन के बाद राम और रावण में घमासान युद्ध हुआ। जिसमें रामने कुंभकर्ण, इंद्रजीत, रावण सहित समस्त राक्षसकुल का अंत कर के अपनी धर्मपत्नी सीताजी तथा बंधक देवताओं, ऋषियों को मुक्त करवाया। पश्चाद् सीताराम का राज्याभिषेक हुआ। वाल्मीकि रामायण के अनुसार रामचन्द्रजी ने ११ हजार वर्ष तक अयोध्या पर सुशासन किया, जिसे "रामराज्य" भी कहते है।[3] रामराज्य में प्रजा सर्व रूप से सुखी थी, सभी लोग अपने स्वधर्म का पालन करते थे, समाज से अनाचार, अधर्म, अशांति खत्म हो चुकी थी।[4]

अपने समस्त कर्तव्य पूर्ण करने के बाद अपने पुत्र लव और कुश को राज्य सौंप कर श्रीरामने वैकुंठगमन किया। इस प्रकार रामने आदर्श पुत्र, आदर्श मित्र, आदर्श भाई, आदर्श पति और आदर्श राजा का कर्तव्य निभाया ओर धर्म की स्थापना की। राम की यह सभी जीवनगाथा वैष्णव शास्त्रों में विस्तार से उल्लेखित है।[5]

नाम-व्युत्पत्ति एवं अर्थ

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'रम्' धातु में 'घञ्' प्रत्यय के योग से 'राम' शब्द निष्पन्न होता है।[6] 'रम्' धातु का अर्थ रमण (निवास, विहार) करने से सम्बद्ध है। वे प्राणीमात्र के हृदय में 'रमण' (निवास) करते हैं, इसलिए 'राम' हैं तथा भक्तजन उनमें 'रमण' करते (ध्याननिष्ठ होते) हैं, इसलिए भी वे 'राम' हैं - "रमते कणे कणे इति रामः"। 'विष्णुसहस्रनाम' पर लिखित अपने भाष्य में आद्य शंकराचार्य ने पद्मपुराण का हवाला देते हुए कहा है कि नित्यानन्दस्वरूप भगवान् में योगिजन रमण करते हैं, इसलिए वे 'राम' हैं।[7]

अवतार रूप में प्राचीनता

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वैदिक साहित्य में 'राम' का उल्लेख प्रचलित रूप में नहीं मिलता है। ऋग्वेद में केवल दो स्थलों पर ही 'राम' शब्द का प्रयोग हुआ है[8] (१०-३-३ तथा १०-९३-१४)। उनमें से भी एक जगह काले रंग (रात के अंधकार) के अर्थ में[9] तथा शेष एक जगह ही व्यक्ति के अर्थ में प्रयोग हुआ है[10]; लेकिन वहाँ भी उनके अवतारी पुरुष या दशरथ के पुत्र होने का कोई संकेत नहीं है। यद्यपि नीलकण्ठ चतुर्धर ने ऋग्वेद के अनेक मन्त्रों को स्वविवेक से चुनकर उनके रामकथापरक अर्थ किये हैं, परन्तु यह उनकी निजी मान्यता है। स्वयं ऋग्वेद के उन प्रकरणों में प्राप्त किसी संकेत या किसी अन्य भाष्यकार के द्वारा उन मंत्रों का रामकथापरक अर्थ सिद्ध नहीं हो पाया है। ऋग्वेद में एक स्थल पर 'इक्ष्वाकुः' (१०-६०-४) का[11] तथा एक स्थल पर[12] 'दशरथ' (१-१२६-४) शब्द का भी प्रयोग हुआ है। परन्तु उनके राम से सम्बद्ध होने का कोई संकेत नहीं मिल पाता है।[13]

ब्राह्मण साहित्य में 'राम' शब्द का प्रयोग ऐतरेय ब्राह्मण में दो स्थलों पर[14] (७-५-१{=७-२७} तथा ७-५-८{=७-३४})हुआ है; परन्तु वहाँ उन्हें 'रामो मार्गवेयः' कहा गया है, जिसका अर्थ आचार्य सायण के अनुसार 'मृगवु' नामक स्त्री का पुत्र है।[15] शतपथ ब्राह्मण में एक स्थल पर[14] 'राम' शब्द का प्रयोग हुआ है (४-६-१-७)। यहाँ 'राम' यज्ञ के आचार्य के रूप में है तथा उन्हें 'राम औपतपस्विनि' कहा गया है।[16] तात्पर्य यह कि प्रचलित राम का अवतारी रूप वाल्मीकीय रामायण एवं पुराणों की ही देन है।

राम-जन्म, अकबर की रामायण से

रामजी के कथा से सम्बद्ध सर्वाधिक प्रमाणभूत ग्रन्थ आदिकाव्य वाल्मीकीय रामायण में रामजी के-जन्म के सम्बन्ध में निम्नलिखित वर्णन उपलब्ध है:-

...................... चैत्रे नावमिके तिथौ।।

नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु।

ग्रहेषु कर्कटे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह।।[4]

अर्थात् चैत्र मास की नवमी तिथि में, पुनर्वसु नक्षत्र में, पाँच ग्रहों के अपने उच्च स्थान में रहने पर तथा कर्क लग्न में चन्द्रमा के साथ बृहस्पति के स्थित होने पर (रामजी का जन्म हुआ)।

यहाँ केवल बृहस्पति तथा चन्द्रमा की स्थिति स्पष्ट होती है। बृहस्पति उच्चस्थ है तथा चन्द्रमा स्वगृही। आगे पन्द्रहवें श्लोक में सूर्य के उच्च होने का उल्लेख है। इस प्रकार बृहस्पति तथा सूर्य के उच्च होने का पता चल जाता है। बुध हमेशा सूर्य के पास ही रहता है। अतः सूर्य के उच्च (मेष में) होने पर बुद्ध का उच्च (कन्या में) होना असंभव है। इस प्रकार उच्च होने के लिए बचते हैं शेष तीन ग्रह -- मंगल, शुक्र तथा शनि। इसी कारण से प्रायः सभी विद्वानों ने रामजी के-जन्म के समय में सूर्य, मंगल, बृहस्पति, शुक्र तथा शनि को उच्च में स्थित माना है।

भगवान राम के जन्म-समय पर आधुनिक शोध

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परम्परागत रूप से राम का जन्म त्रेता युग में माना जाता है। हिन्दू धर्मशास्त्रों में, विशेषतः पौराणिक साहित्य में उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार एक चतुर्युगी में 43,20,000 वर्ष होते हैं, जिनमें कलियुग के 4,32,000 वर्ष तथा द्वापर के 8,64,000 वर्ष होते हैं। राम का जन्म त्रेता युग में अर्थात द्वापर से पहले हुआ था। चूँकि कलियुग का अभी प्रारंभ ही हुआ है (लगभग 5,500 वर्ष ही बीते हैं) और राम का जन्म त्रेता के अंत में हुआ तथा अवतार लेकर धरती पर उनके वर्तमान रहने का समय परंपरागत रूप से 11,000 वर्ष माना गया है।[17] अतः द्वापर युग के 8,64,000 वर्ष + राम की वर्तमानता के 11,000 वर्ष + द्वापर युग के अंत से अबतक बीते 5,100 वर्ष = कुल 8,80,100 वर्ष। अतएव परंपरागत रूप से राम का जन्म आज से लगभग 8,80,100 वर्ष पहले माना जाता है।

प्रख्यात मराठी शोधकर्ता विद्वान डॉ॰ पद्माकर विष्णु वर्तक ने एक दृष्टि से इस समय को संभाव्य माना है। उनका कहना है कि वाल्मीकीय रामायण में एक स्थल पर विन्ध्याचल तथा हिमालय की ऊँचाई को समान बताया गया है। विन्ध्याचल की ऊँचाई 5,000 फीट है तथा यह प्रायः स्थिर है, जबकि हिमालय की ऊँचाई वर्तमान में 29,029 फीट है तथा यह निरंतर वर्धनशील है। दोनों की ऊँचाई का अंतर 24,029 फीट है। विशेषज्ञों की मान्यता के अनुसार हिमालय 100 वर्षो में 3 फीट बढ़ता है। अतः 24,029 फीट बढ़ने में हिमालय को करीब 8,01,000 वर्ष लगे होंगे। अतः अभी से करीब 8,01,000 वर्ष पहले हिमालय की ऊँचाई विन्ध्याचल के समान रही होगी, जिसका उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में वर्तमानकालिक रूप में हुआ है। इस तरह डाॅ॰ वर्तक को एक दृष्टि से यह समय संभव लगता है, परंतु उनका स्वयं मानना है कि वे किसी अन्य स्रोत से इस समय की पुष्टि नहीं कर सकते हैं।[18] अपने सुविख्यात ग्रंथ 'वास्तव रामायण' में डॉ॰ वर्तक ने मुख्यतः ग्रहगतियों के आधार पर गणित करके[19] वाल्मीकीय रामायण में उल्लिखित ग्रहस्थिति के अनुसार राम की वास्तविक जन्म-तिथि 4 दिसंबर 7323 ईसापूर्व को सुनिश्चित किया है। उनके अनुसार इसी तिथि को दिन में 1:30 से 3:00 बजे के बीच राम का जन्म हुआ होगा।[20]

डॉ॰ पी॰ वी॰ वर्तक के शोध के अनेक वर्षों के बाद[21] (2004 ईस्वी से) 'आई-सर्व' के एक शोध दल ने 'प्लेनेटेरियम गोल्ड' सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके रामजी का जन्म 10 जनवरी 5114 ईसापूर्व में सिद्ध किया। उनका मानना था कि इस तिथि को ग्रहों की वही स्थिति थी जिसका वर्णन वाल्मीकीय रामायण में है। परंतु यह समय काफी संदेहास्पद हो गया है। 'आई-सर्व' के शोध दल ने जिस 'प्लेनेटेरियम गोल्ड' सॉफ्टवेयर का प्रयोग किया वह वास्तव में ईसा पूर्व 3000 से पहले का सही ग्रह-गणित करने में सक्षम नहीं है।[22] वस्तुतः 2013 ईस्वी से पहले इतने पहले का ग्रह-गणित करने हेतु सक्षम सॉफ्टवेयर उपलब्ध ही नहीं था।[23] इस गणना द्वारा प्राप्त ग्रह-स्थिति में शनि वृश्चिक में था अर्थात उच्च (तुला) में नहीं था। चन्द्रमा पुनर्वसु नक्षत्र में न होकर पुष्य के द्वितीय चरण में ही था तथा तिथि भी अष्टमी ही थी।[24] बाद में अन्य विशेषज्ञ द्वारा "ejplde431" सॉफ्टवेयर द्वारा की गयी सही गणना में तिथि तो नवमी हो जाती है परन्तु शनि वृश्चिक में ही आता है तथा चन्द्रमा पुष्य के चतुर्थ चरण में।[25] अतः 10 जनवरी 5114 ईसापूर्व की तिथि वस्तुतः राम की जन्म-तिथि सिद्ध नहीं हो पाती है। ऐसी स्थिति में अब यदि डॉ० पी० वी० वर्तक द्वारा पहले ही परिशोधित तिथि सॉफ्टवेयर द्वारा प्रमाणित हो जाए तभी रामजी का वास्तविक समय प्रायः सर्वमान्य हो पाएगा अथवा प्रमाणित न हो पाने की स्थिति में नवीन तिथि के शोध का रास्ता खुलेगा।

राम के जीवन की प्रमुख घटनाएँ

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बालपन और सीता-स्वयंवर

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पुराणों में राम के जन्म के बारे में स्पष्ट प्रमाण मिलते कि राम का जन्म वर्तमान उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले के अयोध्या नामक नगर में हुआ था। अयोध्या जो कि भगवान राम के पूर्वजों की ही राजधानी थी। रामचन्द्र के पूर्वज रघु थे।

राम जन्म

भगवान राम बचपन से ही शान्‍त स्‍वभाव के वीर पुरूष थे। उन्‍होंने मर्यादाओं को हमेशा सर्वोच्च स्थान दिया था। इसी कारण उन्‍हें मर्यादा पुरूषोत्तम राम के नाम से जाना जाता है। उनका राज्य न्‍यायप्रिय और खुशहाल माना जाता था। इसलिए भारत में जब भी सुराज (अच्छे राज) की बात होती है तो रामराज या रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है। धर्म के मार्ग पर चलने वाले राम ने अपने तीनों भाइयों के साथ गुरू वशिष्‍ठ से शिक्षा प्राप्‍त की। किशोरावस्था में गुरु विश्वामित्र उन्‍हें वन में राक्षसों द्वारा मचाए जा रहे उत्पात को समाप्त करने के लिए साथ ले गये। राम के साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण भी इस कार्य में उनके साथ थे। ताड़का नामक राक्षसी बक्सर (बिहार) में रहती थी। वहीं पर उसका वध हुआ। राम ने उस समय ताड़का नामक राक्षसी को मारा तथा मारीच को पलायन के लिए मजबूर किया। इस दौरान ही गुरु विश्‍वामित्र उन्हें मिथिला ले गये। वहाँ के विदेह राजा जनक ने अपनी पुत्री सीता के विवाह के लिए एक स्वयंवर समारोह आयोजित किया था। जहाँ भगवान शिव का एक धनुष था जिसकी प्रत्‍यंचा चढ़ाने वाले शूरवीर से सीता का विवाह किया जाना था। बहुत सारे राजा महाराजा उस समारोह में पधारे थे। जब बहुत से राजा प्रयत्न करने के बाद भी धनुष पर प्रत्‍यंचा चढ़ाना तो दूर उसे उठा तक नहीं सके, तब विश्‍वामित्र की आज्ञा पाकर राम ने धनुष उठा कर प्रत्‍यंचा चढ़ाने का प्रयत्न किया। उनकी प्रत्‍यंचा चढाने के प्रयत्न में वह महान धनुष घोर ध्‍‍वनि करते हुए टूट गया।

महर्षि परशुराम ने जब इस घोर ध्‍वनि को सुना तो वे वहाँ आ गये और अपने गुरू (शिव) का धनुष टूटनें पर रोष व्‍यक्‍त करने लगे। लक्ष्‍मण उग्र स्‍वभाव के थे। उनका विवाद परशुराम से हुआ। (वाल्मिकी रामायण में ऐसा प्रसंग नहीं मिलता है।) तब राम ने बीच-बचाव किया। इस प्रकार सीता का विवाह राम से हुआ और परशुराम सहित समस्‍त लोगों ने आशीर्वाद दिया। अयोध्या में राम सीता सुखपूर्वक रहने लगे।

सीताराम

लोग राम को बहुत चाहते थे। उनकी मृदुल, जनसेवायुक्‍त भावना और न्‍यायप्रियता के कारण उनकी विशेष लोकप्रियता थी। राजा दशरथ वानप्रस्‍थ की ओर अग्रसर हो रहे थे। अत: उन्‍होंने राज्‍यभार राम को सौंपनें का सोचा। जनता में भी सुखद लहर दौड़ गई की उनके प्रिय राजा उनके प्रिय राजकुमार को राजा नियुक्‍त करनेवाले हैं। उस समय राम के अन्‍य दो भाई भरत और शत्रुघ्‍न अपने ननिहाल कैकेय गए हुए थे। कैकेयी की दासी मन्थरा ने कैकेयी को भरमाया कि राजा तुम्‍हारे साथ गलत कर रहें है। तुम राजा की प्रिय रानी हो तो तुम्‍हारी संतान को राजा बनना चाहिए पर राजा दशरथ राम को राजा बनाना चा‍हते हैं।

भगवान राम के बचपन की विस्तार-पूर्वक विवरण स्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस के बालकाण्ड से मिलती है।

सीताराम और लक्ष्मण वनवास के दौरान

राजा दशरथ के तीन रानियाँ थीं: कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। भगवान राम कौशल्या के पुत्र थे, सुमित्रा के दो पुत्र, लक्ष्मण और शत्रुघ्न थे और कैकेयी के पुत्र भरत थे। राज्य नियमो से राजा का ज्येष्ठ लड़का ही राजा बनने का पात्र होता है अत: राम को अयोध्या का राजा बनना निश्चित था। कैकेयी जिन्होने दो बार दशरथ की जान बचाई थी और दशरथ ने उन्हें यह वर दिया था कि वो वन के किसी भी पल उनसे दो वर मांग सकती है। राम को राजा बनते हुए और भविष्य को देखते हुए कैकेयी चाहती थी उसका पुत्र भरत ही राजा बनें, इसलिए उन्होने राजा दशरथ द्वारा राम को १४ वर्ष का वनवास दिलाया और अपने पुत्र भरत के लिए अयोध्या का राज्य मांग लिया। वचनों में बंदे राजा दशरथ को मजबूरन यह स्वीकार करना पड़ा। राम ने अपने पिता की आज्ञा का पालन किया। राम की पत्नी सीता और उनके भाई लक्ष्मण भी वनवास गये थे।

सीता का हरण

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वनवास के समय, रावण ने सीता का हरण किया था। रावण एक राक्षस तथा लंका का राजा था। रामायण के अनुसार, जब राम , सीता और लक्ष्मण कुटिया में थे तब एक हिरण की वाणी सुनकर सीताजी व्याकुल हो गए। वह हिरण रावण का मामा मारीच था। उसने रावण के कहने पर सुनहरे हिरण का रूप बनाया। सीता उसे देख कर मोहित हो गए और राम से उस हिरण को पकड़ने का अनुरोध किया। राम अपनी भार्या की इच्छा पूरी करने चल पड़े और लक्ष्मण से सीता की रक्षा करने को कहा| मारीच राम को बहुत दूर ले गया। मौका मिलते ही रामने तीर चलाया और हिरण बने मारीच का वध किया। मरते-मरते मारीच ने ज़ोर से "हे सीता! हे लक्ष्मण!" की आवाज़ लगायी| उस आवाज़ को सुन सीताजी चिन्तित हो गए और उन्होंने लक्ष्मण को राम के पास जाने को कहा| लक्ष्मण जाना नहीं चाहते थे, पर अपनी भाभी की बात को इंकार न कर सके। लक्ष्मण ने जाने से पहले एक रेखा खींची, जो लक्ष्मण रेखा के नाम से प्रसिद्ध है।

Ravi_Varma-Ravana_Sita_Jathayu

भगवान राम, अपने भाई लक्ष्मण के साथ सीता की खोज में दर-दर भटक रहे थे। तब वे हनुमान और सुग्रीव नामक दो वानरों से मिले। हनुमान, राम के सबसे बड़े भक्त बने।

रावण का वध

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सीता को को पुनः प्राप्त करने के लिए राम ने हनुमान,विभीषण और वानर सेना की मदद से रावन के सभी बंधु-बांधवों और उसके वंशजों को पराजित किया तथा लौटते समय विभीषण को लंका का राजा बनाकर अच्छे शासक के लिए मार्गदर्शन किया।

अयोध्या वापसी

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राम का अयोध्या में पुनः आगमन

राम ने जब रावण को युद्ध में परास्त किया और उसके छोटे भाई विभीषण को लंका का राजा बना दिया। राम, सीता, लक्षमण और कुछ वानर जन पुष्पक विमान से अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। वहां सबसे मिलने के बाद राम और सीता का अयोध्या में राज्याभिषेक हुआ। पूरा राज्य कुशल समय व्यतीत करने लगा।

सीताराम का राज्याभिषेक

अपने समस्त कर्तव्य पूर्ण करने के बाद अपने पुत्र लव और कुश को राज्य सौंप कर श्रीरामने साकेतगमन किया। इस प्रकार रामने आदर्श पुत्र, आदर्श मित्र, आदर्श भाई, आदर्श पति और आदर्श राजा का कर्तव्य निभाया ओर धर्म की स्थापना की। राम की यह सभी जीवनगाथा वैष्णव शास्त्रों में विस्तार से उल्लेखित है।

राम सभा

दैहिक त्याग

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ब्रह्मा द्वारा राम का स्वर्ग मे स्वागत

सीता की सती प्रमाणिकता सिद्ध होने के पश्चात सीता अपने दोनों पुत्रों कुश और लव को राम के गोद में सौंप कर धरती माता के साथ भूगर्भ में चली गई। ततपश्चात रामजन्म की जीवन भी पूर्ण हो गई थी। अतः उन्होंने यमराज की सहमति से सरयू नदी के तट पर गुप्तार घाट में दैहिक त्याग कर पुनः साकेतधाम में अपनी शाश्वत संगिनी देवी सीता और पार्षदों सहित दिव्य स्वरूप में विराजमान हो गये।

संबंधित पृष्ठ

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सन्दर्भ

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  1. James G. Lochtefeld 2002, p. 555.
  2. "Shri Ram".
  3. "Valmiki Ramayana".
  4. 1 2 श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण (सटीक), प्रथम भाग, बालकाण्ड- 1.1.97; गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण-1996 ई०, पृष्ठ-57.
  5. गोस्वामी, तुलसीदास (2019). रामचरितमानस. गोरखपुर: गीताप्रेस गोरखपुर.
  6. संस्कृत-हिन्दी कोश, वामन शिवराम आप्टे।
  7. श्रीविष्णुसहस्रनाम, सानुवाद शांकर भाष्य सहित, गीताप्रेस गोरखपुर, संस्करण-1999, पृष्ठ-143.
  8. ऋग्वेद पदानां अकारादि वर्णक्रमानुक्रमणिका, संपादक- स्वामी विश्वेश्वरानंद एवं नित्यानंद, निर्णय सागर प्रेस, मुंबई, संस्करण-1908, पृ०-348.
  9. ऋग्वेदसंहिता (श्रीसायणाचार्य कृत भाष्य एवं भाष्यानुवाद सहित) भाग-5, चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, वाराणसी, संस्करण-2013, पृष्ठ-3892.
  10. ऋग्वेदसंहिता (श्रीसायणाचार्यजी कृत भाष्य एवं भाष्यानुवाद सहित) भाग-5, चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, वाराणसी, संस्करण-2013, पृष्ठ-4406.
  11. ऋग्वेद पदानां अकारादि वर्णक्रमानुक्रमणिका, संपादक- स्वामी विश्वेश्वरानंद एवं नित्यानंद, निर्णय सागर प्रेस, मुंबई, संस्करण-1908, पृ०-79.
  12. वैदिक-पदानुक्रम-कोषः, संहिता विभाग, तृतीय खण्ड, संपादक- विश्वबन्धुजी शास्त्री, विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशिआरपुर, संस्करण-1956, पृष्ठ-1550; एवं ऋग्वेद पदानां अकारादि वर्णक्रमानुक्रमणिका, संपादक- स्वामी विश्वेश्वरानंद एवं नित्यानंद, निर्णय सागर प्रेस, मुंबई, संस्करण-1908, पृ०-195.
  13. हिन्दी साहित्य कोश, भाग-2, संपादक- डॉ० धीरेंद्र वर्मा एवं अन्य, ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी, संस्करण-2011, पृष्ठ-497.
  14. 1 2 वैदिक-पदानुक्रमकोषः, ब्राह्मण-आरण्यक विभाग, द्वितीय खण्ड, विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, लवपुर, संस्करण-1936, पृष्ठ-852.
  15. ऐतरेयब्राह्मणम् (सायण भाष्य एवं हिन्दी अनुवाद सहित) भाग-2, संपादक एवं अनुवादक- डॉ० सुधाकर मालवीय, तारा प्रिंटिंग वर्क्स, वाराणसी, संस्करण-1983, पृष्ठ-1201.
  16. शतपथब्राह्मण (सटीक), भाग-1, विजयकुमार गोविंदराम हासानंद, दिल्ली, संस्करण-2010, पृष्ठ-657.
  17. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण, पूर्ववत्,1.15.29; पृ०-64.
  18. A REALISTIC APPROACH TO THE VALMIKI RAMAYANA (Translation of the Original Book ‘VASTAVA RAMAYANA’ in Marathi), Dr. Padmakar Vishnu Vartak, English Translation by Vidyakar Vasudev Bhide, Blue Bird (India) Limited, Pune, First Edition-2008, p.282.
  19. A REALISTIC APPROACH TO THE VALMIKI RAMAYANA, ibid, p.290-300.
  20. A REALISTIC APPROACH TO THE VALMIKI RAMAYANA, ibid, p.300.
  21. डॉ॰ पी॰ वी॰ वर्तक की पुस्तक 'वास्तव रामायण' (मराठी) का चतुर्थ संस्करण 1993 में निकल चुका था
  22. इतिहास का उपहास (राम की जन्मतिथि एवं जन्मकुण्डली की भ्रामक व्याख्या का निराकरण), विनय झा, अखिल भारतीय विद्वत् परिषद्, वाराणसी, संस्करण-2015, पृष्ठ-10-11.
  23. इतिहास का उपहास, पूर्ववत्, पृ०-10 तथा 30.
  24. इतिहास का उपहास, पूर्ववत्, पृ०-29.
  25. इतिहास का उपहास, पूर्ववत्, पृ०-37.

बाहरी कड़ियाँ

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