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धर्मशास्त्र

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धर्मशास्त्रसंग्रह नामक ग्रन्थ का मुखपृष्ठ। इसमें २८ स्मृतियों का संकलन है।

धर्मशास्त्र संस्कृत ग्रन्थों का एक वर्ग है, जो कि शास्त्र का ही एक प्रकार है। ये ग्रन्थ धर्मसूत्रों के बाच रचे गये। मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, नारदस्मृति, और विष्णुस्मृति - ये वर्तमान समय में उपलब्ध प्रमुख धर्मशास्त्र हैं। इनके अतिरिक्त भी बहुत से धर्मशास्त्र हैं। धर्मशास्त्र, के मुख्यतः तीन अंग हैं- आचार, व्यवहार और प्रायश्चित। कुछ नारी धर्मशास्त्री भी हुईं हैं, जैसे लक्ष्मीदेवी ने 'विवादचन्द्र' लिखा है जबकि महादेवी धर्मकीर्ति ने 'दानवाक्यावली' लिखा है।

धर्मशास्त्रों का बृहद् पाठ भारत की ब्राह्मण परंपरा का अंग है, तथा यह विद्वत्परंपरा की देन एवं एक विशद तंत्र है।[1] इसके गहन न्यायशास्त्रीय विवेचन के कारण प्रारंभिक ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा यह हिंदुओं के लिए कानून के रूप में माना गया था[2] तब से लेकर आज भी धर्मशास्त्र को हिन्दू विधिसंहिता के रूप में देखा जाता है। धर्मशास्त्र में उपस्थित रिलीजन व कानून के बीच जो अंतर किया जाता है, दरअसल वह कृत्रिम है और बार-बार उसपर प्रश्न उठाये गये हैं।[3] जबकि कुछ लोग, धर्मशास्त्र में धार्मिक व धर्मनिरपेक्ष कानूनों के बीच अंतर रखा गया है ऐसा पक्ष लेते हैं।[4] धर्मशास्त्र हिन्दू परंपरा में महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि- एक, यह एक आदर्श गृहस्थ के लिए धार्मिक नियमों का स्रोत है, तथा दूसरे, यह धर्म, विधि, आचारशास्त्र आदि से संबंधित हिंदू ज्ञान का सुसंहत रूप है।

सामाजिक सुधार को समर्पित एक महान विद्वान पांडुरंग वामन काणे ने "धर्मशास्त्र का इतिहास" नामक एक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की है। यह ग्रन्थ पाँच भागों में प्रकाशित है और प्राचीन भारत के सामाजिक विधियों तथा प्रथाओं का विश्वकोश है। इससे हमें प्राचीन भारत में सामाजिक प्रक्रिया को समझने में मदद मिलती है।"[5]


नारी गरिमा

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धर्मशास्त्रों में नारी की गरिमा देखने देखने को मिलती है। लौकिक संस्कृति में आदर के लिए स्त्रियों के लिए "मान्या" शब्द का प्रयोग किया जाता है । स्त्री शब्द तो सर्वाधिक प्रचलित है । भाष्यकार महर्षि पतंजलि के अनुसार , स्तास्यति अस्था गर्भ इति स्त्री अर्थात् "उसके भीतर गर्भ की स्थिति के होने पर उसे स्त्री कहा जाता है।"[6]

मनुस्मृति कहती हैं - यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते , रमन्ते तत्र देवताः । यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रा फलाः क्रियाः ॥ अर्थात् - जहाँ नारियों का सम्मान होता है , वहाँ देवता निवास करते हैं । जहाँ इनका सम्मान नहीं होता , वहाँ प्रगति , उन्नति की सारी क्रियाएं निष्फल हो जाती हैं ।[7]

उपनिषद्कारों ने तो नर और नारी में कभी कहीं भेद किया ही नहीं । उन्होंने तो नर और नारी दोनों में ही एक ही तत्व का अस्तित्व , एक ही चेतना की छाया देखी है । तभी तो उन्होंने गाया है -

यः सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्सर्वेभ्यो भूतेभ्योऽन्तरो यं सर्वाणि भूतानि न विदुर्यस्य सर्वाणि भूतानि शरीरं यः सर्वाणि भूतान्यन्तरो यमयत्येष त आत्मान्त्याभ्यमृतः । - वृहदारण्यक उपनिषद् 3/7/15

अर्थात् ये सब भूतों में रहता हुआ भी सबसे पृथक है , जिसे सारे भूत नहीं जानते । सारे भूत जिसका शरीर है , जो सब भूतों में स्थित होकर उनका नियन्त्रण करता है । वह तेरी आत्मा हैं वह सब में व्याप्त है और किसी में भी विशेष अविशेष नहीं है ।[8]

ऋग्वेद के दशम मण्डल के 159 वें सूक्त में शची का गौरव वर्णित है। शची का कथन है - अहं केतुरहं मूर्धाऽमुग्रा विवाचिनी । ममेदनु क्रर्तुं पतिः सेहानाया उपाचरेत् । - ऋग्वेद 10।159/2 अर्थात् मैं ज्ञान में अग्रगण्य हूँ , मैं स्त्रियों में मूर्धन्य हूँ । मैं उच्चकोटि की वक्ता हूँ । मुझ विजयिनी की इच्छानुसार ही मेरा पति आचरण करता है । यही नहीं शतपथ ब्राह्मण में कहते हैं - यावत् जयाँ न विन्दते , असर्वो हि तावद् भवति । (शतपथ ब्रा . 5.2.1.10) अर्थात् पत्नी के बिना जीवन अधूरा है । ऐतरेय ब्राह्मण का कथन है - जाया गार्हपत्यः ( अग्निः ) ऐत . ब्रा . 8.24 - अर्थात् पत्नी गार्हपत्य अग्नि हैं। यही नहीं शतपथ ब्राह्मण में स्त्री के अपमान को निन्दनीय माना गया है - न वै स्त्रियं हनन्ति । (शत . ब्रा . 11.4.3.2) । तैत्तिरीय के अनुसार- "श्रिया वाएतद् रुप्यं यत् पत्नयः ।” (तैत्ति . ब्रा . 3.9.4.7) अर्थात् पत्नी गृहलक्ष्मी है , साक्षात श्री है ।[8]

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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  1. Patrick Olivelle, Manu's Code of Law: A Critical Edition and Translation of the Mānava-Dharmaśāstra (New York: Oxford UP, 2005), 64.
  2. For a good overview of the British attitudes toward and administration of Hindu law, see J. Duncan M. Derrett, "The Administration of Hindu Law by the British," Comparative Studies in Society and History 4:1 (1961), pp.10-52.
  3. See, for example, Ludo Rocher, "Hindu Law and Religion: Where to draw the line?" in Malik Ram Felicitation Volume, ed. S.A.J. Zaidi. (New Delhi, 1972), pp.167-194 and Richard W. Lariviere, "Law and Religion in India" in Law, Morality, and Religion: Global Perspectives, ed. Alan Watson (Berkeley: University of California Press), pp.75-94.
  4. On this distinction in relation to punishment, see Timothy Lubin, "Punishment and Expiation: Overlapping Domains in Brahmanical Law," Archived 2010-11-27 at the वेबैक मशीन Indologica Taurinensia 33 (2007): 93-122.
  5. Sharma, R.S. (2005). India's Ancient Past. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस. ISBN 978-0195687859.
  6. Shresth Nibandh (Paperback) (Hindi भाषा में). Upkar Prakashan. pp. 145A. ISBN 9788174821010.{{cite book}}: CS1 maint: unrecognized language (link)
  7. Dwivedi, Dr. Bhojraj. Hindu Manyataon Ka Dharmik Adhaar (Paperback) (Hindi and Sanskrit भाषा में). Diamond Pocket Books (P) Limited. p. 186. ISBN 9788128807961.{{cite book}}: CS1 maint: unrecognized language (link)
  8. "धर्मशास्त्रों में नारी की गरिमा". literature.awgp.org (Hindi भाषा में). 1996.{{cite web}}: CS1 maint: unrecognized language (link)