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चरक संहिता

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चरकसंहिता आयुर्वेद का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यह संस्कृत भाषा में है। इसके उपदेशक अत्रिपुत्र पुनर्वसु, ग्रंथकर्ता अग्निवेश और प्रतिसंस्कारक चरक हैं। चरकसंहिता और सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद के दो प्राचीनतम आधारभूत ग्रन्थ हैं जो काल के गाल में समाने से बचे रह गए हैं। भारतीय चिकित्साविज्ञान के तीन बड़े नाम हैं - चरक, सुश्रुत और वाग्भट। चरक संहिता, सुश्रुतसंहिता तथा वाग्भट का अष्टांगसंग्रह आज भी भारतीय चिकित्सा विज्ञान (आयुर्वेद) के मानक ग्रन्थ हैं।

चरकसंहिता की रचना दूसरी शताब्दी से भी पूर्व हुई थी। यह आठ भागों में विभक्त है जिन्हें 'स्थान' नाम दिया गया है (जैसे, निदानस्थान)। प्रत्येक 'स्थान' में कई अध्याय हैं जिनकी कुल संख्या १२० है। इसमें मानव शरीर से सम्बन्धित (तत्कालीन) सिद्धान्त, हेतुविज्ञान, अनेकानेक रोगों के लक्षण तथा चिकित्सा वर्णित है। चरकसंहिता में भोजन, स्वच्छता, रोगों से बचने के उपाय, चिकित्सा-शिक्षा, वैद्य, धाय और रोगी के विषय में विशद चर्चा की गयी है।

प्राचीन वाङ्मय के परिशीलन से ज्ञात होता है कि उन दिनों ग्रन्थ या तंत्र की रचना शाखा के नाम से होती थी, जैसे कठ शाखा में कठोपनिषद् बनी। शाखाएँ या चरण उन दिनों के विद्यापीठ थे, जहाँ अनेक विषयों का अध्ययन होता था। अत: संभव है, चरकसंहिता का प्रतिसंस्कार चरक शाखा में हुआ हो। चिकित्सा विज्ञान जब शैशवावस्था में ही था उस समय चरकसंहिता में प्रतिपादित आयुर्वेदीय सिद्धान्त अत्यन्त श्रेष्ठ तथा गंभीर थे। इसके दर्शन से अत्यन्त प्रभावित आधुनिक चिकित्साविज्ञान के आचार्य प्राध्यापक आसलर ने चरक के नाम से अमेरिका के न्यूयार्क नगर में १८९८ में 'चरक-क्लब्' संस्थापित किया जहाँ चरक का एक चित्र भी लगा है।

आचार्य चरक और आयुर्वेद का इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि एक का स्मरण होने पर दूसरे का अपने आप स्मरण हो जाता है। आचार्य चरक केवल आयुर्वेद के ज्ञाता ही नहीं थे परन्तु सभी शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनका दर्शन एवं विचार सांख्य दर्शन एवं वैशेषिक दर्शन का प्रतिनिधित्व करता है। आचार्य चरक ने शरीर को वेदना, व्याधि का आश्रय माना है, और आयुर्वेद शास्त्र को मुक्तिदाता कहा है। आरोग्यता को महान् सुख की संज्ञा दी है, कहा है कि आरोग्यता से बल, आयु, सुख, अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति होती है।

आचार्य चरक, संहिता निर्माण के साथ-साथ वन-वन, स्थान-स्थान घूम-घूमकर रोगी व्यक्ति की, चिकित्सा सेवा किया करते थे तथा इसी कल्याणकारी कार्य तथा विचरण क्रिया के कारण उनका नाम 'चरक' प्रसिद्ध हुआ।

चरकसंहिता का आयुर्वेद को मौलिक योगदान

चरकसंहिता का आयुर्वेद के क्षेत्र में अनेक मौलिक योगदान हैं जिनमें से मुख्य हैं-

  • रोगों के कारण तथा उनकी चिकित्सा का युक्तिसंगत दृष्टिकोण
  • चिकित्सकीय परीक्षण की वस्तुनिष्ठ विधियों का उल्लेख

चरकसंहिता का मूल

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`चरकसंहिता' आज हमें जिस रूप में उपलब्ध है, संभवतया उसकी रचना मूलतः आत्रेय के एक प्रतिभावान शिष्य अग्निवेश ने ईसापूर्व ७वीं अथवा ८वीं शताब्दी में की थी। इसमें आत्रेय की शिक्षाओं का समावेश है। अग्निवेश का ग्रन्थ ११वीं शताब्दी ईं। तक उपलब्ध रहा प्रकट होता है।

समय के साथ-साथ आयुर्वेदिक चिकित्सा शास्त्र के नये सिद्धान्त बनते गये, नये-नये उपचार आदि की खोज होती रही। तब यह आवश्यक समझ गया कि अग्निवेश तंत्र का संशोधन किया जाये और यह कार्य चरक ने किया जो सम्भवताय ईसापूर्व १७५ में रहे होंगे। इसी संशोधित संस्करण को `चरक संहिता' के नाम से जाना गया। इसे नवीं शताब्दी ईं। में एक कश्मीरी पंडित व द्रधबल ने पुन: संशोधित एवं सम्पादित किया और यही संस्करण अब हमें उपलब्ध है।

`चरक संहिता' एक विशाल ग्रन्थ है जिसमें आयुर्वेदिक चिकित्साशास्त्र के विभिन्न पहलुओं का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ से हमें उस प्राचीन काल में चिकित्सा-शास्त्र की पूरी जानकारी मिलती है।

रचनाकार

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चरक संहिता निर्माण में निम्न रचनाकारों का योगदान है-

आचार्य अग्निवेश- चरक संहिता के मुख्य रचनाकार अग्निवेश ही हैं, जिनकी रचना का प्रतिसंस्कार करके चरकसंहिता का निर्माण किया गया।

आचार्य चरक- आचार्य चरक के द्वारा ही चरक संहिता प्रतिसंस्कृत हुई। चरक पंजाब देश में कपिल स्थल नामक ग्राम के निवासी थे। कायचिकित्सा के विशेषज्ञों को 'चरकाः' या 'चरक' कहा जाता है। आचार्य चरक को वैशम्पायन मुनि का शिष्य माना गया है। चरक का काल पहली सदी मानी गई है।

दृढ़बल- चरकसंहिता के कुछ भागों की रचना आचार्य दृढ़बल के द्वारा किया गया है। चरकसंहिता के चिकित्सास्थान के 17 अध्याय से लेकर कल्पस्थान तक की पूर्ति इनके द्वारा ही की गई है।

रचनाकाल

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चरकसंहिता में पालि साहित्य के कुछ शब्द मिलते हैं, जैसे अवक्रांति, जेंताक (जंताक - विनयपिटक), भंगोदन, खुड्डाक, भूतधात्री (निद्रा के लिये)। इससे चरकसंहिता का उपदेशकाल उपनिषदों के बाद और बुद्ध के पूर्व निश्चित होता है। इसका प्रतिसंस्कार कनिष्क के समय 78 ई. के लगभग हुआ।

त्रिपिटक के चीनी अनुवाद में कनिष्क के राजवैद्य के रूप में चरक का उल्लेख है। किंतु कनिष्क बौद्ध था और उसका कवि अश्वघोष भी बौद्ध था, पर चरक संहिता में बुद्धमत का जोरदार खंडन मिलता है। अत: चरक और कनिष्क का संबंध संदिग्ध ही नहीं असंभव जान पड़ता है। पर्याप्त प्रमाणों के अभाव में मत स्थिर करना कठिन है।

चरकसंहिता का संगठन

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चरक संहिता विषयों के अनुसार आठ भागों (जिनको 'स्थान' कहा गया है) में विभाजित है और इसमें 120 अध्याय हैं। ये आठ स्थान हैं-

  1. सूत्रस्थानम् (General principles) - 30 अध्याय,
  2. निदानस्थानम् (Pathology) - 8 अध्याय,
  3. विमानस्थानम् (Specific determination) - 8 अध्याय,
  4. शारीरस्थानम् (Anatomy) - 8 अध्याय,
  5. इन्द्रियस्थानम् (Sensory organ based prognosis) - 12 अध्याय,
  6. चिकित्सास्थानम् (Therapeutics) - 30 अध्याय,
  7. कल्पस्थानम् (Pharmaceutics and toxicology) - 12 अध्याय, और
  8. सिद्धिस्थानम् (Success in treatment) - 12 अध्याय।

चरकसंहिता आत्रेयसम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ मानी जाती है जिसमें कायचिकित्सा प्रमुखता के साथ प्रतिपादित है।

सूत्रस्थान

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चरकसंहिता 'सूत्रस्थान' से आरम्भ होती है जिसमें आयुर्वेद के मूलभूत सिद्धान्तों का वर्णन है। सूत्रस्थान सम्पूर्ण संहिता का दर्शन है। सूत्र स्थान के अध्ययन से ही सम्पूर्ण संहिता की रचना एवं प्रयोजन स्पष्ट रूप से समझ में आता है। सूत्र स्थान में ३० अध्याय हैं। सूत्रस्थान में समस्त विषयों को चार-चार अध्याय में विभक्त करके सात विषयों का प्रतिपदित किया गया है। सूत्रस्थान सभी आयुर्वेदीय ग्रन्थों का दर्पण है एवं इनमें वर्णित विषयों को ही अन्य ग्रन्थकारों ने अपने शब्दों में प्रकाशित किया है।

प्रथम चार अध्याय भैषज्य चतुष्टक के रूप में वर्णित है, जिसमें आयुर्वेद पठन-पठान की विशेषता, रोग का कारण, दोष, धातु, मलों कि व्याख्या, पंच कर्म परिचय, भैषज्यकल्पना एवं आयुर्वेदीय वनस्पति द्रव्यों का वर्गीकरण आदि विषयों का विस्तृत वर्णन है।

चार अध्याय कल्पना चतुष्टक के रूप में वर्णित हैं। इसमें वैद्य एवं चिकित्सा के चारो पादों का वर्णन, ऐषणाएं सम्बन्धी विचार तथा अन्य विविध विषयों का वर्णन दिया गया है।

वात कलाकलिय अध्याय से लेकर उपकल्पनीय अध्याय तक वात आदि दोषों के प्रकोप एवं शमन के बारे में, स्नेहन, स्वेदन कर्म एवं उससे सम्बन्धित द्रव्य, तथा पंचकर्म योजना को सुन्दर रूप से प्रतिपादन की गई है।

आगे के चार अध्यायों में चिकित्सा प्रवृत्ति अध्याय से लेकर महारोग अध्याय तक दोष, धातु से उत्पन्न समस्त रोगों का वर्णन किया गया है।

अष्टनिन्दनीय अध्याय से लेकर, यज्ञपुरूष अध्याय तक निन्दित पुरूषों का वर्णन, उनके निन्दनीय होने का कारण, अपतर्पण एवं सन्तर्पण चिकित्सा की विशेषता, सन्यास, मूर्च्छा आदि मानसिक रोगों का कारण एवं राशि पुरूष की उत्पत्ति का सम्पूर्ण मोहक वर्णन प्राप्त है।

आगे के चार अध्यायों में मधुर, अम्ल आदि छः रसों का वर्णन, द्रव्यों के गुण, विपाक, वीर्य आदि प्रभावी विवेचना, अन्नपान विषयक सम्पुर्ण उपायों का सुन्दर एवं व्यवस्थित वर्णन प्राप्त है।

सूत्रस्थान का अन्तिम अध्याय में आयुर्वेद के प्रवर्धन एवं अंगों के विषयों को प्रकाशित करते हुए, सम्पूर्ण चिकित्सा शास्त्र की महत्ता को प्रतिपादीत किया है।

निदानस्थान

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नैदानिक दृष्टि से निदानस्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इनके आठों अध्यायों में रोगों के हेतु तथा वातादि भेदों का विस्तृत वर्णन प्राप्त है जिसके अध्ययन से रोग निदान की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।

सभी रोगों के निदानपंचक में हेतु आदि पांचों विषयों का विस्तृत वर्णन प्राप्त है। ज्वर, रक्तपित्त, गुल्म, प्रमेह, कुष्ठ, आदि रोगों की संख्या, भेद, कारण, लक्षण, साध्य-असाध्यता तथा चिकित्सा सूत्र का सरल एवं सुबोध भाषा में वर्णन प्राप्त होता है। सभी रोगों का कारण, सम्प्राप्ति, भेद, साध्य-असाध्यता, चिकित्सा सूत्र एवं निदान विषयक अन्य विषयों के सामान्य सिद्धान्तों का वर्णन मिलता है।

विमानस्थान

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चिकित्सा जगत में प्रवीण होने के लिए विमानस्थान का समुचित ज्ञान बहुत आवश्यक है। विमानस्थान में आयुर्वेद के महत्वपूर्ण विषयों की व्यापक व्याख्या की गयी है।इस स्थान में आठ अध्याय हैं, जिसकी विशेषता निम्न है-

रस विमान अध्याय - मधुर-अम्लादि रसों के गुणधर्म, वातादि दोषों के भेद, उनके क्षय, वृद्धि में रसों का प्रभाव, तेल, घृत, मधु आदि द्रव्यों का शरीर पर प्रभाव तथा अष्टआहार विध विशेष आयतन के अनुसार आहार विधि विधान का व्यापक वर्णन है।

त्रिविध कुक्षीय विमान अध्याय- कुक्षि का अर्थ उदर से है। आहार सेवन में मात्रा, अमात्रा, आम दोष से उत्पन्न, विसुचिका, अलसक आदि रोगों का कारण, लक्षण, चिकित्सा का वर्णन प्राप्त है।

जनपदोध्वस्नीय विमान अध्याय- जन समुदाय में व्याप्त होने वाले महामारी के कारण, लक्षण, एवं चिकित्सा सम्बन्धी विषयों को जनपदोंध्वंस कहते है। इसके निवारण की सम्पूर्ण व्याख्या इस अध्याय में वर्णीत है।

त्रिविध रोग विशेष विज्ञानी विमान अध्याय - इसमें प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आप्त उपदेश आदि परीक्ष्य विषयों के द्वारा रोग परीक्षण, पंच इन्द्रियों द्वारा रोगी परीक्षण की विधि का वर्णन है।

स्त्रोतों विमान अध्याय- सभी धातु, दोष एवं शरीरगत द्रव्यों को वहन करने वाले स्रोत एवं उनके भेदों, स्त्रोतो दुष्टि का कारण, लक्षण एवं चिकित्सासुत्र का उल्लेख इस अध्याय में सुगमता से किया गया है।

रोगानिक विमान अध्याय- रोग भेद, शारीरिक एवं मानस दोष, चतुर्विध अग्नि, प्रकृति आदि का व्यापक वर्णन है।

व्याधित रूपीय विमान अध्याय- इस अध्याय में गुरू, लघु, व्याधित पुरूषों के लक्षण, कृमि रोग निदान एवं चिकित्सा का वर्णन है।

रोग भिषग्यि जातिय विमान अध्याय - रोग निदान हेतु आचार्य परीक्षा, संभाषा का आयोजन, दसविध आतुर परीक्षा का सरल सुबोध ज्ञान इस अध्याय में मिलता है।

सारांश रूप में, यह अध्याय चिकित्सक वर्ग एवं आयुर्वेद ज्ञान हेतु उत्सुक जनों को आयुर्वेद का सम्पूर्ण ज्ञान कराता है।

शारीरस्थान

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चरकसंहिता शारीरस्थान ज्ञान का अभ्यास ही उत्तम वैद्य का लक्षण है। शरीर-रचना के ज्ञान के बिना कोई भी चिकित्सा सफल नहीं होती। इस स्थान में आठ अध्याय हैं। शरीर स्थान के द्वारा मानव के शरीर की रचना का व्‍यापक ज्ञान होता है। इस स्थान की जानकारी के बिना चिकित्सा क्षेत्र में कार्य करना असम्भव है। इस अध्याय में शरीर की उत्पत्ति, स्थिति एवं क्रमशः वृद्धि तथा चिकित्सीय पुरूष की परिभाषा का ज्ञान होता हैं। बिना चिकित्सीय पुरूष की चिकित्सा असम्भव है।

सृष्टि में मानव के प्रादुर्भाव का अनुभव होना इस अध्याय का महत्वपूर्ण विषय है। पंचमहाभूत, पंच भूतात्मक शरीर एवं मन का सूक्ष्म विवेचना है। इसी तरह गर्भोत्पत्ति की प्रक्रिया, प्रारम्भ से ही गर्भ शरीर का वर्णन, स्त्री एवं पुरूष गर्भ के लक्षण तथा इन गर्भों की उत्पति में हेतु का ज्ञान एक अद्भुत विज्ञान है। इसके अध्ययन से मनुष्य गर्भ के आदि एवं जीवन के अन्त का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। मानस प्रकृति के 16 भेद, गर्भ में प्रकृति ज्ञान, दोष, धातु, मलों की विवेचना, शरीर के विभिन्न अंगों एवं अवयव की संख्या, आकार, प्रकार, शरीर में उसकी स्थिति, प्रसूति या प्रसव की क्रियाओं को एक सूत्र में पिरोया गया है। साथ ही बच्चों में होने वाले रोग, बालक संस्कार, पोषण विधि एवं बाल रोगों की चिकित्सा का ज्ञान इस अध्याय की विशेषता है। सम्पूर्ण मानव सृष्टि एवं शरीर रचना वर्णन इस अध्याय का वह नगीना है, जिसके अभाव में चिकित्सा रूपी आभूषण पूर्ण नहीं होता।


इन्द्रियस्थान

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इन्द्रियस्थान में 12 अध्याय है, प्रत्येक अध्याय कि अपनी विशिष्टता है। आरिष्ट या मृत्युसूचक एवं अशुभ लक्षणों का चिकित्सा विज्ञान में अपना महत्त्व है। सम्पूर्ण इन्द्रिय स्थान में रोगों के अरिष्ट लक्षणें का वर्णन है। चिकित्सा जगत में अरिष्ट स्थान प्राग्ज्ञान (prognosis) की दृष्टि से सर्वविदित है।

इन्द्रिय स्थान में वर्ण, स्वर, गंध, रस, स्पर्श चक्षु, स्त्रोत, घ्राण, रसना, मन, अग्नि, शौच, शीलता, आचरण, स्मरणशक्ति, विकृति धारणा शक्ति, बल, शरीर आकृति, रूक्षता, स्न्गि्धता, गौरव एवं आहार पाचन तथा आहार परिणाम संबंधी विभिन्न प्रकार के अशुभ लक्षणों का वर्णन सुन्दर वाटीका में सुसज्जित पुष्पों के समान किया गया है।

व्याधि का मूल रूप, वेदना, उपदेश, छाया, प्रतिच्छाया, स्वप्न, भूताधिकार, मार्ग में आरिष्ट जनक वस्तु को देखना, इन्द्रिय एवं इन्द्रिय विषय से सम्बधित शुभ-अशुभ लक्षणों को जानना एवं रोग के साध्य, असाध्यता एवं रोगी के जीवन मृत्यु के निर्णय में इन अरिष्ट लक्षणों का योगदान इन विषयों का इन्द्रिय स्थान में बुद्धिगम्य शब्दों में सुन्दर वर्णन प्राप्त होता है।

चिकित्सास्थान

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चरक संहिता मुख्यतः कायचिकित्सा का प्रधान ग्रन्थ है। चिकित्सास्थान में रोगों की चिकित्सा से लेकर औषध कल्पना तक का सम्पूर्ण विधान वर्णित है। चिकित्सा स्थान में मुख्य 30 अध्याय हैं।

रसायन अध्याय के नाम से प्राप्त इस अध्याय में रसायन औषधि द्रव्यों का नाम, रसायन सेवन के सम्पूर्ण विधान का उल्लेख मिलता है। विविध रसायन प्रकरण, कुटि प्रवेश विधि हरितकी (हरण), आमलकी आदि रसायन द्रव्यों के गुण, कार्य औषधि निर्माण विधि एवं सेवन विधि का विस्तृत वर्णन, साथ ही आत्म शुद्धि के अंतरगत आचार्य रसायन जैसे महत्वपूर्ण अध्यायों का विवरण प्राप्त है।

बाजीकरण अध्याय के अन्तर्गत पुरूषों में नपुंषकता व संतानोत्पत्ति के कारण, प्रकार आदि की विस्तृत जानकारी है। बाजीकरण औषधियों का प्रयोग व विभिन्न बाजीकरण औषधियों की सेवन विधि एवं संतानोत्पत्ति में बाधक होने वाले कारणों का निदान एवं चिकित्सा का विस्तृत वर्ण प्राप्त है।

ज्वर चिकित्सा अध्याय से लेकर अन्तिम अध्याय तक विभिन्न व्याधियॉं जैसे ज्वर, रक्तपित्त, गुल्म, प्रमेह, दोषगत व्याधियॉं, मानसिक रोग, मदात्य व्याधियॉं, विषजन्य व्याधियां का व्यापक निदान, लक्षण, भेद, चिकित्सा संबंधित औषधी योग का विस्तृत वर्णन प्राप्त हैं।

चरक संहिता में चिकित्सा अध्याय के अध्ययन मात्र से उत्तम वैद्य के गुण प्राप्त हो सकते हैं।

कल्पस्थान

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कल्पस्थान में १२ अध्याय हैं। सम्पूर्ण स्थान, वमन, विरेचन आदि पंचकर्मो के लिए द्रव्यों की कल्पना एवं पंचकर्म भेदों, पंचकर्म की क्रियाविधि आदि के सम्पूर्ण योजना का वर्णन है। मदनफल, जीमुतक, धार्मागव, कृतवेधन, त्रिवृत, आरग्वध, बिल्व, सप्तला, दन्ति, द्रवन्ति आदि सभी पंचकर्मों द्रव्यों की कल्पना, निर्माणविधि, भेद एवं गुणों का विस्तुत वर्णन प्राप्त है। वमन आदि पंचकर्मो के प्रत्येक चरण की प्रतिक्रिया, उत्तम परिणाम के लक्षण आदि विषयों का व्यापक वर्णन है।

यह सर्वविदित है कि शोधित पुरूषों में व्याधि के आने की सम्भावना नहीं होती, अतः कल्पस्थान चिकित्सा की दृष्टि से मुख्य शल्यकर्म (मेजर ऑपरेशन) के बराबर स्थान रखता है।

इसमें १२ अध्याय हैं। इस स्थान के सम्पूर्ण अध्यायों में भी पंचकर्मार्थद्रव्यों की कल्पना, पंचकर्म क्रम, अतियोग और अयोग और सम्यक् योग के लक्षण का व्यापक वर्णन प्राप्त होता है। रोग निवृत्ति, निदान के लिए पंचकर्मे का सम्यक अध्ययन तथा उसमें उत्पन्न उपद्रवो की जानकारी एवं चिकित्सा आवश्यक होती हैं। पंचकर्मो की 3 अवस्था - पूर्वकर्म, प्रधानकर्म, पश्चात् कर्म की क्रमबद्ध व्याख्या प्राप्त हैं। पंचकर्मार्थ योग्य, अयोग्य व्यक्तियों का चयन एवं पंचकर्मों में प्रयुक्त उपकरण, तथा पंचकर्मो में अयोग्य व्यक्तियों में भी शोधन के विधि की प्रस्तुति अपने आप में स्वर्णिम है।

चरक के चिकित्सा-विज्ञान का विषय

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अपने समय के आयुर्वेदिक चिकित्सा-शास्त्र के वर्णन में चरक ने विभिन्न विषयों का बृहद् विवेचन किया है। उदाहरण-स्वरूप भ्रूण की उत्पति एवं विकास, मानव-शरीर का शरीर-रचना-विज्ञान, शरीर की कार्यविधि तथा शरीर के तीन पदार्थ- वात, पित्त, कफ के असन्तुलन अथवा अन्य किसी कारण शरीर की कार्यविधि में अव्यवस्था, विभिन्न रोगों का निदान, वर्गीकरण, विज्ञान निरूपण, पूर्वानुमान तथा उपचार एवं शरीर के कायाकल्प विज्ञान जैसे विषयों का वर्णन किया है।

चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों का चयन एवं दीक्षा

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वैद्य की शपथ भी देखें।

आयुर्वेदिक चिकित्सा-शास्त्र के अध्ययन के इच्छुक प्रत्याशी को, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक अपेक्षाओं को पूरा होने की दशा में भी विद्यार्थी बनने की आज्ञा प्रत्याशी द्वारा धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न करने के पश्चात ही मिलती थी। इस धार्मिक अनुष्ठान में गुरु तथा अन्य व्यक्तियों की उपस्थिति तथा प्रार्थना तथा पवित्र अग्नि के समक्ष देवताओं को फूल अर्पित करना सम्मिलित था। इस समारोह का चरम बिन्दु उस समय होता था जब गुरु अपने शिष्य को पवित्र अग्नि के तीन फेरे लगवा कर उसे निम्न शपथ दिलाता था :

मैं जीवन भर ब्रह्मचारी रहूँगा। ऋषियों की तरह मेरी भेष-भूषा होगी। किसी से द्वेष नहीं करूँगा। सादा भोजन करूँगा। हिंसा नहीं करूँगा। रोगियों की उपेक्षा नहीं करूँगा। उनकी सेवा अपना धर्म समझूँगा। जिसके परिवार में चिकित्सा के लिये जाऊँगा उसके घर की बात बाहर नहीं कहूँगा। अपने ज्ञान पर घमण्ड नहीं करूँगा। गुरु को सदा गुरु मानूगा।

आदर्श शिष्य

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अथाध्यापनविधिः-अध्यापनेकृतबुद्धिराचार्यःशिष्यमेवादितः परीक्षेत;तद्यथा-प्रशान्तमार्यप्रकृतिकमक्षुद्रकर्माणमृजुचक्षुर्मुखनासावंशं तनुरक्तविशदजिह्वमविकृतदन्तौष्ठममिन्मिनं धृतिमन्तमनहङ्कृतंमेधाविनंवितर्कस्मृतिसम्पन्नमुदारसत्त्वं तद्विद्यकुलजमथवातद्विद्यवृत्तंतत्त्वाभिनिवेशिनमव्यङ्गमव्यापन्नेन्द्रियं निभृतमनुद्धतमर्थतत्त्वभावकमकोपनमव्यसनिनं शीलशौचाचारानुरागदाक्ष्यप्रादक्षिण्योपपन्नमध्ययनाभिकाममर्थविज्ञाने कर्मदर्शनेचानन्यकार्यमलुब्धमनलसंसर्वभूतहितैषिणमाचार्यसर्वानुशिष्टिप्रतिकरमनुरक्तंच,एवङ्गुणसमुदितमध्याप्यमाहुः||८||
(अर्थ: अब अध्यापन विधि । शिष्य को पढ़ाने का मन बना लेने के बाद आचार्य को परीक्षा करनी चाहिए कि शिष्य में निम्नलिखित गुण हैं या नहीं- बहुत ही शान्त स्वभाव के, श्रेष्ठ गुणों वाले, सीधे कामों में शामिल न होने वाले, सीधी आँखों वाले, मुँह और नाक के किनारे (आँखों, नाक और मुँह के किसी दोष के बिना) के पतले, लाल होने पर; और स्पष्ट जीभ; दांतों और होठों में कोई असामान्यता नहीं, नाक उच्चारण के साथ बात नहीं करना, बिना किसी कारण के, बिना घमंड, बुद्धिमान, तार्किक तर्क और स्मृति से संपन्न, व्यापक दिमाग वाला, चिकित्सकों के परिवार में पैदा हुआ या वैज्ञानिक और वैज्ञानिक वैज्ञानिक व्यवहार के आचरण के साथ जागरूक। किसी भी शारीरिक विकृति या इंद्रियों की विकलांगता, विनम्रता, ज्ञान को सुरक्षित रूप से रखना, असहयोग करना, बिना क्रोध और व्यसनों के विचारों को समझने की क्षमता रखना, विनम्रता, पवित्रता, अच्छे आचरण, स्नेह, निपुणता और ईमानदारी के साथ संपन्न होना अध्ययन में, बिना किसी व्याकुलता के विचारों और व्यावहारिक ज्ञान की समझ के लिए समर्पित, शिक्षक के सभी निर्देशों का पालन करने और संलग्न होने के लिए सभी प्राणियों के प्रति कोई लालच या आलस्य नहीं।

विद्यार्थी के कर्त्तव्य

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इस समारोह के पश्चात वर्षों तक शिष्य अपने गुरु तथा स्वामी के जीवन से जुड़ा रहता था तथा उसके परिवार का एक सदस्य बन जाता था। वह अपने गुरु की सेवा करता था। रोगियों की इलाज करते हुए अवलोकन करता था, विविध प्रकार की कार्य-प्रणालियों, साज़-सामान और शल्य-उपकरणों से परिचित हो जाता था तथा अपने गुरु की प्रत्यक्ष देखरेख में सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त करता था। कई वर्षों के पश्चात जब गुरु-शिष्य की प्रगति तथा आचरण से संतुष्टहो जाता था तो वह शिष्य की परीक्षा लेता था। शिष्य के परीक्षा में सफल हो जाने पर गुरु राजा से उस शिष्य को चिकित्साशास्त्र का व्यवसाय प्रारम्भ करने के लिए अनुज्ञा प्रदान करने की सिफारिश करता था। राज्य चिकित्सक के पद पर नियुक्ति ही किसी चिकित्सक की सर्वोच्च आकांक्षा होती थी। अन्य बातों के अतिरिक्त राजचिकित्सक विष देने की संभावना के विरुद्ध राजा की रक्षा करने के लिए भी उत्तरदायी होता था। इस संकट से कोई भी राजा बहुत ही कम मुक्त रहता था। इसके अतिरिक्त जब राजा किसी शत्रु के विरुद्ध अपनी सेना के साथ रवाना होता था, तब चिकित्सक भी उसकी सेना के साथ जाता था।

भ्रूण शास्त्र

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भ्रूण के प्रजनन एवं विकास के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि भ्रूण-निर्माण में पुरुष-स्त्री दोनों ही, पुरुष अपने वीर्य अथवा स्त्री अपने रज द्वारा योगदान करते हैं। भ्रूण का नर-मादा होना उसमें पुरुष के वीर्य अथवा स्त्री के रज की प्रधानता पर निर्भर होता है। भ्रूण का उभयलिंगी होना दो दशाओं में संभव है या तो भ्रूण में मनुष्य के वीर्य तथा स्त्री के रज में समानुपात हो अथवा वीर्य की प्रजनन-शक्ति समाप्तप्राय हो चुकी हो। यदि परिणामी मूल दो या उससे अधिक अंशों में विभाजित हो जाय तो दो या उससे अधिक जुड़वाँ बच्चों को जन्म देता है, इनमें से प्रत्येक के लिंग का निर्धारण गर्भ में मुनष्य के वीर्य एवं स्त्री के रज की सापेक्षिक प्रधानता द्वारा होता है।

भिन्न-भिन्न महीनों में भ्रूण के विकास का वर्णन भी किया गया है। प्रथम मास में भ्रूण की अवलेह के समान आकृति होती है, दूसरे मास में यह कठोर हो जाती है, तीसरे में पाँच विशिष्ट उभार (अभिवृद्धियाँ) प्रकट हो जाती हैं तथा अंगों का मामूली विभेदीकरण होने लगता है। चौथे महीने में अंगों का विभेदीकरण अधिक निश्चित हो जाता है तथा हृदय के कार्य के साथ भ्रूण में चेतनता भी विकसित हो जाती है। पाँचवें महीनें में यह चेतना और अधिक स्पष्ट हो जाती है। छठे महीने में बुद्धि का विकास होना भी शुरू हो जाता है। सातवें में अंगों का विकास पूर्ण हो जाता है। बच्चे का जन्म नवें या दसवें महीने में होता है।

भ्रूण-विकास से सम्बन्धित चरक संहिता में दिया गया वर्णन तत्कालीन अन्य प्राचीन सभ्यताओं के चिकित्सा-विज्ञान के ग्रन्थों में दिये गए वर्णन से बहुत अधिक अग्रवर्ती है। हमारे वर्तमान ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में इसमें कुछ सुधार वांछित हैं किन्तु पश्चिमी संसार, `चरक संहिता जैसी उपयुक्त व्याख्या अगले १५०० वर्ष तक भी न कर पाया।

शरीर के विभिन्न भाग माता अथवा पिता से व्युत्पन्न हुए समझे जाते हैं। त्वचा, रक्त, मांस, नाभि, हृदय, फेफड़े, यकृत, प्लीहा, स्तन, श्रोणि, उदर, आँतों तथा मज्जा की व्युत्पत्ति माता से होती है, सिर के बाल, नाखून, दांत, अस्थि, शिरा तथा वीर्य आदि की पिता से। भ्रूण की वृद्धि एक-दूसरे के ऊपर क्रमिक पर्तो के चढ़ने से होती है। विभिन्न अंगों के प्रकट होने के क्रम के बारे में विवेचकों ने अलग-अलग सम्मतियाँ दी है किन्तु चरक ने जोर देकर यह कहा है कि सभी ज्ञानेन्द्रियाँ तथा अंग तीसरे महीने में ही प्रकट होने लगते हैं।

जन्म से पूर्व ही भ्रूण के लिंग का पता लगाने के लिए भिन्न-भिन्न लक्षण बताये गये हैं। यदि माता के दायें स्तन में पहले दूध उतर आये वह चलते समय पहले दायाँ पाँव उठाये, उसकी दायीं आँख बड़ी लगे, वह नर नामों वाली वस्तुओं की इच्छा करे, उसे स्वप्न में नर नाम के फूल दिखाई दें, उसके चेहरे पर रौनक आ जाये, वह स्त्रियों की संगति में अधिक रहना चाहे, भ्रूण के कारण उसका उदर बायीं ओर को अधिक निकला हुआ हों, उसका स्वभाव एवं क्रियायें पुरुष-सरीखी प्रतीत हों तो समझना चाहिए कि वह लड़के को जन्म देगी और इनके विपरीत दिशाओँ में लड़की को।

शरीर-रचना-विज्ञान

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मनुष्य की शरीर-रचना के बारे में किया गया चरक का वर्णन काफी अल्पविकसित है। शरीर में दांत एवं नाखूनों सहित अस्थियों की कुल संख्या ३६० बताई गई है। ३२ दांत होते हैं। ३२ दाँतों के कोटर, २० नाखून, ६० अंगुलास्थियां, २० लम्बी अस्थियां, ४ लम्बी अस्थियों के आधार, २ एड़ी, ४ टखने की हड्डी, ४ कलाई की हड्डी, ४ अग्रबाहु की हड्डी, ४ टांग की हड्डी, २ बाहु की कोहनी के पटल, २ जांघ की खोखली हड्डी, ५ स्कन्धास्थि, २ हंसली, २ नितम्बफलक, १ सार्वजनिक अस्थि, ४५ पीठ की हड्डीयाँ, १४ वक्षास्थि, २४ पसलियाँ, २४ गर्तों में स्थित गुलिकाएँ, १५ कण्ठास्थि, १ श्वास-नली, २ तालुगर्त, १ निचले जबड़े की हड्डी, २ जबड़े की आधार-बन्ध अस्थि, १ नाक, गालों एवं भौंहों की हड्डी, २ कनपटी तथा ४ पान के आकार की कपालास्थि। (सुश्रुत के अनुसार कुल मिलकर अस्थियों की संख्या ३०० है)।

शरीर की माँसपेशियों को केवल माँसलपिंड ही बताया गया है। ऐसा समझा जाता था कि हृदय के विभिन्न अंगों को जाने वाली दस वाहिकाएँ होती है। मस्तिष्क की रचना तथा कार्यो का वर्णन लगभग नहीं के बराबर है। यद्यपि फेफड़ों का उल्लेख है, किन्तु उन्हें श्वसन से किसी प्रकार भी सम्बन्धित नहीं माना गया है।

शरीर-क्रिया-विज्ञान

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चरक के अनुसार जो भोजन हम खाते हैं तथा हमारा शरीर भी मिट्टी, अग्नि, जल, वायु तथा आकाश नामक पाँच पंचतत्वों (भूत) से बना होता है। शरीर में ये पंचतत्व रस, रक्त, माँस, वसा, अस्थि मज्जा तथा वीर्य नामक वस्तुओं (धातुओं) के रूप में होते हैं। भोजन का कार्य इन धातुओं का पोषण करना, इनके संतुलन को बनाए रखना तथा पाचन-क्रिया का जारी रखना है। जो भोजन खाया जाता है, वह पहले एक रस में परिवर्तित होता है, तत्पश्चात रक्त, मांस तथा अन्य धातुओं में। पाचन-प्रक्रिया के दौरान एक हल्की प्रतिक्रिया होती है जिससे एक झागदार पदार्थ `कफ' बनता है। कुछ समय पश्चात जब भोजन अधपचा होता है, तब एक खट्टी प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है। इस प्रतिक्रिया द्वारा आँतों में भोजन से एक तरल पदार्थ - `पित्त' बनता है। आँतों में थोड़ा और नीचे, पचा हुआ भोजन एक सूखे अम्बार में बदल जाता है और इस प्रक्रिया में एक कटु एवं कठोर प्रतिक्रिया आरंभ होती है, जिसमें वात (वायु) उत्पन्न होती है। इस प्रकार उपर्युक्त तीन दोष उत्पन्न होते हैं।

प्राचीन भारत के सामाजिक-आर्थिक तथा पर्यावरणीय इतिहास का स्रोत

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चरकसंहिता केवल प्राचीन भारतीय चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि इसमें भारत के तत्कालीन समाज के आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण-सम्बन्धी स्थितियों का भी वर्णन है। ग्रन्थ में भारत के भौतिक भूगोल का वर्णन 'जंगल', 'आनूप', 'साधारण' आधि शब्दों के माध्यम से किया गया है। इसके बाद इन क्षेत्रों में पाये जाने वाले वृक्षों, वनस्पतियों, झीलों, नदियों, पशु-पक्षियों आदि का वर्णन है।[1] अनेक औषधियों के नाम उनके प्राप्ति-क्षेत्र के नाम पर है, जैसे माघदी, मघद से; काश्मार्य, कश्मीर से।[2] राय आदि ने संहिता के विभिन्न अध्यायों में आये हुए अनेक स्तनपोषियों, सरीसृपों, कीटों, मछलियों, उभयचरों, संधिपादों और पक्षियों की सूची दी है।[3]

चरकसंहिता में इस बात का उल्लेख भी है कि प्राचीन भारत के लोगों की भोजन सम्बन्धी आदतें और पसन्द अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग थीं।[4] बहलिक, पहलव, चीन, शूलिका, यवन, तथा शक आदि देशों के लोग मांस खाते थे। प्राच्य देश के लोग मत्स्य (मछ्ली) पसन्द करते थे। सिन्धु देश के लोग दूध पसन्द करते थे जबकि अश्मक और अवन्तिका के लोग अधिक तैलीय भोजन तथा खट्टी चीजे खाते थे। [5] दक्षिण देश (दक्षिणी भारत) के लोग पेय पसन्द करते थे जबकि उत्तर और पश्चिम के लोग मन्थ पसन्द करते थे। मध्यदेश (मध्य भारत) के लोग यव (जौ), गेहूँ, और दूध की बनी वस्तुएँ पसन्द करते थे।

'चरकतात्पर्यटीका' इस ग्रन्थ की सर्वप्रसिद्ध टीका है। इसे 'आयुर्वेददीपिका' भी कहते हैं। इसके रचयिता चक्रपाणिदत्त (१०६६) हैं। अन्य भाष्यग्रन्थ हैं-

  • भट्टारक हरिश्चन्द्र द्वारा रचित चरकन्यास (६ठी शताब्दी)
  • जेज्जट कृत निरन्तरपदव्याख्या (875 ई),
  • शिवदास सेन कृत तत्त्वचन्द्रिका (1460 ई)
  • योगीन्द्रनाथसेन कृत चरकोपस्कार
  • नरसिंह कविराज कृत चरकतत्त्वप्रकाश
  • गंगाधर कविरत्न द्वारा रचित जल्पकल्पतरु (1879)


हिन्दी व्याख्याकार
  • रामप्रसाद शर्मा (१९३९)
  • काशिनाथ पाण्डेय एवं गोरखनाथ चतुर्वेदी (विद्योतिनी टीका)
  • ब्रह्मानन्द त्रिपाठी (चरकचन्द्रिका टीका)

चरकसंहिता और सुश्रुतसंहिता

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चरकसंहिता, आयुर्वेद का सबसे पुराना ज्ञात ग्रन्थ है तथा इसका सुश्रुतसंहिता में अनुपालन हुआ है। कुछ विषयों को छोड़कर दोनों ने समान प्रकार के विषयों की चर्चा की है।[6]

इन दोनों में विशेष अन्तर यह है कि सुश्रुतसंहिता में शल्यक्रिया का आधार रखा गया है जबकि चरकसंहिता मुख्यतः चिकित्सा (मेडिसिन) तक ही सीमित है।[7]

चरकसंहिता में न्याय-वैशेषिक दर्शनों के तत्त्व

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चरकसंहिता में विभिन्न दर्शनों के विभिन्न सिद्धान्तों का भी वर्णन प्राप्त होता है। सांख्य का सृष्टि सिद्धान्त, पुरुष तथा सत्कार्यवाद आदि सिद्धान्त प्राप्त होते हैं। इतना ही नहीं इस दर्शन में सांख्य के साथ-साथ योग-दर्शन, न्याय तथा वैशेषिक दर्शनों के साथ ही बौद्ध दर्शन के सिद्धान्त निरात्म्यवाद तथा स्वभावोपरमवाद आदि सिद्धान्तों का भी वर्णन प्राप्त होता है।

चरक ने भी तत्त्वनिर्णय के लिये ४४ वाद मार्गों का निर्दर्शन किया है। ४४ वाद मार्ग ये हैं -

वाद, द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, प्रतिज्ञा, स्थापना, प्रतिष्ठापना, हेतु, दृष्टान्त, उपनय, निगगन, उत्तर, सिद्धान्त, शब्द, प्रत्यक्ष, अनुमान, ऐतिह्य, औपम्य, संशय, प्रयोजन, सत्यविचार, जिज्ञासा, व्यवसाय, अर्थप्राप्ति, सम्भव, अनुयोज्य, अननुयोज्य, अनुयोग, प्रत्यानुयोग, वाक्य दोष, वाक्य प्रशंसा, छल, अहेतु, अतीतकाल, उपलम्भ, परिहार, प्रतिज्ञा हानि, अभ्यनुज्ञा हेत्वन्तर, अर्यान्तर तथा निग्रहस्थान।

उपर्युक्त वादमार्ग न्यायसूत्र में वर्णित विभिन्न तत्त्व तथा वैशेषिक दर्शन के पदार्थों का ही संग्रह समझना चाहिए। न्याय दर्शन के पदार्थ, पांच अवयव, चार प्रमाण, हेतु तथा हेत्वाभास तथा वैशेषिक दर्शन के षट-पदार्थ ही इन चवालीस वाद मार्गों में, चरक ने इन सबका संग्रह किया है।

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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  1. Bhavana KR and Shreevathsa (2014). "Medical geography in Charaka Samhita". Ayu. 35 (4): 371–377. doi:10.4103/0974-8520.158984. PMC 4492020. PMID 26195898.
  2. Bhavana KR and Shreevathsa (2014). "Medical geography in Charaka Samhita". Ayu. 35 (4): 371–377. doi:10.4103/0974-8520.158984. PMC 4492020. PMID 26195898.
  3. Ray, Gupta & Roy 1980, pp. 30-37.
  4. Bhavana KR and Shreevathsa (2014). "Medical geography in Charaka Samhita". Ayu. 35 (4): 371–377. doi:10.4103/0974-8520.158984. PMC 4492020. PMID 26195898.
  5. Bhavana KR and Shreevathsa (2014). "Medical geography in Charaka Samhita". Ayu. 35 (4): 371–377. doi:10.4103/0974-8520.158984. PMC 4492020. PMID 26195898.
  6. Ray, Gupta & Roy 1980.
  7. Menon IA, Haberman HF (1969). "Dermatological writings of ancient India". Med Hist. 13 (4): 387–392. doi:10.1017/s0025727300014824. PMC 1033984 Freely accessible. PMID 4899819

बाहरी कड़ियाँ

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