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पंचतंत्र

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पंचतन्त्र का विश्व में प्रसार

संस्कृत नीतिकथाओं में पंचतन्त्र का पहला स्थान माना जाता है। यद्यपि यह पुस्तक अपने मूल रूप में नहीं रह गयी है, फिर भी उपलब्ध अनुवादों के आधार पर इसकी रचना तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व[1] के आस-पास निर्धारित की गई है। इस ग्रंथ के रचयिता पं॰ विष्णु शर्मा हैं, कहीं-कहीं रचयिता का नाम 'बसुभग' आया है।[2]उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर कहा जा सकता है कि जब इस ग्रन्थ की रचना पूरी हुई, तब उनकी उम्र लगभग 80 वर्ष थी। पंचतन्त्र को पाँच तन्त्रों (भागों) में बाँटा गया है:

  1. मित्रभेद (मित्रों में मनमुटाव एवं अलगाव)
  2. मित्रलाभ या मित्रसम्प्राप्ति (मित्र प्राप्ति एवं उसके लाभ)
  3. काकोलुकीय (शत्रु के साथ परिस्थितिवश मैत्री सम्बन्ध स्थापित हो जाने पर भी उससे सावधान रहना और गुप्तचरों की भूमिका का महत्त्व)
  4. लब्धप्रणाश (शत्रु की विजय को मिट्टी में मिलाने के उपाय)
  5. अपरीक्षित कारक (जिसको परखा नहीं गया हो उसे करने से पहले सावधान रहें ; हड़बड़ी में कदम न उठायें)

मनोविज्ञान, व्यवहारिकता तथा राजकाज के सिद्धांतों से परिचित कराती ये कहानियाँ सभी विषयों को बड़े ही रोचक तरीके से सामने रखती हैं, साथ ही साथ एक सीख देने की कोशिश करती हैं।

पंचतन्त्र की कई कहानियों में मनुष्य-पात्रों के अलावा कई बार पशु-पक्षियों को भी कथा का पात्र बनाया गया है तथा उनसे कई शिक्षाप्रद बातें कहलवाने की कोशिश की गई है।

पंचतंत्र के सन् १४२९ के फारसी अनुवाद से एक पृष्ट

पंचतन्त्र की कहानियाँ बहुत जीवन्त हैं। इनमे लोकव्यवहार को बहुत सरल तरीके से समझाया गया है। बहुत से लोग इस पुस्तक को नेतृत्व क्षमता विकसित करने का एक सशक्त माध्यम मानते हैं। इस पुस्तक की महत्ता इसी से प्रतिपादित होती है कि इसका अनुवाद विश्व की लगभग हर भाषा में हो चुका है। यह भारत की सर्वाधिक अनूदित साहित्यिक रचना है।[3]

नीतिकथाओं में पंचतन्त्र का पहला स्थान है। पंचतन्त्र ही हितोपदेश की रचना का आधार है। स्वयं नारायण पण्डित जी ने स्वीकार किया है-

पञ्चतन्त्रात्तथाऽन्यस्माद् ग्रन्थादाकृष्य लिख्यते॥
-- श्लोक सं.९, प्रस्ताविका, हितोपदेश

पंचतन्त्र का रचनाकाल

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विभिन्न उपलब्ध अनुवादों के आधार पर इसकी रचना तीसरी शताब्दी के आस-पास निर्धारित की जाती है। पञ्चतन्त्र की रचना किस काल में हुई, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता क्योंकि पंचतन्त्र की मूल प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं है। कुछ विद्वानों ने पंचतन्त्र के रचयिता एवं पंचतन्त्र की भाषा शैली के आधर इसके रचनाकाल के विषय में अपने मत प्रस्तुत किए है।

महामहोपाध्याय पं॰ सदाशिव शास्त्री के अनुसार पञ्चतन्त्र के रचयिता विष्णुशर्मा थे और विष्णुशर्मा चाणक्य का ही दूसरा नाम था। अतः पंचतन्त्र की रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में ही हुई है और इसका रचना काल 300 ई.पू. माना जा सकता है। पर पाश्चात्य तथा कुछ भारतीय विद्वान् ऐसा नहीं मानते, उनका कथन है कि चाणक्य का दूसरा नाम विष्णुगुप्त था विष्णुशर्मा नहीं, तथा उपलब्ध पञ्चतन्त्र की भाषा की दृष्टि से तो यह गुप्तकालीन रचना प्रतीत होती है।

महामहोपाध्याय पं॰ दुर्गाप्रसाद शर्मा ने विष्णुशर्मा का समय अष्टमशतक के मध्य भाग में माना है क्योंकि पंचतन्त्र के प्रथम तन्त्र में आठवीं शताब्दी के दामोदर गुप्त द्वारा रचित कुट्टनीमतम् की "पर्यङ्कः स्वास्तरणः" इत्यादि आर्या देखी जाती है, अतः यदि विष्णुशर्मा पञ्चतन्त्र के रचयिता थे तो वे अष्टम शतक में हुए होंगे। परन्तु केवल उक्त श्लोक के आधर पर पंचतन्त्र की रचना अष्टम शतक में नहीं मानी जा सकती, क्योंकि यह श्लोक किसी संस्करण में प्रक्षिप्त भी हो सकता है।

हर्टेल और डॉ॰ कीथ, इसकी रचना 200 ई.पू. के बाद मानने के पक्ष में है। चाणक्य के अर्थशास्त्र का प्रभाव भी पंचतन्त्र में दिखाई देता है इसके आधर पर भी यह कहा जा सकता है कि चाणक्य का समय लगभग चतुर्थ शताब्दी पूर्व का है अतः पंचतन्त्र की रचना तीसरी शताब्दी के पूर्व हुई होगी।

इस प्रकार पंचतन्त्र का रचनाकाल विषयक कोई भी मत पूर्णतया सर्वसम्मत नहीं है।

पंचतंत्र के संस्करण

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इण्डोनेशिया के केन्द्रीय जावा के मेन्दुत मन्दिर में पंचतंत्र की उच्चावच (relief)

संस्करण-पंचतन्त्र के चार संस्करण उपलब्ध है-

प्रथम संस्करण मूलग्रन्थ का पहलवी अनुवाद है जो अब सीरियन एवं अरबी अनुवादों के रूप में प्राप्त होता है।

द्वितीय संस्करण के रूप में पंचतन्त्र गुणाढ्यकृत ‘बृहत्कथा’ में दिखाई पड़ता है। ‘बृहत्कथा की रचना पैशाची भाषा में हुई थी किन्तु इसका मूलरूप नष्ट हो गया है और क्षेमेन्द्रकृत ‘बृहत्कथा मंजरी' तथा सोमदेव लिखित ‘कथासरित्सागर’ उसी के अनुवाद हैं।

तृतीय संस्करण में तन्त्राख्यायिका एवं उससे सम्बद्ध जैन कथाओं का संग्रह है। ‘तन्त्राख्यायिका’ को सर्वाधिक प्राचीन माना जाता है। इसका मूल स्थान कश्मीर है। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ॰ हर्टेल ने अत्यन्त श्रम के साथ इसके प्रामाणिक संस्करण को खोज निकाला था। इनके अनुसार ‘तन्त्राख्यायिका’ या तन्त्राख्या ही पंचतन्त्र का मूलरूप है। यही आधुनिक युग का प्रचलित ‘पंचतन्त्र’ है।

चतुर्थ संस्करण दक्षिणी ‘पंचतन्त्र’ का मूलरूप है तथा इसका प्रतिनिधित्व नेपाली ‘पंचतन्त्र’ एवं ‘हितोपदेश’ करते हैं।

इस प्रकार ‘पंचतन्त्र’ एक ग्रन्थ न होकर एक विशाल साहित्य का प्रतिनिधि है।

विश्व-साहित्य में भी पंचतन्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। इन अनुवादों में पहलवी भाषा का ‘करटकदमनक’ नाम का अनुवाद ही सबसे प्राचीन अनुवाद माना जाता है। विंटरनित्ज़ के अनुसार जर्मन साहित्य पर पंचतन्त्र का अधिक प्रभाव देखा जाता है। इसी प्रकार ग्रीक की ईसप् की कहानियों का तथा अरब की 'अरेबिअन नाइट्स' आदि कथाओं का आधार पंचतन्त्र ही है। ऐसा माना जाता है कि पंचतन्त्र का लगभग 50 विविध भाषाओं में अब तक अनुवाद हो चुका है और इसके लगभग 200 संस्करण भी हो चुके है। यही इसकी लोकप्रियता का परिचायक है। हिन्दी में इसका अनुवाद १९७० के आसपास आया और आते ही छा गया।

पंचतन्त्र का स्वरूप

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दमनक नामक चतुर शियार सीधे-सादे संजीवक नामक बैल से बात कर रहा है। (भारतीय चित्रकला, १६१०)

पंचतन्त्र में पांच तन्त्र या विभाग है। (पंचानाम् तन्त्राणाम् समाहारः - द्विगुसमास) विभाग को तन्त्र इसलिए कहा गया है क्योंकि इनमें नैतिकतापूर्ण शासन की विधियाँ बतायीं गयीं हैं। ये तन्त्र हैं- मित्रभेद, मित्रसम्प्राप्ति (मित्रलाभ), काकोलूकीयम् (सन्धि-विग्रह), लब्धप्रणाश एवं अपरीक्षितकारक।

संक्षेप में इन तन्त्रों की विषयवस्तु इस प्रकार है-

मित्रभेद

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नीतिकथाओं में एक मुख्य कथा होती है और उसको पुष्ट करने के लिए अनेक गौण कथाएं होती हैं उसी प्रकार ‘मित्रभेद’ नामक इस प्रथम तन्त्र में अंगीकथा के दक्षिण पूर्व महिलारोप्य के राजा अमरशक्ति की कथा दी गई है जिसमें यह बताया गया है कि वे अपने मूर्ख पुत्रों के कारण चिन्तित थे और इसलिए वे विष्णुशर्मा नामक विद्वान् को अपने पुत्रों को शिक्षित करने के सौंप देते है और विष्णुशर्मा उन्हें छः मास में ही कथाओं के माध्यम से सुशिक्षित करने में सफल होते हैं। तत्पश्चात् मित्रभेद नामक भाग की अंगी-कथा में, एक दुष्ट सियार द्वारा पिंगलक नामक सिंह के साथ संजीवक नामक बैल की शत्रुता उत्पन्न कराने का वर्णन है जिसे सिंह ने आपत्ति से बचाया था और अपने दो मन्त्रियों- करकट और दमनक के विरोध करने पर भी उसे अपना मित्र बना लिया था। इस तन्त्र में अनेक प्रकार की शिक्षाएं दी गई है जैसे कि धैर्य से व्यक्ति कठिन से कठिन परिस्थिति का भी सामना कर सकता है अतः प्रारब्ध के बिगड़ जाने पर भी धैर्य का त्याग नहीं करना चाहिए-

त्याज्यं न धैर्यं विधुरेऽपि काले धैर्यात्कदाचित् गतिमाप्नुयात्सः (मित्रभेद, श्लोक 345)

मित्रसम्प्राप्ति

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इस तन्त्र में मित्र की प्राप्ति से कितना सुख एवं आनन्दप्राप्त होता है वह कपोतराज चित्रग्रीव की कथा के माध्यम से बताया गया है। विपत्ति में मित्र ही सहायता करता है-

सर्वेषामेव मर्त्यानां व्यसने समुपस्थिते।
वाड्मात्रेणापि साहाय्यंमित्रादन्यो न संदधे॥ (मित्रसम्प्राप्ति श्लोक 12)

ऐसा कहा गया है कि मित्र का घर में आना स्वर्ग से भी अधिक सुख को देता है।

सुहृदो भवने यस्य समागच्छन्ति नित्यशः।
चित्ते च तस्य सौख्यस्य न किंचत्प्रतिमं सुखम्॥ (मित्रसम्प्राप्ति श्लोक 18)

इस प्रकार इस तन्त्र का उपदेश यह है कि उपयोगी मित्र ही बनाने चाहिए जिस प्रकार कौआ, कछुआ, हिरण और चूहा मित्रता के बल पर ही सुखी रहे।

काकोलूकीय

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इसमें युद्ध और सन्धि का वर्णन करते हुए उल्लुओं की गुहा को कौओं द्वारा जला देने की कथा कही गयी है। इसमें यह बताया गया है कि स्वार्थसिद्धि के लिए शत्रु को भी मित्र बना लेना चाहिए और बाद में धेखा देकर उसे नष्ट कर देना चाहिए। इस तन्त्र में भी कौआ उल्लू से मित्रता कर लेता है और बाद में उल्लू के किले में आग लगवा देता है। इसलिए शत्रुओं से सावधन रहना चाहिए क्योंकि जो मनुष्य आलस्य में पड़कर स्वच्छन्दता से बढ़ते हुए शत्रु और रोग की उपेक्षा करता है- उसके रोकने की चेष्टा नहीं करता वह क्रमशः उसी (शत्रु अथवा रोग) से मारा जाता है-

य उपेक्षेत शत्रु स्वं प्रसरस्तं यदृच्छया।
रोग चाऽलस्यसंयुक्तः स शनैस्तेन हन्यते॥ (काकोलूकीय श्लोक 2)

लब्धप्रणाश

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इस तन्त्र में वानर और मगरमच्छ की मुख्य कथा है और अन्य अवान्तर कथाएं हैं। इन कथाओं में यह बताया गया है कि लब्ध अर्थात् अभीष्ट की प्राप्ति होते होते कैसे रह गई अर्थात नष्ट हो गई। इसमें वानर और मगरमच्छ की कथा के माध्यम से शिक्षा दी गई है कि बुद्धिमान अपने बुद्धिबल से जीत जाता है और मूर्ख हाथ में आई हुई वस्तु से भी वंचित रह जाता है।

अपरीक्षितकारक

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पंचतन्त्र के इस अन्तिम तन्त्र अर्थात् भाग में विशेषरूप से विचार पूर्वक सुपरीक्षित कार्य करने की नीति पर बल दिया है क्योंकि अच्छी तरह विचार किए बिना एवं भलीभांति देखे सुने बिना किसी कार्य को करने वाले व्यक्ति को कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती अपितु जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अतः अन्धनुकरण नहीं करना चाहिए। इस तन्त्र की मुख्य कथा में बिना सोचे समझे अन्धनुकरण करने वाले एक नाई की कथा है जिसको मणिभद्र नाम के सेठ का अनुकरण करजैन-संन्यासियों के वध के दोष पर न्यायाधीशों द्वारा मृत्युदण्ड दिया गया। अतः बिना परीक्षा किए हुए नाई के समान अनुचित कार्य नहीं करना चाहिए-

कुदृष्टं कुपरिज्ञातं कुश्रुतं कुपरीक्षितम्।
तन्नरेण न कर्त्तव्यं नापितेनात्र यत् कृतम्॥ (अपरीक्षितकारक श्लोक-1)

इसमें यह भी बताया है कि पूरी जानकारी के बिना भी कोई कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि बाद में पछताना पड़ता है जैसे कि ब्राह्मण पत्नीने बिना कुछ देखे खून से लथपथ नेवले को यह सोचकर मार दिया कि इस ने मेरे पुत्र को खा लिया है वस्तुतः नेवले ने तो सांप से बच्चे की रक्षा करने के लिए सांप को मारा था जिससे उसका मुख खून से सना हुआ था।

इसलिए कहा गया-

अपरीक्ष्य न कर्तव्यं कर्तव्यं सुपरीक्षितम्।
पश्चाद्भवति सन्तापो ब्राह्मण्या नकुले यथा॥ (अपरीक्षित कारक श्लोक-17)

पंचतन्त्र में उक्त कथाओं के अतिरिक्त बहुत सी कहानियों का संग्रह है | इस प्रकार पंचतन्त्र एक उपदेशपरक रचना है। इसमें लेखकने अपनी व्यवहार कुशलता राजनैतिकपटुता एवं ज्ञान का परिचय दिया है। नीति-कथाओं के मानवेतर पात्र प्रायः दो प्रकार के होते हैं, सजीव प्राणी तथा अचेतन पदार्थ। पंचतन्त्र में भी ये दो प्रकार के पात्र देखे जाते हैं- पशुओं में सिंह, व्याघ्र, शृगाल, शशक, वृषभ, गधा, आदि, पक्षियों में काक, उलूक, कपोत, मयूर, चटक, शुक आदि तथा इतर प्राणियों में सर्प, नकुल, पिपीलिका आदि। इनके अतिरिक्त नदी, समुद्र, वृक्ष, पर्वत, गुहा आदि भी अचेतन पात्र हैं, जिन पर कि मानवीय व्यवहारों का आरोप किया गया है। पंचतन्त्र में मानव को व्यवहार कुशल बनाने का प्रयास अत्यधिक सरल एवं रोचक शैली में किया गया है। आधुनिक युग में बच्चों को इन कथाओं के बारे में अवश्य पढाया जाना चाहिये | पंचतन्त्र के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए डॉ॰ वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है कि-

"पंचतन्त्र एक नीति शास्त्र या नीति ग्रन्थ है- नीति का अर्थ जीवन में बुद्धि पूर्वक व्यवहार करना है। चतुरता और धूर्तता नहीं, नैतिक जीवन वह जीवन है जिसमें मनुष्य की समस्त शक्तियों और सम्भावनाओं का विकास हो अर्थात् एक ऐसे जीवन की प्राप्ति हो जिसमें आत्मरक्षा, धन-समृद्धि, सत्कर्म, मित्रता एवं विद्या की प्राप्ति हो सके और इनका इस प्रकार समन्वय किया गया हो कि जिससे आनंद की प्राप्ति हो सके, इसी प्रकार के जीवन की प्राप्ति के लिए, पंचतन्त्र में चतुर एवं बुद्धिमान पशु-पक्षियों के कार्य व्यापारों से सम्बद्ध कहानियां ग्रथित की गई हैं। पंचतन्त्र की परम्परा के अनुसार भी इसकी रचना एक राजा के उन्मार्गगामी पुत्रों की शिक्षा के लिए की गई है और लेखक इसमें पूर्ण सफल रहा है।"

सन्दर्भ

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  1. Jacobs 1888, Introduction, page xv; Ryder 1925, अनुवादक अपनी प्रस्तावना में, हर्टेल को उद्धृत करते हुए: "that the original work was composed in Kashmir, about 200 B.C. At this date, however, many of the individual stories were already ancient."
  2. [Patrick Olivelle (1999). Pañcatantra: The Book of India's Folk Wisdom. Oxford University Press. pp. xii–xiii. ISBN 978-0-19-283988-6.]
  3. Introduction, Olivelle 2006, quoting Edgerton 1924.

इन्हें भी देखें

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  1. नीतिकथा
  2. आख्यान
  3. कथासाहित्य (संस्कृत)
  4. हितोपदेश
  5. सिंहासन बत्तीसी
  6. बेताल पच्चीसी
  7. कथासरित्सागर
  8. ईसप की दंतकथाएँ सम्पादन सिंहासन बत्तीसी

बाहरी कड़ियाँ

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