उपमितिभवप्रपञ्चकथा

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उपमितिभवप्रपञ्चकथा सिद्धर्षि द्वारा संस्कृत में उपमेय-उपमान-शैली में रचित एक बृहद आकार का कथा ग्रन्थ है। श्रीमद्भागवत के चतुर्थ स्कन्ध में पुरञ्जन का आख्यान है। विषयासक्ति के कारण पुरञ्जन को जो भव-भ्रमण करना पड़ा, उसी का विस्तृत विवेचन इसमें है। पुरञ्जन के इस भव-भ्रमण-विवेचन का कलेवर चार अध्यायों के १८१ श्लोकों में वर्णित है। बुद्धि, ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ, प्राण, वृत्ति, सुषुप्ति, स्वप्न, शरीर आदि के रोचक-रूपक इस वर्णन में दिये गये हैं। यह वृत्तान्त, यद्यपि पर्याप्त विस्तार वाला नहीं है, तथापि, जो रूपक, जिस रूप में प्रयुक्त हुए हैं, वे सार्थक, सटीक, और मनोहारी अवश्य हैं। फिर भी, इस वर्णन को उस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, जिस श्रेणी में सिद्धर्षि की 'उपमितिभवप्रपञ्चकथा' को मान्यता प्राप्त है।

सोलह हजार श्लोक परिमाण कलेवर वाले रूपकमय इस पूरे कथा ग्रन्थ में एक ही नायक के विभिन्न जन्म-जन्मान्तरों का भारतीय धर्म-दर्शन में वर्णित प्रमुख जीव-योनियों का स्वरूप विवेचन 'संस्कृत' भाषा के माध्यम से करते हुए, भी निर्देशित किया है कि किन कर्मों के कारण यह किस योनि में जीवात्मा को भटकना पड़ता है, और जन्म-जन्मान्तर रूप भव-भ्रमण से उबारने में किस तरह की मनोवृत्तियाँ, भावनाएं उसे सम्बल प्रदान करती हैं। इस विशाल कथा-गन्थ को सिद्धषि ने आठ प्रस्तावों (अध्यायों) में विभाजित किया है। पूरी की पूरी कथा की प्रतीक योजना दुहरे अभिप्रायों को एक साथ संयोजित करते हुए लिखी गई है। जगत के सामान्य व्यवहार में दृश्यमान स्थानों, पात्रों और घटनाक्रमों से युक्त कथानक की ही भाँति इस कथा में वर्णित स्थान-पात्र-घटनाक्रमों में कथाकृति का एक आशय स्पष्ट हो जाता है, किन्तु दूसरा आशय अदृश्य / भावात्मक जगत के दार्शनिक / आध्यात्मिक विचारों / अनुभव-व्यापार में से उद्भूत होता हुआ, कथाक्रम को अग्रसारित करता चलता है। वस्तुतः यह दूसरा आशय ही 'उपमितिभवप्रपञ्चकथा' का, और इसके रचनाकार का प्रथम / प्रमुख लक्ष्य है। इस आधार पर इस कथाकृति के दो रूप हो जाते जिन्हें 'बाह्यकथा शरीर' और 'अन्तरंग कथा शरीर' संज्ञायें दी जा सकती हैं। इन दोनों शरीरों के मध्य, 'प्राणों' की तरह, एक ही कथा अनुस्यूत है। कथा के दोनों स्वरूपों को समझाने के लिए, प्रथम प्रस्ताव के रूप में समायोजित 'पीठबन्ध' में सिद्धर्षि ने अपने स्वयं के जीवनचरित को एक छोटी-सी कथा के रूप में उन्हीं दुहरे आशयों के साथ संजोया है, जो कथा के पाठकों को दूसरे प्रस्ताव से प्रारम्भ होने वाली मूल कथा की रहस्यात्मकता को समझने का पूर्व-अभ्यास कराने के लिए, उपयुक्त मानी जा सकती है। भवप्रपञ्च क्या है, और, भवप्रपञ्च कथा कहने/लिखने का उद्देश्य क्या है - यह स्पष्ट करने के लिए भी पीठबंध की कथा संयोजन योजना को सिद्धर्षि का रचना कौशल माना जा सकता है।

कथा[संपादित करें]

'उपमितिभवप्रपञ्चकथा' के विशाल कलेवर में गुम्फित कथा का मूलस्वरूप निम्नलिखित संक्षेप सार से अनुमानित किया जा सकता है।

मेरुपर्वत से पूर्व में, महाविदेह क्षेत्र के अन्तर्गत 'सुकच्छविजय' नामक एक देश है। इसका राजा था, 'अनुसुन्दर' चक्रवर्ती । इसकी राजधानी थी - 'क्षेमपुर' । वृद्धावस्था के अन्तिम समय, वह अपना देश देखने की इच्छा से भ्रमण पर निकलता है और किसी दिन 'शंखपुर' नगर के बाहर बने 'चित्तरम' नामक उद्यान के पास से गुजरता है। इस समय चित्तरम उद्यान में बने 'मनोनन्दन' नामक चैत्य भवन में समन्तभद्राचार्य ठहरे हुए थे। प्रवर्तिनी साध्वी 'महाभद्रा' उनके सामने बैठा थीं। 'सुललिता' नाम की राजकुमारी और 'पुण्डरीक' नाम का राजकुमार भी इस सन्त-सभा में बैठे थे। अचानक ही रथों की गड़गड़ाहट और सेना का कोलाहल सुनकर सभी का ध्यान शोर की ओर आकृष्ट हो जाता है। उत्सुकता और जिज्ञासावश राजकुमारी, महाभद्रा से पूछती है - 'भगवती ! यह कैसा कोलाहल है?" महाभद्रा ने आचार्यश्री की ओर देखकर कहा, - 'मुझे नहीं मालूम' । किन्तु, आचार्यश्री ने इस अवसर को राजकुमार और राजकुमारी को प्रबोध देने के लिए उपयुक्त समझते हुए, महाभद्रा से कहा- 'अरे महाभद्रे ! तुम्हें नहीं मालूम है कि हम सब इस समय 'मनुजगति' नामक प्रदेश के महाविदेह बाजार में बैठे हैं। आज एक चोर, चोरी के माल सहित पकड़ लिया गया है। 'कर्म-परिणाम' महाराज ने अपनी प्रधान महारानी 'कालपरिणति' से परामर्श करके उसे मृत्युदण्ड की सजा सुनाई है। 'दुष्टाशय' आदि दण्डपाकि उसे पीटते हुए वध-स्थल की ओर ले जा रहे हैं। आचार्यश्री की बात सुनकर सुललिता आश्चर्य में पड़ जाती है और पुनः महाभद्रा से पूछती है - 'भगवती ! हम लोग तो शंखपुर के 'चित्तरम' उद्यान में बैठे हैं। यह 'मनुजगति' नगर का 'महाविदेह-बाजार' कैसे हो गया? यहाँ के महाराज 'श्रीगर्भ' हैं न कि 'कर्मपरिणाम'। आचार्यश्री क्या कह रहे हैं ये सब?' आचार्यश्री ने उत्तर दिया- 'धर्मशीले सुललिते ! तुम 'अगृहीत संकेता' हो । मेरी बात का अर्थ तुम नहीं समझ पायीं।' सुललिता सोचती है- आचार्यश्री ने तो मेरा नाम भी बदल दिया। तभी आचार्यश्री के कथन का आशय समझकर महाभद्रा निवेदन करती है- भगवन् । यह चोर, मृत्युदण्ड से मुक्त हो सकता है क्या?' आचार्यश्री ने उत्तर दिया- 'जब उसे तेरे दर्शन होंगे, और वह हमारे समक्ष उपस्थित होगा, उसकी मुक्ति हो जायेगी।' महाभद्र ने पूछा - 'तो क्या मैं उसके सम्मुख जाऊँ?' आचार्यश्री ने कहा - 'जाओ। इसमें दुविधा कहाँ है?"

महाभद्रा उद्यान से निकलकर बाहर राजपथ पर आई और अनुसुन्दर चक्रवर्ती के निकट आने पर उससे बोली- 'भद्र ! सदागम की शरण स्वीकार करो।' साध्वी के दर्शन से अनुसुन्दर को 'स्वगोचर' (जाति / पूर्वजन्म-स्मरण) ज्ञान हो जाता है। उसने आचार्यश्री द्वारा कही गई बात उनसे सुनी, और उनके साथ, आचार्यश्री के समक्ष आकर उपस्थित हो जाता है। वह आचार्यश्री को देखकर, सुख के अतिरेक से भर उठता है और अति- प्रसन्नता में मूच्छित होकर वहीं गिर पड़ता है। आचार्यश्री द्वारा प्रबोध देने पर वह सचेत होता है। राजकुमारी सुललिता, उससे चोरी के विषय में पूछती है। आचार्यश्री भी उसे अपना सारा वृत्तान्त सुनाने का आदेश देते हैं, तब अनुसुन्दर ने साध्वी के दर्शन से उत्पन्न पूर्वजन्म-स्मरण का सहारा लेकर अपनी भवप्रपञ्चकथा, तमाम उपमाओं के साथ सुनानी आरम्भ कर दी।

अनुसुन्दर की कथा सुनते-सुनते राजकुमार पुण्डरीक प्रतिबुद्ध हो जाता है। किन्तु, राजकुमारी सुललिता बार-बार कथा सुनकर भी प्रतिबुद्ध न हुई। तब विशेष प्रेरणा के द्वारा उसे बड़ी मुश्किल से बोध हो पाता है। प्रतिबुद्ध हो जाने से दोनों को आत्मबोध हो जाता है और वे दोनों संसारावस्था को छोड़कर आर्हती-दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। कालान्तर में, उत्कृष्ट तपश्चरण के प्रभाव से मोक्ष प्राप्त करते हैं।

कथा का दार्शनिक पक्ष[संपादित करें]

उपरोक्त कथा के सार-संक्षेप में आचार्यश्री महाभद्रा और सुललिता के कथनों से स्पष्ट हो जाता है कि इस महाकथा में रहस्यात्मकता का गुम्फन कितना सहज और दुर्बोध है। इसी तरह के रहस्यात्मक प्रतीककथाचित्रों की भरमार उपमितिभव प्रपञ्चकथा में है जो आठों प्रस्तावों में समाविष्ट अनेकों अलग अलग कथाओं को पढ़ने पर और अधिक गहरा बन जाता है। हिंसा, असत्य, चौर्य/अस्तेय, मैथुन और अपरिग्रह के साथ क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मोह का आवेग जुड जाने पर स्पर्शन, रसना, घ्राण, श्रोत्र और चक्षु इन्द्रियों की अधीनता स्वीकार कर लेने से जो प्रतिकूल परिणाम जीवात्मा को भोगने पड़ते हैं, प्रायः उन समस्त परिणामों से जुड़ी अनेक कथाएं, इस महाकथा में अन्तर्भूत हैं। इन कथाओं का घटनाक्रम भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न पारिवारिक परिवेषों में भिन्न-भिन्न पात्रों के द्वारा घटित/वर्णित किया है सिद्धर्षि ने। इस विभिन्नता को देखकर सामान्य पाठक को यह निश्चय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि इन अनेकों कथानायकों में से मुख्यकथा का नायक कौन हो सकता है?

वस्तुतः स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र के माध्यम से संसार को, जीवात्मा न सिर्फ देखता है, बल्कि उनसे अपना रागात्मक सम्बन्ध जोड़कर उसकी पुनः पुनः आवृत्ति करता रहता है। फलतः, सांसारिक पदार्थों के विकारों की छाप, उस पर इतनी प्रबल हो जाती है कि वह जन्म-जन्मान्तरों तक उनसे अपना सम्बन्ध तोड़ नहीं पाता। इससे जीवात्माओं को जो यातनाएँ सहनी पड़ती हैं, वे अकल्पनीय ही होती हैं। इसी तरह की जीवात्माओं के जन्म-जन्मान्तरों की कथाएँ, हर प्रस्ताव में संयोजित हैं जिनके साथ, छाया की तरह, कुछ ऐसे जीवन-चरित भी संयोजित हुए हैं, जिन्हें न तो इन्द्रियों की शक्ति अपने अधीन बना पायी है, न ही हिंसा, चोरी-आदि दुराचारों के वशंवद वे बन सके हैं। क्रोध, मान, माया जैसे प्रबल मानवीय विकारों का प्रभुत्व भी उन्हें पराजित नहीं कर पाया। स्पष्ट है कि सिद्धर्षि ने इन कथाओं में 'अशुभ' और 'शुभ' परिणामी जीवों के कथानक साथ-साथ संजोये हैं इस महाकथा में। चरितों की यह संयोजना, सिद्धर्षि की कल्पना से द्विविध प्रसूत नहीं मानी जा सकती, क्योंकि इस सबके संयोजन में उनका गहन दार्शनिक अभिज्ञान, चिन्तन और अनुभव, आधारभूत कारक रहा है। जिसे उनके रचनाकौशल में देखकर, यह माना जा सकता है कि सिद्धर्षि ने उन शाश्वत स्थितियों की विवेचना की है, जो जीवात्मा के अस्तित्व के साथ-साथ ही समुदभूत होती हैं। इसी द्विविधता को हम इस महाकथा के प्रारम्भ में उन दो ध्रुव बिन्दुओं के रूप में देख सकते हैं, जिनसे महाकथा का सूत्रपात होता है। इन बिन्दुओं की ओर, सिद्धर्षि ने 'कर्मपरिणाम' के अधीनस्थ दो सेनापतियों - 'पुण्योदय' और 'पापोदय' - के कार्यक्षेत्रों का निर्धारण करके, इन दोनों की प्रवृत्तियों का परिचय दे करके, पाठक का ध्यान आकृष्ट करना चाहा है। इन दोनों की क्रियापद्धति और अधिकारों में मात्र यह अन्तर है कि 'पुण्योदय' के कार्यक्षेत्र में जो जीवात्माएँ आ जाती हैं, उन्हें वह उन्नति की ओर अग्रसर करने के लिए प्रयासरत रहता है; जबकि, 'पापोदय' अपने अधिकार क्षेत्र में आई जीवात्माओं को पतित से पतिततम अवस्थाओं में पहुंचाने की योजनाएँ बनाने में लगा रहता है।

आशय यह है कि उपमितिभवप्रपञ्चकथा की कथाओं में द्वविध्य का समावेश इस तरह हुआ है कि कर्मबन्ध का 'आस्रव' जिन क्रियाकलापों से होता है, उनका और 'संवर' की प्रक्रिया में सहयोगी क्रियाकलापों का निर्देश पाठक को साथ साथ उपलब्ध होता जाये जिससे उन्हें यह अनुभव करने में कठिनाई न हो कि 'असद्-प्रवृत्ति' से जीवात्मा, कर्मबन्धन में किस तरह जकड़ता है, और कर्म-बन्ध की इस स्थिति को, किस तरह की प्रवृत्तियों से बचाया जा सकता है। यह स्पष्ट ज्ञात हो जाने पर ही जीवात्मा यह समझ पाता है कि भवप्रपञ्च के विस्तार का यह मुख्य कारण 'कर्मबन्ध' है। 'कषाय' और 'इन्द्रियों की विषय प्रवृत्ति' ऐसे दुर्विकार हैं, जो भवप्रपञ्च रूपी वृक्ष को हरा-भरा बनाये रखने में मुख्य-जड़ों को भूमिका निभाते हैं। इस भवप्रपञ्च वृक्ष को उखाड़ फेंकने की शक्ति, पाठकों में आये, यही आशय, इस कथा का मुख्य लक्ष्य रहा है ।

किन्तु, इस द्विविधापूर्ण कथानक के हर प्रस्ताव में जो कथानक आये हैं, उन्हें, पढ़कर भी यह भ्रम बना ही रह जाता है कि मूलकथा का नायक कौन है? यदि, पाठकवृन्द, थोड़ा सा भी सतर्क भाव से, इस विशाल कथा को पढ़ेंगे, तो वे देखेंगे कि मूल कथा नायक के संकेत पूरे ग्रन्थ में यत्र-तत्र मिलते जाते हैं। कथा में बीच-बीच में कुछ शब्द/वाक्य इन संकेतों को स्पष्ट करते हैं। जैसे- ' सरागसंयतानां भवत्येवायं जीवो हास्यस्थानं' (पृष्ठ ३३ प्रथम पंक्ति), 'मंदीय जीवरोरोऽयं' (पृष्ठ- ४३ दूसरी पंक्ति), 'परमेश्वरावलोकनां मज्जीवे भवन्तों' (पृष्ठ - ५३, अन्तिम पंक्ति), 'ये च मम सदुपदेशदायिनो भगवन्तः ' ( पृष्ठ- ५४, तीसरी पंक्ति), ' ततो यो जीवो मादृश:' ( पृष्ठ-७४ तेरहवीं पंक्ति) इत्यादि पृष्ठों पर 'अस्मत्' शब्द का प्रयोग हुआ है। यह 'अस्मत्' शब्द का प्रयोग, अनुसुन्दर चक्रवर्ती के द्वारा किया गया है जिससे यह निश्चय होता है कि इस महाकथा का मुख्य नायक वही (अनुसुन्दर चक्रवर्ती) है। जिन स्थलों पर 'एतत्' 'इदं' या 'जीव' शब्दों का प्रयोग हुआ है, वहाँ पर, उसका अर्थ सामान्य-जीवविषयक ही ग्रहण किया जाना चाहिए। जैसा कि 'एवमेष जीवो राजपुत्राद्यवस्थायां वर्तमानो बहुशो निष्प्रयोजन विकल्पं परम्पर- याऽऽत्मानमाकुलयति' (पृष्ठ ३७ तृतीय पंक्ति), 'यदा खल्वेष जीवो नरपतिसुताद्यवस्थायामतिविशाल चित्ततया' (पृष्ठ वही, पञ्चम पंक्ति), तथा 'ततोऽयमेव जीवोsनवाप्तकर्त्तव्यनिर्णयः' 'यदायं जीवो विदित- प्रथम सुखास्वादो भवति' (पृष्ठ - ९७, पंक्ति क्रमश: प्रथम एवं सातवीं) आदि प्रसंगों में हुए शब्द प्रयोगों से स्पष्ट है ।

इस महाकथा में वर्णित कथा-तथ्य, वस्तुतः जैन धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित तत्त्व-विवेचना से ओत-प्रोत है। जीवधारियों का जन्म, उनके संस्कार और आचरण, जीवन पद्धति, सोच-विचार की भावदशाएँ, साधना, और ध्यान आदि मोक्ष तक का समग्र चिन्तन-मनन, जैन धार्मिक/दार्शनिक सिद्धान्तों पर आधारित है। कर्म, कर्मफल, कर्मफलभोग और कर्मपरम्परा से मुक्ति, इन समस्त प्रक्रियायों / दशाओं में जीव सर्वतन्त्र-स्वतन्त्र है, जैनधर्म की यह मौलिक मान्यता है। जिस तरह कोई एक अस्त्र, व्यक्ति की जीवन-रक्षा में निमित्र बनता है, उसी तरह, उसके जीवन-विच्छेद का भी कारण बन सकता है। अस्त्र के उपयोग की भूमिका, अस्त्रधारी के विवेक पर निर्भर होती है। ठीक इसी तरह जीवात्मा, अपने विवेक का प्रयोग, भवप्रपञ्च के विस्तार के लिये करता है, या भव-प्रपञ्च को नष्ट करने में यह उसके विवेक पर निर्भर होता है। जैनधर्म / दर्शन के सारे के सारे सिद्धान्त 'विवेक प्रयोग' पर ही निर्धारित किये गये हैं। यह, सर्वमान्य, सर्व अनुभूत तथ्य है कि विवेक के प्रयोग की आवश्यकता तभी जान पड़ती है जब दो स्थितियों / विचारों में से किसी एक को चुनना हो। 'उपमितिभवप्रपञ्चकथा' में इसी आशय से द्विविधापूर्ण, भिन्न-भिन्न कथानकों को साथ-साथ समायोजित किया है सिद्धर्षि ने। इन कथाओं से, इनके पात्रों, परिस्थितियों और घटनाक्रमों को पुनः पुनः पढ़ने से, पाठक को अपने विवेक का प्रयोग, आत्मरक्षा / आत्मोन्नति के लिए कब करना है- यह अभ्यास भली-भाँति हो जायेगा। वस्तुतः जैनधर्म / दर्शन का यही अभिप्रेत है। इसी को सिद्धर्षि ने भी अपनी कथा का अभिप्रेत निश्चित करना उपयुक्त समझा।

निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि 'उपमिति भवप्रपञ्च कथा' की सम्पूर्ण कथा 'सांसारिकता' और 'आध्यात्मिकता' के दो समानान्तर धरातलों पर से समुद्भूत हुई है। भौतिक धरातल पर चलने वाली कथा से सिर्फ यही स्पष्ट हो पाता है कि अनुसुन्दर चक्रवर्ती का जीवात्मा, किन-किन परिस्थितियों में से होता हुआ मोक्ष के द्वार पर, कथा के अन्त में पहुँचता है। इन परिस्थितियों में उसके वैभव, समृद्धि, विलासिता आदि से जुड़े भौतिक सुखों का रसास्वादन भर पाठक कर पाता है। जब कि दीनता-दरिद्रता भरी विषम परिस्थितियों के चित्रण में उसके दुःख-दर्दों के प्रति, सहृदय पाठक के मन में बसी दयालुता द्रवित भर हो उठती है। ये दोनों ही भावदशाएँ, न तो पाठक के लिये श्रेयस्कर मानी जा सकती हैं, न ही सिद्धर्षि के कथा- लेखन का लक्ष्य। बल्कि, सिद्धर्षि का आशय, स्प ष्टतः यही जान पड़ता है कि जीवात्मा को जिन कारणों से दीन-पतित अवस्थाओं में जाना पड़ता है, उनका भावात्मक दृश्य, कथाओं के द्वारा पाठक के समक्ष उपस्थित करके, उसे यह ज्ञात करा दिया जाये कि सुख और दुःख का सर्जन, अन्तःकरणों की शुभ-अशुभमयी भावनाओं से होता है। यदि उसके चित्त की वृत्तियाँ उत्कृष्ट शुभराग से परिप्लुत हों, तो उच्चतम स्थान, स्वर्गं तक ही मिल पायेगा; और उत्कृष्ट-अशुभराग का समावेश चित्तवृत्तियों में होगा, तो अपकृष्टतम-नरक में उसे जाना पड़ सकता है। इस लिये, वह इन दोनों - शुभ-अशुभ-राग से अपने चित्त / अन्तःकरणों को प्रभावित न बनाये। ताकि उसे स्वर्ग / नरक से सम्बन्धित किसी भी भवप्रपञ्च में उलझना नहीं पड़े बल्कि, उस के लिये श्रयस्कर यही होगा कि उक्त दोनों प्रकार की वृत्तियों / परिस्थितियों के प्रति एक ऐसा माध्यस्थ्य / तटस्थ भाव अपने अन्तःकरण में जागृत करे जो उसे सभी प्रकार के भव-विस्तार से बचाये। उसकी यही तटस्थता, उसमें उस विशुद्ध भाव की सर्जिका बन जायेगी, जिसके एक बार उत्पन्न हो जाने पर, हमेशा हमेशा के लिये, किसी भी योनि/भव में जाने का प्रसंग समाप्त हो जाता है।[1]

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इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

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