कुवलयमाला

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कुवलयमालाकहा (कुवलयलमाला कथा ; कुवलयमाला =नीले कमलिनी की माला) भारतीय साहित्य का असाधारण और महान् ग्रन्थ है जिसकी रचना उद्योतन सूरि ने 779 ई में जाबालिपुर (जालोर, राजस्थान) में की। यह गुणाढ्य की बृहत्कथा की तरह ही भारतीय कथा-आख्यान परम्परा की रचना है। इसकी भाषा प्राकृत है और यह चम्पू शैली में रचित है। इसमें वार्तालाप संस्कृत, अपभ्रंश, पैशाची सहित अनेक भाषाओं में हैं। इसमें रानी कुवलयमाला सहित पाँच आत्माओं की कथा है जो विभिन्न जन्मों से होकर गुजरते हैं। प्रारम्भ में पाँचों आत्माएं पाँच दुर्गुणों (क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह) में से किसी एक से ग्रसित हैं। अन्ततः पाँचों आत्माएँ अपने अन्तिम जन्म में भगवान महावीर से मिलती हैं और मोक्ष को प्राप्त होती हैं।

इस रचना में जैन धार्मिक आग्रह आद्यन्त है, लेकिन इसकी कथा योजना इस तरह की है कि यह पाठक को निरन्तर बाँधे रखती है। भारतीय कथा-आख्यान की कथा विस्तार, कथा में कथा, दृष्टांत, अतिमानवीय और लौकिक में निरंतर आवाजाही, कथा में अंतर्नियोजित संदेश जैसी सभी विशेषताएँ इसमें मिलती हैं। यह ‘कथा में कथा’ और ‘कथा से कथा’ की पद्धति से बुनी और गढ़ी गयी रचना है जो पाठक को एक सम्मोहक भूल-भूलैया में खींच ले जाती है। इसमें 4180 गाथाओं और 36 छंदों का प्रयोग है। कुवलयामाला में राजस्थान की 18 भाषाओं का उल्लेख मिलता है। उद्योतनसूरि द्वारा प्राकृत भाषा में 'कुवलयमालाकहा' की रचना विक्रम संवत् ८३५ के चैत्र वदी १४, ईस्वी संवत् ७७९ मार्च माह की २१ तारीख को १३००० श्लोक प्रमाण के रूप में पूर्ण की गई थी।

आठवीं शताब्दी के भारत के सांस्कृतिक जीवन का सम्पूर्ण चित्र इस ग्रन्थ में उपलब्ध है। इस ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि भारत का विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध था। जल एवं स्थल मार्गों द्वारा व्यापारी दूर-दूर की यात्रा करते थे । उन दिनों विजयपुरी एवं सोपारक प्रमुख मण्डियाँ थीं। समाज में विभिन्न आयोजन होते थे। अनेक जातियों का उस समय अस्तित्त्व था। भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्र, अलंकार एवं वाद्यों का व्यवहार होता था ।

आचार्य उद्योतनसूरि भारतीय वाङ्मय के बहुश्रुत विद्वान् थे। उनकी एकमात्र कृति कुवलयमालाकहा उनके पाण्डित्य एवं सर्वतोमुखी प्रतिभा का पर्याप्त निष्कर्ष है। उन्होंने न केवल सिद्धान्त ग्रन्थों का गहन अध्ययन और मनन किया था, अपितु भारतीय साहित्य की परम्परा और विधाओं के भी वे ज्ञाता थे । अनेक प्राचीन कवियों की अमर कृतियों का अवगाहन करने के अतिरिक्त लौकिक कलाओं और विश्वासों के भी वे जानकार थे। अतः सिद्धान्त, साहित्य और लोक-संस्कृति के सुन्दर सामञ्जस्य का प्रतिफल है उनकी कृति कुवलयमालाकहा। कुडुंगद्वीप, जुगसमिला-दृष्टान्त, प्रियंकर एवं सुन्दरी की कथा, रण्यन्दुर आदि के दृष्टान्त धार्मिक वर्णनों में जान डाल देते हैं। धर्मकथा होते हुए भी 'कुवलयमाला की साहित्यिकता' बाधित नहीं हुई है ।

उद्योतन सूरि ने अपने सम्बन्ध में तथा इस रचना के संबंध में ग्रन्थान्त प्रशस्ति में पर्याप्त और स्पष्ट उल्लेख किए हैं। इसलिए इसके संबंध में कोई विशेष विवाद नहीं है। प्रशस्ति के अनुसार उद्योतन सूरि महाद्वार नगर के क्षत्रिय राजा उद्योतन के पुत्र वटेश्वर के पुत्र थे। उन्होंने अपनी गुरु परम्परा का भी उल्लेख किया है। उन्होंने अपने दो गुरुओं का उल्लेख किया है।समराइच्चकहा (समरादित्य कथा) के रचनाकर विख्यात दार्शनिक हरिभद्र सूरि से उन्होने प्रमाण और न्याय की शिक्षा प्राप्त की, जबकि आचार्य वीरभद्र ने उन्हें सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन करवाया। ग्रंथ की रचना के समय के संबंध उन्होंने लिखा कि “जब शक संवत 700 पूर्ण होने में एक दिन शेष था, तब चैत्र वदी 14 के अपराह्न में यह रचना पूर्ण हुई।” इस आधार पर इस रचना के आरंभिक अध्येता हर्मन जैकोबी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि 21 मार्च, 779 ई। के दिन लगभग 12 बजे यह रचना पूर्ण पूर्ण हुई। उद्योतन सूरि के गुरु आचार्य वीरभद्र जालोर में रहते थे और उन्होंने जालोर में एक ऊँचा और भव्य ऋषभदेव का मंदिर भी बनवाया। इसी मंदिर के उपाश्रय में बैठकर उद्योतन सूरि ने इस महाकाय ग्रंथ की रचना की।

उद्योतन सूरि ने इस ग्रंथ में अपने से पहले और अपने समय के विद्वानों और उनकी प्रसिद्ध रचनाओं का भी उल्लेख किया है। हाल की गाथासप्तशती, गुणाढ्य की बृहत्कथा, बाणभट्ट की कादम्बरी, विमल सूरि की पउमचरिउ, हरिभद्र सूरि की समराइच्चकहा, वाल्मीकि की रामायण, वेदव्यास की महाभारत आदि के उल्लेख इसमें है।

उद्योतन सूरि ने कुवलयमालाकहा को ‘प्राकृतभाषा निबद्धा चंपूस्वरूपा महाकथा’ (प्राकृत भाषा में निबद्ध चम्पू स्वरूप महाकथा) कहा है। प्राकृत की तत्कालीन कथा-आख्यान परम्परा और उसकी श्रेणियों- सकल, खंड, उल्लाप, परिहास और संकीर्ण में से उद्योतन सूरि ने इसको ‘संकीर्ण (मिश्र) कथा’ कहा है, क्योंकि इसमें शेष चारों श्रेणियों का मिश्रण है। रचना में यह उल्लेख भी है कि दाक्षिण्यचिह्न सूरि (उद्योतन सूरि का दूसरा नाम) पर ‘ह्री’ देवी प्रसन ने प्रसन्न होकर उनको जो वृतांत सुनाया, उसी को कुवलयमालाकहा के रूप प्रस्तुत किया गया है।

यह एक महाकथा है, जिसमें पाँच जीवों- लोभदेव, मानभट, मायादित्य, चंडसोम और मोहदत्त के आख्यान हैं, जो अलग-अलग भव में जन्म लेकर अंततः साधना द्वारा मुक्ति प्राप्त करते हैं। कथा का आरंभ कुवलयचंद्र, जो पूर्व भव के लोभदेव था, के आख्यान से होता है। कुवलयचंद्र का विवाह कुवलयमाला से होता है, जो पूर्व भव में मायादित्य थी। सभी चरित्र एक-दूसरे को सम्यक्त्व देकर जाति स्मरण करवाते हैं। कथा इतनी जटिल और विस्तृत है कि इसको पाँच विभागों बाँटा गया और इन विभागों को यथावश्यकता आगे भी एकाधिक उपविभागों में रखा गया है। कथा को संक्षिप्त करने के लिए अधिकांश दृष्टांतों को इसमें से निकाल दिया गया है।

कुवलयमालाकहा की एकाधिक पांडुलिपियों को आधार बनाकर 1959 ई। में मुनि जिनविजय की सिंघी जैन ग्रंथमाला के अंतर्गत इसका आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये के संपादन में दो भागों में आलोचनात्मक संस्करण प्रकाशित हुआ। बाद में कुछ अन्य विद्वान् प्रो० प्रेम सुमन जैन, महोमहापाध्याय विनय सागर, आचार्य नारायण शास्त्री आदि भी इसके संपादन और प्रकाशन प्रवृत्त हुए और इसके एकाधिक संस्कृत और हिंदी संस्करण भी सामने आए।

कथावस्तु[संपादित करें]

जम्बूद्वीप के भारत देश में, वैताढ्य पर्वत की दक्षिण-श्रेणी में गंगा और सिन्धु के बीच मध्य देश था, जिसकी राजधानी विनीता अयोध्या नगरी थी । वहाँ दृढ़वर्मन् राज्य करते थे । उनकी पटरानी का नाम प्रियंगुश्यामा था । एक दिन राजा अभ्यन्तर प्रस्थान- मण्डप में रानी एवं कुछ प्रधान मन्त्रियों के साथ बैठा हुआ था, सुषेण नामक शबर सेनापति वहाँ प्रविष्ट हुआ । राजा को प्रणाम कर उसने मालवा के राजा के साथ किस प्रकार युद्ध हुआ, कैसे उस पर अधिकार किया तथा कैसे मालव नरेश के पंचवर्षीय पुत्र महेन्द्र को वह पकड़ कर लाया है, यह सब कह सुनाया। राजा दृढ़वर्मन् ने राजकुमार महेन्द्र का स्वागत किया । कुमार ने अपने व्यवहार से राजा एवं रानी का हृदय जीत लिया। राजा ने कुमार को अपने पुत्र की भाँति राजमहल में रखने का आदेश दिया ।

रानी प्रियंगुश्यामा एक दिन कोपभवन में थी । राजा ने पता किया कि महेन्द्रकुमार जैसा उनके पुत्र न होने से वह दुःखी है। रानी ने राजा से पुत्र- प्राप्ति के लिए देवी की अर्चना करने को कहा। राजा ने कुलदेवता, राजलक्ष्मी की दो दिन तक आराधना की। तीसरे दिन जब राजा स्वयं अपना बलिदान करने के लिए तैयार हो गया तो देवी उसके समक्ष प्रगट हुई और राजा को उसने श्रेष्ठ पुत्ररत्न प्राप्ति का वरदान दिया ।

निश्चित अवधि में रानी ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया । स्वप्न में रानी ने चन्द्रमा में कुवलयमाला के दर्शन किये थे, अतः पुत्र का नाम कुवलयचन्द्र रखा गया। पंचधात्रियों के संरक्षण में कुमार का लालन-पालन हुआ । आठ वर्ष की आयु में कुमार को लेखाचार्य के पास अध्ययन करने के लिये भेजा गया, जहाँ बारह वर्ष तक रह कर कुवलयचन्द्र ने सभी कलाओं में योग्यता प्राप्त की। गुरुकुल से लौटकर कुमार ने माता-पिता का आशीष प्राप्त किया । तदनन्तर पिता की प्राज्ञा से कुवलयचन्द्र अश्वक्रीडा के लिए राजा एवं अन्य कुमारों के साथ विनीता के बाजारों से होता हुआ अश्वक्रीड़ा-स्थल में पहुँचा ।

अश्वक्रीड़ा करते हुए कुवलयचन्द्र का अश्व उसे दक्षिण दिशा में ले जाकर आकाश में उड़ गया। कुवलयचन्द्र ने इस घटना की वास्तविकता ज्ञात करने के लिए अश्व की ग्रीवा में छुरिका से तीव्र प्रहार किया। अश्व भूमि पर गिर पड़ा और मर गया । कुमार इस घटना पर विचार ही कर रहा था कि उसे आकाश- वाणी सुनायी पड़ी कि वह दक्षिण की ओर आगे बढ़ े तो उसे आश्चर्यजनक दृश्य देखने को मिलेंगे । कुमार उस ओर बढ़ा। वह विन्ध्याटवी में पहुँचा। वहाँ उसे वटवृक्ष के नीचे बैठे हुए एक मुनिराज दिखायी दिये। मुनिराज की बाँयी ओर एक दिव्यपुरुष तथा दाँयी ओर एक सिंह विराजमान था । कुवलयचन्द्र का उन्होंने स्वागत किया। उसने जब प्रश्व के उड़ाने की घटना आदि के सम्बन्ध में मुनिराज से प्रश्न किये तो मुनिराज ने उसे अपने समक्ष बैठाकर इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया "वत्स जनपद में कौशाम्बी नगरी है । वहाँ के राजा का नाम पुरन्दरदत्त था । उसका प्रधानमन्त्री वासव जैनधर्म का अनुयायी था । किन्तु राजा जैनधर्म पर विश्वास नहीं करता था। एक दिन नगर के उद्यान में मुनिराज धर्मनन्दन के आगमन पर वासव राजा पुरन्दरदत्त को भी उनके पास ले गया। राजा ने मुनिराज एवं उनके शिष्यों के वैराग्य धारण करने का कारण पूछा। राजा का उत्तर देते हुए मुनिराज धर्मनन्दन ने संसार के स्वरूप का विस्तृत वर्णन किया और बतलाया कि इस संसार में भ्रमण करने का कारण क्रोध, मान, मामा, लोभ और मोह है । इन पाँचों से सम्बन्धित उन व्यक्तियों का पूर्व जीवन भी मुनिराज ने राजा को सुनाया, जो वहीं बैठे हुए थे।

क्रोध : चंडसोम की कथा[संपादित करें]

कांची के समीप रगड़ा नाम का सन्निवेश था। वहाँ सुशर्मा देव नामक एक गरीब ब्राह्मण रहता था । उसका बड़ा पुत्र भद्रशर्मा क्रोधी होने के कारण चंडसोम कहा जाने लगा था। माता-पिता चंडसोम का विवाह नन्दिनी नामक कन्या से करके उन्हें गृहस्थी सौंपकर तीर्थ करने चले गये । नन्दिनी पतिव्रता एवं गुणसम्पन्न थी । किन्तु चंडसोम उस पर संदेह करता रहता था। एक दिन नाटक देखकर लौटते समय संदेह के कारण चंडसोम ने अपनी पत्नी एवं उसके प्रेमी के धोखे में अपने छोटे भाई एवं बहिन की हत्या कर दी। इससे चंडसोम को बहुत आत्म- ग्लानि हुई । वह उनके साथ मर जाना चाहता था, किन्तु ब्राह्मणों ने उसे अन्य कई प्रायश्चित्त करने को कहा । अतः वह गंगास्नान द्वारा अपने पाप धोने के लिए आते समय यहाँ धर्मनन्दन मुनि के पास चला आया। मुनि ने उसे दीक्षा देकर अपने कर्मों को क्षय करने का मार्ग बतलाया ।

मान : मानभट की कथा[संपादित करें]

मालवा में उज्जयिनी के उत्तर-पूर्व में कूपवन्द्र नाम का एक गाँव था । वहाँ क्षेत्रभट नाम का एक सामन्त ठाकुर रहता था, जिसकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी थी । उसके पुत्र का नाम वीरभट था । वृद्धावस्था में क्षेत्रभट गाँव में रहने लगा था और वीरभट राजा की सेवा में था । वीरभट के पुत्र शक्तिभट ने अपने परिवार की परम्परा को कायम रखते हुए राजा की सेवा की । शक्तिभट को अहंकार बहुत था अतः उसे लोग मानभट कहने लगे थे । एक दिन राजा अवन्ति के दरबार में मानभट के आसन पर कोई पुलिन्द राजकुमार आकर बैठ गया । मानमट ने इसे अपना अपमान समझ कर उसके द्वारा क्षमा माँगने पर भी उसे छुरिका से मार डाला और राज दरबार से निकल कर अपने पिता के पास गाँव में भाग गया। पिता ने उसे गाँव छोड़ कर अन्यत्र चलने को कहा। तब दोनों नर्मदा के किनारे एक किला बना कर किसी गाँव में रहने लगे ।

एक दिन वसन्तोत्सव में मानभट अपनी पत्नी के साथ गया । वहाँ उसने अपने मित्रों के बीच किसी अन्य युवती के रूप की प्रशंसा में गीतिका गायी । उसकी पत्नी इसे अपना अपमान समझ कर अकेली घर लौट आयी । वह गले में फन्दा डाल कर आत्महत्या करने वाली थी, तभी मानभट ने आकर उसे बचा लिया । मानभट ने पत्नी को मनाने के लिए उसके चरण भी छए, किन्तु पत्नी का गुस्सा कम नहीं हुआ। अतः मानभट अपमानित होकर घर से बाहर निकल गया। उसकी पत्नी एवं माता-पिता ने उसका अनुसरण किया । मानभट ने पत्नी की परीक्षा के लिए कुँए में एक पत्थर गिरा दिया और स्वयं छुप गया । पत्नी एवं उसके माता-पिता ने समझा मानभट कुँए में गिर गया है। अतः वे तीनों भी कुँए में कूद गये । मानभट ने सोचा कि मेरे कारण ही परिवार नष्ट हुआ है । अतः वह प्रायश्चित्त के लिए चल पड़ा। कौशाम्बी में आकर उसने धर्मनन्दन मुनि से दीक्षा ले ली और सम्यक्त्व का पालन करते हुए अपने पापों को कम करने लगा ।

माया : मायादित्य की कथा[संपादित करें]

वाराणसी के दक्षिण-पश्चिम में सालिग्राम नाम का एक गाँव था । वहाँ गंगादित्य नाम का गरीब वैश्य रहता था । वह कठोर, कुरूप, अनैतिक एवं कपटी स्वभाव वाला था । अतः उसको लोग मायादित्य कहने लगे थे । मायादित्य की स्थाणु नामक युवक से मित्रता थी। दोनों धन कमाने के लिए प्रतिष्ठान गये । वहाँ उन्होंने पाँच-पाँच हजार मुद्राएँ अर्जित की तथा उनके बदले पाँच-पाँच रत्न ले लिये। चोरों से बचने के लिए घर लौटते समय उन्होंने तीर्थयात्रियों का भेष धारण कर लिया । रास्ते में मायादित्य ने स्थाणु के रत्नों को प्राप्त करने के अनेक प्रयत्न किये। एक बार उसे कुएँ में ढकेलकर रत्न लेकर भाग गया । किन्तु चोरों के समूह ने उसे पकड़ लिया और स्थाणु को खोजकर उसके रत्न उसे वापिस करा दिए। फिर भी मायादित्य के प्रति स्थाणु का व्यवहार मित्रवत् बना रहा । अतः मायादित्य को अपने व्यवहार पर ग्लानि हुई और वह प्रायश्चित्त करने चल पड़ा। गाँव के बड़े-बूढ़ों ने उसे गंगा स्नान करने की सलाह दी । मायादित्य गंगा स्नान के लिए चल पड़ा। रास्ते में धर्मनन्दन मुनि के उपदेशों को सुनकर उसने जिनधर्म में दीक्षा ले ली ।

लोभ : लोभदेव की कथा[संपादित करें]

तक्षशिला के दक्षिण-पश्चिम में उच्चस्थल नाम का एक गाँव था । वहाँ सार्थवाह का पुत्र धनदेव रहता था । वह अत्यन्त लोभी था अतः उसे लोग लोभदेव कहने लगे । धन कमाने के लिए एक बार वह घोड़े लेकर दक्षिण में सोपारक गया । वहाँ भद्रश्रेष्ठी के यहाँ ठहरा। वहाँ अपने घोड़े बेचकर बहुत धन कमाया । सोपारक की स्थानीय व्यापारियों के संगठन ने उसका स्वागत किया। उस प्रायोजन में सम्मिलित व्यापारियों ने विभिन्न देशों में किये गये व्यापार विषयक अपने-अपने अनुभव सुनाये । धनदेव अधिक धन कमाने की इच्छा से भद्रश्रेष्ठी के साथ रत्नद्वीप गया । वहाँ उन्होंने अपार धन कमाया । जब वे वापिस लौट रहे थे तो लोभदेव ने भद्रश्रेष्ठी के हिस्से को भी हड़पने के लिए उसे समुद्र में गिरा दिया। भद्रश्रेष्ठी ने राक्षस के रूप में जन्म लेकर लोभदेव के जहाज को समुद्र में डुबो दिया। किसी प्रकार लोभदेव तारद्वीप में जा लगा, जहाँ उसे समुद्रचारियों द्वारा पकड़ कर उसके रुविर से स्वर्ण बनाने का कार्य किया गया। किसी प्रकार वहाँ से छूटकर वह भेरुण्ड पक्षियों द्वारा समुद्र में गिरा दिया गया। जब वह किनारे लगा तो उसे अपने कार्यों पर बड़ी ग्लानि हुई | जब वह प्रायश्चित्त करने गंगा की ओर जा रहा था तो रास्ते में मुनि धर्म- नन्दन के उपदेशों को सुनकर उसने वहीं दीक्षा ले ली ।

मोह : मोहदत्त की कथा[संपादित करें]

कौशल नगरी का राजा कौशल था । उसके पुत्र का नाम तोसल था जो स्वतन्त्रतापूर्वक नगर में भ्रमण किया करता था । एक दिन तोसल ने नगर- श्रेष्ठि के महल में गवाक्ष पर बैठी हुई उसकी सुन्दरी पुत्री सुवर्णा को देखा । उनमें परस्पर प्रेम हो गया । अवसर पाकर तोसल रात्रि में उससे मिलने उसके कक्ष में गया । सुवर्णा ने बताया कि उसका पति हरदत्त व्यापार करने लंका गया था, किन्तु बारह वर्ष हो गये अभी तक नहीं लौटा। वह अकेलेपन के कारण मरने को तैयार थी, किन्तु तभी उसने राजकुमार को देखा अतः वह उसी की शरण में है । तोसल ने उसे अपनी प्रेमिका बना लिया। कुछ समय बाद सुवर्णा गर्भवती हो गयी । पता चलने पर नगरश्रेष्ठी ने राजा से शिकायत की। राजा ने तोसल को मार डालने की आज्ञा दे दी । किन्तु मन्त्री की चतुराई से तोसल पाटलिपुत्र भाग गया और वहाँ जयवर्मन् राजा के यहाँ नौकर हो गया ।

सुवर्णा को जब ज्ञात हुआ कि तोसल को मार डाला गया है तो वह भी मरने के लिए नगर से भाग निकली। एक सार्थ के साथ पाटलिपुत्र के लिए चल पड़ी । गर्भभार के कारण वह सार्थ से पीछे रह गयी और जंगल में उसने एक साथ दो बच्चों को जन्म दिया - एक पुत्र, एक पुत्री को । यद्यपि वह मरने के लिए निकली थी, किन्तु अब उसने बच्चों के लिए जीवित रहने का निश्चय कर लिया । उसने अपने उत्तरीय के दोनों छोरों पर दोनों बच्चों को बाँध दिया और स्वयं प्रसव का रक्त आदि धोने के लिए झरने की ओर चली गयी । इधर एक बाघ बच्चों की पोटली को उठाकर ले गया । रास्ते में लड़की पोटली से छूटकर गिर गई, जिसे रास्ते में जाते हुए जयवर्मन् का संदेशवाहक उठाकर अपने घर पाटलिपुत्र ले गया । उसका नाम वनदत्ता रखा गया । लड़के को जयवर्मन् का कोई सम्बन्धी बाघ से छुड़ाकर ले गया । पाटलिपुत्र में उसका नाम व्याघ्रदत्त अथवा मोहदत्त रखा गया । कुछ समय बाद सुवर्णा भी पाटलिपुत्र पहुँच गई और संयोग से वनदत्ता की धात्री के रूप में अपनी पुत्री को न पहचानते हुए संदेश- वाहक के घर में काम करने लगी । प्राप्त हुए । मदनमहोत्सव के और प्रेमबन्धन में बँध गये ।

क्रमशः मोहदत्त एवं वनदत्ता यौवन को अवसर पर दोनों ने परस्पर एक-दूसरे को देखा राजकुमार तोसल की भी नजर वनदत्ता पर पड़ी और वह उसे चाहने लगा । वनदत्ता की तरफ से कोई उत्तर न मिलने पर तोसल ने उसे तलवार के बल पर पाना चाहा । मोहदत्त ने तोसल को वहीं उद्यान में मार डाला और वनदत्ता के साथ जैसे ही कामक्रीड़ा प्रारम्भ की, उसे एक आवाज सुनाई दी कि वह अपने पिता की हत्या कर अपनी बहिन के साथ संसर्ग करने जा रहा है। यह एक मुनि की आवाज थी, जिन्होंने बाद में मोहदत्त को पूरी घटनाओं से परिचित कराया । मोहदत्त ने अपने इस पाप का प्रायश्चित्त करना चाहा। अन्त में वह भी मुनि धर्मनन्दन के पास आया और उनसे दीक्षा ले ली ।

इस प्रकार धर्मनन्दन मुनि ने वासव मन्त्री और पुरन्दरदत्त राजा को क्रोध आदि इन पाँचों विकारों पर संयम करने के लिए कहा। मुनि के उपदेश सुनकर राजा और मन्त्री दोनों नगर में लौट गये ।

रात्रि में पुरन्दरदत्त राजा का हृदय परिवर्तित हो गया। वह वेष परिवर्तन कर मुनि धर्मनन्दन के समीप उद्यान में पहुँचा, जहाँ मुनिराज नये दीक्षित इन पाँचों मुनियों को उपदेश दे रहे थे । पुरन्दरदत्त ने सोचा कि पहले वह सांसारिक सुखों का उपभोग करेगा। बाद में वैराग्य धारण करेगा । मुनिराज ने उसके मन की बात जानते हुए सांसारिक सुखों की नश्वरता का वर्णन किया। राजा ने श्रावक धर्म स्वीकार कर लिया ।

उन पाँचों मुनियों ने सम्यक्त्व का पालन करने के लिए परस्पर सहायता करने का निश्चय किया । चंडसोम को यह दायित्व सौंपा गया कि वह अन्य चारों को अगले जन्म में सम्यक्त्व धारण करने का स्मरण करायेगा । पाँचों ने इस बात पर सहमति प्रकट की । लोभदेव मरणोपरान्त सौधर्मकल्प के पद्म विमान में पद्मप्रभ नाम का देव हुआ । इसी प्रकार कुछ समय बाद मानभट पद्मसर के रूप में, मायादित्य पद्मवर के रूप में, चंडसोम पद्मचन्द्र तथा मोहदत्त पद्मकेशर के रूप में उसी विमान में देव हुए। वहाँ मित्रतापूर्वक रहते हुए उन्होंने परस्पर सम्यक्त्व पालन का स्मरण कराया ।

धर्मनाथ तीर्थंकर के समवसरण में ये सभी देव उपस्थित हुए । समवसरण समापन के बाद पद्मप्रभ ( लोभदेव ) ने अपने सबके अगले जन्मों के विषय में भगवान् से पूछा । इन्हें ज्ञात हुआ कि वे सभी भव्य जीव हैं और यहाँ से चौथे जन्म में मुक्ति प्राप्त करेंगे। उन्होंने सलाह की कि मुक्ति प्राप्ति के लिए हम परस्पर सहयोग करते रहेंगे तथा पद्मकेशर ( मोहदत्त), जो सबसे अन्त में देव-लोक से चलेगा, सबको सम्बोधित करेगा । स्मरण के लिए उन पाँचों ने अपनी-अपनी रत्नमयी प्रतिमाएँ बनाकर एक पत्थर के नीचे रख दीं, जहाँ पद्मचन्द्र ( चंडसोम) सर्वप्रथम सिंह के रूप में जन्म लेगा ।

पद्मप्रभ (लोभदेव ) चम्पा में धनदत्त श्रेष्ठी के यहाँ उत्पन्न हुआ, जिसका नाम सागरदत्त रखा गया। एक बार स्वअर्जित धन कमाने की इच्छा से सागर- दत्त घर से निकल गया और उसने यह प्रतिज्ञा कर ली कि यदि वर्ष भर में सात करोड़ मुद्राएँ न कमा लेगा तो अग्नि में जल कर मर जायेगा । वह दक्षिणसमुद्र के पास जयश्री नगरी में पहुँचा । वहाँ मालूर वृक्ष की जड़ से धन प्राप्त कर वह नगर में एक सेठ के पास पहुँचा । मित्रता हो जाने पर सेठ ने उससे अपनी कन्या का विवाह कर देने का वचन दिया एवं यवनद्वीप जाने के लिए तैयारी कर दी । सागरदत्त ने यवनद्वीप में जाकर सात करोड़ मुद्राएँ अर्जित कीं। किन्तु लौटते समय जहाज भग्न हो जाने से सब सम्पत्ति नष्ट हो गयी । फलक के सहारे वह चन्द्रद्वीप में जा लगा। वहाँ उसने भग्न प्रेम व्यापार से पीड़ित एक कन्या को अग्नि में जल कर मरने के लिए तत्पर देखा । उसकी कथा सुनकर सागरदत्त भी अग्निदाह के लिए तैयार हो गया । किन्तु प्रवेश करते ही अग्नि की ज्वाला कमलों में परिवर्तिन हो गयी । पद्मकेशर देव ( मोहदत्तं ) ने सागरदत्त के इस कार्य की निन्दा की । उसे उसका उत्तरदायित्व स्मरण कराया तथा २१ करोड़ मुद्राएँ प्रदान कीं । तदनन्तर जयश्री नगरी में ले जाकर दोनों कन्याओं से विवाह कराया और सबको वह चम्पा पहुँचा दिया।

कुछ समय बाद सागरदत्त ने धनदत्त मुनि से दीक्षा ले ली । सो हे कुमार कुवलयचन्द्र ! मैं वही सागरदत्त हूँ । निरन्तर तपस्या करते हुए मैंने जो ज्ञान प्राप्त किया उससे जाना कि मेरे चारों साथी कहाँ हैं । पद्मचन्द्र ( चंडसोम) विन्ध्याटवी में सिंह के रूप में पैदा हुआ है, पद्मसर ( मानभट) कुवलयचन्द्र के रूप में अयोध्या में तथा पद्मवर ( मायादित्य) दक्षिण में विजयानगरी के राजा महासेन की पुत्री कुवलमाला के रूप में पैदा हुए हैं। पद्मकेशर ( मोहदत्त ) ने मुझे सम्बोधित किया ही था । वहाँ से मैं यहाँ सिंह ( चंडसोम) के पास चला आया और पद्मकेशर अश्व के रूप में तुम्हें यहाँ ले आया है । अतः आश्चर्य की कोई बात नहीं है । हम सबको परस्पर सम्यक्त्व पालन करने में सहयोग करना चाहिए ।

यह सब सुनकर कुवलयचन्द्र ने श्रावक के व्रत धारण किये एवं सम्यक्त्व का पालन करने का वचन दिया। मुनिराज ने उसे कुवलयमाला से विवाह करने को कहा और बतलाया कि पद्मकेशर ( मोहदत्त) उनके यहाँ पुत्र के रूप होगा । यह सब सुनकर सिंह ने भी व्रत धारण किए और धार्मिक आचरण में रत हो गया, किन्तु आयु शेष न होने से वह वहीं मरणासन्न हो गया । कुमार कुवलयचन्द्र ने उसके कान में पंत्र नमस्कार मन्त्र सुनाया । शान्तिपूर्वक उसकी मृत्यु हो गयी। सिंह मरणोपरान्त वैडूर्य विमान में देव उत्पन्न हुआ ।

तदनन्तर कुवलयचन्द्र दक्षिण की ओर विन्ध्याटवी में होता हुआ आगे बढ़ा । एक सरोवर के किनारे उसने एक यक्षप्रतिमा के दर्शन किये, जिसके मुकुट में मुक्ताशैल निर्मित जिन - प्रतिमा थी । वहाँ कुमार ने यक्षकन्या कनकप्रभा से भेंट की, जो यक्ष रत्नशेखर द्वारा वहाँ जिन-प्रतिमा की पूजा के लिए नियुक्त थी । कुमार जब वहाँ से चलने लगा तो कनकप्रभा ने कुमार को एक औषधिवलय उसकी रक्षार्थ भेंट की ।

कुवलयचन्द्र ने नर्मदा पार की। वह संन्यासिनी ऐणिका और उसके सेवक राजकीर से मिला । राजकीर ने ऐणिका की कहानी कुमार को सुनायी । ऐणिका राजा पद्म और रानी श्रीकान्ता की पुत्री थी । वचपन में पूर्व जन्म के पति द्वारा उसे जंगल में छोड़ दिया गया था, जहाँ वह मृगों के साथ बड़ी हुई । राजकीर ने उसे पढ़ना-लिखना सिखाया एवं सम्यक्त्व धारण कराया । कुवलयचन्द्र ने भी अपनी यात्रा का उद्देश्य उन्हें बताया । ऐणिका ने राजकीर को अयोध्या भेजकर कुमार की कुशलता के समाचार उनके माता-पिता के पास भिजवाये । तदनन्तर कुवलयचन्द्र उनसे विदा लेकर आगे चल पड़ा ।

कुवलयचन्द्र मध्यपर्वत में पहुँचा तथा कांचीपुरी को जानेवाले सार्थ के साथ हो लिया । रास्ते में भिल्लों ने सार्थ पर आक्रमण कर दिया । कुमार साहस एवं वीरता पूर्वक उनका मुकावला किया । भिल्लपति ने कुमार से समझौता कर लिया और जब पता चला कि दोनों श्रावक हैं तो उनमें मित्रता हो गयी । कुवलयचन्द्र को भिल्लपति अपनी पल्ली में ले गया, जहाँ कुमार सुख- पूर्वक रहा । वास्तव में भिल्लपति दृढ़वर्मन् के चचेरे भाई रत्नमुकुट का पुत्र दर्पपरिघ था, जो राज्य से निष्कासित होने के कारण भील बन गया था । कुवलयचन्द्र ने अपने चचेरे भाई को जैनधर्म का उपदेश दिया और दक्षिण की ओर चल पड़ा । उसके जाते ही दर्पपरिघ ने वैराग्य ले लिया ।

कुवलयचन्द्र विजयपुरी पहुँचा । वहाँ उसने सुना कि कुवलयमाला ने राज्य-दरवार में एक अधूरा श्लोक लिखकर टांग रखा है, जो उसे पूरा कर देगा उसी के साथ उसकी शादी होगी । कुमार राज्य दरबार की ओर चल पड़ा। रास्ते में उसने १८ देशों के बनियों के समूह को देखा । तभी एक पागल हाथी उधर श्रा निकला । राजमहल में हलचल मच गयी । कुवलयचन्द्र ने हाथी को वश में कर लिया। उस पर चढ़कर श्लोक ( गाथा ) की पूर्ति कर दी। कुवलयमाला ने माल्यार्पण करके उसे अपना वर स्वीकार कर लिया। इधर महेन्द्रकुमार भी कुवलयचन्द्र को खोजते हुए विजयपुरी पहुँच चुका था । उसने राजा महासेन को कुमार का पूरा परिचय दिया। कुमार से अयोध्या के समाचार कहे । राजा महासेन ने विवाह की लग्न की प्रतीक्षा में दोनों कुमारों को ससम्मान महल में ठहराया।

विवाह के लग्न की प्रतीक्षा में कुवलयचन्द्र एवं कुवलयमाला विभिन्न उपहारों द्वारा अपने उद्गारों का आदान-प्रदान करते रहे । अन्त में उत्साहपूर्वक विवाह कार्य सम्पन्न हुआ । आमोद-प्रमोद करते हुए अवसर देखकर कुवलयचन्द्र ने कुवलयमाला को पूर्व जन्मों का वृतान्त कह सुनाया और सम्यक्त्व पालन करने का आग्रह किया । कुवलयमाला ने उसका पालन किया ।

अयोध्या से पिता का पत्र पाकर कुवलयचन्द्र अपनी पत्नी एवं महेन्द्रकुमार के साथ सास-ससुर से विदा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़ा। सह्यपर्वत में उनकी भेंट एक मुनिराज से हुई, जिन्होंने विस्तृत पटचित्रों द्वारा संसारदर्शन कराया । इसे देखकर महेन्द्रकुमार ने सम्यक्त्व ग्रहण किया । तदनन्तर कुमार रात्रि में कुछ धातुवादियों से मिला एवं उन्हें स्वर्ण बनाने में सहयोग दिया । अन्त में 'कुवलयचन्द्र अयोध्या पहुँचा । माता-पिता ने उसका भव्य स्वागत किया और तुरन्त ही उसका राज्याभिषेक कर दिया, जिसकी पूरे नगर ने खुशी मनायी । कुमार को राज्यभार सौंप कर दृढ़वर्मन् ने सभी धर्मों की परीक्षाकर उनमें जैनधर्म को श्रेष्ठ मानकर वैराग्य ले लिया और मुनि बन गया ।

कुवलयचन्द्र ने कुछ वर्षों तक राज्य किया । पद्मकेशर देव ( मोहदत्त ) उनके यहाँ पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ, जिसका नाम पृथ्वीसार रखा गया । पृथ्वीसार के समर्थ होते ही कुवलयचन्द्र, कुवलयमाला एवं महेन्द्रकुमार ने मुनि दर्प से भेंट की, जिससे ज्ञात हुआ कि दृढ़वर्मन् अन्तकृत् केवली हो गये हैं । इन तीनों ने भी फिर दीक्षा ले ली । कुवलयमाला सौधर्मकल्प में उत्पन्न हुई । कुवलयचन्द्र वैडूर्यं विमान में देव उत्पन्न हुआ। वहीं मुनि सागरदत्त भी मरणो- परान्त देव होकर पहुँच गये । कुछ समय तक राज्य करने के बाद अपने पुत्र मनोरथादित्य को राज्यभार सौंप कर पृथ्वीसार भी उसी विमान में देव उत्पन्न हुआ । परस्पर परिचय प्राप्त कर उन्होंने मुक्ति प्राप्ति के लिए सबको सम्बोधित करने का फिर निश्चय किया ।

भगवान् महावीर के समय में कुवलयचन्द्र की आत्मा काकन्दी नगरी में राजा कांचनरथ और रानी इन्दीवर के गृह में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुई । उसका नाम मणिरथ रखा गया । मणिरथ को शिकार का व्यसन हो गया। एक समय भगवान् महावीर काकन्दी पधारे। उन्होंने श्रोताओं एवं राजा कांचनरथ से कहा कि मणिरथ इसी जन्म से मुक्ति प्राप्त करेगा । एक मृग, जो पूर्व जन्म में मणिरथ (सुन्दरी) का पति था, मणिरथ का हृदय परिवर्तन कर देगा । उसो समय रथ वहाँ आया और अपने पूर्व जन्म की कथा सुनकर उसने वेराग्य धारण कर लिया ।

भगवान् महावीर जब काकन्दी से श्रावस्ती पधारे तो उन्होंने कहा कि मोहदत्त कामगजेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ है । वह इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करेगा। तभी वहाँ कामगजेन्द्र श्राया और उसने वैराग्य धारण कर लिया । महावीर ने उसे बतलाया कि उसके अन्य चार साथी कहाँ कहाँ पर हैं ।

वैडूर्य विमान से सागरदत्त (लोभदेव ) ने ऋषभपुर में वज्रगुप्त के रूप में जन्म लिया । ऋषभपुर निरन्तर किसी डाकू द्वारा लूटा जा रहा था । वज्रगुप्त 'ने सात दिन के अन्दर चोर का पता लगाने का प्रण किया । अन्त में उसने एक राक्षस को पकड़ा जो रोज नगर को लूटता था तथा उस दिन वज्रगुप्त की पत्नी को भी ले आया था । वज्रगुप्त राक्षस को मारकर उसकी सम्पत्ति का उपभोग करने लगा । बारह वर्ष व्यतीत हो गये । अन्त में सात दिन तक लगातार उसने सुबह आकाशवाणी सुनी, जिसके द्वारा मायादित्य और चंडसोम की आत्माएँ उसे सम्बोधित कर रही थीं । वज्रगुप्त संसार से विरक्त होकर भगवान् महावीर के पास श्राया । दीक्षा लेकर तप करने लगा ।

चंडसोम की आत्मा वैडूर्य विमान से एक ब्राह्मण परिवार के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुई, जिसका नाम स्वयम्भूदेव रखा गया। धन कमाने के लिए वह चम्पा नगरी गया । वहाँ तमाल वृक्ष के नीचे विश्राम करते हुए उसने किन्हीं चोरों का गड़ा हुआ धन देख लिया। चोरों के भाग जाने पर उसने उस धन को निकाला और अपने घर की ओर चल पड़ा। रास्ते में वह वटवृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा । वहाँ उसने एक पक्षी और उसके परिवार के सदस्यों के बीच हुई बातचीत को सुना, जिसमें वह पक्षी संसार त्यागने की अनुमति माँग रहा था। स्वयम्भूदेव की आँखे इससे खुल गयीं और वह भगवान् महावीर के पास हस्तिनापुर चला आया । वहाँ उसने दीक्षा ले ली ।

भगवान् महावीर मगध में राजगृह पहुँचे । वहाँ श्रेणिक का आठ वर्षीय पुत्र महारथ अपने स्वप्न का अर्थ पूछने लगा । महावीर ने बतलाया कि वह कुवलयमाला ( मायादित्य) का जीव है तथा इसी भव से मुक्ति प्राप्त करेगा । महारथ ने दीक्षा ली और अपने अन्य चार साथियों में जा मिला। ये पाँचों भगवान् महावीर के साथ अनेक वर्षों तक रहे । जब उनका अंतिम समय नजदीक आ गया तो उन्होंने सल्लेखना धारण कर ली और आलोचना एवं प्रतिक्रमण करने के बाद अन्तकृत् केवली हो गये।

सांस्कृतिक पृष्ठभूमि[संपादित करें]

कुवलयमाला कहा की कथावस्तु से स्पष्ट है कि ग्रन्थकार प्राचीन भारतीय संस्कृति की दो प्रमुख विचारधाराओं से पूर्णरूप से प्रभावित हैं। वे हैं :-

(१) पुनर्जन्म एवं कर्मफल की सम्बन्ध शृंखला तथा
(२) श्रात्मशोधन द्वारा मुक्ति की प्राप्ति । सम्पूर्ण ग्रन्थ में इन्हीं दो विचारधाराओं का ही प्रकारान्तर से प्रस्फुटन हुआ है।

कथावस्तु से ज्ञात होता है कि ग्रन्थ में क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह के मूर्तिमान प्रतीक चंडसोम, मानभट, मायादित्य, लोभदत्त, एवं मोहदत्त के चार- चार जन्मों को कहानी है। पहले जन्म में ये पाँचों यथानाम तथा गुण के अनुसार अपनी-अपनी पराकाष्ठा लांघते देखे जाते हैं। चंडसोम क्रोध के कारण अपने भाई-बहिन का वध कर देता है। मानभट मानी होने के कारण अपने माता- पिता एवं पत्नी की मृत्यु का कारण बनता है । मायादित्य अपने मित्र से कपटकर उसे कुएँ में डाल देता है । लोभदेव लोभ के वशीभूत होकर अपने मित्र को समुद्र में डबा देता है और मोहदत्त कामराग से अन्धा होकर अपने पिता की हत्या कर माँ की उपस्थिति में अपनी बहिन के साथ संसर्ग करने का प्रयत्न करता है ।

तात्पर्य यह कि ये पाँचों व्यक्ति इस संसार में जो पाप होते हैं या हो सकते हैं - हत्या, छल-कपट, मिथ्या घमण्ड, बेईमानी एवं व्यभिचार आदि उनका प्रतिनिधित्व करते हैं । इतना नीचे गिरते हैं जहाँ से केवल उन्हें नरक की यातनाएँ ही प्राप्त होंगी। किन्तु मानवीय जीवन के इस अन्धकारमय पहलू को उभारना ही लेखक का अभीष्ट नहीं है । अभीष्ट की प्राप्ति के लिए यह आधार- शिला भी है । भारतीय संस्कृति की प्रास्तिक विचारधारा इस बात की माँग करती है कि इन पाँचों व्यक्तियों को उनके जघन्य कर्मों का पूरा फल मिलना चाहिए । अतः कर्मफल को पूर्णतया स्पष्ट करने के लिए उद्योतनसूरि ने इन पाँचों के अगले चार जन्मों के कथानक का निर्माण किया है । पाँचों व्यक्तियों ने जघन्य कृत्यों के बाद पश्चात्ताप ही नहीं किया, अपितु असद्वृत्तियों के परिष्कार के लिए साधु जीवन को अंगीकार कर लिया था । यही कारण है कि वे अगले जन्मों में नरक की अपेक्षा स्वर्ग में जन्म लेते हैं । यहाँ परोक्ष में उद्योतनसूरि स्वनिरीक्षण और आत्मालोचना के महत्व को भी प्रतिपादित कर देते हैं । वे यह भी चाहते हैं कि पाठक इन व्यक्तियों के कर्मफल को देखकर दूर से ही इन पापों से बचने का प्रयत्न करे :-

जं चंडसोम-आई-वृत्तंत्ता पंच ते वि क्रोधाई ।
संसारे दुक्ख फला तम्हा परिहरसु दूरेण ॥ २८०.२०

इसके बाद ग्रन्थ के कथानक में दूसरी सांस्कृतिक विचारधारा पृष्ठभूमि के रूप में आती है । उद्योतनसूरि सामान्य लेखक नहीं थे । एक ओर जहाँ उन्होंने क्रोध आदि तीव्र कषायों की पराकाष्ठा प्रस्तुत की, दूसरी ओर इन कषायों के वशीभूत व्यक्तियों को मलिन आत्मा के परिशोधन का मार्ग भी उन्होंने प्रशस्त किया है। पाप कितना ही बड़ा क्यों न हो यदि उसका हृदय से प्रायश्चित्त कर लिया जाय तो उसके फल में न्यूनता हो सकती है, आगे का जीवन सुधर सकता है । इन सभी व्यक्तियों को आचार्य धर्मनन्दन की शरण में पहुँचाने के पीछे लेखक का यहो उद्देश्य रहा है । परोक्ष रूप में उन अन्धविश्वासों का खण्डन करना भी, जो आत्मशोधन के बजाय स्वार्थपूर्ति के साधन अधिक थे । दूसरे शब्दों में, लेखक श्रसद्वृत्तियों का दमन करने के स्थान पर उनका परि शोधन कर उन्हें सद्वृत्तियाँ बनाने में अधिक विश्वास करता है । यही बात वह अपने पाठकों से कहना चाहता है कि असद्वृत्तियाँ ही बलवती नहीं हैं, उन पर सद्वृत्तियों की भी विजय हो सकती है, जो संयम और तप के द्वारा सम्भव है । अधम से अधम पापी भी निराश होने के बजाय प्रायश्चित्त द्वारा वैराग्य की ओर अग्रसर हो सकता है :-

जाओ पच्छायावो जह ताणं संजमं च पडिवण्णा ।
तह अण्णो वि हु पावी पच्छा विरमेज्ज उवएसो ।। २८०.२१

मूल कथानक की पृष्ठभूमि में स्थित इन सांस्कृतिक विचारधाराओं को विकसित करने के लिए ग्रन्थकार को अन्य अवान्तर कथाओं की संघटना भी करनी पड़ी है, जिनके प्रतिफल अलग-अलग हैं । जिनशेखरयक्ष के वृत्तान्त द्वारा तियंचगति में भी सम्यक्त्व की प्राप्ति, शवर के वृतान्त द्वारा शरणागत की रक्षा, चित्रपट द्वारा संसार की विचित्रता का ज्ञान, धातुवाद द्वारा जिनेन्द्र नाम का महत्त्व, सामुद्रिक यात्राओं और जलयान भग्न के प्रसंगों द्वारा सांसारिक जीवन का दिग्दर्शन आदि अनेक सांस्कृतिक पक्षों का उद्घाटन होता है (अनु० ४२७ ) । कुवलयमाला की कथावस्तु से एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष उद्घाटित होता है - प्रतीकपात्रों के निर्माण की मौलिकता । भारतीय साहित्य में इसे रूपकात्मक शैली के नाम से जाना जाता है। इसमें अमूर्त भावों को रूपक आदि के द्वारा मूर्त रूप दे दिया जाता है जिससे वे सर्वाधिक प्रभाव डालने में समर्थ हो जाते हैं | उद्योतनसूरि ने क्रोध, मान, माया, लोभ, एवं मोह जैसी अमूर्त कषायों को पात्रों के रूप में खड़ा कर दिया है। इससे उनके स्वरूप एवं परिणामों को समझने में सहृदय को कोई प्रयास नहीं करना पड़ता । साहित्य के उपयोग के क्षेत्र में उद्योतन का यह विशिष्ट योगदान है । अमूर्त को मूर्तविधान करनेवाली शैली का काव्यपरम्परा में सूत्रपात करनेवाले ये प्रथम आचार्य हैं। इसके बाद संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं आधुनिक भाषाओं में भी इस प्रकार के साहित्य की परम्परा चल पड़ी। सिद्धर्षि की उपमितिभवप्रपंचकथा', जयशेखरसूरि की 'प्रवोधचिन्तामणि', कृष्णमित्र का 'प्रबोधचद्रोदय', हरिदेव का 'मयणपराजय- चरिउ', बुच्चराय का 'मयणजुज्भ', भारतेन्दु को 'भारतदुर्दशा' एवं जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' आदि रूपकात्मक शैली की प्रतिनिधि रचनाएँ है[1], जिनका आदि स्रोत साहित्यिक कृति के रूप में कुवलयमालाकहा को माना जा सकता है । यद्यपि प्राचीन धार्मिक सूत्रों में भी इस शैली के यत्र-तत्र उल्लेख मिलते हैं ।

उद्योतनसूरि अपने ग्रन्थ में धार्मिक एवं साहित्यिक प्रवृत्तियों का ही उल्लेखकर विराम नहीं लेते, वल्कि उन्होंने इतना बड़ा कैनवास तैयार किया है। कि जिसमें सम्पूर्ण जगत् चित्रित हो उठा है। अखण्ड भारत के प्रसिद्ध जनपद, सांस्कृतिक नगर, दुर्भेद्य अटवियाँ एवं नदी-पर्वत ही उनके भौगोलिक ज्ञान में समाविष्ट नहीं थे, अपितु तत्कालीन बृहत्तर भारत एवं पड़ोसी देशों के सम्बन्धों से भी वे परिचित थे । अर्थोपार्जन के साधन, वाणिज्य व्यापार एवं जल-थल के यात्रा मार्गों की उन्हें जानकारी थी । सामाजिक संरचना, रहन-सहन एवं तत्कालीन रीति-व्यवहारों को उन्होंने निकट से देखा था । देशाटन द्वारा न केवल उन्होंने उत्तर-दक्षिण भारत के शिक्षाकेन्द्रों की गतिविधियों का ज्ञान प्राप्त किया था, अपितु समस्त भाषाओं की बारीकियों को भी हृदयंगम किया था । फलस्वरूप कला, स्थापत्य, शिल्प एवं दार्शनिक चिंतन को धाराओं को वे सूक्ष्मता से अपने ग्रन्थ में संजो सके हैं। प्रतीत होता है कि उद्योतनसूरि के मन में अपने इस ग्रन्थ द्वारा वस्तु जगत् की सम्पूर्ण जानकारी देने की प्रबल आकांक्षा थी । प्रस्तुत ग्रन्थ के अगले अध्यायों से यह बात अधिक स्पष्ट हो सकेगी ।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. द्रष्टव्य - डा० राजकुमार जैन, मदनपराजय (नागदेव ) - प्रस्तावना, पृ० १९-२८.

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]