बृहत्त्रयी (संस्कृत महाकाव्य)
बृहत्त्रयी के अंतर्गत तीन महाकाव्य आते हैं - "किरातार्जुनीय" "शिशुपालवध" और "नैषधीयचरित"।
भामह और दंडी द्वारा परिभाषित महाकाव्य लक्षण की रूढ़ियों के अनुरूप निर्मित होने वाले मध्ययुग के अलंकरण प्रधान संस्कृत महाकाव्यों में ये तीनों कृतियाँ अत्यंत विख्यात और प्रतिष्ठाभाजन बनीं। कालिदास के काव्यों में कथावस्तु की प्रवाहमयी जो गतिमत्ता है, मानवमन के भावपक्ष की जो सहज, पर प्रभावकारी अभिव्यक्ति है, इतिवृत्ति के चित्रफलक (कैन्वैस) की जो व्यापकता है - इन काव्यों में उनकी अवहेलना लक्षित होती है। छोटे छोटे वर्ण्य वृत्तों को लेकर महाकाव्य रूढ़ियों के विस्तृत वर्णनों और कलात्मक, आलंकारिक और शास्त्रीय उक्तियों एवं चमत्कारमयी अभिव्यक्तियों द्वारा काव्य की आकारमूर्ति को इनमें विस्तार मिला है। किरातार्जुनीय, शिशुपालवध और नैषधीयचरित में इन प्रवृत्तियों का क्रमश: अधिकाधिक विकास होता गया है। इसी से कुछ पंडित, इस हर्षवर्धनोत्तर संस्कृत साहित्य को काव्यसर्जन की दृष्टि से "ह्रासोन्मुखयुगीन" मानते हैं। परंतु कलापक्षीय काव्यपरंपरा की रूढ़ रीतियों का पक्ष इन काव्यों में बड़े उत्कर्ष के साथ प्रकट हुआ। इन काव्यों में भाषा की कलात्मकता, शब्दार्थलंकारों के गुंफन द्वारा उक्तिगत चमत्कारसर्जन, चित्र और श्लिष्ट काव्यविधान का सायास कौशल, विविध विहारकेलियों और वर्णनों का संग्रथन आदि काव्य के रूढ़रूप और कलापक्षीय प्रौढ़ता के निदर्शक हैं। इनमें शृंगाररस की वैलासिक परिधि के वर्णनों का रंग असंदिग्ध रूप से पर्याप्त चटकीला है। हृदय के भावप्रेरित, अनुभूतिबोध की सहज की अपेक्षा, वासनामूलक ऐंद्रिय विलासिता का अधिक उद्वेलन है। फिर पांडित्य की प्रौढ़ता, उक्ति की प्रगल्भता और अभिव्यक्तिशिलप की शक्तिमत्ता ने इनकी काव्यप्रतिभा को दीप्तिमय बना दिया है। साहित्यक्षेत्र का पंडित बनने के लिए इनका अध्ययन अनिवार्य माना गया है।
किरातार्जुनीय
[संपादित करें]बृहत्त्रयी के महाकाव्यों में रचनाकालक्रम की दृष्टि से यह सर्वप्रथम और आकार की दृष्टि से लघुतम है। इसके निर्माता भारवि ने अपने काव्य में स्ववृत्तपरिचयात्मक कुछ भी नहीं लिखा है। महाकवि के रूप में प्रसिद्धि का एकमात्र आधार किरातार्जुनीय ही है। प्रामाणिक ऐतिहासिक विवरण उनके विषय में अन्यत्र भी अनुपलब्ध है। 634 ई. में उत्कीर्ण "आयोहल" (ऐहोल) शिलालेख के उल्लेख और दंडी की "अवंतिसुंदरीकथा" के संकेत से अनुमान किया जाता है कि "भारवि" परमशैव और दाक्षिणात्य कवि थे। पुलकेशी द्वितीय के अनुज, राजा विष्णुवर्धन के राजसभा पंडित थे और 600 ई. के आसपास विद्यमान थे।
किरातार्जुनीय काव्य की महाभारत से गृहीत कथावस्तु प्रकृत्या छोटी है - भाइयों सहित युधिष्ठिर द्वैत वनवास कर रहे थे। उसे किरातवेशी गुप्तचर दुर्योधन की शासननीति का विवरण मिला। अपने (पांडवों के) आगामी कर्तव्यपथ के निर्धारणार्थ भीम, द्रौपदी सहित वे विचार करने लगे। उसी समय महर्षि व्यास ने आकर पथप्रदर्शन किया। तदनुसार दिव्यास्त्र लाभार्थ इंद्रकीय पर्वत पर जाकर अर्जुन घोर तपस्या करते हैं। इंद्र द्वारा प्रेषित स्वर्गाप्सराओं से भी तपोभंग नहीं होता। प्रसन्न इंद्र के प्रकट होकर प्रेरणा देने पर वे तपस्या करते हैं। उसमें अंतराय बनकर एक दानव, शूकर रूप में आकर आक्रमण करता है। किरातवेषधारी महावेद पहले अर्जुन की रक्षा करते हैं, तदनंतर परीक्षायुद्ध में अर्जुन की वीरता पर प्रसन्न होकर अजेय दिव्यास्त्र का वरदान देते हैं। यहीं काव्य समाप्त होता है।
इस काव्य का आरंभ 'श्री' शब्द से है। कलात्मक अलंकरणवाली काव्यशैली के अनुसरी इस काव्य में शब्द और अर्थ उभयमूलक अंलकारों का चमत्कार, वर्ण और शब्द का आधृत चित्रकाव्यता, अप्रस्तुत विधान का कल्पनापरक ललित संयोजन आदि उत्कृष्ट रूप में शिल्पित हैं, राजनीति और व्यवहारनीति के उपदेश, प्रभावपूर्ण संवाद, आदि से इस काव्य का निर्माणशिल्प अत्यंत सज्जित है। दंडी के महाकाव्य लक्षण की अनुसरप्रेरणावश इसमें ऋतु, पर्वत, नदी, सूर्योदय, सूर्यास्त आदि के कल्पनाप्रसूत वर्णन हैं। शृंगार रस की विविध केलियों और प्रसंगों के कामशास्त्रीय विवरणचित्रों द्वारा लघुकथावस्तु वाले इस काव्य में पर्याप्त विस्तार हुआ है। इसका मुख्य अंगी "रस" वीर है। फिर भी शृंगार के विलासपरक संदर्भ इसमें बड़े आसंजन से वर्णित हैं। साधर्म्यमूलक उपमा उत्प्रेक्षादि अलंकारों की योजना में उत्कृष्ट कला प्रकट होती है। इस काव्य में लक्षित अर्थगौरव की बड़ी प्रशंसा हुई है। भावपक्ष का सहज प्रवाह कलापक्ष की अपेक्षा गौण होने पर भी "वीर", "शृंगार" आदि के संदर्भ में अच्छे ढंग से निर्वाहित है। वाल्मीकि और कालिदास की सहजानुभूति का अबाधितविलास न रहने पर भी काव्य में वर्णनलालित्य का अभाव नहीं है। यह काव्य निश्चय ही अलंकृत काव्य-रचना-शैली का है। इसमें बुद्धि और हृदय, शृंगाररसिकता और राजनीति कुशलता, वर्णननैपुण्य और कलात्मक चमत्कार एक साथ मिलते हैं। इसकी काव्यसंपत्ति अपने ढंग की अनूठी है। परंतु शिशुपाल वध में किरातार्जुनीय की अपेक्षा सब दृष्टियों से उत्कर्ष योग अधिक है।
शिशुपालवध (माघ महाकाव्य)
[संपादित करें]संस्कृत के कवि प्रशस्तिपरक सुभाषितोक्ति के अनुसार माघ कवि के इस महाकाव्य में कालिदास की उपमा, भारवि का अर्थगौरव और दंडी (या श्रीहर्ष) का पदलालित्य तीनों एकत्र समन्वित हैं। कालिदास का भावप्रवाह, भारवि का कलानैपुण्य और भट्टिकार के व्याकरणपांडित्य के एकत्र योग से उसका उत्कर्ष बढ़ गया है। पाणिनीय संस्कृत की मुहावरेदार भाषा के प्रयोग नैपुण्य में शिशुपाल वध भट्टि काव्य से भी श्रेष्ठ है। भावह्रासोन्मुखी अलंकृतकाव्ययुगीन संस्कृत काव्यों में सर्वाधिक प्रिय माघकाव्य को पथप्रदर्शक और आदर्श मान लिया गया था। माघ के एकमात्र उपलब्ध इस महाकाव्य पर उनकी युगांतस्थायी कीर्ति अवलंबित है। "भोजप्रबंध", "प्रबंधचिंतामणि" तथा "शिशुपालबध" के अंत में उपलब्ध सामग्रियों के आधार पर इनका जीवनवृत्त संकलित है। गुजरात अंतर्गत किसी प्रांत के शासक "धर्मनाम" (वर्मनाम या वर्मलात) नामक राजा के यहाँ इनके दादा सुप्रभदेव प्रधान मंत्री थे। पिता का नाम दत्तक था। वे बड़े विद्वान् और दानशील थे। प्रस्तुत महाकवि का जन्म भीनमाल में और अत्यंत संपन्न परिवार में हुआ था। इनका शैशव और यौवन - वैभव और विलास में बीता था। नगर रसिकों की विलासचर्या और रसभोग की प्रकृति का इन्हें पूर्ण परिचय और अनुभव था। माघदंपति अत्यंत दानी और कृपालु थे। दान में अपना सब कुछ वितरित करने से इनका वार्धक्य अर्थदारिद्रय से कष्टमय बीता। इनका विद्यमानकाल अधिकांश विद्वानों ने सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना है।
जनश्रुतियों में कहा जाता है कि शिशुपालवध की रचना किरातार्जुनीय के अनुकरण पर हुई थी। एकाक्षर द्व्यक्षरवाले पद्यादि तथा चित्रबंधात्मक शब्दचित्र काव्य भी यहाँ हैं और आरंभिक दो सर्गों में राजनीतिक मंत्रणा भी। स्पष्ट ही इस पर भारविकाव्य की प्रतिच्छाया है। परंतु अलंकृत-काव्य-रचना-कौशल तथा प्रकृत्यादि के वर्णन की दृष्टि से किरातार्जुनीय की अपेक्षा शिशुपालवध बहुत उत्कृष्ट है। इसके वर्णन पांडित्यपूर्ण, अलंकृत और रूढ़िसंवलित होने पर भी बड़े सप्राण हैं। उनमें कवि के प्रत्यक्ष निरीक्षण और राग की सजीवता है। किरातकाव्यतुल्य अलंकृतवर्णन की शैली पर चलकर भी इसके विषयवर्णनों में भावतरलता, अभिव्यंजनशैली की प्रौढ़ता, मूर्त्तप्रत्यक्षीकरण्, समर्थ अलंकारविधान आदि से यह काव्य अत्यंत सरस और प्रौढ़ कहा जाता है। परंतु इसकी भी महाभारत गृहीत मूल कथा लघु है जो वर्णनविस्तार से स्फीतकलेवर हो गई है।
अत्याचार और बल से त्रस्त त्रैलोक्य की दशा नारद से सुनकर कृष्ण, बलराम और उद्धव ने मंत्रणा की और पांडवों के राजसूय यज्ञ में जाने का निश्चय किया। तृतीय सर्ग से त्रयोदश सर्ग तक यात्रा, विश्राम आदि अवांतर प्रसंगों और विहारकेलियों का ऐसा वर्णन है जहाँ इतिवृत्त के निर्वाह का पूरा अभाव है। चौदहवें से लेकर बीसवें सर्ग तक युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ तथा कृष्ण और शिशुपाल के युद्ध एवं तत्संबद्ध अवांतर प्रसंगों का कलात्मक और अलंकृत वर्णन है। यह काव्य भी मुख्यत: वीर रस का है पर शृंगार की केलियों और विलास की वासनात्मक मधुरिमा से संपन्न। परंतु वीर रस से संपृक्त वर्णन भी इसमें बड़े जीवंत और प्रभावशाली हैं। मूल कथा, 1, 2, 14 तथा 20 संख्यक सर्गों में ही (अवांतर वर्णनों के रहने पर भी) मुख्यत: है। परतु शृंगारी वर्णनों में - विशेषत: विभावानुभावों के अंकन में संश्लिष्ट चित्र सजीव और गतिमय हैं। उनका प्रकृतिवर्णन भी अप्रस्तुत विधानों के अलंकरणभार से बोझिल होकर भी सरस है। वे स्वभावोक्ति और प्रौढ़ोक्ति द्विविध निर्माण के निष्णात शिल्पी हैं। कुल मिलाकर शिशुपालवध अपने ढंग का उत्कृष्टतम काव्य है जिसका प्रभावमय कवित्व और वैदुष्य बेजोड़ है।
नैषधीय चरित
[संपादित करें]अलंकृत काव्यरचना शैली की प्रधानतावाले माघोत्तरयुगी कवियों द्वारा निर्मित काव्यों में अलंकरण प्रधानता, प्रौढ़ोक्ति कल्पना से प्रेरित वर्णन प्रंसगों की स्फीतता तथा पांडित्यलब्ध ज्ञानगरिष्ठता अतिसंयोजन आदि की प्रवृत्ति बढ़ी। उस रुचि का पूर्ण उत्कर्ष श्रीहर्ष के नैषधीय चरित (या जिसे केवल "नैषध" भी कहते हैं) में देखा जा सकता है। बृहत्त्रयी के इस बृहत्तम महाकाव्य का महाकवि, न्याय, मीमांसा, योगशास्त्र आदि का उद्भट विद्वान् था और था तार्किक पद्धति का महान अद्वैत वेदांती। नैषध में शास्त्रीय वैदुष्य और कल्पना की अत्युच्च उड़ान, आद्यंत देखने को मिलती हैं।
इस महाकाव्य का मूल आधार है "महाभारत" का "नलोपाख्यान"। मूल कथा के मूल रूप में यथावश्यक परिवर्तन भी यत्र-तत्र किया गया है। ऐसा मालूम पड़ता है कि इस पुराणकथा की लोकप्रियता ने बड़े प्राचीन काल से ही इसे लोककथा बना दिया है। इस कारण कवि ने वहाँ से भी कुछ तत्व लिए। यह महाकाव्य आद्यंत शृंगारी है। पूर्वराग, विरह, हंस का दूतकर्म, स्वयंबर, नल-दमयंती-विवाह, दंपति का प्रथम समागम और अष्टयामचर्या तथा संयोगविलास की खंडकाव्यीय कथावस्तु को कवि के वर्णनचरित्रों और कल्पनाजन्य वैदुष्यविलास ने अत्यत वृहदाकार बना दिया है। शृंगारपरिकर के वर्ण्यचित्रों ने भी उस विस्तारण में योग दिया है। अपनी कल्पना की उड़ान के बल से पंडित कवि द्वारा एक ही चित्र को नई नई अप्रस्तुत योजनाओं द्वारा अनेक रूपों में विस्तार के साथ रखा गया है। लगता है, एक प्रस्तुत को एक के बाद एक इतर अप्रस्तुतों द्वारा आंकलित करने में कवि की प्रज्ञा थकती ही नहीं। प्रकृतिजगत् के स्वभावेक्तिपथ रूपचित्रांकन, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा अतिशयोक्ति, व्यतिरेक, श्लेष आदि अर्थालंकारों की समर्थयोजना, अनुप्रासयमक, शब्दश्लेष, शब्दचित्रादि चमत्कारों का साधिकार प्रयोग और शब्दकोश के विनियोग प्रयोग की अद्भुत क्षमता, शास्त्रीय पक्षों का मार्मिक, प्रौढ़ और समीचीन नियोजन, कल्पनाओं और भावचित्रों का समुचित निवेशन, प्रथम-समागम-कालीन मुग्धनववधू की मन:स्थिति, लज्जा और उत्कंठा का सजीव अंकन, अलंकरण और चमत्कार की अलंकृत काव्यशैली का अनायास उद्भावन और अपने पदलालित्य आदि के कारण इस काव्य का संस्कृत की पंडितमंडली में आज तक निरंतर अभूतपूर्व समादर होता चला आ रहा है।
माघ कवि से भी अधिक श्रीहर्ष ने इसे काव्यबाधक पांडित्यप्रदर्शन के योग से बहुत बढ़ा दिया है जिससे लघुकथानकवाला काव्य अति वृहत् हो गया है। शृंगारी विलासों और मुख्यत: संयोग केलियों के कुशलशिल्पी और रसिक नागरों की विलासवृत्तियों के अंकन में आसंजनशील होकर भी कवि के दार्शनिक वैदुष्य के कारण काव्य में स्थान स्थान पर रुक्षता बढ़ गई। पुनरुक्ति, च्युतसंस्कृति आदि अनेक दोष भी यत्र तत्र ढूँढ़े जा सकते हैं। परंतु इनके रहने पर भी अपनी भव्यता और उदात्तता, कल्पनाशीलता और वैदुष्यमत्ता, पदलालित्य और अर्थप्रौढ़ता के कारण महाकाव्य में कलाकार की अद्भुत प्रतिभा चमक उठी है, अलंकारमंडित होने पर भी उसकी क्रीड़ा में सहज विलास है। उसमें प्रौढ़ शास्त्रीयता और कल्पनामनोहर भव्यता है। बृहत्त्रयी के तीनों महाकाव्यों का अध्ययन पंडितों के लिए आज भी परमावश्यक माना जाता है।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]- वृहत्त्रयी - चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता तथा अष्टाग्ङहृदयसंहिता को सम्मिलित रूप से 'वृहत् त्रयी' कहा जाता है।