प्रतिज्ञायौगन्धरायण

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

प्रतिज्ञायौगन्धारायणम् भास द्वारा रचित संस्कृत नाटक है। इसमें ४ अंक हैं। यह स्वप्नवासवदत्ता नाटक के पहले की कथा है जिसमें प्रद्योत महासेन द्वारा उदयन को बन्दी बनाना, उदयन द्वारा वासवदत्ता को घोषवती वीणा सीखना तथा मंत्री यौगन्धारायण द्वारा दो दुष्कर प्रतिज्ञा करना इस नाटक की मुख्य विषयवस्तु है।

प्रतिज्ञायौगन्धरायण में कौशाम्बी के राजा वत्सराज उदयन द्वारा उज्जयिनी के राजा प्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता के हरण की कथा है। शिकार प्रेमी वत्सराज उदयन हाथियों को अपने वशीभूत करने में अत्यन्त पारङ्गत माना जाता था। अपनी घोषवती नाम की वीणा बजाकर वह बड़े से बड़े हर प्रकार के हाथी को अपने वश में कर सकता था। उसके वीणा वादन की यह पटुता और आखेट प्रेमी होने का व्यसन प्रायः समूचे वत्सराज में लोकप्रिय था। यही कारण था कि उसके पड़ोसी राजागण उसकी इस कला से भलीभाँति परिचित थे। उदयन रूपवान, सुन्दर, विद्यासम्पन्न और शूर वीर भी था। उसका पड़ोसी राजा प्रद्योत उज्जयिनी का एक शक्तिसम्पन्न राजा था। उसके पास एक विशाल सेना थी, जिसके कारण उसे महासेन के नाम से भी जाना जाता था। उसकी एक पुत्री थी जिसका नाम था - वासवदत्ता। विवाह के योग्य हो जाने के कारण वह उसके लिये किसी योग्य वर की खोज में चिन्तित रहा करता था। इसी बीच प्रद्योत को ज्ञात हुआ कि उदयन आखेट-क्रिया के लिये नागवन की ओर प्रस्थान करने वाला है। प्रद्योत ने अपने जाल में उसे फँसाने के लियेे एक कृत्रिम नीले हाथी (नीलकुवलयतनुः) की रचना करके उसके भीतर सैनिकों को भर दिया। राजा उदयन के पास उस विशिष्ट हाथी के नागवन में प्रवेश की सूचना सम्प्रेषित की गई। हाथी शिकार के लिये उत्कण्ठित हुआ राजा उदयन अकेले ही उसे अपने वश में करने हेतु तत्पर हो उठा। परिणामस्वरूप वह स्वयं शिकार में फँस गया। हाथी के समीप पहुँचते ही सभी सैनिक बाहर निकल आये और राजा को बन्दी बनाकर उज्जयिनी ले गये। उदयन का अंगरक्षक हंसक साथ जाना चाहता था किन्तु प्रद्योत के मन्त्री शालंकायन ने उसे साथ चलने से रोक दिया और कहा जाओ यह सूचना कौशाम्बी में बताओ। — "गच्छेमं वृत्तान्तं कौशाम्ब्यां निवेदयति '। उदयन को बन्दी देखकर जब अंगरक्षक हंसक राजा की प्रदक्षिणा कर चलने लगा तो उदयन डबडबाये नयनों से कुछ न कह पाने में स्वयं को विवश समझता हुआ केवल परम बुद्धिमान् और योग्य मंत्री यौगन्धरायण को सूचित करने का संकेत कर उज्जैन ले जाया गया। यौगन्धरायण इस शोकपूर्ण वृत्तान्त को सुनकर अत्यन्त चिन्तातुर हुआ। यह सूचना राजमाताओं के पास अन्तःपुर तक सम्प्रेषित कर दी गई। यौगन्धरायण के बुद्धिवैभव से परिचित राजमाता ने उदयन को किसी तरह बन्दी जीवन से मुक्त कराने हेतु प्रार्थना करके यौगन्धरायण को शीघ्र कोई उपाय करने को कहा। यौगन्धरायण स्वयं भी राजा को मुक्त कराने की तभी प्रतिज्ञा करता है कि— 'यदि मैं वत्सराज को बन्धन से न छुड़ाऊँ तो मेरा नाम यौगन्धरायण नहीं। ' —

यदिशत्रुबलग्रस्तो राहुणा चन्द्रमा इव।
मोचयामि न राजानं नास्मि यौगन्धरायण ॥ 1/16 प्र.यौ.॥

उसी समय सौभाग्य से उसे द्वैपायन व्यास जी ने एक अद्वितीय वस्त्र प्रदान किया जिसके द्वारा वह अपना स्वरूप तिरोहित कर शत्रु-पुर में स्वच्छन्द विचरण करता हुआ अपना लक्ष्य सिद्ध कर सकने में सक्षम हो सके। — "इमेऽत्रभवता परिगृहीता आत्मप्रयोजनोत्सृष्टा: परिच्छदविशेषा:। एभि: प्रच्छादिशतशरीरो भगवान् द्वैपायन: प्राप्त:। "

इसके उपरान्त बन्दी बनाकर उदयन को उज्जयिनी में ले जाकर राजा प्रद्योत से कंचुकी सूचना देता है 'गृहातो वत्सराजः ' अर्थात् वत्सराज पकड़ा गया, -यह कहना चाहता था कि उसी बीच राजा अपनी रानी अङ्गारवती के साथ पुत्री वासवदत्ता के विवाह के विषय में परामर्श कर रहा था। अनेक राजाओं का परिचय देते हुये उनमें सबसे योग्य किसे रानी विवाह के योग्य समझती हैं - राजा यह पूछ ही रहा था कि कंचुकी का वह ' वत्सराज शब्द ही उसे सुनाई पड़ गया। राजा उदयन की सर्वप्रिय वीणा घोषवती प्रद्योत के समक्ष समर्पित की गई। उसे वह अपनी पुत्री वासवदत्ता के पास पहुँचा देता है। राजा उदयन का राजोचित सम्मान और रहने की व्यवस्था की गई क्यों कि उसकी गुणवत्ता से अभिभूत होकर केवल उससे आत्मीयता बढ़ाने के उद्देश्य से ही उसे बन्दी बनाया गया था। उदयन की वीणा वादन कुशलता को जानकर ही उसकी वासवदत्ता के साथ घनिष्ठता स्थापित हो सके, इसलिये वासवदत्ता को वीणा सिखाने के लिये उदयन को बन्दी गृह में ही सुअवसर दिया गया। उदयन की इस कला से वासवदत्ता भी अत्यन्त अभिभूत हुई। परिणामतः दोनों मे परस्पर प्रेम अङ्कुरित होने लगा। रानी अङ्गारवती ने भी अप्रत्यक्ष रूप से वत्सराज को ही वासवदत्ता के लिये उपयुक्त वर समझकर राजा को संकेत कर दिया।

उधर उदयन के मंत्रीगण उज्जयिनी में वेष बदलकर अपने राजा की मुक्ति का उपाय करने लगे। वासवदत्ता के प्रति बढ़ती हुई अनुरक्ति के कारण उदयन अपने मित्र वसन्तक को सूचित करता है कि वह वासवदत्ता को छोड़कर कारागार से भागने के लिये तत्पर नहीं है। ऐसी स्थिति में वसन्तक अपने सहायक मंत्री रुमण्वान की सरायता से प्रधानमंत्री यौगन्धरायण से राजा के मनोरथ को बताता है और उसे पूर्ण करने हेतु प्रेरित करता है। यह सब सुनकर यौगन्धरायण पुनः शपथ लेता है कि - 'यदि उस घोषवती वीणा, नलगिरि हाथी, विशालाक्षी वासवदत्ता को और राजा वत्सराज को हरण कर कौशाम्बी न ले जाऊँ तो मेरा नाम यौगन्धरायण नहीं। '

यदि तां चैव तं चैव चैवायतलोचनाम्।
नाहरामि नृपं चैव नास्मि यौगन्धरायणः ॥3/9 प्र.यौ.॥

यौगन्धरायण की इसी प्रतिज्ञा के कारण ही भास की यह नाट्यकृति प्रतिज्ञा यौगन्धरायणम् शीर्षक से अभिहित की गई।

इस प्रकार उदयन को वासवदत्ता के साथ मुक्त कराने का उपाय सोचते हुये यौगन्धरायण ने अपनी युक्ति से राजा प्रद्योत के नलगिरि हाथी को उन्मत्त कर दिया। वत्सराज कैसे भी हाथी को अपने वश में करने के लिये पहले से ही प्रख्यात् था, अतएव नलगिरि को वश में करने के लिये वह मुक्त कर दिया गया। इस अवसर का सदुपयोग करते हुये वत्सराज वासवदत्ता के साथ उसकी तेज धावन करने वाली भद्रवती नाम की हथिनी पर सवार होकर भाग निकलता है। प्रद्योत की सेना यौगन्धरायण और उसके साथियो को घेर लेती है, दुर्भाग्य से यौगन्धरायण की तलवार टूट जाती है, वह शत्रु द्वारा पकड़ा जाता है। उसका साथी भट इसकी सूचना अमात्य से कहने के लिये आश्चर्य प्रकट करता है - 'यह क्या? प्राकार और तोरण को छोड़कर सभी कौशाम्बी है। ' - "किन्नु खल्वेतत्। प्राकारतोरणवर्जं सर्वं कौशाम्बी खल्विदम्। 'कारागार में प्रद्योत के मंत्री भरतरोहक के साथ उसका वाद विवाद और वत्सराज के कपट पूर्वक भागने की भर्त्सना करता है। तभी कंचुकी महासेन प्रद्योत द्वारा प्रदत्त एक भृङ्गार जो एक प्रकार का सुवर्ण पात्र था , उसमें उपायन लिये हुये उपस्थित हुआ। वह यौगन्धरायण की राजभक्ति और उसके गुणगान की प्रशस्ति में राजा की ओर से उपहार भेंट किया गया था। पहले तो उसने उसे स्वीकार करने से मना किया किन्तु जब यह ज्ञात हुआ कि प्रद्योत ने वासवदत्ता और वत्सराज का विवाह एक चित्रफलक पर सम्पन्न कर दिया है तो वह सहर्ष उस उपहार को स्वीकार कर प्रसन्न चित्त हो जाता है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]