वज्रसूचिकोपनिषद

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वज्रसूचिकोपनिषद् सामवेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। इसकी अनेक पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुईं हैं जिनमें से कुछ देवनागरी लिपि में और कुछ तेलुगु लिपि में हैं। इसकी रचना का वास्तविक काल और रचनाकार के विषय में मतभेद है। अट्ठारहवीं शताब्दी से पूर्व प्राप्त पाण्डुलिपियों में रचनाकार आदि शंकराचार्य हैं किन्तु नेपाल से प्राप्त एक पाण्डुलिपि में इसके रचनाकार कोई 'अश्वघोष' हैं।

वज्रसूची का अर्थ है—हीरे की सुई। इसमें वर्ण-व्यवस्था पर गम्भीर तर्क-वितर्क किया गया है। वर्ण को जन्म आधारित मानने के औचित्य के खण्डन के लिए इसमें प्रमुख हिन्दू ग्रंथों से ही उदाहरण देकर तीक्ष्ण तर्क से उनका वेधन किया गया है। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि तर्कपूर्ण विवेचना से अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचने के बावजूद रचनाकार अपनी ओर से कोई फैसला नहीं थोपता, अपितु आगे का काम पाठकों के विवेक पर छोड़ देता है। ग्रन्थ के आरम्भ में ही इसकी विषयवस्तु की झलक मिल जाती है-

इह भवता यदिष्टं ‘सर्ववर्ण प्रधानं ब्राह्मणवर्ण’ इति, वयमत्र ब्रूमः कोऽयं ब्राह्मणो नाम। किं जीवः किं जातिः किं शरीरं किं ज्ञानं, किमाचारः किं कर्म किं वेद इति।[1]
अर्थ - आपकी जो यह इच्छा है कि 'सभी वर्णों में ब्राह्मण वर्ण प्रधान हो' तो यहाँ बताते हैं कि यह ब्राह्मण कौन है? क्या आत्मा ब्राह्मण है, क्या जाति ब्राह्मण है, क्या शरीर ब्राह्मण है, क्या आचार ब्राह्मण है, क्या कर्म ब्राह्मण है, क्या ज्ञान (वेद) ब्राह्मण है?

इसके आगे एक-एक करके इस उपनिषद में बताया गया है कि आत्मा ब्राह्मण नहीं है, जाति ब्राह्मण नहीं है, आचार ब्राह्मण नहीं है, कर्म ब्राह्मण नहीं है, और ज्ञान भी ब्राह्मण नहीं है। अन्त में इसमें उपरोक्त प्रश्न का समाधान किया गया है:

तब ब्राह्मण किसे माना जाय? जो आत्मा के द्वैत भाव से युक्त न हो; जाति, गुण और क्रिया से भी युक्त न हो; षड् ऊर्मियों और षड्भावों आदि समस्त दोषों से मुक्त हो; सत्य, ज्ञान, आनन्द स्वरूप, स्वयं निर्विकल्प स्थिति में रहने वाला, अशेष कल्पों को आधार रूप, समस्त प्राणियों के अन्त में निवास करने वाला, अन्दर-बाहर आकाशवत् संव्याप्त; अखण्ड आनन्दवान्, अप्रमेय, अनुभवगम्य, अप्रत्यक्ष भासित होने वाले आत्मा का करतल आमलकवत् परोक्ष का भी साक्षात्कार करने वाला; काम - रागद्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला; शम-दम आदि से सम्पन्न; मात्सर्य, तृष्णा, आशा, मोह आदि भावों से रहित; दम्भ, अहङ्कार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है; ऐसा श्रुति, स्मृति-पुराण और इतिहास का अभिप्राय है। इस (अभिप्राय) के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार से ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता। आत्मा ही सत्-चित् और आनन्द स्वरूप तथा अद्वितीय है। इस प्रकार के ब्रह्म भाव से सम्पन्न मनुष्यों को ही ब्राह्मण माना जा सकता है। यही उपचिषद् का मत है॥
बज्रसूची का आरम्भिक भाग

इस उपनिषद का पहला अंग्रेजी अनुवाद रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के लिए बी.एच. हॉडग्सन द्वारा 1829 में किया था, जो लंदन से 1835 में प्रकाशित किया गया था। उससे पहले रॉयल सोसाइटी के सचिव के नाम 11 जुलाई 1829 को लिखे गए पत्र में हॉडग्सन ने लिखा था कि ‘वज्रसूची’ के अनुवाद में मदद करने के लिए उन्होंने ‘बनारस के एक पंडित’ को रखा था, लेकिन वह बीच में ही काम को अधूरा छोड़कर चला गया था। जैसे-तैसे उन्होंने अनुवाद कार्य को पूरा किया।

सुजीत कुमार मुखोपाध्याय ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया है जो विश्वभारती, शांतिनिकेतन द्वारा प्रकाशित 1849 में प्रकाशित हुआ था।


सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. वज्रसूची

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]