कुट्टनी
वेश्याओं को कामशास्त्र की शिक्षा देनेवाली नारी को कुट्टनी कहते हैं। वेश्या संस्था के अनिवार्य अंग के रूप में इसका अस्तित्व पहली बार पाँचवीं शती ई. के आसपास ही देखने में आता है। इससे अनुमान होता है कि इसका आविर्भाव गुप्त साम्राज्य के वैभवशाली और भोगविलास के युग में हुआ।
कुट्टनी के व्यापक प्रभाव, वेश्याओं के लिए महानीय उपादेयता तथा कामुक जनों को वशीकरण की सिद्धि दिखलाने के लिए कश्मीर नरेश जयापीड (779 ई.-812) के प्रधान मंत्री दामोदर गुप्त ने कुट्टनीमतम् नामक काव्य की रचना की थी। यह काव्य अपनी मधुरिमा, शब्दसौष्ठव तथा अर्थगांभीर्य के निमित्त आलोचनाजगत् में पर्याप्त विख्यात है, परंतु कवि का वास्तवकि अभिप्राय सज्जनों को कुट्टनी के हथकंडों से बचाना है। इसी उद्देश्य से कश्मीर के प्रसिद्ध कवि क्षेमेंद्र ने भी एकादश शतक में समयमातृका तथा देशोपदेश नामक काव्यों का प्रणयन किया था। इन दोनों काव्यों में कुट्टनी के रूप, गुण तथा कार्य का विस्तृत विवरण है। हिंदी के रीतिग्रंथों में भी कुट्टनी का कुछ वर्णन उपलब्ध होता है।
कुट्टनी अवस्था में वृद्ध होती है जिसे कामी संसार का बहुत अनुभव होता है। कुट्टीनमत में चित्रित 'विकराला' नामक कुट्टनी (कुट्टनीमत, आर्या 27-30) से कुट्टनी के बाह्य रूप का सहज अनुमान किया जा सकता है - अंदर को धँसी आँखें, भूषण से हीन तथा नीचे लटकनेवाला कान का निचला भाग, काले सफेद बालों से गंगाजमुनी बना हुआ सिर, शरीर पर झलकनेवाली शिराएँ, तनी हुई गरदन, श्वेत धुली हुई धोती तथा चादर से मंडित देह, अनेक ओषधियों तथा मनकों से अलंकृत गले से लटकनेवाला डोरा, कनिष्ठिका अँगुली में बारीक सोने का छल्ला।
- अथ विरलोन्नतदशनां निम्नहनुं स्थूलचिपिटनासाग्राम् ।
- उल्बणचूचुकलक्षितशुष्ककुचस्थानशिथिलकृत्तितनुम् ॥ २७ ॥
- गम्भीरारक्तदृशं निर्भूषणलम्बकर्णपालीं च ।
- कतिपयपाण्डुरचिकुरां प्रकटशिरासंततायतग्रीवाम् ॥ २८ ॥
- सितधौतवसनयुगलां विविधौषधिमणिसनाथगलसूत्राम् ।
- तन्वीमङ्गुलिमूले तपनीयमयीं च वालिकां दधतीम् ॥ २९ ॥
- गणिकागणपरिकरितां कामिजनोपायनप्रसक्तदृशम् ।
- आसन्द्यामासीनां विलोकयामास विकरालाम् ॥ ३० ॥
वेश्याओं को उनके व्यवसाय की शिक्षा देना तथा उन्हें उन हथकंडों का ज्ञान कराना जिनके बल पर वे कामी जनों से प्रभूत धन का अपहरण कर सकें, इसका प्रधान कार्य है। क्षेमेंद्र ने इस विशिष्ट गुण के कारण उसकी तुलना अनेक हिंस्र जंतुओं से की है - वह खून पीने तथा माँस खानेवाली व्याघ्री है जिसके न रहने पर कामुक जन गीदड़ों के समान उछल कूछ मचाया करते हैं :
- व्याघ्रीव कुट्टनी यत्र रक्तपानानिषैषिणी।
- नास्ते तत्र प्रगल्भन्ते जम्बूका इव कामुका:॥ -- समयमातृका
कुट्टनी के बिना वेश्या अपने व्यवसाय का पूर्ण निर्वाह नहीं कर सकती। अनुभवहीना वेश्या की गुरु स्थानीया कुट्टनी कामी जनों के लिये छल तथा कपट की प्रतिमा होती है, धन ऐंठने के लिए विषम यंत्र होती हैं; वह जनरूपी वृक्षों को गिराने के लिये प्रकृष्ट माया की नदी होती है जिसकी बाढ़ में हजारों संपन्न घर डूब जाते हैं :
- जयत्यजस्रं जनवृक्षपातिनी।
- प्रकृष्ट माया तटिनी कुट्टनी॥ (देशोपदेश 1. 2)
कुट्टनी वेश्या को कामुकों से धन ऐंठने की शिक्षा देती हैं, हृदय देने की नहीं; वह उसे प्रेमसंपन्न धनहीनों को घर से निकाल बाहर करने का भी उपदेश देती है। उससे बचकर रहने का उपदेश उपर्युक्त ग्रंथों में दिया गया है।
कुट्टनीमतम् की संरचना एवं विषयवस्तु
[संपादित करें]- मगलाचरण (कामदेव सम्बन्धी)
- ग्रन्थकर्ता की प्रार्थना (काव्य का प्रारम्भ)
- काशी का वर्णन
- मालती नामक वैश्या का वर्णन
- प्रसंगवश किसी अन्य स गाइ वश्याओं को कामुक हृदय के जीतने के उपाय जानने चाहिये
- इस आर्या को सुनना और इसलिये कुट्टनी के उपदेश को जानने का इच्छा से विकराला नाम की कुट्टनी के घर जाना
- विकराला नाम की कुट्टनी का वर्णन
- उसके घर में जाकर मालती का बैठना
- मालती का कहना प्रारम्भ करना
- प्रारम्भ में विकराला की प्रशस्ति
- मालती का अपना मतलब कहना
- विकराला का मालती को सान्त्वना देना
- विकराला या प्रतिवचन : कामीजनों को वश में करने वाले मालती के सौन्दर्य का वर्णन
- बाल
- कटाक्ष
- स्तन
- बाहु
- मध्यदेश
- रोमराजी
- जघन
- उरु
- जंघाएँ
- पैर
- चाल
- अतिशय धन लाभ के लिये भट्ट के पुत्र चिन्तामणि को आकर्षित करने का उपदेश
- चितामणि के वश का वर्णन
- चिन्तामणि की चेष्टाओं का वर्णन
- चिन्तामणि को वश में करने के उपायों का कहना
- पहले दूती को भेजने का आरादेश
- भेजी हुई दूती के करणीय कार्यों का उपदेश
- दूती की बातचीत का उपदेश
- भट्टपुत्र के दर्शन से अपने को धन्य कहना
- वेश्या के बुरे आचरणों में वासित मन वाले पुरुषों में वश्या के विरह-व्यथा का अनौचित्य-प्रकाशन
- इसमें दुराशा से कहना
- विरहाक्रान्ता मालती की अवस्था का वर्णन
- मालती की जीवन रक्षा की प्रार्थना
- मालती के गुणों को कहना
- मालती के गुणों का वर्णन
- शरीर
- लावण्य
- अलकावलि
- बदन
- नेत्र
- अधर
- मध्य भाग
- नितम्ब
- उरुयुगल
- सम्पूर्णरूप का वर्णन
- मालती का कामशास्त्र आदि नाना कलाओं में निपुणता का वर्णन
- अपुण्यकारी पुरुषों के लिए मालती दुष्पाप है, इतना सब कहने पर भी यदि भट्ट का पुत्र मालती के प्रति उदासीन रहे, तब उपालम्भ रूप में दूती के करणीय कार्यों का उपदेश
- उपालम्भ का ढंग
- फिर दूती द्वारा साम विधि
- प्रलोभित भट्टपुत्र के घर में आने पर उसके आदर में करणीय कार्यों का विकराला द्वारा उपदेश
- मालती की माता को स्वागत चाटुभाषण आदि करने का उपदेश
- मालती को नायक के समीप जाने का उपदेश
- वेश्योचित रतक्रम का उपदेश
- नायक के आकर्षण और रागवृद्धि के लिये ईर्ष्यायुक्त वचनों का उपदेश
- प्रेम की स्थिरता के लिये नायक से प्रार्थना करने का उपदेश
- गणिका में भी दीखने वाले स्नेह, दाक्षिण्य आदि गुण कपटरूप होने की भाँति स्वाभाविक भी होते हैं, इनकी पुष्टि
- गणिका का प्रेम स्थिर होता है, इसको सिद्ध करने के लिए मालती द्वारा हारलता का आख्यान कहना
- हारलता आख्यान
- पाटलिपुत्र महानगर का वर्णन
- पुरन्दर नामक ब्राह्मण का वर्णन
- पुरन्दर द्विज के वंश का वर्णन
- पुरन्दर के पुत्र सुन्दरसेन का वर्णन
- गुणपालित नामक सुन्दरसेन के मित्र का वर्णन
- प्रसगवश किसी से गाई हुई आर्या में देशान्तर पर्यटन की स्तुति का सुन्दरसेन द्वारा श्रवण
- सुन्दरसेन कृत पृथ्वी पर्यटन प्रयोजन वर्णन एव पर्यटन के लिये गुणपालित से प्रार्थना करना
- गुणपालित द्वारा प्रवास में होने वाले दुःखों का वर्णन
- अभीष्ट कार्य के करने में दत्तचित्त मनुष्यों को शयन आसन आदि की चिन्ता नहीं होती, इस अभिप्राय की आर्या को किसी से गाते हुए सुन्दरसेन ने सुना
- मित्र सुन्दरसेन के साथ नाना प्रकार के कौतुक देखते हुए सम्पूर्ण पृथ्वी का भ्रमण करना
- सुन्दरसेन के साथ अर्बुदाचल (आबू) पर आना
- गुणपालित कृत अर्बुदाचल का वर्णन
- अर्बुदाचल में स्थित मुनिया का वर्णन
- अर्बुदाचल उपत्यका का वर्णन
- इस प्रकार वर्णन करते हुए प्रसगवश किसी से गाई हुई आर्या मे जो अर्बुदाचल के पृष्ठ भाग को नहीं देखते, उनका बहुदेश पर्यटन व्यर्थ है, इस अर्थ की आर्या को सुन्दरसेन ने सुना
- सुन्दरसेन का मित्र के साथ अर्बुदाचल की चोटी पर स्थित देवालय आदि की शोभा देखने के लिए जाना
- वहाँ पर उद्यान में खेलती हुई अतिरमणीय हारलता को देखना
- हारलता को देखकर काम के वशीभूत सुन्दरसेन द्वारा उसके सौन्दर्य का वर्णन
- सुन्दरसेन का अनुराग जानकर कामपीड़ित हारलता की सात्विकभावादि विविध कामावस्था का वर्णन
- हारलता की कामपीड़ितावस्था को जानकर उसकी सखी शशिप्रभा द्वारा यह उपदेश कि वेश्याओं का स्वभावजन्य अनुराग हितकारी नहीं अपितु कृत्रिम अनुराग ही हितकारी है
- कामपीड़ा सहने में असमर्थतता बताकर हारलता ने उसके लिए शीघ्र यत्न करने के लिए शशिप्रभा को कहना
- शशिप्रभा का सुन्दरसेन के सामने हारलता की विरहावस्था का वर्णन तथा उसके जीवन की रक्षा के लिए प्रार्थना
- सुन्दरसेन ने शशिप्रभा के वचनों का आदर किया है, यह जानकर गुणपालित द्वारा की हुई वेश्याओं की निन्दा
- इसी अवसर पर किसी पुरुष द्वारा प्रसंगवश गाई हुई तीन आर्याओं द्वारा यह सुनना कि "स्वयं आयी हुई कामपीड़ित सुन्दर युवती का त्याग करने वाला मनुष्य मूर्ख ही है"
- गुणपालित के साथ हारलता के घर जाने का सुन्दरसेन का निश्चय करना
- वेश्यावास की वीथी में घुसते समय मार्ग में वेश्याओं और () में होने वाले परस्पर उपालम्भ और कलह आदि का सुन्दरसेन द्वारा वर्णन
- घर में आये सुन्दरसेन का हारलता द्वारा किया सत्कार
- सुन्दरसेन के प्रति हारलता की सखी की चाटूक्तिऔर बाहर चला जाना
- हारलता और सुन्दरसेन का कामशास्त्रानुसार नाना प्रकार के सम्भोग का वर्णन
- प्रातःकाल में हारलता का शय्यागृह से निकलना
- इसके पीछे अपने करणीय कार्यों को करने के लिये बाहर जाते हुए सुन्दरसेन ने गणिकाओं और कामुकों के भिन्न भिन्न सम्भोग में अनुभूत नीचरत आदि का वर्णन सुनना
- सुन्दरसेन ने हारलता के साथ डेढ़ वर्ष तक समय व्यतीत किया
- मित्र के साथ उद्यान में घूमते हुए मुन्दरसेन ने एक दिन पिता के पास से आये हनुमत नामक लेखवाहक को देखा
- सदाचार को छोड़कर कुटिल वेश्या संगम में क्यों फँस गये, तुम्हारे ऊपर कुटुम्ब का भार सौंप कर मैं परलोक साधन में इच्छा रखता हूँ, इसलिये घर चले आयो, यह सदेश पढ़ा
- इस समय प्रसंगवश किसी से पढ़ी आर्या को "अज्ञानवश कुमार्ग में गिरे पुरुषों के लिये गुरुजनों के उपदेशानुसार कार्य करना हा हितकारी है" सुना
- इसी समय गुणपालित ने अपने मित्र को उपदेश देने के लिये विषयासक्त मनुष्यों की निन्दा, सज्जन पुरुषों की श्लाघा और कुलांगनाओं की स्तुति
- पिता की आज्ञा अनुल्लंघनीय, हारलता का वियोग जीवननाशक, इस प्रकार कर्तव्यमूढ़ बने सुनदरसेन का गुणपालित को कहना
- पिता के आदेश से जाने का निश्चय करके हारलता का सुन्दरसेन के साथ जाने का निश्चय
- नगर के बाहर स्थित वटवृक्ष के नीचे आकर अश्रुभरी आँखों से सुन्दरसेन का अपनी प्रिया हारलता को "मुझे भूलना मत" कहकर उसके गुणों को कहना
- सुन्दरसेन के गुणों का वर्णन करके हल्केपन या प्रणयवश जो अनुचित या प्रतिकूल किया हो, उसरे लिये हारलता का सुन्दरसेन से क्षमा मागना
- एक दूसरे के प्रेमपाश में बद्ध मनुष्यो में वियोग होने से मृत्यु होती है या ज्ञान होता है- इस अभिप्राय की आर्या किसी ने पढी
- इस आर्या को सुनकर, "प्रिये ! मैं जाता हूँ, सुखी रहो" यह कहकर सुन्दरसेन के जाने पर हारलता का वटवृक्ष के नीचे प्राण त्याग करना
- पीछे से आने वाले पथिकों से हारलता के स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रश्न का सुन्दरसेन द्वारा पूछा जाना
- पथिक ने हारलता की मृत्यु का संदेश दिया
- हारलता की मृत्यु का संवाद सुनकर उसके गुणों का वर्णन करते हुए सुन्दरसेन का विलाप
- गुणपालित द्वारा चिता बनाकर हारलता का दाह-संस्कार करना
- चिता में जलने का निश्चय करके सुन्दरसेन ने प्रसंगवश किसी द्वारा कही इस आर्या को सुना
- विवेकी पुरुष को चाहिए स्त्री धर्म में मरने की बुद्धि न करे किन्तु संसार से मोक्ष का उपाय संन्यास लेना चाहिए
- आर्या को सुनकर सुन्दरसेन ने संन्यास लेने का निश्चय किया
- गुणपालित के साथ संन्यास लेकर सुन्दरसेन का वन जाना
- इस प्रकार हारलता का आख्यान कहकर नायक का विश्वास दृढ़ करने के लिए विकराला द्वारा मालती को उपदेश देना (४९८-५११)
- फिर भी विश्वास को दृढ करने के लिये प्रात काल उठते समय नायक का आलिंगन, बातचीत आदि का विकराला द्वारा उपदेश
- इस प्रकार से विश्वास हो जाने पर नायक में अनुराग बढाने के लिये और धन प्राप्त करने के लिये विकराला का मालती को ईर्ष्या के बढाने का उपदेश
- फिर भी नायक का अनुराग बढाने के लिये और उसका धन लेने के लिये मालती का अपनी माता के साथ नायक को सुनाते हुए मिथ्या वाक्कलह
- मालती की माता का वचन
- मालती का प्रत्युत्तर
- मालती का वचन सुनने के पीछे मालती के गुणगौरव वर्णन में विवाहित पत्नी से भी अधिक श्रेष्ठता का विचार
- यदि इस युक्ति से भी नायक से धन न मिले तो रात्रि में अभिसरण करके, "मालती के आभूषण चोरों ने ले लिया", यह संवाद नायक को दे - ऐसा उपदेश विकराला ने दिया
- यह युक्ति भी व्यर्थ जाये तो पहिले से सिखाया वणिक नायक के सामने अपना कर्जा माँगने आये-यह उपदेश विकराला ने दिया
- यह भी युक्ति व्यर्थ जाये तब मेरे प्राणप्रिय आपके आरोग्य के लिए अपने वांछित फल की सिद्धि के लिए मैं देवी की बलि-उपहार से पूजा करूँगी, यह सकल्प किया था, परन्तु सामग्री के लिए सम्पूर्ण धन न मिलने से यह पूजा अभी तक नहीं हो सकी, इसलिए देवी के कोप की शान्ति के लिए धन चाहिए, ऐसा नायक को कहे। (६११-६१३)
- यह युक्ति भी व्यर्थ जाये तो घर को खाली करके घर में आग लगा दे और दिखाना चाहिए कि सर्वनाश हो गया
- इस प्रसार नायक का सब धन लेकर पृथक आसन, प्रत्युत्थान आदि में उदासीनता बरतकर उसे निकाल देना चाहिये
- यदि इन सब उपायों से मूढ़ कामुक घर में आने से न रुके तब, दासी द्वारा उसको चुभने वाले वाक्यों से भर्त्सना करनी चाहिये
- इतना करने पर भी यदि मूढ़ कामुक न समझे तब उससे कहे कि मेरा हृदय तो तुममें फँसा है, परन्तु माता के कहने से तेरा साथ छोड़ना आवश्यक है; इसनिए कुछ दिनों के लिये आना छोड़ दो - यह अन्तिम उपदेश
- इस प्रकार से प्रकृत कानुक के निकालने पर पहिले सेवित एवं परित्यक्त प्रेमी के पुनः धन प्राप्त कर लेने पर उससे प्रेम करने तथा उसका धन लेने का उपाय विकराला ने मालती को कहा (६६४-६५)
- इसमें इस प्रकार के प्रेमी के प्रथम दीखने पर मालती का उसके साथ पूर्व अनुभूत संभोग विहारादि क्रीडाओं का वर्णन करने का उपदेश देना
- इसके पीछे उसके सामने उसके साथ बैठकर ग्रामवृक्ष के नीचे पहले सुने विलासोत्पादक, कामोत्तेजक वचनों को कहने का उपदेश
- कामुक की मालती के साथ क्रीडा का वर्णन करना
- सुश्लिट हावविधि - काम से अलसाये शरीर के अगों का जम्भाई आदि द्वारा दिखाना, गूढ़ स्थान आदि को दिखाकर अपना प्रेम दिखाना - कामुक को वश में करने के उपाय (६९२-६९३)
- इसके पाछे "तुम्हारे वियोग में मेरा दोष नहीं, तुम ही दूसरी स्त्री में आसक्त हो गये, यह बात दूसरे ने कहकर हम दोनों में भेद उत्पन कर दिया, इस प्रकार से दुर्जन साधु पुरुषों को जलाते हैं" अब तो दुख से मेरे सब अंग जल रहे हैं, अब मैं तुम्हारे घर में दासी बनकर रहूँगी - कामुक को वश में करने का यह उपदेश
- इस प्रकार के उपायों से कामुक को फिर वश में करके धन लेकर उसे निकालने का उपदेश
- मालती को दिये उपदेश को दृढ करने लिये विकराला द्वारा मंजरी का दृष्टान्त कथा रूप में कहना (७३६)
- मञ्जरी का आख्यान
- सिंहभट नामक राजा का पुत्र समरभट था, वह कभी थोड़े से सम्बन्धी जनों के साथ काशी विश्वनाथ में दर्शन लिये देवमदिर में गया
- समरभट्ट का वर्णन
- देवमन्दिर स्थित चिट चेटिका अदि का संलाप वर्णन
- राजपुत्र समरभट देवमन्दिर में बैठकर यहाँ के वणिक , नर्तक आदि का कुशल मंगल पूछने लगा
- वैतालिक द्वारा समरभट्ट का श्लेष रूप में प्रभाव, शत्रु विनाश, सौभाग्य आदि की स्तुति करना
- समरभट ने वैतालिक को संतुष्ट करके, कभी पहले पढ़ी दो आर्याओं को फिर पढ़ने के लिये कहना (७८७-७८९)
- परनारी कृत शोक एवं कामुक को उपालम्भ
- इस प्रकार से कुलटा संग के सुख वर्णन में समरभट के मत्री द्वारा कुलटा सम्भोग को वेश्या-सम्भोग से उत्तम बताना
- समरभट के मंत्री द्वारा की हुइ वेश्यारति की निन्दा का निराकरण करके, अपने पक्ष के समर्थन में मंजरी की माता का किया भाषण
- समरभट सचिव की निन्दा
- ग्राम्य रति वर्णन
- ग्राम्य विट वर्णन
- ग्राम्य दूती वचन प्रकार वर्णन
- इस प्रकार से कहती हुई मंजरी के माता को रोककर नाट्याचार्य ने समरभट की संगीतशास्त्र में प्रवीणता की प्रशंसा की, एव अपनी सिखाई नटिया द्वारा खेले हुए रत्नावली नाटिका को देखने के लिये प्रार्थना करी - समरभट के आज्ञा से अंक का प्रयोग प्रारम्भ
- गीत-वाद्य के साथ में रत्नावली के अंक का प्रारम्भ, सूत्रधार और नटी का प्रवेश - संलाप - पात्र के आने की सूचना देकर निकलना (८८१-८८४)
- कथोद्घात का श्राश्रय लेकर अमात्य यौगंधरायण का उदयन को प्रासाद पर चढकर वसन्तोत्सव देखने की सूचना देना और अपना कार्य करने के लिये बाहर जाना
- प्रासाद पर चढे वत्सराज उदयन का मञ्च पर आकर अपनी आँखों देखे पौरजनों की नृत्य आदि क्रीडा का वर्णन - अपने मित्र विदूषक से सुनना
- उदयन की महाराणी वासवदत्ता से भेजी चेटियों का रंगमंच पर प्रवेश
- इस प्रकार से शृंगार रस में डूवे उदयन के लिए वैतालिक ने नेपथ्य में कहा है कि राजा लोग उदयन का दर्शन करने के लिए सायं काल के समय सभा मण्डप में आ गये हैं
- वैतालिक द्वारा 'उदयन' यह वत्सराज का नामान्तर है, यह सुनकर सागरिका आश्चर्य से सोचने लगी कि क्या यह वही उदयन है, जिसके लिये पिता ने मुझे दिया था- मुझे कोई देखे नहीं ऐसा सोचकर मंच से निकल गई
- संध्याकाल आ गया, ऐसा मित्र को कहकर सबके साथ उदयन भी निकल गया
- रत्नावली नाटिका प्रयोग समाप्ति
- अंक प्रयोग के समात हाने पर विकराला मंजरी कथानक में समरभट द्वारा किये अंक प्रयोग के गुण वर्णन विषयक भाषण को दोहराती है
- समरभट से अपने नाट्य प्रयोगगत गुण दोष के कहने में नम्रता का प्रदर्शन
- सतुष्ट-समरभट का नाट्याचार्य को पारितोषक आदि देना
- बातों-बातों में नौकरों का पेट भरने वाले स्वामियों द्वारा धन न देकर केवल मिथ्या सान्त्वना से पेट भरने का वर्णन
- समरभट द्वारा रत्नावली के अंक प्रयोगगत नाट्यगीत, वाद्य की गुण विवेचना
- इसी प्रसंग में किसी ने राजपुत्रों की परम्परागत रणशौर्य, नाटक देखना, काव्य रस का ज्ञान, मृगया - इन कुलविद्याओं सम्बन्धी आर्या को गाया
- इस आर्या को सुनकर समरभट ने भयानक रस वाली मृगया का वर्णन किया (९५०-९५७)
- फिर प्रसंगवश किसी से गाई मृगया की कथा सुनने में आसक्त व्यक्ति भोजन करना भी भूल जाते हैं, इस आर्या को समरभट ने सुना
- आर्या को मुनकर मंजरी को प्रेमदृष्टि से देखते हुए समरभट का अपने घर में जाना
- घर में जाकर भोजन करने के पीछे मंजरी में आसक्त मन से अपने सचिव के आगे मंजरी के लावण्य आदि की प्रशंसा करना
- मंजरी के गुणों के कहते हुए मंजरी से भेजी दूती का समरभट के पास आकर मंजरी की विरहावस्था का वर्णन करना और उसे स्वीकार करने के लिए कहना
- मंजरी दूती कृत मंजरी के विप्रलम्भ शृंगार का वर्णन
- मंजरी के अनुराग वर्णन प्रसंग में समरभट के हृदय में अनुकम्पा उत्पन्न करने के लिये दूती द्वारा सज्जन पुरुषों के स्वभाव की स्तुति
- आपके कारण ही मंजरी की यह विरहपीड़ा है, इसलिए आप ही उसके शरण हैं - इसको दृष्टान्त द्वारा सिद्ध करके दूती द्वारा मंजरी को स्वीकार करने की प्रार्थना
- दूती की बात समाप्त होने पर किसी द्वारा गाई हुई आर्या कि "प्रेमियों के लिए थोड़ा भी समय बीतना बिघ्नकारी है, सुनकर समरभट ने दूती के वचन का समर्थन किया
- दूती का घर जाकर, मंजरी को साथ लेकर, समरभट के पास आना । समरभट के पास मंजरी को बिठाकर अपने-आप यह कहते हुए चले जाना कि एकान्त में बैठे स्त्री-पुरुष के पास दूसरे को नहीं रहना चाहिए (१०४६-१०५२)
- समरभट और मंजरी का सम्भोग वर्णन
- मंजरी ने नाना प्रकार सम्भोग सुख से समरभट को प्रसन्न करके थोड़े समय में ही उसका सर्वस्व ले लिया और केवल चमड़ा मात्र उसने शरीर पर छोडा - इस प्रकार से विकराला ने मंजरी उपाख्यान को समाप्त किया
- इस प्रकार मेरे दिये उपदेश के अनुसार चलकर कामुक जनों से बहुत अधिक धन प्राप्त कर सकेगी - यह कहकर विकराला ने अपने उपदेश को समाप्त किया
- विकराला का उपदेश मुनकर मालती का मोह चला गया, मालती विकराला के पैरों पर सिर से प्रणाम करके अपने घर चली गई
- इस काव्य के सुनने का फल - काव्यकर्त्ता दामोदर कृत काव्य का उपसंहार (१०५९)
सन्दर्भ
[संपादित करें]इन्हें भी देखें
[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- कुट्टनीमतम् (संस्कृत विकिस्रोत)
- कुट्टनीमतम (अत्रिदेव विद्यालंकार द्वारा कृत हिन्दी अनुवाद सहित)