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पुरुषपरीक्षा

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पुरुषपरीक्षा, विद्यापति द्वारा रचित कथाग्रन्थ है। उन्होने इसकी रचना महाराजा शिवसिंह के निर्देशन पर किया था। इसमें पंचतन्त्र की परम्परा में शिक्षाप्रद कथाएँ प्रस्तुत की गयी हैं। यह ग्रन्थ समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों, मानववैज्ञानिकों, राजनीतिशास्त्रियों के साथ-साथ दर्शन एवं साहित्य के लोगों के लिए भी एक अपूर्व कृति है। विद्वानाें की मान्यता के अनुसार इस ग्रन्थ की रचना १४वीं सदी में हुई।

वीरकथा, सुबुद्धिकथा, सुविद्यकथा और पुरुषार्थकथा- इन चार वर्गों में पुरुषपरीक्षा की कथा दी गयी है।

‘पुरुष-परीक्षा’ में सच्चे पुरुष की परख कैसे की जाये- यह बताने के लिए वासुकि नामक मुनि, पारावार नामक राजा को अनेक कथाएँ सुनाते हैं। पुरुष की परीक्षा कैसे होनी चाहिए, इस सम्बन्ध में कवि ने पुरुष-परीक्षा की भूमिका में लिखा है कि-

“चंद्रातपा नाम के नगर में पारावार नाम का एक राजा था। उसकी पद्मावती नाम की एक अत्यंत सुंदरी कन्या थी। कन्या को विवाह योग्य देखकर राजा ने सुबुद्धि नाम के ऋषि से कहा कि महाराज! इष्ट कार्यों में अकेले निर्णय नहीं करना चाहिए। संभव है मोहवश कोई अनुचित कार्य न कर बैठें, क्योंकि मोहवश बड़े-बड़े विद्वान भी अनर्थ कर बैठते हैं जिससे सुख की हानि होती है। इसलिए हे ऋषि, किस प्रकार का वर अपनी कन्या के लिए खोजूं, यह आप बतावें। तब ऋषि ने कहा- राजन! पुरुष वर करिए। राजा ने आश्चर्य से पूछा कि ‘क्यों अपुरुष भी कन्या के लिए वर हो सकते हैं? ऋषि ने कहा ‘राजन! इस संसार में बहुत से से पुरुष कहलाने वाले पुरुष के आकार के लोग दिख पड़ते हैं किन्तु वे सब पुरुष नहीं हैं। इसलिए आप पुरुष को पहचान कर कन्या के लिए वर का निश्चय कीजिये। पुरुष को पहचानने के लिए निम्नलिखित चिह्न हैं- जो पुरुष वीर हो, सुधि हो, विद्वान हो तथा पुरुषार्थ करने वाला हो, वही यथार्थ में पुरुष है। इसके अतिरिक्त सब पुच्छ-विषाण-हीन पशु हैं।” [1]
वीरः सुधीः सुविद्यश्च पुरुषः पुरुषार्थवान्।
तदन्ये पुरुषाकाराः पशवः पुच्छवर्जिताः ॥
(वीर, सुबुद्धिमान, विद्यावान और पुरुषार्थ करनेवाला हो, वही (सच्चा) पुरुष है। उसके अलावा अन्य, पुरुष के आकार में बिना पूंछ के पशु हैं।)

पुरुषपरीक्षा उपदेशात्मक संस्कृत कथासाहित्य का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें पशु-पक्षी जैसे पात्राें के स्थान पर समसामयिक आदर्श चरित्राें काे प्रस्तुत किया गया है जाे कलियुग में उत्पन्न हैं। ग्रन्थकार का मानना है कि पुरुष वही है जिसके व्यक्तित्व में वीरता हाे, सुबुद्धि हाे, विद्या तथा पुरुषार्थ चतुष्टय का ठीक से समन्वय हाे। यदि व्यक्ति इससे रहित है ताे वह केवल पुरुष की भाँति आकार-प्रकार धारण करता है और वह बिना पूँछ और सींग के पशु ही है। पुरुषपरीक्षा नाम ही इस ग्रन्थ का अभिप्राय सिद्ध करता है।

मंगलाचरण में आदिशक्ति की वन्दना करते हुए विद्यापति ने कहा है कि एकबार जब चन्द्रातपा नगरी के राजा पारावार ने अपनी सर्वगुणसम्पन्न पुत्री के अनुरूप वर के लिए विचार किया तथा मुनिवर सुबुद्धि के पास जाकर प्रश्न किया तब उन्होंने कहा कि वीरता, सुबुद्धि, सद्विद्या तथा पुरुषार्थ से युक्त पुरुष ही वास्तविक पुरुष है। ऐसे पुरुष काे ही अपनी कन्या प्रदान करनी चाहिए। इसी सन्दर्भ में मुनिवर सुबुद्धि के द्वारा पुरुषों के परिचय हेतु दी गई अज्ञात कथाओं का सम्पूर्ण वर्णन इस ग्रन्थ में किया गया है।

इस कथाग्रन्थ में चार परिच्छेद हैं- प्रथम परिच्छेद के अन्तर्गत उदाहरण कथा की काेटि में दानवीर विक्रमादित्य, युद्धवीर कर्णाट राजकुमार मल्लदेव, दयावीर रणथम्भाैर के नरेश हम्मीर देव तथा सत्यवीर चैहान वंश के नरेश चाचिक देव की कथाएं लिखी गई हैं। दूसरे परिच्छेद में कवि ने उदाहरण कथा की दृष्टि से प्रतिभासम्पन्न विशाख, मेधासम्पन्न काेकपण्डित तथा कर्णाट नरेश हरिसिंह देव के मन्त्री सुबुद्धिसम्पन्न गणेश्वर की कथाओं का वर्ण न किया है। तृतीय परिच्छेद में कवि के द्वारा संविद्यकथा की दृष्टि से उदाहरण के रूप में धारा नगरी निवासी शस्त्र विद्या में निपुण सिंघल नामक क्षत्रिय धनुर्धर, शास्त्र के जानकार ज्याेतिषी वाराहमिहिर, आयुर्वेद के जानकार हरिश्चन्द्र एवं मीमांसक शबर स्वामी की कथाएं लिखी गई हैं। चतुर्थ परिच्छेद में धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष जैसे पुरुषार्थ से सम्बन्धित कथाओं का वर्ण न किया गया है। धर्म के उदाहरण के लिए तत्त्वज्ञानी बाेधि नामक कायस्थ, तमाेगुण धार्मिक श्रीकंठ नामक ब्राह्मण तथा पापकर्म के लिए पश्चातापपूर्वक पुण्य अर्जन करने वाले राजकुमार रत्नांगद की कथाएं लिखी गई हैं।

अर्थ-मूलक कथाओं में न्याय के द्वारा उपार्जित धन का दान एवं भाेग में व्यय करने वाले धनिक की कथा के साथ.साथ कई कथाओं का वर्णन करते हुए तृष्णा से ग्रस्त एक माली की कथा का वर्णन भी किया गया है। काम कथा के अन्तर्गत अनुकूल नायक राजा शूद्रक की कथा, गाेैड नरेश लक्ष्मण सेन की कथा, महाराज विक्रमादित्य की कथा, धूर्त नायक शशि की कथा तथा विद्या एवं बुद्धि से सम्पन्न हाेने पर भी अपनी प्रेयसी पटरानी शुभ देवी के वशीभूत रहने के कारण अपने राज्य तथा प्राण काे भी गंवा देने वाले महाराज जयचन्द की कथा भी प्राप्त होती है। माेक्ष कथा के अन्तर्गत भर्तृहरि की कथा, विवेकशर्मा की कथा, स्पृह से रहित मुमुक्षु कृष्ण चैतन्य की कथा तथा लब्धसिद्धि मुमुक्षु की कथा के वर्णनों के साथ इस ग्रन्थ की समाप्ति हाे जाती है।

सन्दर्भ

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  1. "विद्यापति की रचनाएँ". मूल से 20 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 फ़रवरी 2017.

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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