न्यायसूत्र

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न्यायदर्शन चार प्रमाण मानता है - १-प्रत्यक्ष, २-उपमान, ३-अनुमान, ४-शब्द

न्यायसूत्र, भारतीय दर्शन का प्राचीन ग्रन्थ है। इसके रचयिता अक्षपाद गौतम हैं। यह न्यायदर्शन का सबसे प्राचीन रचना है। इसकी रचना का समय दूसरी शताब्दी ईसापूर्व है।

इसका प्रथम सूत्र है -

प्रमाण-प्रमेय-संशय-प्रयोजन-दृष्टान्त-सिद्धान्तावयव-तर्क-निर्णय-वाद-जल्प-वितण्डाहेत्वाभास-च्छल-जाति-निग्रहस्थानानाम्तत्त्वज्ञानात् निःश्रेयसाधिगमः

(प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अयवय, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान के तत्वज्ञान से मिःश्रेयस (मोक्ष/कल्याण) की प्राप्ति होती है।)

संरचना[संपादित करें]

न्याय दर्शन के कुल पांच अध्याय हैं; प्रत्येक अध्याय में दो आह्निक हैं। इनमें विद्यमान प्रकरण एवं सूत्रों का विवरण यों है-

अध्याय प्रकरण सूत्रों की संख्या
1 11 61
2 13 137
3 16 145
4 20 118
5 24 67

इस प्रकार न्याय दर्शन के 528 सूत्रों में सोलह पदार्थों का विशद वर्णन किया गया है।

प्रथम अध्याय[संपादित करें]

सोलह पदार्थों में से आदि के प्रमाण आदि नौ पदार्थ प्रामाण्यवाद से संबद्ध हैं तथा न्यायवाक्य के उपयोगी अंग हैं, अत: इनके लक्षण एवं अपेक्षानुसार विभाग प्रथम अध्याय के प्रथम आह्निक में किये गये हैं। शेष सात पदार्थों के लक्षण तथा यथापेक्षित विभाग इसके द्वितीय आह्निक में हुआ है।

द्वितीय अध्याय[संपादित करें]

द्वितीय अध्याय के प्रथम आह्निक में संशय की तथा न्यायशास्त्र के प्रसिद्ध चारों प्रमाणों की परीक्षा की गयी है। इसके साथ ही प्रसंगतः अवयवी की परीक्षा एवं वर्तमान काल की सिद्धि हेतु प्रयास किया गया है। इसके द्वितीय आह्निक में अन्य शास्त्रसम्मत प्रमाणों के परीक्षण द्वारा निराकरण तथा शब्द प्रमाण का विस्तृत विवेचन किया गया है।

तृतीय अध्याय[संपादित करें]

तृतीय अध्याय के प्रथम आह्निक में आत्मा, शरीर, इन्द्रिय और अर्थ की परीक्षा की गयी है। द्वितीय आह्निक में बुद्धि तथा मनस की परीक्षा के साथ शरीर और आत्मा के संबन्ध के गुण एवं दोष का कारणसहित विवेचन हुआ है।

चतुर्थ अध्याय[संपादित करें]

चतुर्थ अध्याय के प्रथम आह्निक में प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुःख और अपवर्ग की परीक्षा के साथ सृष्टि के प्रसंग में उस काल में प्रसिद्ध आठ दार्शनिक विचारधाराओं का आलोचन भी किया गया है। इसके द्वितीय आह्निक में तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति, उसकी विवृद्धि और उसके परिपालन की विधि के साथ अवयव एवं अवयवी की सिद्धि तथा परमाणु के निरवयवत्व का प्रदर्शन भी हुआ है।

पंचम अध्याय[संपादित करें]

पंचम अध्याय के प्रथम आह्निक में जाति के विभाग एवं लक्षण किये गये हैं, आवश्यकतानुसार परीक्षा भी कहीं-कहीं उनकी देखी जाती है। द्वितीय आह्निक में निग्रहस्थान का विवेचन हुआ है।

न्यायसूत्र के भाष्य[संपादित करें]

वात्स्यायन का न्यायसूत्र पर भाष्य सबसे प्राचीन भाष्य है जो आज भी उपलब्ध है।[1] इस भाष्य के आधार पर अन्य अनेक द्वितीयक और तृतीयक भाष्य रचे गये। वात्स्यायन के भाष्य के रचनाकाल का अनुमान द्वितीय शताब्दी इसापूर्व [2] से लेकर ५वीं शताब्दी ईसवी है। न्यायसूत्रों पर दूसरी प्रसिद्ध टीका वाचस्पति मिश्र की है जिसका रचनाकाल लगभग ९वीं शताब्दी है।

अन्य भाष्य
  • न्यायवार्तिक -- उद्योतकर (५वीं-६ठी शताब्दी)
  • न्यायभाष्यटीका -- भविविक्त (६ठी शताब्दी)
  • न्यायभाष्यटीका -- अविधाकर्ण (७वीं शताब्दी)
  • न्यायभूषण -- भसरवजन (९वीं शताब्दी)
  • न्यायमञ्जरी -- जयन्त भट्ट (९वीं शताब्दी, कश्मीर)
  • न्यायप्रकीर्णक -- त्रिलोचन (१०वीं शताब्दी, कर्नाटक)
  • न्यायकन्दली -- श्रीधर (१०वीं शताब्दी, बंगाल)

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Jeaneane Fowler (2002), Perspectives of Reality: An Introduction to the Philosophy of Hinduism, Sussex Academic Press, ISBN 978-1898723943, page 129
  2. KK Chakrabarti (1999), Classical Indian Philosophy of Mind: The Nyaya Dualist Tradition, SUNY Press, ISBN 978-0791441718, pages 14–15

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]