कनिष्क

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कनिष्क प्रथम (कनिष्क महान)
कुषाण सम्राट
शासनावधिद्वितीय शताब्दी (ल. 127–150 इस्वी)[1]
पूर्ववर्तीविम कडफिसेस
उत्तरवर्तीहुविष्क
जन्मल. 78 ईस्वी
पुरुषपुर (वर्तमान पेशावर)
निधनल. 144 ईस्वी
पुरुषपुर
समाधि
घरानाकुषाण
धर्मबौद्ध

कनिष्क प्रथम (संस्कृत: कनिष्क; बाख़्त्री: Κανηϸκι(कनेश्की); खरोष्ठी: 𐨐𐨞𐨁𐨮𐨿𐨐 क -नि -सक ; ब्राह्मी: Kā-ṇi-ṣka; मध्य चीनी भाषा: 迦腻色伽 (Ka-ni-sak-ka); नवीन चीनी भाषा: Jianisejia)[2] या कनिष्क और कनिष्क महान, द्वितीय शताब्दी ईसवी (ल. 78 ईसवी, जन्म से 144 ईसवी, मृत्यु) में कुषाण राजवंश के भारत के एक सम्राट थे, इन्होंने ल. 127 से 150 इस्वी तक शासन किया था।[3] यह अपने सैन्य, राजनैतिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियों तथा कौशल हेतु प्रख्यात थे। इस सम्राट को भारतीय इतिहास एवं मध्य एशिया के इतिहास में अपनी विजय, धार्मिक प्रवृत्ति, साहित्य तथा कला का प्रेमी होने के नाते विशेष स्थान मिलता है।

कुषाण वंश के संस्थापक कुजुल कडफिसेस का ही एक वंशज कनिष्क प्रथम था। जो बख्त्रिया से इस साम्राज्य पर सत्तारूढ हुआ, जिसकी गणना एशिया के महानतम शासकों में की जाती है, क्योंकि इसका साम्राज्य तरीम बेसिन में तुर्फन से लेकर गांगेय मैदान, पाकिस्तान और समस्त उत्तर भारत में बिहार एवं उड़ीसा तक आते हैं।[4] इस साम्राज्य की मुख्य राजधानी पेशावर (वर्तमान में पाकिस्तान, तत्कालीन भारतवर्ष के) गाँधार प्रान्त के नगर पुरुषपुर में थी। इसके अलावा दो अन्य बड़ी राजधानियां प्राचीन कपिशा में भी थीं।

उसकी विजय यात्राओं तथा बौद्ध धर्म के प्रति आस्था ने रेशम मार्ग के विकास तथा उस रास्ते गांधार से काराकोरम पर्वतमाला के पार होते हुए चीन तक महायान बौद्ध धर्म के विस्तार में विशेष भूमिका निभायी।[5]

पहले के इतिहासवेत्ताओं के अनुसार कनिष्क ने राजगद्दी 78 ई.पू में प्राप्त की एवं तभी इस वर्ष को शक संवत् के आरम्भ की तिथि माना जाता था। हालाँकि, इतिहासकारों की नवीन खोजों के अनुसार अब इस तिथि को कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि नहीं मानते हैं, इनका मनाना है कि कनिष्क 127 से 150 इस्वी तक शासन किया था।[6]

वंशावली[संपादित करें]

कनिष्क प्रथम, द्वितीय शताब्दी की मूर्ति, मथुरा संग्रहालय

कुषाणों का संबंध मध्य एशिया कि युएझ़ी जाती से था। कुषाण भारतवर्ष में पहली शताब्दी इस्वी में आकर बसे थे, इन्ही का वंशज को कनिष्क था।

समय के साथ मध्य एशिया में युएझ़ी लोगों का विस्तार, ल.178 ई.पू से 30 इस्वी तक

राजतरंगिणी का लेखक उन्हें तुरुष्क और आधुनिक विद्धान यूहूची व यूचियों की एक शाखा मानते हैं। चीनी इतिहासकारों ने एक राय इनके सम्बन्ध में यह दी है कि कुषाण लोग ‘हिंगनु’ लोग हैं। उनकी स्थानीय भाषा अभी अज्ञात है।

रबातक शिलालेख, अफ़गानिस्तान

कुषाणों के रबातक शिलालेखों में यूनानी लिपि का प्रयोग उस भाषा को लिखने के लिये किया गया है, जिसे आर्य (यूनानी:αρια) कहा गया है, जो कि एरियाना (आधुनिक अफ़गानिस्तान, ईरान व उज़बेकिस्तान) की मूल भाषा बाख़्त्री का ही एक रूप है। यह एक मध्यकालीन पूर्वी ईरानियाई भाषा थी।[7] वैसे इस भाषा का प्रयोग कुषाणों द्वारा स्थानीय लोगों से सम्पर्क करने हेतु किया जाता होगा। कुषाण लोगों के कुलीन लोग किस भाषा विशेष का प्रयोग करते थे, ये अभी निश्चित नहीं है। यदि कुषाण एवं/या युएज़ी लोगों को तरीम बेसिन के अग्नि कुची (टॉर्चेरियाई) लोगों को जोड़ती विवादास्पद बातें सही हों, तो कनिष्क द्वारा टॉर्चेरियाई लोगों की भाषा – जो एक चेण्टम इण्डो-यूरोपियाई भाषा थी, बोली जाती रही होगी। (जहां अन्य ईरानियाई भाषाएं जैसे बैक्टीरियाई सेण्टम भाषाएं कहलाती हैं।)

विम कडफिसेस कनिष्क के पिता, ब्रिटिश संग्रहालय

कनिष्क प्रथम विम कडफिसेस का उत्तराधिकारी था, जैसा रबातक शिलालेखों में कुषाण राजाओं की वंशावली द्वारा दृश्य है।[8][9] कनिष्क का अन्य कुषाण राजाओं से संबन्ध राबातक शिलालेखों में बताया गया है, इसी से कनिष्क के समय तक की वंशावली ज्ञात होती है। उसके प्रपितामह कुजुल कडफिसेस थे, विमा ताक्तु उसके पितामह थे। कनिष्क के पिता विम कडफिसेस थे, तत्पश्चात स्वयं कनिष्क आया।[10]

दक्षिण एवं मध्य एशिया में विजय यात्राएं[संपादित करें]

कुशान साम्राज्य कनिष्क के शासन में अपने चरम विस्तार पर (राबातक शिलालेखों के अनुसार)

कनिष्क का साम्राज्य निस्सन्देह विशाल था। यह पाकिस्तान व भारत से उत्तर-पश्चिम दिशा की ओर स्थित अमु दरया के उत्तर में दक्षिणी उज़्बेकिस्तान एवं ताजिकिस्तान से लेकर दक्षिण-पूर्व में मथुरा तक फैला था। राबातक शिलालेखों के अनुसार यह पाटलिपुत्र एवं श्रीचम्पा तक विस्तृत था। उत्तरतम भारत में स्थित कश्मीर भी कनिष्क के अधीन ही था, जहां पर बारामुला दर्रे के निकट ही कनिष्कपुर नामक नगर बसाया गया था। यहाँ से एक बहुत बड़े स्तूप का आधार प्राप्त हुआ है।[11]

आधुनिक चीन के खोतान प्रान्त में मिले कनिष्क के सिक्के।

दक्षिण एशिया एवं रोम के बीच भूमि पथ (रेशम मार्ग) तथा समुद्री मार्ग दोनों पर ही अधिकार बनाये रखना कनिष्क का मुख्य लक्ष्य रहा था।

कनिष्क के मध्य एशिया पर आधिपत्य का ज्ञान अभी सीमित ही है। बुक ऑफ़ द लेटर हान, हौ हान्शु, से ज्ञात होता है कि, चीनी जनरल बान चाओ ने ९० ई में खोतान के निकट कनिष्क की ७०,००० सैनिकों की सेना से युद्ध किया, जिसका नेतृत्त्व कुशाण सेनाधिपति ज़ाई (Xie (चीनी: 謝) ने किया था।हालांकि बान चाओ ने विजयी होने का दावा किया है व साथ ही कुशानों की सेना को स्कॉर्च्ड अर्थ नीति के अन्तर्गत्त पीछे हटाया, किन्तु यह क्षेत्र द्वितीय शताब्दी के आरम्भ तक कुशानों के अधीन ही हो गया।[12] परिणामस्वरूप, यह क्षेत्र (जब तक की चीनियों ने १२७ ई० में पुनः अधिकार प्राप्त नहीम कर लिया)[13] कुशानों का साम्राज्य कुछ समय के लिये कश्गार, खोतान एवं यारकंद तक भी विस्तृत हुआ, जो कि पहले तरीम बेसिन के चीनी क्षेत्र (आधुनिक ज़िनजियांग) रहे थे। कनिष्क के समय के कई सिक्के तरीम बेसिन में पाये गए हैं।

कनिष्क के सिक्के[संपादित करें]

कनिष्क की स्वर्ण मुद्राएं, जिनमें यूनानी सूर्य देवता हेलिओज़ का चित्र अंकित है। (ई. १२०).
अग्र: कनिष्क भारी कुशाण अंगरखे व जूतों में सज्ज खड़े हुए, जिनके कंधों से ज्वाला निकल रही है, बाएं हाथ में मानक धारण किये हुए और वेदी पर आहूति देते हुए। यूनानी कथा ΒΑΣΙΛΕΥΣ ΒΑΣΙΛΕΩΝ ΚΑΝΗϷΚΟΥ " कनिष्क का सिक्का, राजाओं के राजा "।
पृष्ठ: हेलियोज़ यूनानी तरीके से खड़े हुए, बाएं हाथ से बैनेडिक्शन मुद्रा बनाए हुए। यूनानी लिपि में अंकित: ΗΛΙΟΣ हेलिओज़। कनिष्क का राजचिह्न (तमगा) बायीं ओर।

कनिष्क की मुद्राओं में भारतीय हिन्दू, यूनानी, ईरानी और सुमेरियाई देवी देवताओं के अंकन मिले हैं, जिनसे उसकी धार्मिक सहिष्णुता का पता चलता है। उसके द्वारा शासन के आरम्भिक वर्षों में चलाये गए सिक्कों में यूनानी लिपि व भाषा का प्रयोग हुआ है तथा यूनानी दैवी चित्र अंकित मिले। बाद के काल के सिक्कों में बैक्ट्रियाई , ईरानि लिपि व भाषाओं में, जिन्हें वह बोलने में प्रयोग किया करता था, तथा यूनानी देवताओं के स्थान पर ईरानी देवता दिखाई देते हैं। सभी कनिष्क के सिक्कों में, यहाम तक कि उन सिक्कों में भी जो बैक्ट्रियाई में लिखे हैं, एक संशोधित यूनानी लिपि में लिखे गये थे, जिनमें एक अतिरिक्त उत्कीर्ण अक्षर (Ϸ) है, जो 'कुआण' एवं 'कनिक' में प्रयुक्त /š/ () दर्शाता है।

सम्राट कनिष्क के सिक्के में सूर्यदेव बायीं और खड़े हैं। बांए हाथ में दण्ड है जो रश्ना सें बंधा है। कमर के चारों ओर तलवार लटकी है। सूर्य ईरानी राजसी वेशभूषा में एक लम्बे कोट पहने दाड़ी वाले दिखाये गए हैं, जिसके कन्धों से ज्वालाएं निकलती हैं। वह बड़े गोलाकार जूते पहनते है। उसे प्रायः वेदी पर आहूति या बलि देते हुए दिखाया जाता है। इसी विवरण से मिलती हुई कनिष्क की एक मूर्ति काबुल संग्रहालय में संरक्षित थी, किन्तु कालांतर में उसे तालिबान ने नष्ट कर दिया।[14]

यूनानी काल[संपादित करें]

कनिष्क के काल के आरम्भ के कुछ सिक्कों पर यूनानी भाषा एवं लिपि में लिखा है : ΒΑΣΙΛΕΥΣ ΒΑΣΙΛΕΩΝ ΚΑΝΗϷΚΟΥ, बैसेलियस बॅसेलियॉन कनेश्कोऊ "कनिष्क के सिक्के, राजाओं का राजा"
इन आरम्भिक मुद्राओं में यूनानी नाम लिखे जाते थे:

ईरानियाई/ इण्डिक काल[संपादित करें]

कुशान कार्नेलियाई मुहर, जिसमें ईरानियाई देवता आड्शो (ΑΘϷΟ यूनानी लिपि में मुद्रा लेख लिखे हैं) जिसमें बायीं ओर त्रिरत्न चिह्न एवं दायीं ओर कनिष्क का कुलचिह्न है। ये देवता एक प्याला लिये हुए हैं।

मुद्राओं पर बैक्ट्रियाई भाषा आने के साथ-साथ ही उन पर यूनानी देवताओं का स्थान ईरानियाई एवं इण्डिक(हिन्दू) देवताओं ने ले लिया:

बहुत कम किन्तु कुछ बौद्ध देवताओं का अंकन किया गया:

इनके अलावा कुछ हिन्दू देवताओं के भी अंकन पाये जाते हैं:

  • ΟΗϷΟ (oesho, शिव)। हाल की शोध से अनुमान लगाया जा रहा है कि oesho संभवतः अवस्तन वायु होंगे, जिन्हें शिव से मिला लिया गया।[15][16]

कनिष्क एवं बौद्ध धर्म[संपादित करें]

कनिष्क प्रथम की स्वर्ण मुद्रा (१२०ई.), जिसमें गौतम बुद्ध को दर्शाया गया है।
आगे: कनिष्क खड़े हुए.., कुषाण कोट एवं लंबे जूते पहने, कंधे पर पंख जुड़े हुए हैं, अपने बाएं हाथ में मानक धारण करे हुए वेदी पर आहूति देते हुए। यूनानी लिपि में कुशाण भाषा का मुद्रालेखन (जिसमें कुशाण Ϸ "श" अक्षर प्रयुक्त है): ϷΑΟΝΑΝΟϷΑΟ ΚΑΝΗϷΚΙ ΚΟϷΑΝΟ ("शाओनानोशाओ कनिश्की कोशानो "): "राजाओं का राजा, कनिष्क कुशाण "।
पीछे: यूनानी शैली में खड़े हुए बुद्ध, दाएं हाथ में अभय मुद्रा एवं बाएं हाथ में अपनी भूषा का छोर पकड़े हुए। यूनानी लिपि में : ΒΟΔΔΟ "बोद्दो", बुद्ध के लिये लिखा है। दाईं ओर कनिष्क का चिह्न: तमघा

कनिष्क बौद्ध धर्म में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित है, क्योंकि वह न केवल बौद्ध धर्म में विश्वास रखता था वरन् उसकी शिक्षाओं के प्रचार एवं प्रसार को भी बहुत प्रोत्साहन दिया। इसका उदाहरण है कि उसने कश्मीर में चतुर्थ बौद्ध सन्गीति का आयोजन करवाया था, जिसकी अध्यक्षता वसुमित्र एवं अश्वघोष द्वारा की गयी थी। इसी परिषद में बौद्ध धर्म दो मतों में विभाजित हो गये – हीनयान एवं महायान। इसी समय बुद्ध का २२ भौतिक चिह्नों वाला चित्र भी बनाया गया था।

कनिष्क के शासन का तृतीय वर्ष बाल बोधिसत्त्व को समर्पित रहा था।

उसने यूनानी-बौद्ध कला की प्रतिनिधित्व वाली गांधार कला को भी उतना ही प्रोत्साहन दिया जितना हिन्दू कला के प्रतिनिधित्व वाली मथुरा कला को दिया। कनिष्क ने निजी रूप से बौद्ध तथा फारसी दोनों की ही विशेषताओ अपना लिया था, किन्तु उसका कुछ झुकाव बौद्ध धर्म की ओर अधिक था। कुषाण साम्राज्य की विभिन्न पुस्तको मे वर्णित बौद्ध शिक्षाओं एवं प्रार्थना शैली के माध्यम से कनिष्क के बौद्ध धर्म के प्रति झुकाव का पता चलता है।

कनिष्क का बौद्ध स्थापत्यकला को सबसे बड़ा योगदान पेशावर का बौद्ध स्तूप था। जिन पुरातत्त्ववेत्ताओं ने इसके आधार को १९०८-१९०९ में खोजा, उन्होंने बताया कि इस स्तूप का व्यास २८६ फ़ीट (८७ मी.) था। चीनी तीर्थयात्री ज़ुआनजांग ने लिखा है कि इस स्तूप की ऊंचाई ६०० से ७०० (चीनी) "फ़ीट" (= लगभग १८०-२१० मी या ५९१-६८९ फ़ीट) थी तथा ये बहुमूल्य रत्नों से जड़ा हुआ था।[17] निश्चित रूप से ये विशाल अत्यन्त सुन्दर इमारत प्राचीन काल के आश्चर्यों में रही होगी।

कनिष्क को बौद्ध शास्त्री अश्वघोष के काफ़ी निकट बताया जाता है। यही बाद के वर्षों में उनके धार्मिक परामर्शदाता रहे थे। कनिष्क के राजतिलक के समय एवं जब कुशाण वंश की प्रथम सुवर्ण मुद्रा ढाली गयी थी, तब राजा के आध्यात्मिक सहालकार युज़ असफ़ थे।

बौद्ध मुद्राएं[संपादित करें]

कनिष्क काल की बौद्ध मुद्राएं अन्य मुद्राओं की तुलना में काफ़ी कम थीं (लगभग सभी मुद्राओं का मात्र १प्रतिशत)। कई मुद्राओं में कनिष्क को आगे तथा बुद्ध को यूनानी शैली में पीछे खड़े हुए दिखाया गया था। कुछ मुद्राओं में शाक्यमुनि बुद्ध एवं मैत्रेय को भी दिखाया गया है। कनिष्क के सभी सिक्कों की तरह; इनके आकार व रूपांकन मोटे-मोटे, खुरदरे तथा अनुपात बिगड़े हुए थे। बुद्ध की आकृति हल्की सी बिगड़ी हुई, बड़े आकार के कानों वाली तथा दोनों पैर कनिष्क की भांति ही फ़ैलाये हुए, यूनानी शैली की नकल में दिखाये गए हैं।

कनिष्क के बौद्ध सिक्के तीन प्रकार के मिले हैं:

खड़े हुए बुद्ध[संपादित करें]

कनिष्क के सिक्कों वाली बुद्ध की आकृति जैसे बुद्ध की कांस्य प्रतिमा, गांधार, ३-४थी शताब्दी। बुद्ध ने यूनानी शैली में अपनी भूषा का बायां कोना हाथ में पकड़ा हुआ है, तथा अभय मुद्रा में हैं।
कनिष्क के सिक्कों में बुद्ध का चित्रण (जिसमें ΒΟΔΔΟ "बोद्दो" लिख है)

कुषाण के बुद्ध अंकन वाले मात्र छः स्वर्ण सिक्के हैं, इनमें से भी छठा एक प्राचीन आभूषण का मध्य भाग में जड़ा हुआ भाग था, जिसमें कनिष्क बुद्ध अंकित हैं, तथा हृदयाकार माणिक्यों के गोले से सुसज्जित है। कनिष्क प्रथम काल के सभी ऐसे सिक्के स्वर्ण में ढले हुए हैं; एवं दो भिन्न मूल्यवर्गों में मिले हैं: एक दीनार लगभग ८ ग्राम की, मोटे तौर पर रोमन ऑरस से मिलता हुआ, एवं एक चौथाई दीनार, लगभग २ ग्राम का, जो लगभग एक ओबोल के बराबर का है।)

बुद्ध को भिक्षुकों जैसे चोगे अन्तर्वसक, उत्तरसंग पहने, तथा ओवरकोट जैसी सन्घाटी पहने दिखाया गया है।

उनके कान अत्यधिक बड़े व लम्बे दिखाये गए है, जो किसी मुद्रा में प्रतीकात्मक रूप से अतिश्योक्त हैं, किन्तु बाद के कई गांधार की मूर्तियों (३-४थी शताब्दी ई.) में भी दिखाया गया है। उनके शिखास्थान पर एक बालों का जूड़ा भि बना हुआ है। ऐसा गांधार के बाद के बहुत से शिल्पों में देखने को मिलता है।

इस प्रकार कह सकते हैं कि, बुद्ध के सिक्कों में उनका रूप उच्च रूप से प्रतीकात्मक बनाया गया है, जो कि पहले के गांधार शिल्पाकृतियों से अलग है। ये गांधार शिल्प बुद्ध अपेक्षाकृत अधिक प्राकृतिक दिखाई देते थे। कई मुद्राओं में इनके मूंछ भी दिखाई गई है। इनके दाएं हाथ की हथेली पर चक्र का चिह्न है एवं भवों के बीच उर्ण(तिलक) चिह्न होता है। बुद्ध द्वारा धारण किया गया पूरा चोगा गांधार रूप से अधिक मिलता है, बजाय मथुरा रूप से।

अन्य धार्मिक संबंध[संपादित करें]

उपाधि[संपादित करें]

कनिष्क ने देवपुत्र शाहने शाही की उपाधि धारण की थी। भारत आने से पहले कुषाण ‘बैक्ट्रिया’ में शासन करते थे, जो कि उत्तरी अफगानिस्तान एवं दक्षिणी उजबेगकिस्तान एवं दक्षिणी तजाकिस्तान में स्थित था और यूनानी एवं ईरानी संस्कृति का एक केन्द्र था।[4] कुषाण हिन्द-ईरानी समूह की भाषा बोलते थे और वे मुख्य रूप से मिहिर (सूर्य) के उपासक थे। सूर्य का एक पर्यायवाची ‘मिहिर’ है, जिसका अर्थ है, वह जो धरती को जल से सींचता है, समुद्रों से आर्द्रता खींचकर बादल बनाता है।

मुद्राओं में अंकन[संपादित करें]

सम्राट कनिष्क के सिक्कों पर,यूनानी भाषा और लिपि में मीरों (मिहिर) को उत्कीर्ण कराया था, जिससे संकेत मिलता है कि ईरान का सौर-पूजक सम्प्रदाय भारत में प्रवेश आया था। ईरान में मिथ्र या मिहिर पूजा भी अत्यन्त लोकप्रिय थी। भारतीय मुद्रा पर सूर्य का अंकन किसी शासक द्वारा प्रथम दृष्टया कनिष्क द्वारा हुआ था।[18] पुरुषपुर (वर्तमान पेशावर) के पास शाह जी की ढेरी नामक स्थान है, जहां कनिष्क द्वारा निमित एक बौद्ध स्तूप के अवशेषों से एक सन्दूक मिला जिसे कनिष्कास कास्केट बताया गया है। इस पर सम्राट कनिष्क के साथ सूर्य एवं चन्द्र के चित्र का अंकन हुआ है। इस सन्दूक पर कनिष्क के द्वारा चलाये गए शक संवत्सर का संवत का प्रथम वर्ष अंकित है।

प्रतिमाएं[संपादित करें]

मथुरा के सग्रहांलय में लाल बलुआपत्थर की अनेक सूर्य प्रतिमांए सहेजी हुई है, जो कुषाण काल (प्रथम शताब्दी से तीसरी शताब्दी ई) की है। इनमें भगवान सूर्य चार घोड़ों के रथ पर आरूढ़ हैं। वे सिंहासन पर बैठने की मुद्रा में पैर लटकाये हुये हैं। उनके दोनों हाथों में कमल पुष्प है और उनके दोनों कन्धों पर पक्षी गरूड़ जैसे दो पंख लगे हुए हैं। इन्हीं पंखों को कुछ इतिहासवेत्ताओं द्वारा ज्वाला भी बताया गया है। सूर्यदेव औदिच्यवेश अर्थात् ईरानी पगड़ी, कामदानी के चोगें और सलवार के नीचे ऊंचे ईरानी जूते पहने हैं। उनकी वेशभूषा बहुत कुछ, मथुरा से ही प्राप्त, सम्राट कनिष्क की बिना सिर की प्रतिमा जैसी है। भारत में ये सूर्य की सबसे प्राचीन मूर्तियां है। कुषाण काल से पूर्व की सूर्य की कोई प्रतिमा नहीं मिली है, अतः ये माना जाता है कि भारत में उन्होंने ही सूर्य प्रतिमा की उपासना आरम्भ की और उन्होंने ही सूर्य की वेशभूषा भी वैसी दी थी जैसी वो स्वयं धारण करते थे।[18]

भारत में प्रथम सूर्य मन्दिर की स्थापना मूलस्थान (वर्तमान मुल्तान) में कुषाणों द्वारा की गयी थी।[19][20][21] पुरातत्वेत्ता ए. कनिंघम का मानना है कि मुल्तान का सबसे पहला नाम कश्यपपुर (कासाप्पुर) था और उसका यह नाम कुषाणों से सम्बन्धित होने के कारण पड़ा। भविष्य पुराण, साम्व एवं वराह पुराण के अनुसार भगवान कृष्ण के पुत्र साम्ब ने मुल्तान में पहले सूर्य मन्दिर की स्थापना की थी। किन्तु भारतीय ब्राह्मणों ने वहाँ पुरोहित का कार्य करने से मना कर दिया, तब नारद मुनि की सलाह पर साम्ब ने संकलदीप (सिन्ध) से मग ब्राह्मणों को बुलवाया, जिन्होंने वहाँ पुरोहित का कार्य किया।[18] भविष्य पुराण के अनुसार मग ब्राह्मण जरसस्त के वंशज है, जिसके पिता स्वयं सूर्य थे और माता नक्षुभा मिहिर गोत्र की थी। मग ब्राह्मणों के आदि पूर्वज जरसस्त का नाम, छठी शताब्दी ई.पू. में, ईरान में पारसी धर्म की स्थापना करने वाले जुरथुस्त से साम्य रखता है। प्रसिद्ध इतिहासकार डी.आर. भण्डारकर (1911 ई0) के अनुसार मग ब्राह्मणों ने सम्राट कनिष्क के समय में ही, सूर्य एवं अग्नि के उपासक पुरोहितों के रूप में, भारत में प्रवेश किया।[21] उसके बाद ही उन्होंने कासाप्पुर (मुल्तान) में पहली सूर्य प्रतिमा की स्थापना की। इतिहासकार वी. ए. स्मिथ के अनुसार कनिष्क ढीले-ढाले रूप के ज़र्थुस्थ धर्म को मानता था, वह मिहिर (सूर्य) और अतर (अग्नि) के अतरिक्त अन्य भारतीय एवं यूनानी देवताओ उपासक था। अपने जीवन काल के अंतिम दिनों में बौद्ध धर्म में कथित धर्मान्तरण के बाद भी वह अपने पुराने देवताओ का सम्मान करता रहा।[18]

भारतीय क्षेत्र[संपादित करें]

दक्षिणी राजस्थान में स्थित प्राचीन भिनमाल नगर में सूर्य देवता के प्रसिद्ध जगस्वामी मन्दिर का निर्माण कश्मीर के राजा कनक (सम्राट कनिष्क) ने कराया था। मारवाड़ एवं उत्तरी गुजरात कनिष्क के साम्राज्य का हिस्सा रहे थे। भिनमाल के जगस्वामी मन्दिर के अतिरिक्त कनिष्क ने वहाँ ‘करडा’ नामक झील का निर्माण भी कराया था। भिनमाल से सात कोस पूर्व ने कनकावती नामक नगर बसाने का श्रेय भी कनिष्क को दिया जाता है। कहते है कि भिनमाल के वर्तमान निवासी देवड़ा/देवरा लोग एवं श्रीमाली ब्राहमण कनक के साथ ही काश्मीर से आए थे। देवड़ा/देवरा, लोगों का यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि उन्होंने जगस्वामी सूर्य मन्दिर बनाया था। राजा कनक से सम्बन्धित होने के कारण उन्हें सम्राट कनिष्क की देवपुत्र उपाधि से जोड़ना गलत नहीं होगा।

कनिष्क ने भारत में कार्तिकेय की पूजा को आरम्भ किया और उसे विशेष बढ़ावा दिया। उसने कार्तिकेय और उसके अन्य नामों-विशाख, महासेना, और स्कन्द का अंकन भी अपने सिक्कों पर करवाया। कनिष्क के बेटे सम्राट हुविष्क का चित्रण उसके सिक्को पर महासेन 'कार्तिकेय' के रूप में किया गया हैं। आधुनिक पंचाग में सूर्य षष्ठी एवं कार्तिकेय जयन्ती एक ही दिन पड़ती है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Bracey, Robert (2017). "The Date of Kanishka since 1960 (Indian Historical Review, 2017, 44(1), 1-41)". Indian Historical Review (अंग्रेज़ी में). 44: 1–41.
  2. B.N. Mukhjerjee, Shāh-jī-kī-ḍherī Casket Inscription, The British Museum Quarterly, Vol. 28, No. 1/2 (Summer, 1964), pp. 39–46
  3. Bracey, Robert (2017). "The Date of Kanishka since 1960 (Indian Historical Review, 2017, 44(1), 1-41)". Indian Historical Review (अंग्रेज़ी में). 44: 1–41.
  4. इन्स्टिजी Archived 2017-02-15 at the वेबैक मशीन पर कुषाण।अभिगमन तिथि: १५ फ़रवरी, २०१७
  5. Dahiya, Poonam Dalal (2017-09-15). ANCIENT AND MEDIEVAL INDIA EBOOK (अंग्रेज़ी में). McGraw-Hill Education. पपृ॰ 278–281. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-5260-673-3.
  6. फाल्क (२००१), पृ. 121–136. फाल्क (२००४), पृ. 167–176.
  7. Gnoli (2002), pp. 84–90.
  8. Sims-Williams and Cribb (1995/6), pp.75–142.
  9. Sims-Williams (1998), pp. 79–83.
  10. Sims-Williams and Cribb (1995/6), p. 80.
  11. "The Rabatak inscription claims that in the year 1 Kanishka I's authority was proclaimed in India, in all the satrapies and in different cities like Koonadeano (Kundina), Ozeno (Ujjain), Kozambo (Kausambi), Zagedo (Saketa), Palabotro (Pataliputra) and Ziri-Tambo (Janjgir-Champa). These cities lay to the east and south of Mathura, up to which locality Wima had already carried his victorious arm. Therefore they must have been captured or subdued by Kanishka I himself." Ancient Indian Inscriptions, S. R. Goyal, p. 93. See also the analysis of Sims-Williams and J. Cribb, who had a central role in the decipherment: "A new Bactrian inscription of Kanishka the Great", in Silk Road Art and Archaeology No. 4, 1995–1996. Also see, Mukherjee, B. N. "The Great Kushanan Testament", Indian Museum Bulletin.
  12. Chavannes, (1906), p. 232 and note 3.
  13. Hill (2009), p. 11.
  14. वुड (२००२), illus. p. 39.
  15. Sims-Williams (online) Encyclopedia Iranica.
  16. H. Humbach, 1975, p.402-408. K. Tanabe, 1997, p.277, M. Carter, 1995, p. 152. J. Cribb, 1997, p. 40. References cited in De l'Indus à l'Oxus.
  17. डॉब्बिन्स (१९७१)
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  19. मुल्तान सिटी - इम्पीरियल गैज़ेटियर ऑफ़ इम्पीरियल गॅज़ेटियर ऑफ़ इण्डिया, संस.१८, पृ.३५।(अंग्रेज़ी)
  20. अक्षय के मजूमदार, हिन्दू हिस्ट्री, पृ/५४। रूपा एण्ड कं.।(अंग्रेज़ी)
  21. उमर वैश्य, बनवारी लाल. "इस्लामी देशों में भी होती थीसूर्य पूजा". पांचजन्य.कॉम. मूल से 25 अक्तूबर 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि १६ फ़रवरी, २०१७. |access-date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)

पुस्तक[संपादित करें]

  1. भगवत शरण उपाध्याय, भारतीय संस्कृति के स्त्रोत, नई दिल्ली, 1991,
  2. रेखा चतुर्वेदी भारत में सूर्य पूजा-सरयू पार के विशेष सन्दर्भ में (लेख) जनइतिहास शोध पत्रिका, खंड-1 मेरठ, 2006
  3. ए. कनिंघम आरकेलोजिकल सर्वे रिपोर्ट, 1864
  4. के. सी.ओझा, दी हिस्ट्री ऑफ फारेन रूल इन ऐन्शिऐन्ट इण्डिया, इलाहाबाद, 1968
  5. डी. आर. भण्डारकर, फारेन एलीमेण्ट इन इण्डियन पापुलेशन (लेख), इण्डियन ऐन्टिक्वैरी खण्ड X L 1911
  6. जे.एम. कैम्पबैल, भिनमाल (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896
  7. विन्सेंट ए. स्मिथ, दी ऑक्सफोर्ड हिस्टरी ऑफ इंडिया, चोथा संस्करण, दिल्ली, 1990

अन्य सन्दर्भ[संपादित करें]

संदर्भ ग्रन्थ[संपादित करें]

  • स्टेनकोनो : कारपस इंस्क्रिप्शनं इंडिकेरम्‌, भाग 2;
  • रैप्सन : कैंब्रिज हिस्ट्री ऑव इंडिया, भाग 1;
  • मजूमदार ऐंड पुसालकर : दि एज ऑव इंपीरियल यूनिटी;
  • नीलकंठ शास्त्री : ए कांप्रिहेंसिव हिस्ट्री ऑव इंडिया;
  • गिशमान : वेगराम;
  • स्मिथ : अर्ली हिस्ट्री ऑव इंडिया;
  • बै. पुरी : कुषाणकालीन भारत (अप्रकाशित)