"मध्यकालीन भारत": अवतरणों में अंतर

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'''मध्ययुगीन भारत''', "प्राचीन भारत" और "आधुनिक भारत" के बीच [[भारतीय उपमहाद्वीप]] के इतिहास की लंबी अवधि को दर्शाता है। अवधि की परिभाषाओं में व्यापक रूप से भिन्नता है, और आंशिक रूप से इस कारण से, कई इतिहासकार अब इस शब्द को प्रयोग करने से बचते है।<ref>Keay, 155 "... the history of what used to be called 'medieval' India ..."; Harle, 9 "I have eschewed the term 'medieval', meaningless in the Indian context, for the years from c. 950 to c. 1300 ..."</ref>


अधिकतर प्रयोग होने वाले पहली परिभाषा में यूरोपीय मध्य युग की तरह इस काल को छठी शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक माना जाता है। इसे दो अवधियों में विभाजित किया जा सकता है: 'प्रारंभिक मध्ययुगीन काल' 6वीं<ref>{{citation|last=Stein|first=Burton|author-link=Burton Stein|editor-last=Arnold|editor-first=D.|date=27 April 2010|title=A History of India|edition=2nd|publisher=Wiley-Blackwell|place=Oxford|isbn=978-1-4051-9509-6|page=105|url=https://books.google.co.uk/books?id=QY4zdTDwMAQC&pg=PA105|access-date=16 फ़रवरी 2018|archive-url=https://web.archive.org/web/20180612142424/https://books.google.co.uk/books?id=QY4zdTDwMAQC&pg=PA105|archive-date=12 जून 2018|url-status=live}}</ref> से लेकर 13वीं शताब्दी तक और 'गत मध्यकालीन काल' जो 13वीं से 16वीं शताब्दी तक चली, और 1526 में [[मुगल साम्राज्य]] की शुरुआत के साथ समाप्त हो गई। 16वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक चले मुगल काल को अक्सर "प्रारंभिक आधुनिक काल" के रूप में जाना जाता है,<ref name="exeter">{{cite web|title=India before the British: The Mughal Empire and its Rivals, 1526-1857|website=[[University of Exeter]]|url=http://humanities.exeter.ac.uk/history/modules/hih1407/|access-date=16 फ़रवरी 2018|archive-url=https://web.archive.org/web/20180204085339/http://humanities.exeter.ac.uk/history/modules/hih1407|archive-date=4 फ़रवरी 2018|url-status=live}}</ref> लेकिन कभी-कभी इसे "गत मध्ययुगीन" काल में भी शामिल कर लिया जाता है।
अधिकतर प्रयोग होने वाले पहली परिभाषा में यूरोपीय मध्य युग की तरह इस काल को छठी शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक माना जाता है। इसे दो अवधियों में विभाजित किया जा सकता है: 'प्रारंभिक मध्ययुगीन काल' 6वीं<ref>{{citation|last=Stein|first=Burton|author-link=Burton Stein|editor-last=Arnold|editor-first=D.|date=27 April 2010|title=A History of India|edition=2nd|publisher=Wiley-Blackwell|place=Oxford|isbn=978-1-4051-9509-6|page=105|url=https://books.google.co.uk/books?id=QY4zdTDwMAQC&pg=PA105|access-date=16 फ़रवरी 2018|archive-url=https://web.archive.org/web/20180612142424/https://books.google.co.uk/books?id=QY4zdTDwMAQC&pg=PA105|archive-date=12 जून 2018|url-status=live}}</ref> से लेकर 13वीं शताब्दी तक और 'गत मध्यकालीन काल' जो 13वीं से 16वीं शताब्दी तक चली, और 1526 में [[मुगल साम्राज्य]] की शुरुआत के साथ समाप्त हो गई। 16वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक चले मुगल काल को अक्सर "प्रारंभिक आधुनिक काल" के रूप में जाना जाता है,<ref name="exeter">{{cite web|title=India before the British: The Mughal Empire and its Rivals, 1526-1857|website=[[University of Exeter]]|url=http://humanities.exeter.ac.uk/history/modules/hih1407/|access-date=16 फ़रवरी 2018|archive-url=https://web.archive.org/web/20180204085339/http://humanities.exeter.ac.uk/history/modules/hih1407|archive-date=4 फ़रवरी 2018|url-status=live}}</ref> लेकिन कभी-कभी इसे "गत मध्ययुगीन" काल में भी शामिल कर लिया जाता है।

18:10, 3 फ़रवरी 2021 का अवतरण

यह विषय निम्न पर आधारित एक श्रृंखला का हिस्सा हैं:
भारत का इतिहास
भारत का इतिहास
Carved decoration of the gateway torana to the Great Sanchi Stupa, 3rd century BCE.

मध्ययुगीन भारत, "प्राचीन भारत" और "आधुनिक भारत" के बीच भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की लंबी अवधि को दर्शाता है। अवधि की परिभाषाओं में व्यापक रूप से भिन्नता है, और आंशिक रूप से इस कारण से, कई इतिहासकार अब इस शब्द को प्रयोग करने से बचते है।[1]

अधिकतर प्रयोग होने वाले पहली परिभाषा में यूरोपीय मध्य युग की तरह इस काल को छठी शताब्दी से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक माना जाता है। इसे दो अवधियों में विभाजित किया जा सकता है: 'प्रारंभिक मध्ययुगीन काल' 6वीं[2] से लेकर 13वीं शताब्दी तक और 'गत मध्यकालीन काल' जो 13वीं से 16वीं शताब्दी तक चली, और 1526 में मुगल साम्राज्य की शुरुआत के साथ समाप्त हो गई। 16वीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक चले मुगल काल को अक्सर "प्रारंभिक आधुनिक काल" के रूप में जाना जाता है,[3] लेकिन कभी-कभी इसे "गत मध्ययुगीन" काल में भी शामिल कर लिया जाता है।

एक वैकल्पिक परिभाषा में, जिसे हाल के लेखकों के प्रयोग में देखा जा सकता है, मध्यकालीन काल की शुरुआत को आगे बढ़ा कर 10वीं या 12वीं सदी बताया जाता है। और इस काल के अंत को 18वीं शताब्दी तक धकेल दिया गया है, अत: इस अवधि को प्रभावी रूप से मुस्लिम वर्चस्व (उत्तर भारत) से ब्रिटिश भारत की शुरुआत के बीच का माना जा सकता है। अत: 8वीं शताब्दी से 11वीं शताब्दी के अवधि को "प्रारंभिक मध्ययुगीन काल" कहा जायेगा।[4]

प्रारंभिक मध्यकालीन युग (8वीं से 11वीं शताब्दी)

मध्यकाल के प्रारम्भ को लेकर इतिहासकारों के बीच मतभेद जहाँ कुछ इतिहासकार इसे गुप्त राजवंश के पतन के बाद ५-छटी शताब्दी के बाद से शुरू हुआ मानते है जबकि कुछ इसे ७-८वीं शताब्दी से शुरू हुआ मानते है। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद और दिल्ली सल्तनत के शुरू होने के बीच भारतवर्ष कई छोटे राज्य में बटा हुआ था। हलांकि कई साम्राज्यों ने इसे पुनर्गठित करने की कोशिश की लेकिन ज्यादा समय के लिये नहीं कर सके। इस दौर में सबसे महत्वपूर्ण गुर्जर-प्रतिहार, पाल और राष्ट्रकूट साम्राज्य के बीच त्रिपक्षीय संघर्ष और भारत पर मुस्लिम आक्रमण का शुरूआत रहा। उस दौर के कुछ राजवंश जिन्होनें शासन किया।

गत मध्यकालीन युग (12वीं से 18वीं शताब्दी)

पश्चिम से मुस्लिम आक्रमणों में तेजी

फ़ारस पर अरबी तथा तुर्कों के विजय के बाद ११वीं सदी में इन शासकों का ध्यान भारत की ओर गया। इसके पहले छिटपुट रूप से कुछ मुस्लिम शासक उत्तर भारत के कुछ इलाकों को जीत या राज कर चुके थे पर इनका प्रभुत्व तथा शासनकाल अधिक नहीं रहा था। हालाँकि अरब सागर के मार्ग से अरब के लोग दक्षिण भारत के कई इलाकों खासकर केरल से अपना व्यापार संबंध इससे कई सदी पहले से बनाए हुए थे पर इससे भी इन दोनों प्रदेशों के बीच सांस्कृतिक आदान प्रदान बहुत कम ही हुआ था।

दिल्ली सल्तनत

१२वीं सदी के अंत तक भारत पर तुर्क, अफ़गान तथा फ़ारसी आक्रमण बहुत तेज हो गए थे। मुहम्मद गौरी के बारंबार आक्रमण ने दिल्ली सल्तनत को हिला कर रख दिया। ११९२ (1192) इस्वी में तराईन के युद्ध में दिल्ली का शासक पृथ्वीराज चौहान पराजित हुआ और इसके बाद दिल्ली की सत्ता पर पश्चिमी आक्रांताओं का कब्जा हो गया। हालाँकि मुहम्मद गौरी पृथ्वीराज को हराकर वापस लौट गया पर उसके ग़ुलामों (दास) ने दिल्ली की सत्ता पर राज किया और आगे यही दिल्ली सल्तनत की नींव साबित हुई।

ग़ुलाम वंश

ग़ुलाम वंश की स्थापना के साथ ही भारत में इस्लामी शासन आरंभ हो गया था। कुतुबुद्दीन ऐबक (१२०६ - १२१०) (1206-1210) इस वंश का प्रथम शासक था। इसके बाद इल्तुतमिश (१२११-१२३६) (1211-1236), रजिया सुल्तान (१२३६-१२४०) (1236-1240) तथा अन्य कई शासकों के बाद उल्लेखनीय रूप से गयासुद्दीन बलबन (१२५०-१२९०) सुल्तान बने। इल्तुतमिश के समय छिटपुट मंगोल आक्रमण भी हुए। पर भारत पर कभी भी मंगोलों का बड़ा आक्रमण नहीं हुआ और मंगोल (फ़ारसी में मुग़ल) ईरान, तुर्की और मध्यपूर्व तथा मध्य एशिया तक ही सीमित रहे।

ख़िलजी वंश

ख़िलजी वंश को दिल्ली सल्तनत के विस्तार की तरह देखा जाता है। जलालुद्दीन फीरोज़ खिलजी, जो कि इस वंश का संस्थापक था वस्तुतः बलबन की मृत्यु के बाद सेनापति नियुक्त किया गया था। पर उसने सुल्तान कैकूबाद की हत्या कर दी और खुद सुल्तान बन बैठा। इसके बाद उसका दामाद अल्लाउद्दीन खिलजी शासक बना। अल्लाउद्दीन ने न सिर्फ अपने साम्राज्य का विस्तार किया बल्कि उत्तर पश्चिम से होने वाले मंगोल आक्रमणों का भी डटकर सामना किया। इसके बाद का साम्राज्य मुगल बादशाह के अधीन चला गया

तुग़लक़ वंश

गयासुद्दीन तुग़लक़, [[मुहम्मद बिन तुग़लक़, फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ आदि इस वंश के प्रमुख शासक थे। फ़िरोज के उत्तराधिकारी, तैमूर लंग के आक्रमण का सामना नहीं कर सके और तुग़लक़ वंश का पतन १४०० इस्वी तक हो गया था। हालांकि तुग़लक़ व शासक अब भी राज करते थे पर उनकी शक्ति क्षीण हो चुकी थी। मुहम्मद बिन तुग़लक़ वो पहला मुस्लिम शासक था जिसने दक्षिण भारत में साम्राज्य विस्तार के लिए प्रयत्न किया। इसके कारण उसने अपनी राजधानी दौलताबाद कर दी।

सैयद वंश

सैयद वंश की स्थापना 1586 इस्वी में खिज्र खाँ के द्वारा हुई थी। यह वंश अधिक समय तक सत्ता में नहीं रह सका और इसके बाद लोदी वंश सत्ता में आया।

लोदी वंश

लोदी वंश की स्थापना १४५१ में तथा पतन बाबर के आक्रमण से १५२६ में हुआ। इब्राहीम लोदी इसका आखिरी शासक था।

विजयनगर साम्राज्य का उदय

विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हरिहर तथा बुक्का नामक दो भाइयों ने की थी। यह १५वीं सदी में अपने चरम पर पहुँच गया था जब कृष्णा नदी के दक्षिण का सम्पूर्ण भूभाग इस साम्राज्य के अन्तर्गत आ गया था। यह उस समय भारत का एकमात्र हिन्दू राज्य था। हालाँकि अलाउद्दीन खिल्जी द्वारा कैद किये जाने के बाद हरिहर तथा बुक्का ने इस्लाम कबूल कर लिया था जिसके बाद उन्हें दक्षिण विजय के लिए भेजा गया था। पर इस अभियान में सफलता न मिल पाने के कारण उन्होंने विद्यारण्य नामक संत के प्रभाव में उन्होंने वापस हिन्दू धर्म अपना लिया था। उस समय विजयनगर के शत्रुओं में बहमनी, अहमदनगर, होयसल बीजापुर तथा गोलकुंडा के राज्य थे।

मंगोल आक्रमण

दिल्ली सल्तनत का पतन

लोदी शासको के कई गलत निर्णयों के कारण प्रजा का उनके प्रति असंतुष्टी तेजी से फैलने लगी। फिरोज शाह तुगलक ने स्थायी सेना समाप्त करके सामन्ती सेना का गठन किया। सैनिकों के वेतन समाप्त कर के ग्रामीण क्षेत्रों में भूमि अनुदान दिया गया। जिससे सैना भी लाभ पाकर शिथिल पड़ने लगी। प्रशासनिक दुर्बलता, आर्थिक संकट, न्याय व्यवस्था में लचीलापन, जजिया व अन्य कर लगाने जैसे कई कारण थे। जो लोदी वंश के पतन के कारण बने।

मुग़ल वंश

पंद्रहवीं सदी के शुरुआत में मध्य एशिया में फ़रगना के निर्वासित राजकुमार जाहिरुद्दीन (बाबर) काबुल में आ बसे। वहा वे फारसी साम्राज्य का काबुल प्रान्त का अधिपति नियुक्त थे। दिल्ली के निर्बल शासक और दौलत खान (पंजाब का अधिपति) के बुलावे में बाबर ने दिल्ली की ओर कुच किया जहाँ उसका इब्राहीम लोदी के साथ युद्ध हुआ। जिसमें लोदी की हार हुई और इसके साथ ही भारत में मुगल वंश की नींव पड़ गई जिसने अगले 300 वर्षों तक एकछत्र राज्य किया। दिल्ली में स्थापित होने के बाद बाबर को राजपूत विद्रोह का सामना करना पड़ा। राजपूत शासक राणा सांगा के साथ खानवा का युद्ध हुआ जिसमें बाबर फिर विजयी हुआ। बाबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र हूमाय़ूं शासक बना। उसे दक्षिण बिहार के सरगना शेरशाह सूरी ने हराकर सत्ताच्युत कर दिया, लेकिन शेरशाह की मृत्यु के बाद उसने दिल्ली की सत्ता पर वापस अधिकार कर लिया।

हुमायुँ का पुत्र अकबर एक महान शासक साबित हुआ और उसने साम्राज्य विस्तार के अतिरिक्त धार्मिक सहिष्णुता तथा उदार राजनीति का परिचय दिया। वह एक लोकप्रिय शासक भी था। उसके बाद जहाँगीर तथा शाहजहाँ सम्राट बने। शाहजहाँ ने ताजमहल का निर्माण करवाया जो आज भी मध्यकालीन दुनिया के सात आश्चर्यों में गिना जाता है। इसके बाद औरंगजेब आया। उसके शासनकाल में कई धार्मिक व सैनिक विद्रोह हुए। हालाँकि वो सभी विद्रोहों पर काबू पाने में विफल रहा पर सन् १७०७ में उसकी मृत्यु का साथ ही साम्राज्य का विघटन आरंभ हो गया था। एक तरफ मराठा तो दूसरी तरफ अंग्रेजों के आक्रमण ने दिल्ली के शाह को नाममात्र का शाह बनाकर छोडा।

मराठों का उत्कर्ष

जिस समय बहमनी सल्तनत का पतन हो रहा था उस समय मुगल साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष पर था - विशाल साम्राज्य, बगावतों से दूर और विलासिता में डूबा हुआ। उस समय शाहजहाँ का शासन था और शहज़ादा औरंगजेब उसका दक्कन का सूबेदार था। बहमनी के सबसे शक्तिशाली परवर्ती राज्यों में बीजापुर तथा गोलकुण्डा के राज्य थे। बीजापुर के कई सूबेदारों में से एक थे शाहजी। शाहजी एक मराठा थे और पुणे और उसके दक्षिण के इलाकों के सूबेदार। शाहजी की दूसरी पत्नी जीजाबाई से उनके पुत्र थे शिवाजी। शिवाजी बाल्यकाल से ही पिता की उपेक्षा के शिकार थे क्योंकि शाहजी अपनी पहली पत्नी पर अधिक आसक्त थे। शिवाजी ने बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह को खबर भिजवाई कि अगर वे उन्हें वहां का किला दे देंगे तो शिवाजी उन्हें तत्कालीन किलेदार के मुकाबिले अधिक पैसे देंगे। सुल्तान ने अपने दरबारियों की सलाह पर - जिन्हें शिवाजी ने पहले ही घूस देकर अपने पक्ष में कर लिया था - किला शिवाजी को दे दिया। इसके बाद शिवाजी ने एक के बाद एक कई किलों पर अधिकार कर लिया। बीजापुर के सुल्तान को शिवाजी की बढ़ती प्रभुता देखकर गुस्सा आया और उन्होंने शाहजी को अपने पुत्र को नियंत्रण पर रखने को कहा। शाहजी की बात पर शिवाजी ने कोई ध्यान नहीं दिया और मावलों की सहायता से अपने अधिकार क्षेत्र में बढ़ोतरी करते गए। आदिल शाह ने अफ़ज़ल खाँ को शिवाजी को ग़िरफ़्तार करने के लिए भेजा। शिवाजी ने अफ़ज़ल की समझते हुए उसकी सेना का वध कर दिया। इस के बाद शिवाजी के पिता शाहजी को गिरफ्तार कर लिया गया। शिवाजी ने अपने पिता को छुड़ा लिया और समझौते के मुताबिक बीजापुर के खिलाफ़ आक्रमण बन्द कर दिया।

सन् 1760 का भारत

आदिलशाह की मृत्यु के बाद बीजापुर में अराजकता छा गई और स्थिति को देखकर औरंगजेब ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया। शिवाजी ने तो उस समय तक औरंगजेब के साथ संधि वार्ता जारी रखी थी पर इस मौके पर उन्होंने कुछ मुगल किलों पर आक्रमण किया और उन्हें लूट लिया। औरंगजेब इसी बीच शाहजहाँ की बीमारी के बारे में पता चलने के कारण आगरा चला गया और वहाँ वो शाहजहाँ को कैद कर खुद शाह बन गया। औरंगजेब के बादशाह बनने के बाद उसकी शक्ति काफ़ी बढ़ गई और शिवाजी ने औरंगजेब से मुगल किलों को लूटने के सम्बन्ध में माफ़ी मांगी। अब शिवाजी ने बीजापुर के खिलाफ़ आक्रमण तेज कर दिया। अब शाहजी ने बीजापुर के सुल्तान की अपने पुत्र को सम्हालने के निवेदन पर अपनी असमर्थता ज़ाहिर की और शिवाजी एक-एक कर कुछ ४० किलों के मालिक बन गए। उन्होंने सूरत को दो बार लूटा और वहाँ मौजूद डच और अंग्रेज कोठियों से भी धन वसूला। वापस आते समय उन्होंने मुगल सेना को भी हराया। मुगलों से भी उनका संघर्ष बढ़ता गया और शिवाजी की शक्ति कोंकण और दक्षिण-पश्चिम महाराष्ट्र में सुदृढ़ में स्थापित हो गई।

उत्तर में उत्तराधिकार सम्बंधी विवाद के खत्म होते और सिक्खों को शांत करने के बाद औरंगजेब दक्षिण की ओर आया। उसने शाइस्ता खाँ को शिवाजी के खिलाफ भेजा पर शिवाजी किसी तरह भाग निकलने में सफल रहे। लेकिन एक युद्ध में मुगल सेना ने मराठों को कगार पर पहुँचा दिया। स्थिति की नाजुकता को समझते हुए शिवाजी ने मुगलों से समझौता कर लिया और औरंगजेब ने शिवाजी और उनके पुत्र शम्भाजी को मनसबदारी देने का वचन देकर आगरा में अपने दरबार में आमंत्रित किया। आगरा पहुँचकर अपने ५००० हजार की मनसबदारी से शिवाजी खुश नहीं हुए और आरंगजेब को भरे दरबार में भला-बुरा कहा। औरंगजेब ने इस अपमान का बदला लेने के लिए शिवाजी को शम्भाजी के साथ नजरबन्द कर दिया। लेकिन दोनों पहरेदारों को धोखा में डालकर फूलों की टोकरी में छुपकर भागने में सफल रहे। बनारस, गया और पुरी होते हुए शिवाजी वापस पुणे पहुँच गए। इससे मराठों में जोश आ गया और इसी बाच शाहजी का मृत्यु १६७४ में हो गई और शिवाजी ने अपने आप को राजा घोषित कर दिया।

अपने जीवन के आखिरी दिनों में शिवाजी ने अपना ध्यान दक्षिण की ओर लगाया और मैसूर को अपने साम्राज्य में मिला लिया। १६८० में उनकी मृत्यु के समय तक मराठा साम्राज्य एक स्थापित राज के रूप में उभर चुका था और कृष्णा से कावेरी नदी के बीच के इलाकों में उनका वर्चस्व स्थापित हो चुका था। शिवाजी के बाद उनके पुत्र सम्भाजी (शम्भाजी) ने मराठों का नेतृत्व किया। आरंभ में तो वे सफल रहे पर बाद में उन्हें मुगलों से हार का मुँह देखना पड़ा। औरंगजेब ने उन्हें पकड़कर कैद कर दिया। कैद में औरंगजेब ने शम्भाजी से मुगल दरबार के उन बागियों का नाम पता करने की कोशिश की जो मुगलों के खिलाफ विश्वासघात कर रहे थे। इस कारण उन्हें यातनाए दी गई और अन्त में तंग आकर उन्होंने औरंगजेब को भला बुरा कहा और संदेश भिजवाया कि वे औरंगजेब की बेटी से शादी करना चाहते हैं। उनकी भाषा और संदेश से क्षुब्ध होकर औरंगजेब ने शम्भाजी को टुकड़े टुकड़े काटकर उनके मांस को कुत्तों को खिलाने का आदेश दे दिया।

शम्भाजी की मृत्यु के बाद शिवाजी के दूसरे पुत्र राजाराम ने गद्दी सम्हाली। उनके समय मराठों का उत्तराधिकार विवाद गहरा गया पर औरंगजेब भी बूढ़ा हो चला था इस लिए मराठों को सफलता मिलने लगी और वे उत्तर में नर्मदा नदी तक पहुँच गए। बीजापुर का पतन हो गया था और मराठों ने बीजापुर के मुगल क्षेत्रों पर भी अधिकार कर लिया। औरंगजेब की मृत्यु के बाद तो मुगल साम्राज्य कमजोर होता चला गया और उत्तराधिकार विवाद के बावजूद मराठे शक्तिशाली होते चले गए। उत्तराधिकार विवाद के चलते मराठाओं की शक्ति पेशवाओं (प्रधानमंत्री) के हाथ में आ गई और पेशवाओं के अन्दर मराठा शक्ति में और भी विकार हुआ और वे दिल्ली तक पहुँच गए। १७६१ में नादिर शाह के सेनापति अहमद शाह अब्दाली ने मराठाओं को पानीपत की तीसरी लड़ाई में हरा दिया। इसके बाद मराठा शक्ति का ह्रास होता गया। उत्तर में सिक्खों का उदय होता गया और दक्षिण में मैसूर स्वायत्त होता गया। अंग्रेजों ने भी इस कमजोर राजनैतिक स्थिति को देखकर अपना प्रभुत्व स्थापित करना आरंभ कर दिया। बंगाल और अवध पर उनका नियंत्रण १७७० तक स्थापित हो गया था और अब उनकी निगाह मैसूर पर टिक गई थी।

यूरोपीय शक्तियों का प्रादुर्भाव

भारत की समृद्धि को देखकर पश्चिमी देशों में भारत के साथ व्यापार करने की इच्छा पहले से थी। यूरोपीय नाविकों द्वारा सामुद्रिक मार्गों का पता लगाना इन्हीं लालसाओं का परिणाम था। तेरहवीं सदी के आसपास मुसलमानों का अधिपत्य भूमध्य सागर और उसके पूरब के क्षेत्रों पर हो गया था और इस कारण यूरोपी देशों को भारतीय माल की आपूर्ति ठप पड़ गई। उस पर भी इटली के वेनिस नगर में चुंगी देना उनको रास नहीं आता था। कोलंबस भारत का पता लगाने अमरीका पहुँच गया और सन् 1487-88 में पेडरा द कोविल्हम नाम का एक पुर्तगाली नाविक पहली बार भारत के तट पर मालाबार पहुँचा। भारत पहुचने वालों में पुर्तगाली सबसे पहले थे इसके बाद डच आए और डचों ने पुर्तगालियों से कई लड़ाईयाँ लड़ीं। भारत के अलावा श्रीलंका में भी डचों ने पुर्तगालियों को खडेड़ दिया। पर डचों का मुख्य आकर्षण भारत न होकर दक्षिण पूर्व एशिया के देश थे। अतः उन्हें अंग्रेजों ने पराजित किया जो मुख्यतः भारत से अधिकार करना चाहते थे। आरंभ में तो इन यूरोपीय देशों का मुख्य काम व्यापार ही था पर भारत की राजनैतिक स्थिति को देखकर उन्होंने यहाँ साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक नीतियाँ अपनानी आरंभ की।

पुर्तगाली

22 मई 1498 को पुर्तगाल का वास्को डी गामा भारत के तट पर आया जिसके बाद भारत आने का रास्ता तय हुआ। उसने कालीकट के राजा से व्यापार का अधिकार प्राप्त कर लिया पर वहाँ सालों से स्थापित अरबी व्यापारियों ने उसका विरोध किया। 1499 में वास्को-डी-गामा स्वदेश लौट गया और उसके वापस पहुँचने के बाद ही लोगों को भारत के सामुद्रिक मार्ग की जानकारी मिली।

सन् 1500 में पुर्तगालियों ने कोचीन के पास अपनी कोठी बनाई। शासक सामुरी (जमोरिन) से उसने कोठी की सुरक्षा का भी इंतजाम करवा लिया क्योंकि अरब व्यापारी उसके ख़िलाफ़ थे। इसके बाद कालीकट और कन्ननोर में भी पुर्तगालियों ने कोठियाँ बनाई। उस समय तक पुर्तगाली भारत में अकेली यूरोपी व्यापारिक शक्ति थी। उन्हें बस अरबों के विरोध का सामना करना पड़ता था। सन् 1506 में पुर्तगालियों ने गोवा पर अपना अधिकार कर लिया। ये घटना जमोरिन को पसन्द नहीं आई और वो पुर्तगालियों के खिलाफ हो गया। पुर्तगालियों के भारतीय क्षेत्र का पहला वायसऱय डी-अल्मीडा था। उसके बाद [[अल्बूकर्क](1509)] पुर्तगालियों का वायसराय नियुक्त हुआ। उसने 1510 में कालीकट के शासक जमोरिन का महल लूट लिया।

पुर्तगाली इसके बाद व्यापारी से ज्यादे साम्राज्यवादी नज़र आने लगे। वे पूरब के तट पर अपनी स्थिति सुदृढ़ करना चाहते थे। अल्बूकर्क के मरने के बाद पुर्तगाली और क्षेत्रों पर अधिकार करते गए। सन् 1571 में बीजापुर, अहमदनगर और कालीकट के शासकों ने मिलकर पुर्तगालियों को निकालने की चेष्टा की पर वे सफल नहीं हुए। 1579 में वे मद्रास के निकच थोमें, बंगाल में हुगली और चटगाँव में अधिकार करने में सफल रहे। 1580 में मुगल बादशाह अकबर के दरबार में पुर्तगालियों ने पहला ईसाई मिशन भेजा। वे अकबर को ईसाई धर्म में दीक्षित करना चाहते थे पर कई बार अपने नुमाइन्दों को भेजने के बाद भी वो सफल नहीं रहे। पर पुर्तगाली भारत के विशाल क्षेत्रों पर अधिकार नहीं कर पाए थे। उधर स्पेन के साथ पुर्तगाल का युद्ध और पुर्तगालियों द्वारा ईसाई धर्म के अन्धाधुन्ध और कट्टर प्रचार के के कारण वे स्थानीय शासकों के शत्रु बन गए और 1612 में कुछ मुगल जहाज को लूटने के बाद उन्हें भारतीय प्रदेशों से हाथ धोना पड़ा।

डच

पुर्तगालियों की समृद्धि देख कर डच भी भारत और श्रीलंका की ओर आकर्षित हुए। सर्वप्रथम 1598 में डचों का पहला जहाज अफ्रीका और जावा के रास्ते भारत पहुँचा। 1602 में प्रथम डच कम्पनी की स्थापना की गई जो भारत से व्यापार करने के लिए बनाई गई थी। इस समय तक अंग्रेज और फ्रांसिसी लोग भी भारत में पहुँच चुके थे पर नाविक दृष्टि से डच इनसे वरीय थे। सन् 1602 में डचों ने अम्बोयना पर पुर्तगालियों को हरा कर अधिकार कर लिया। इसके बाद 1612 में श्रीलंका में भी डचों ने पुर्गालियों को खदेड़ दिया। उन्होंने पुलीकट (1610), सूरत (1616), चिनसुरा (1653), क़ासिम बाज़ार, बड़ानगर, पटना, बालेश्वर (उड़ीसा), नागापट्टनम् (1659) और कोचीन (1653) में अपनी कोठियाँ स्थापित कर लीं। पर, एक तो डचों का मुख्य उद्येश्य भारत से व्यापार न करके पूर्वी एशिया के देशों में अपने व्यापार के लिए कड़ी के रूप में स्थापित करना था और दूसरे अंग्रेजों ओर फ्रांसिसियों ने उन्हें यहाँ और यूरोप दोनों जगह युद्धों में हरा दिया। इस कारण डचों का प्रभुत्व बहुत दिनों तक भारत में नहीं रह पाया था।

अंग्रेज़ और फ्रांसिसी

इंग्लैंड के नाविको को भारत का पता कोई 1578 इस्वी तक नहीं लग पाया था। 1578 में सर फ्रांसिस ड्रेक नामक एक अंग्रेज़ नाविक ने लिस्बन जाने वाले एक जहाज को लूट लिया। इस जहाज़ से उसे भारत जाने वाले रास्ते का मानचित्र मिला। 31 मई सन् 1600 को कुछ व्यापारियों ने इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ को ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना का अधिकार पत्र दिया। उन्हें पूरब के देशों के साथ व्यापार की अनुमति मिल गई। 1601-03 के दौरान कम्पनी ने सुमात्रा में वेण्टम नामक स्थान पर अपनी एक कोठी खोली। हेक्टर नाम का एक अंग्रेज़ नाविक सर्वप्रथम सूरत पहुँचा। वहाँ आकर वो आगरा गया और जहाँगीर के दरबार में अपनी एक कोठी खोलने की विनती की। जहाँगीर के दरबार में पुर्तगालियों की धाक पहले से थी। उस समय तक मुगलों से पुर्तगालियों की कोई लड़ाई नहीं हुई थी इस कारण पुर्तगालियों की मुगलों से मित्रता बनी हुई थी। हॉकिन्स को वापस लौट जाना पड़ा। पुर्तगालियों को अंग्रेजों ने 1612 में सूरत में पराजित कर दिया और सर टॉमस रो को इंग्लैंड के शासक जेम्स प्रथम ने अपना राजदूत बनाकर जहाँगीर के दरबार में भेजा। वहाँ उसे सूरत में अंग्रेजों को कोठी खोलने की अनुमति मिली।

इसके बाद बालासोर (बालेश्वर), हरिहरपुर, मद्रास (1633), हुगली (1651) और बंबई (1688) में अंग्रेज कोठियाँ स्थापित की गईं। पर अंग्रेजों की बढ़ती उपस्थिति और उनके द्वारा अपने सिक्के चलाने से मुगल नाराज हुए। उन्हें हुगली, कासिम बाज़ार, पटना, मछलीपट्नम्, विशाखा पत्तनम और बम्बई से निकाल दिया गया। 1690 में अंग्रेजों ने मुगल बादशाह औरंगजेब से क्षमा याचना की और अर्थदण्ड का भुगतानकर नई कोठियाँ खोलने और किलेबंदी करने की आज्ञा प्राप्त करने में सफल रहे।

इसी समय सन् 1611 में भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से एक फ्रांसीसी कंपनी की स्थापना की गई थी। फ्रांसिसियों ने 1668 में सूरत, 1669 में मछलीपट्नम् तथा 1674 में पाण्डिचेरी में अपनी कोठियाँ खोल लीं। आरंभ में फ्रांसिसयों को भी डचों से उलझना पड़ा पर बाद में उन्हें सफलता मिली और कई जगहों पर वे प्रतिष्ठित हो गए। पर बाद में उन्हें अंग्रेजों ने निकाल दिया।

सन्दर्भ

  1. Keay, 155 "... the history of what used to be called 'medieval' India ..."; Harle, 9 "I have eschewed the term 'medieval', meaningless in the Indian context, for the years from c. 950 to c. 1300 ..."
  2. Stein, Burton (27 April 2010), Arnold, D. (संपा॰), A History of India (2nd संस्करण), Oxford: Wiley-Blackwell, पृ॰ 105, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-4051-9509-6, मूल से 12 जून 2018 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 16 फ़रवरी 2018
  3. "India before the British: The Mughal Empire and its Rivals, 1526-1857". University of Exeter. मूल से 4 फ़रवरी 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 फ़रवरी 2018.
  4. Ahmed, xviii

बाहरी कड़ियाँ