बाबर

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
ज़हीरुद्दीन मुहम्मद
बाबर
मुगल वंश का सस्थापक
मुग़ल साम्राज्य के पहले शहंशाह
शासनावधि20 अप्रैल 1526 – 26 दिसंबर 1530
पूर्ववर्तीइब्राहिम लोदी (बतौर सुल्तान-ए-हिन्द)
उत्तरवर्तीहुमायूँ
जन्म14 फ़रवरी 1483
फ़रग़ना वादी
निधन26 दिसम्बर 1530 (उम्र 47 वर्ष)
आगरा
समाधि
संतानहुमायूँ
कामरान मिर्ज़ा
गुलबदन बेगम
घरानातैमूरी राजवंश
पिताउमर शेख़ मिर्ज़ा
माताक़ुतलुग़ निगार ख़ानम

ज़हीरुद्दीन मुहम्मद उर्फ बाबर मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक और प्रथम शासक था। इनका जन्म मध्य एशिया के वर्तमान उज़्बेकिस्तान में हुआ था। वह तैमूर और चंगेज़ ख़ान के वंशज थे। मुबईयान नामक पद्य शैली का जन्मदाता बाबर को ही माना जाता है। 1504 ई॰ में काबुल तथा 1507 ई॰ में कन्धार को जीता तथा बादशाह की उपाधि धारण की। 1519 से 1526 ई॰ तक भारत पर इसने 5 बार आक्रमण किया। 1526 में इन्होंने पानीपत के मैदान में दिल्ली सल्तनत के अंतिम सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी। बाबर ने 1527 में ख़ानवा, 1528 में चंदेरी तथा 1529 में घग्गर जीतकर अपने राज्य को सुरक्षित किया।

आरम्भिक जीवन

उमर शेख़ मिर्ज़ा, 1875-1900

बाबर का जन्म फ़रग़ना वादी के अन्दीझ़ान नामक शहर में हुआ था जो अब उज्बेकिस्तान में है। वो अपने पिता उमर शेख़ मिर्ज़ा (द्वितीय), जो फरगना घाटी के शासक थे; जिनको उसने एक ठिगने कद के तगड़े जिस्म, मांसल चेहरे तथा गोल दाढ़ी वाले व्यक्ति के रूप में वर्णित किया है, तथा माता कुतलुग निग़ार ख़ानम का ज्येष्ठ पुत्र था। हालाँकि बाबर का मूल मंगोलिया के बर्लास कबीले से सम्बन्धित था पर उस कबीले के लोगों पर फारसी तथा तुर्क जनजीवन का बहुत असर रहा था, वे इस्लाम में परिवर्तित हुए तथा उन्होने तुर्किस्तान को अपना वासस्थान बनाया। बाबर की मातृभाषा चग़ताई भाषा थी पर फ़ारसी, जो उस समय उस स्थान की आम बोलचाल की भाषा थी, में भी वो प्रवीण था। उसने चगताई में बाबरनामा के नाम से अपनी जीवनी लिखी।

मंगोल जाति (जिसे फ़ारसी में मुगल कहते थे) का होने के बावजूद उसकी जनता और अनुचर तुर्क तथा फ़ारसी लोग थे। उसकी सेना में तुर्क, फारसी, पश्तो के अलावा बर्लास तथा मध्य एशियाई कबीले के लोग भी थे।

कहा जाता है कि बाबर बहुत ही तगड़ा और शक्तिशाली था। ऐसा भी कहा जाता है कि केवल व्यायाम के लिए वो दो लोगों को अपने दोनो कन्धों पर लादकर उन्नयन ढाल पर दौड़ लेता था। लोककथाओं के अनुसार बाबर अपने राह में आने वाली सभी नदियों को तैर कर पार करता था। उसने गंगा को दो बार तैर कर पार किया।[1]

नाम

बाबर के चचेरे भाई मुहम्मद हैदर ने लिखा है कि उस समय, जब चुगताई लोग असभ्य तथा असंस्कृत थे तब उन्हे ज़हीरुद्दीन मुहम्मद का उच्चारण कठिन लगा। इस कारण उन्होंने इनका नाम बाबर रख दिया।

सैन्य जीवन

सन् 1494 में 12वर्ष की आयु में ही उसे फ़रगना घाटी के शासक का पद सौंपा गया। उसके चाचाओं ने इस स्थिति का फ़ायदा उठाया और बाबर को गद्दी से हटा दिया। कई सालों तक उसने निर्वासन में जीवन बिताया जब उसके साथ कुछ किसान और उसके सम्बंधी ही थे। 1496 में उसने उज़्बेक शहर समरकंद पर आक्रमण किया और 7 महीनों के बाद उसे जीत भी लिया। इसी बीच, जब वह समरकंद पर आक्रमण कर रहा था तब, उसके एक सैनिक सरगना ने फ़रगना पर अपना अधिपत्य जमा लिया। जब बाबर इसपर वापस अधिकार करने फ़रगना आ रहा था तो उसकी सेना ने समरकंद में उसका साथ छोड़ दिया जिसके फलस्वरूप समरकंद और फ़रगना दोनों उसके हाथों से चले गए। सन् 1501 में उसने समरकंद पर पुनः अधिकार कर लिया पर जल्द ही उसे उज़्बेक ख़ान मुहम्मद शैबानी ने हरा दिया और इस तरह समरकंद, जो उसके जीवन की एक बड़ी ख्वाहिश थी, उसके हाथों से फिर वापस निकल गया।

फरगना से अपने चन्द वफ़ादार सैनिकों के साथ भागने के बाद अगले तीन सालों तक उसने अपनी सेना बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया। इस क्रम में उसने बड़ी मात्रा में बदख़्शान प्रांत के ताज़िकों को अपनी सेना में भर्ती किया। सन् 1504 में हिन्दूकुश की बर्फ़ीली चोटियों को पार करके उसने काबुल पर अपना नियंत्रण स्थापित किया। नए साम्राज्य के मिलने से उसने अपनी किस्मत के सितारे खुलने के सपने देखे। कुछ दिनों के बाद उसने हेरात के एक तैमूरवंशी हुसैन बैकरह, जो कि उसका दूर का रिश्तेदार भी था, के साथ मुहम्मद शायबानी के विरुद्ध सहयोग की संधि की। पर 1506 में हुसैन की मृत्यु के कारण ऐसा नहीं हो पाया और उसने हेरात पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। पर दो महीनों के भीतर ही, साधनों के अभाव में उसे हेरात छोड़ना पड़ा। अपनी जीवनी में उसने हेरात को "बुद्धिजीवियों से भरे शहर" के रूप में वर्णित किया है। वहाँ पर उसे युईगूर कवि मीर अली शाह नवाई की रचनाओं के बारे में पता चला जो चागताई भाषा को साहित्य की भाषा बनाने के पक्ष में थे। शायद बाबर को अपनी जीवनी चागताई भाषा में लिखने की प्रेरणा उन्हीं से मिली होगी।

काबुल लौटने के दो साल के भीतर ही एक और सरगना ने उसके ख़िलाफ़ विद्रोह किया और उसे काबुल से भागना पड़ा। जल्द ही उसने काबुल पर पुनः अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। इधर सन् 1510 में फ़ारस के शाह इस्माईल प्रथम, जो सफ़ीवी वंश का शासक था, ने मुहम्मद शायबानी को हराकर उसकी हत्या कर डाली। इस स्थिति को देखकर बाबर ने हेरात पर पुनः नियंत्रण स्थापित किया। इसके बाद उसने शाह इस्माईल प्रथम के साथ मध्य एशिया पर मिलकर अधिपत्य जमाने के लिए एक समझौता किया। शाह इस्माईल की मदद के बदले में उसने साफ़वियों की श्रेष्ठता स्वीकार की तथा खुद एवं अपने अनुयायियों को साफ़वियों की प्रभुता के अधीन समझा। इसके उत्तर में शाह इस्माईल ने बाबर को उसकी बहन ख़ानज़दा से मिलाया जिसे शायबानी, जिसे शाह इस्माईल ने हाल ही में हरा कर मार डाला था, ने कैद में रख़ा हुआ था और उससे विवाह करने की बलात कोशिश कर रहा था। शाह ने बाबर को ऐश-ओ-आराम तथा सैन्य हितों के लिये पूरी सहायता दी जिसका ज़बाब बाबर ने अपने को शिया परम्परा में ढाल कर दिया। उसने शिया मुसलमानों के अनुरूप वस्त्र पहनना आरंभ किया। शाह इस्माईल के शासन काल में फ़ारस शिया मुसलमानों का गढ़ बन गया और वो अपने आप को सातवें शिया इमाम मूसा अल क़ाज़िम का वंशज मानता था। वहाँ सिक्के शाह के नाम में ढलते थे तथा मस्ज़िद में खुतबे शाह के नाम से पढ़े जाते थे हालाँकि क़ाबुल में सिक्के और खुतबे बाबर के नाम से ही थे। बाबर समरकंद का शासन शाह इस्माईल के सहयोगी की हैसियत से चलाता था।

शाह की मदद से बाबर ने बुखारा पर चढ़ाई की। वहाँ पर बाबर, एक तैमूरवंशी होने के कारण, लोगों की नज़र में उज़्बेकों से मुक्तिदाता के रूप में देखा गया और गाँव के गाँव उसको बधाई देने के लिए खाली हो गए। इसके बाद फारस के शाह की मदद को अनावश्यक समझकर उसने शाह की सहायता लेनी बंद कर दी। अक्टूबर 1511 में उसने समरकंद पर चढ़ाई की और एक बार फिर उसे अपने अधीन कर लिया। वहाँ भी उसका स्वागत हुआ और एक बार फिर गाँव के गाँव उसको बधाई देने के लिए खाली हो गए। वहाँ सुन्नी मुलसमानों के बीच वह शिया वस्त्रों में एकदम अलग लग रहा था। हालाँकि उसका शिया हुलिया सिर्फ़ शाह इस्माईल के प्रति साम्यता को दर्शाने के लिए थी, उसने अपना शिया स्वरूप बनाए रखा। यद्यपि उसने फारस के शाह को खुश करने हेतु सुन्नियों का नरसंहार नहीं किया पर उसने शिया के प्रति आस्था भी नहीं छोड़ी जिसके कारण जनता में उसके प्रति भारी अनास्था की भावना फैल गई। इसके फलस्वरूप, 8 महीनों के बाद, उज्बेकों ने समरकंद पर फिर से अधिकार कर लिया।

उत्तर भारत पर चढ़ाई

दिल्ली सल्तनत पर ख़िलज़ी राजवंश के पतन के बाद अराजकता की स्थिति बनी हुई थी। तैमूरलंग के आक्रमण के बाद सैय्यदों ने स्थिति का फ़ायदा उठाकर दिल्ली की सत्ता पर अधिपत्य कायम कर लिया। तैमुर लंग के द्वारा पंजाब का शासक बनाए जाने के बाद खिज्र खान ने इस वंश की स्थापना की थी। बाद में लोदी राजवंश के अफ़ग़ानों ने सैय्यदों को हरा कर सत्ता हथिया ली थी।

पानीपत का प्रथम युद्ध (21 अप्रैल,1526)

बाबर को लगता था कि दिल्ली की सल्तनत पर फिर से तैमूरवंशियों का शासन होना चाहिए। एक तैमूरवंशी होने के कारण वो दिल्ली सल्तनत पर कब्ज़ा करना चाहता था। उसने सुल्तान इब्राहिम लोदी को अपनी इच्छा से अवगत कराया (स्पष्टीकरण चाहिए)। इब्राहिम लोदी के जबाब नहीं आने पर उसने छोटे-छोटे आक्रमण करने आरंभ कर दिए। सबसे पहले उसने कंधार पर कब्ज़ा किया। इधर शाह इस्माईल को तुर्कों के हाथों भारी हार का सामना करना पड़ा। इस युद्ध के बाद शाह इस्माईल तथा बाबर, दोनों ने बारूदी हथियारों की सैन्य महत्ता समझते हुए इसका उपयोग अपनी सेना में आरंभ किया। इसके बाद उसने इब्राहिम लोदी पर आक्रमण किया। पानीपत में लड़ी गई इस लड़ाई को पानीपत का प्रथम युद्ध के नाम से जानते हैं। यह युद्ध बाबरनामा के अनुसार 21 अप्रैल 1526 को लड़ा गया था। इसमें बाबर की सेना इब्राहिम लोदी की सेना के सामने बहुत छोटी थी। पर सेना में संगठन के अभाव में इब्राहिम लोदी यह युद्ध बाबर से हार गया। इस युद्ध में बाबर ने तुलुगमा पद्धति का प्रयोग किया था।[2] इसके बाद दिल्ली की सत्ता पर बाबर का अधिकार हो गया और उसने सन १५२६ में मुगलवंश की नींव डाली।

राजपूत

राणा सांगा के नेतृत्व में राजपूत काफी संगठित तथा शक्तिशाली हो चुके थे। राजपूतों ने एक बड़ा-सा क्षेत्र स्वतंत्र कर लिया था और वे दिल्ली की सत्ता पर काबिज़ होना चाहते थे। बाबर की सेना राजपूतों की आधी भी नहीं थी। 17 मार्च 1527 में खानवा की लड़ाई राजपूतों तथा बाबर की सेना के बीच लड़ी गई। राजपूतों का जीतना निश्चित लग रहा था पर युद्ध के दौरान राणा सांगा घायल हो गये और घायल अवस्था में उनके साथियो ने उन्हें युद्ध से बाहर कर दिया और एक आसान-सी लग रही जीत उसके हाथों से निकल गई। इसके एक साल के बाद राणा सांगा की 30 जनवरी 1528 को मौत हो गई। इसके बाद बाबर दिल्ली की गद्दी का अविवादित अधिकारी बन गया। आने वाले दिनों में मुगल वंश ने भारत की सत्ता पर 231 सालों तक राज किया।

खानवा का युद्ध

17 मार्च 1527 में मेवाड़ के शासक राणा सांगा और बाबर के मध्य हुआ था। इस युद्ध में राणा सांगा का साथ खास तौर पर मुस्लिम यदुवंशी राजपूत उस वक़्त के मेवात के शासक खानजादा राजा हसन खान मेवाती और इब्राहिम लोदी के भाई मेहमूद लोदी ने दिया था, इस युद्ध में मारवाड़, अम्बर, ग्वालियर, अजमेर, बसीन चंदेरी भी मेवाड़ का साथ दे रहे थे। बाबर ने युद्ध के दौरान अपने सैनिकों के उत्साह को बढ़ाने के लिए शराब पीने और बेचने पर प्रतिबन्ध की घोषणा कर शराब के सभी पात्रों को तुड़वा कर शराब न पीने की कसम ली। उसने मुस्लिमों से तमगा कर न लेने की भी घोषणा की। तमगा एक प्रकार का व्यापारिक कर था, जो राज्य द्वारा लिया जाता था। बाबर 20,0000 मुग़ल सैनिकों को लेकर साँगा से युद्ध करने उतरा था। उसने साँगा की सेना के लोदी सेनापति को प्रलोभन दिया, जिससे वह साँगा को धोखा देकर सेना सहित बाबर से जा मिला। बाबर और साँगा की पहली मुठभेड़ बयाना में और दूसरी खानवा नामक स्थान पर हुई। इस तरह खानवा के युद्ध में भी पानीपत के युद्ध की रणनीति का उपयोग करके बाबर ने राणा साँगा के विरुद्ध एक सफल युद्ध की रणनीति तय की। इसमें राणा सांगा की हार हुई थी और बाबर की विजय हुई थी। यही से बाबर ने भारत में रहने का निश्चय किया इस युद्ध में हीं प्रथम बार बाबर ने धर्म युद्धद नारा दिया इसी युद्ध के बाद बाबर ने गाजी अर्थात दानी की उपाधि ली थी।

चंदेरी पर आक्रमण

मेवाड़ विजय के पश्चात बाबर ने अपने सैनिक अधिकारियों को पूर्व में विद्रोहियों का दमन करने के लिए भेजा क्योंकि पूरब में बंगाल के शासक नुसरत शाह ने अफ़गानों का स्वागत किया था और समर्थन भी प्रदान किया था इससे उत्साहित होकर अफ़गानों ने अनेक स्थानों से मुगलों को निकाल दिया था बाबर को भरोसा था कि उसका अधिकारी अफगान विद्रोहियों का दमन करेंगे अतः उसने चंदेरी पर आक्रमण करने का निश्चिय कर लिया। चंदेरी का राजपूत शासक मेेेेेदिनीराय खंगार खानवा का युद्ध में राणा सांगा की ओर से लड़ा था और अब चंदेरी मैं राजपूत सत्ता का पुनर्गठन हो रहा था चंदेरी पर आक्रमण करने के निश्चय से ज्ञात होता है कि बाबर की दृष्टि में राजपूत संगठन अफगानों की अपेक्षा अधिक गंभीर था अतः वह राजपूत शक्ति को नष्ट करना अधिक आवश्यक समझता था चंदेरी का अपना एक व्यापारिक तथा सैनिक महत्व भी था, वह मालवा तथा राजपूताने में प्रवेश करने के लिए उपयुक्त स्थान था बाबर ने सेना चंदेरी पर आक्रमण करने के लिए भेजी थी उसे राजपूतों ने पराजित कर दिया इससे बाबर ने स्वयं चंदेरी जाने का निश्चय किया क्योंकि यह संभव है कि चंदेरी राजपूत शक्ति का केंद्र बन जाए। उसने चंदेरी के विरुद्ध लड़ने के लिए 21 जनवरी 1528 की तारीख को घोषित किया क्योंकि इस घोषणा से उसे चंदेरी की मुस्लिम जनता का जो बड़ी संख्या में समर्थन प्राप्त होने की आशा थी और जिहाद के द्वारा राजपूतों तथा इन मुस्लिमों का सहयोग रोका जा सकता था उसने मेेेेेदिनीराय खंगार के पास संदेश भेजा कि वह शांति पूर्ण रूप से चंदेरी का समर्पण कर दे तो उसे शमशाबाद की जागीर दी जा सकती है मेेेेेदिनीराय खंगार ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। राजपूतों ने भयंकर युद्ध किया और राजपूती वीरांगनाओं ने जौहर किया लेकिन बाबर के अनुसार उसने तोप खाने की मदद से एक ही घंटे मेंचंदेरी पर अधिकार कर लिया उसने चंदेरी का राज्य मालवा सुल्तान के वंशज अहमद शाह को दे दिया और उसे आदेश दिया कि वह 20 लाख दाम प्रति वर्ष शाही कोष में जमा करें।

घाघरा का युद्ध

बीच में महमूद लोदी बिहार पहुंच गया और उसके नेतृत्व में एक लाख सैनिक एकत्रित हो गए इसके बाद अफ़ग़ानों ने पूर्वी क्षेत्रों पर आक्रमण कर दिया महमूद लोदी चुनार तक आया। ऐसी स्थिति में बाबर ने उनसे युद्ध करने के बाद जनवरी 1529 ईस्वी में आगरा से प्रस्थान किया। अनेक अफगान सरदारों ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली लेकिन मुख्य अफगान सेना जिसे बंगाल के शासक नुसरत शाह का समर्थन प्राप्त था, जो गंडक नदी के पूर्वी तट पर थी। बाबर ने गंगा नदी पार करके घाघरा नदी के पास आफगानों से घमासान युद्ध करके उन्हें पराजित किया। बाबर ने नुसरत शाह से संधि की जिसके अनुसार नुसरत शाह ने अफगान विद्रोहियों को शरण ना देने का वचन दिया। बाबर ने अफगान जलाल खान को अपने अधीन किया जो उस समय बिहार का शासक था, और उसे आदेश दिया कि वह शेर खां को अपना मंत्री रखें।

अन्तिम दिन

कहा जाता है कि अपने पुत्र हुमायूँ के बीमार पड़ने पर उसने अल्लाह से हुमायूँ को स्वस्थ्य करने तथा उसकी बीमारी खुद को दिये जाने की प्रार्थना की थी। इसके बाद बाबर का स्वास्थ्य बिगड़ गया और अंततः वो 1530 में 48 वर्ष की उम्र में मर गया। उसकी इच्छा थी कि उसे काबुल में दफ़नाया जाए पर पहले उसे आगरा में दफ़नाया गया। लगभग नौ वर्षों के बाद हुमायूँ ने उसकी इच्छा पूरी की और उसे काबुल में राजाराम जाट ने दफना दिया।[3][4]

  • बाबर को फरगना का शासन उसकी दादी दौलत बेगम की वजह से मिला
  • बाबर ने 1507 में बादशाह की उपाधि धारण की।
  • बाबर ने तोप खाने का भी उपयोग किया
  • बाबर ने तुलगुम युद्ध प्रणाली पानीपत के प्रथम युद्ध में अपनाई यह प्रणाली उसने उज्बेको से सीखी थी।
  • पानीपत की प्रथम लड़ाई जितने के पीछे का कारण है कि बाबर के पास दो प्रसिद्ध निशाने बाज और तुगलूमा नीति का प्रयोग।

मुग़ल राजाओं का कालक्रम

बाबर का पुत्र हुमायूँ। हुमायूँ का पुत्र अकबर। अकबर का पुत्र जहाँगीर। जहाँगीर का पुत्र शाहजहां। शाहजहाँ का पुत्र औरंगजे़ब।

बहादुर शाह द्वितीयअकबर शाह द्वितीयअली गौहरमुही-उल-मिल्लतअज़ीज़ुद्दीनअहमद शाह बहादुररोशन अख्तर बहादुररफी उद-दौलतरफी उल-दर्जतफर्रुख्शियारजहांदार शाहबहादुर शाह प्रथमऔरंगज़ेबशाह जहाँजहांगीरअकबरहुमायूँइस्लाम शाह सूरीशेर शाह सूरीहुमायूँ

इन्हें भी देखें

बाबर
जन्म: 24 फ़रवरी १४८३ मृत्यु: २६ दिसम्बर १५३०
राजसी उपाधियाँ
पूर्वाधिकारी
कोई नहीं
मुगल सम्राट
१५२६-१५३०
उत्तराधिकारी
हुमायुं

सन्दर्भ

  1. A comprehensive history of medieval IndiaVolume 2 of A comprehensive history of India Archived 2014-06-27 at the वेबैक मशीन, Pran Nath Chopra, B.N. Puri, M.N. Das, Sterling Publishers Pvt. Ltd, 2003, ISBN 978-81-207-2508-9, ... Bold, courageous, energetic and adventurous, he was physically so strong that with one man under each arm, he could run along the rampart of a fort without any difficulty ...
  2. भारतीय इतिहास एवं संस्कृति एन्साइक्लपीडिया, डॉ॰ हुकमचंद जैन एवं एस॰सी॰ विजय, जैन प्रकाशन मंदिर, जयपुर, संस्करण-2008, पृष्ठ-310.
  3. Babar: life and times, Muni Lal, Vikas Publishing House, 1977, ISBN 978-0-7069-0484-0, ... After Humayun had been driven away from Hindustan by Sher Shah Suri, one of Babar's wives, Bibi Mubarika, came to Agra to claim her husband's body and carry it through the passes to Kabul ...
  4. Two studies in early Mughal history, Yusuf Husain Khan, Indian Institute of Advanced Study, 1976, ... wish in his lifetime that his body should be buried in his favourite garden at Kabul, known as Bagh-i-Babur ... Most probably his remains were removed to Kabul in the reign of Sher Shah Suri ...