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ख़ान (उपाधि)

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चित्र:Ogadai Khan.jpg
ओगदाई ख़ान, चंग़ेज़ ख़ान का तीसरा पुत्र

"ख़ान" एक प्राचीन अल्ताई उपाधि है, जो विशेष रूप से तुर्की और मंगोल क़बीलों में शासकों, अत्यंत शक्तिशाली सिपहसालारों और सैन्य नेताओं को दी जाती थी। यह शब्द मंगोल साम्राज्य के प्रसिद्ध शासक चंगेज़ ख़ान से लोकप्रिय हुआ और समय के साथ मध्य एशिया, ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और भारतीय उपमहाद्वीप में फैल गया। जब तुर्की और मंगोल क़बीलों ने इन क्षेत्रों पर कब्जा करना शुरू किया, तो यह उपाधि फ़ारसी, उर्दू, पश्तो और अन्य भाषाओं में भी प्रचलित हो गई। भारत में इस उपाधि का प्रयोग मुसलमान शासकों और सैन्य जनरलों के लिए किया जाता था, जैसे मुघल साम्राज्य के सम्राटों के नामों में यह पाया जाता था। "ख़ागान" शब्द का अर्थ "ख़ानों का ख़ान" या "सर्वोच्च ख़ान" होता है, लेकिन यह भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित नहीं था। महिलाओं के लिए समान उपाधियाँ "ख़ानम" और "ख़ातून" थीं, जिनका अर्थ होता था सम्मानित महिला या प्रमुख महिला। इस प्रकार, "ख़ान" उपाधि का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व विभिन्न क्षेत्रों में गहरे प्रभावों के साथ फैल चुका था।[1]

ख़ान या ख़ाँ (मंगोल: хан, फ़ारसी: ur, पश्तो: خان ,خانانو, बलोची: خان ,خا तुर्की: Kağan) मूल रूप से एक अल्ताई उपाधि है जो शासकों और अत्यंत शक्तिशाली सिपहसालारों को दी जाती थी। यह समय के साथ तुर्की-मंगोल क़बीलों द्वारा पूरे मध्य एशिया में इस्तेमाल होने लगी। जब इस क्षेत्र के सैन्य बलों ने भारतीय उपमहाद्वीप, ईरान, अफ़्ग़ानिस्तान और अन्य क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर के अपने साम्राज्य बनाने शुरू किये तो इसका प्रयोग इन क्षेत्रों की कई भाषाओँ में आ गया, जैसे कि हिन्दी-उर्दू, फ़ारसी, पश्तो, इत्यादि। इसका एक और रूप 'ख़ागान' है जिसका अर्थ है 'ख़ानों का ख़ान' या 'ख़ान-ए-ख़ाना', जो भारत में कभी प्रचलित नहीं हुआ। इसके बराबरी की स्त्रियों की उपाधियाँ ख़ानम और ख़ातून हैं।[2]

साधारणीकरण

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मंगोल ज़माने के आरम्भिक काल में ख़ान का ओहदा बहुत कम लोगों के पास होता था, लेकिन समय के साथ यह सम्राटों-राजाओं द्वारा अधिक खुलकर दिया जाने लगा और साधारण बन गया। यह वही प्रक्रिया है जो ब्रिटिश काल में 'सूबेदार' (यानि 'सूबे या प्रान्त का अध्यक्ष') की उपाधि के साथ देखा गया, जिसमें यह सेना के मध्य-वर्गी फ़ौजियों को दिया जाने लगा। भारतीय उपमहाद्वीप और अफ़्ग़ानिस्तान में यह एक पारिवारिक नाम बन गया, जिस प्रकार 'शाह', 'वज़ीर' और 'सुलतान' जैसे नाम अब पारिवारिक नामों के रूप में मिलते हैं।[3] इसी तरह, वर्तमान काल में किसी भी आदरणीय महिला को फ़ारसी में ख़ानम बुलाया जाता है, मसलन हिन्दी में 'परवीन जी' को फ़ारसी में 'ख़ानम-ए-परवीन' कहना आम है।

खान शब्द 'कागान' अथवा अरबी के 'खाकान' से बना है (जिसका संबंध संभवत: चीनी कुआँ से है) और मुसलमानों में सर्वप्रथम १० वीं शताब्दी ई. में मध्य एशिया के तुर्को के एक वंश इलेकखानों के लिए प्रयुक्त हुआ। १२वीं तथा १३वीं सदी ई. में तुर्क लोग इसका प्रयोग राज्य के सर्वोच्च अधिकारी के लिए किया करते थे। जियाउद्दीन बरनी ने तारीखे-फीरोजशाही में लिखा है, जिस किसी सरखेल के पास दस अच्छे तथा चुने हुए सवार न हों, उसे सरखेल न कहना चाहिए। जिस सिपहसालार के पास उस सरखेल ऐसे न हों जो उसकी आज्ञानुसार अपने परिवार की भी बलि दे दें, सिपहसालार न कहना चाहिए। जिस अमीर के पास प्रबंध करने के लिए दस सिपहसालार न हों उसे 'अमीर' न कहना चाहिए। जिस मलिक के अधीन दस अमीर न हों उस, मलिक को व्यर्थ समझना चाहिए। जिस खान के पास दस मलिक न हों उसे खान नहीं कहा जा सकता। जिस बादशाह के पास दस सहायक तथा विश्वासपात्र खान न हों उसे जहाँदारी (राज्यव्यवस्था) एवं जहाँगीरी (दिग्विजय) का नाम भी न लेना चाहिए। इस प्रकार खान बादशाह के सामंतों को कहा जाता था। मध्य एशिया के मंगोलों के राज्यकाल में सम्राट् को खान तथा चंगेज खाँ के वंशज अन्य शाहजादों को, जो छोटे राज्यों के स्वामी होते थे, सुल्तान कहा जाता था। भारतवर्ष में मुगलों के राज्यकाल में 'खानेखाना' की उपाधि भी दी जाने लगी। बाबर के समय में यह तुर्की बिगलर बेगी का अनुरूप था। सर्वप्रथम बाबर ने दौलत खाँ के पुत्र दिलावर खाँ को खानेखाना की उपाधि प्रदान की थी। इसी प्रकार खानेदौराँ तथा खानेजहाँ की उपाधियाँ भी मुगलों के राज्यकाल में उच्चतम अमीरों एवं सरदारों को प्रदान की जाती थीं।

इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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  1. "Bundelkhand News | Bundelkhand 24x7". Retrieved 2025-03-24.
  2. Kinship in the Altaic world: proceedings of the 48th Permanent International Altaistic Conference, Moscow 10-15 जुलाई 2005, Elena Vladimirovna Boĭkova, R. B. Rybakov, Otto Harrassowitz Verlag, 2006, ISBN 978-3-447-05416-4
  3. Aspects of Altaic civilization III: proceedings of the thirtieth meeting of the Permanent International Altaistic Conference, Indiana University, Bloomington, Indiana, June 19-25, 1987, Denis Sinor, Indiana University, Bloomington. Research Institute for Inner Asian Studies, Indiana University, Research Institute for Inner Asian Studies, 1990, ISBN 978-0-933070-25-7, ... an inflation of the khan titles ...