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भारतीय गणित का इतिहास

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मानव सभ्यता के इतिहास की तरह ही गणित का भी इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। मानव सभ्यता के आरम्भिक काल में ही गणित अथवा गणन विषयक अवधारणा का आरम्भ हो गया होगा, ऐसा दिखायी पड़ता है।

सभी प्राचीन सभ्यताओं में गणित विद्या की पहली अभिव्यक्ति गणना प्रणाली के रूप में प्रगट होती है। अति प्रारंभिक समाजों में संख्यायें रेखाओं के समूह द्वारा प्रदर्शित की जातीं थीं। यद्यपि बाद में, विभिन्न संख्याओं को विशिष्ट संख्यात्मक नामों और चिह्नों द्वारा प्रदर्शित किया जाने लगा, उदाहरण स्वरूप भारत में ऐसा किया गया। रोम जैसे स्थानों में उन्हें वर्णमाला के अक्षरों द्वारा प्रदर्शित किया गया (रोमन संख्यांक देखिये) । यद्यपि आज हम अपनी दशमलव प्रणाली के अभ्यस्त हो चुके हैं, किंतु सभी प्राचीन सभ्यताओं में संख्याएं दशमाधार प्रणाली पर आधारित नहीं थीं। प्राचीन बेबीलोन में 60-आधार वाली संख्या-प्रणाली का प्रचलन था।

भारतीय गणित का इतिहास अत्यन्त प्राचीन और गौरवशाली है। विश्व की प्राचनीतम रचनाओं अर्थात् वैदिक संहिताओं में गणित के मूलभूत विषय जैसे- संख्या, ज्यामितीय आकृति आदि का वर्णन इस सिद्धान्त को पुष्ट करता है। इसके अतिरिक्त हड़प्पाकालीन सभ्यता के अवशेषों में वृत्ताकार व त्रिभुजाकार हवनकुण्डों, विशाल स्नानागार, ईंटों से बने मकान और परिपक्व नगर नियोजन तत्कालीन समाज में गणितशास्त्र के विषयों की उपस्थिति और उसके प्रायोगिक व्यवहार का जीवन्त प्रमाण है। वैदिक काल (ईसा पूर्व 6000 वर्ष लगभग), हड़प्पा काल (ईसा पूर्व 3000 वर्ष लगभग), ब्राह्मण काल (3000-1000 ई. पूर्व) तथा इसके बाद के लगभग 2000 वर्ष पर्यन्त भारतवर्ष की पवित्र भूमि न केवल कला, अपितु विज्ञान के विभिन्न शाखाओं के अविच्छिन्न उन्नति तथा महत्त्वपूर्ण कार्यों का क्षेत्र बना रहा। रामायण (1000-600 ई. पू.), अष्टाध्यायी (700 ई.पू.), सुश्रुत संहिता (600 ई.पू ) तथा बौद्ध व जैन साहित्य (400 ई.पू.) में गणितशास्त्र से संबंधित पर्याप्त सामग्री का उपलब्ध होना गणितशास्त्र की विकास यात्रा के सतत प्रवाह को प्रदर्शित करता है।

गणित के प्रति भारतीय ऋषियों के सम्मान को इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि 'संख्यावान्'अर्थात् गणितशास्त्र के ज्ञाता को ही विद्वान् कहा जाता था-

विद्वान् विपश्चिद् दोषज्ञः संख्यवान् पण्डितो जनः।

ऋग्वेद के शताधिक मन्त्रों में संख्याओं का परोक्ष अथवा अपरोक्ष प्रयोग प्राप्त होता है। इसी प्रकार यजुर्वेद में एक से लेकर परार्ध अर्थात् दस खरब तक की संख्याओं का वर्णन मिलता है और इस क्रम में दश, शत, सहस्र, अयुत, नियुत, प्रयुत, अर्बुद, न्युर्बुद, मध्य, अंत और परार्ध संज्ञा का प्रयोग किया गया है। 'वाजसनेयी संहिता' स्पष्ट रूप से कहती है कि विशेष ज्ञान के लिए नक्षत्रदर्श अर्थात् गणक के पास जाओ-

प्रज्ञानाय नक्षत्रदर्शं यादसे गणकं।

'गणित' शब्द वैदिक काल में अपने इस मूलरूप में प्राप्य नहीं था, परन्तु इसके समानार्थक तथा सव्युत्पत्तिक शब्द गणक, गण और गण्या ऋग्वेद में मिलते हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में नारद द्वारा सनत्कुमार को अधीत ज्ञान का परिचय कराने के प्रसङ्ग में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, व्याकरण, पितृविद्या, राशिविद्या, देवविद्या, निधिविद्या, तर्कशास्त्र, ब्राह्मविद्या, भूतविद्या, छात्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्पविद्या, देवजन विद्या का नाम तो लेते हैं परंतु इसमें 'गणितशास्त्र' का नामोल्लेख नहीं है। हाँ यह अवश्य है कि यहाँ राशिविद्या ही गणितशास्त्र का परिचायक है। परन्तु जब 'गणित' शब्द के सर्वप्रथम प्रयोग व इसकी महत्ता के सन्दर्भ में प्रश्न उठता है तो इसका उत्तर हमें महर्षि लगध प्रणीत याजुष् ज्योतिष के इस मन्त्र में उपलब्ध होता है-

यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वद्वेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्धनिस्थितम्।

शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष व व्याकरण इन छः वेदाङ्गों में किसी न किसी रूप में गणितशास्त्र के सिद्धान्तों के प्रतिपादन अथवा उसके स्वरूप को स्पष्ट करने के सन्दर्भ में निश्चित ही स्तुत्य प्रयास किए गए है। जहाँ शुल्ब सूत्रों में ज्यामिति, त्रिकोणमिति तथा क्षेत्रमिति का प्रयोग हुआ तथा उसके विकास हेतु प्रयत्न हुए, वहीं ज्योतिष वेदाङ्ग ने गणितशास्त्र के सर्वाङ्गीण विकास में महती योगदान दिया।

वेदाङ्ग ज्योतिष के तीनों ही संस्करणों में गणितशास्त्र के कई प्रमुख विषय यथा संख्याओं का उल्लेख, जोड़, घटाव, गुणा, भाग, त्रैराशिक नियमादि का प्रयोग मिलता है। स्पष्ट है कि उस वैदिक काल में गणितशास्त्र नक्षत्रविद्या के अन्तर्गत ही परिगणित होता था। यज्ञ आदि शुभ कर्मों के लिए उचित काल का निर्धारण आवश्यक था और यही कारण है कि उत्तर वैदिक काल अर्थात् ब्राह्मण व आरण्यक ग्रन्थों में इस गणितशास्त्र का और भी विकास हुआ। 500 ई.पू. से 500 ई. के मध्य जैन ग्रन्थों यथा स्थानांगसूत्र, भगवतीसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र में गणित के सन्दर्भों का बाहुल्य है और यही वह समय है जब दाशमिक अंकलेखन प्रणाली, शून्य का आविष्कार, बीजगणित का आविष्कार, अंकगणित का विकास, ज्योतिषशास्त्र का विकास आदि महत्त्वपूर्ण घटनाएं हुईं। इस काल के गणितीय विकास को प्रस्तुत करने के लिए स्थानांग सूत्र ग्रन्थ का यह श्लोक अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है-

परिकम्मं ववहारो रज्जु रासी क्लारावन्ने य।
जावन्तावति वग्गो घनो ततह वग्गवग्गो विकप्पोत।'

अर्थात् परिकर्म, व्यवहार गणित, रज्जु या रेखागणित, राशि (त्रैराशिक), कलासवर्ण, यावत्रावत् वर्ग, समीकरण, घन, वर्ग वर्ग, विकल्प अर्थात् क्रमचय तथा संचय से परिचित थे।

ज्योतिषशास्त्र के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ सूर्यसिद्धान्त का गणितशास्त्र के विकास के क्षेत्र में महती योगदान है। इस ग्रन्थ में ज्या (Sine), उत्क्रमज्या (Versine), कोटिज्या (Cosine) त्रिकोणमितीय फलनों का उल्लेख मिलता है। 500 ई. से 1200 ई. के मध्य गणितशास्त्र का विकास अतुलनीय है यही वह समय है जब आर्यभट, भास्कर (द्वितीय) सदृश विद्वानों ने इस शास्त्र की परम्परा को और भी अधिक सुदृढ़ किया। वर्गमूल, घनमूल व त्रैराशिक नियम विषय सिद्धान्तों को आर्यभट ने कुशलतापूर्वक स्पष्ट किया है। इसी तरह ब्रह्मगुप्त ने अपनी प्रसिद्ध रचना ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त में शून्यपरिकर्म, क्षेत्रमिति के उच्च नियम, बीजगणित तथा अनन्तराशि के नियम बताए हैं। ब्रह्मगुप्त ने ही अनन्त को परिकल्पना की और बताया-  :खोद्धृतमृणं धनंवा तच्छेदम् अर्थात् शून्य से भाग देने पर कोई भी ऋण अथवा धन संख्या अनन्त (तच्छेद) हो जाती है। इस तरह आर्यभट्टकृत आर्यभटीय, ब्रह्मगुप्त कृत ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त, भास्कर प्रथम कृत लघुभास्करीय व महाभास्करीय, श्रीपतिकृत सिद्धान्तशेखर, भास्करद्वितीय कृत सिद्धान्तशिरोमणि, आर्यभटद्वितीय कृत महासिद्धान्त तथा मुंजाल कृत लघुमानस आदि अद्वितीय कृतियों ने ज्योतिषशास्त्र के गणित स्कन्ध की शाखा को पुष्पित और पल्लवित करने की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।

गणितीय परिकर्मों अथवा व्यवहारों के सम्पादन के लिए लेखन सामग्री की आवश्यकता होती थी। ये क्रियाएँ या तो पाटी पर खड़ियां से की जाती थीं अथवा पाटी पर धूल बिछाकर किसी नुकीले कलम से की जाती थीं। इसी कारण से गणितशास्त्र के कुछ अंश 'पाटीगणित' अथवा 'धूलिकर्म' के नाम से जाने जाते थे। गणित का वह भाग जो अज्ञात राशि से सम्बन्ध रखता था, बीजगणित कहा जाता था। गणितशास्त्र की ये समस्त शाखाएँ ज्योतिषशास्त्र के उपकार मात्र के लिए अस्तित्व में आई थी। ज्योतिषशास्त्र की तीन शाखाएँ मानी गई हैं- सिद्धान्त, संहिता और होरा। महर्षि पराशर की विश्वविश्रुत रचना बृहत्पाराशरहोराशास्त्र में गणित के तीन स्कन्धों के विषय में कहा गया है-

त्रिस्कन्ध्ज्योतिषं होरा गणितं संहितेति च।

गणितस्कन्ध में 'त्रुटि' से लेकर 'कल्प' तक की कालगणना, पर्व आयनयन, अब्द विचार, ग्रहगतिनिरूपण, मास गणना, ग्रहों का उदयास्त, वक्रमार्ग, सूर्य व चन्द्रमा के ग्रहण प्रारम्भ एवं अस्त, ग्रहण की दिशा, ग्रहयुति, ग्रहों की कक्षस्थिति, उनका परिमाण, देश-भेद, देशान्तर, पृथिवी का भ्रमण, पृथिवी की दैनिक व वार्षिक गति, धु्रव प्रदेश, अक्षांश, लम्बांश, गुरुत्वाकर्षण, नक्षत्रासंस्थान, भगण चरखण्ड, द्युज्या, चापांश, लग्न, पृथिवी की छाया, पलभा समस्त विषय परिगणित है। उपरोक्त विषय अत्यन्त सूक्ष्म तथा जटिल हैं। इन विषयों की शुद्ध गणना हेतु ही गणितशास्त्र का विकास भारतीय ज्योतिषशास्त्र के ऋषियों, महर्षियों व मनीषियों द्वारा किया गया।

भारत में गणित के इतिहास को मुख्यता ५ कालखंडों में बांटा गया है-

  • १. आदि काल (500 इस्वी पूर्व तक)
  • (क) वैदिक काल (१००० इस्वी पूर्व तक)- शून्य और दशमलव की खोज
  • (ख) उत्तर वैदिक काल (१००० से ५०० इस्वी पूर्व तक) इस युग में गणित का भारत में अधिक विकास हुआ। इसी युग में बोधायन शुल्व सूत्र की खोज हुई जिसे हम आज पाइथागोरस प्रमेय के नाम से जानते है।
  • २. पूर्व मध्य काल – sine, cosine की खोज हुई।
  • ४. उत्तर-मध्य काल (१२०० इस्वी से १८०० इस्वी तक) - नीलकण्ठ ने १५०० में sin r का मान निकालने का सूत्र दिया जिसे हम अब ग्रेगरी श्रेणी के नाम से जानते हैं।

हड़प्पा में दशमलव प्रणाली

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भारत में दशमलव प्रणाली, हड़प्पाकाल में अस्तित्व में थी जैसा कि हड़प्पा के बाटों और मापों के विश्लेषण से पता चलता है। उस काल के 0.05, 0.1, 0.2, 0.5, 1, 2, 5, 10, 20, 50, 100, 200 और 500 के अनुपात वाले बाट पहचान में आये हैं। दशमलव विभाजन वाले पैमाने भी मिले हैं। हड़प्पा के बाट और माप की एक खास बात जिस पर ध्यान आकर्षित होता है, वह है उनकी शुद्धता। एक कांसे की छड़ जिस पर 0.367 इंच की इकाइयों में घाट बने हुए हैं, उस समय की बारीकी की मात्र की मांग की ओर इशारा करता है। ऐसे शुद्ध माप वाले पैमाने नगर आयोजन नियमों के अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए खास तौर पर महत्वपूर्ण थे क्योंकि एक दूसरे को समकोण पर काटती हुई निश्चित चैड़ाई की सड़कें तथा शुद्ध माप की निकास बनाने हेतु और विशेष निर्देशों के अनुसार भवन निर्माण के लिए उनका विशेष महत्व था। शुद्ध माप वाले बाटों की शृंखंलाबद्ध प्रणाली का अस्तित्व हड़प्पा के समाज में व्यापार वाणिज्य में हुए विकास की ओर संकेत करता है।

वैदिक काल में गणितीय गतिविधियां

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वैदिक काल में गणितीय गतिविधियों के अभिलेख वेदों में अधिकतर धार्मिक कर्मकांडों के साथ मिलते हैं। फिर भी, अन्य कई कृषि आधारित प्राचीन सभ्यताओं की तरह यहां भी अंकगणित और ज्यामिति का अध्ययन धर्मनिरपेक्ष क्रियाकलापों से भी प्रेरित था। इस प्रकार कुछ हद तक भारत में प्राचीन गणितीय उन्नतियां वैसे ही विकसित हुईं जैसे मिस्त्र, बेबीलोन और चीन में। भू-वितरण प्रणाली और कृषि कर के आकलन हेतु कृषि क्षेत्र को शुद्ध माप की आवश्यकता थी। जब जमीन का पुनर्वितरण होता था, उनकी चकबंदी होती थी तो भू पैमाइश की समस्या आती ही थी जिसका समाधान जरूरी था और यह सुनिश्चित करने के लिए कि सिंचित और असिंचित जमीन और उर्वरा शक्ति की भिन्नता को ध्यान में रखकर सभी खेतिहरों में जमीन का समतुल्य वितरण हो सके, हर गांव के किसान की मिल्कियत को कई दर्जों में विभाजित किया जाता था ताकि जमीन का आबंटन न्यायपूर्ण हो सके। सारे चक एक ही आकार के हों, यह संभव नहीं था। अतः स्थानीय प्रशासकों को आयातकार या त्रिभुजाकार क्षेत्रों को समतुल्य परिमाण के वर्गाकार क्षेत्रों में परिणत करना पड़ता था या इसी प्रकार के और काम करने पड़ते थे। कर निर्धारण मौसमी या वार्षिक फसल की आय के निश्चित अनुपात पर आधारित था। मगर कई अन्य दशाओं को ध्यान में रखकर उन्हें कम या अधिक किया जा सकता था। इसका अर्थ था कि लगान वसूलने वाले प्रशासकों के लिए ज्यामिति और अंकगणित का ज्ञान जरूरी था। इस प्रकार गणित धर्म निरपेक्ष गतिविधि और कर्मकांड दोनों क्षेत्रों की सेवाओं में उपयोगी था।

अंकगणितीय क्रियायें जैसे योग, घटाना, गुणन, भाग, वर्ग, घन और मूल नारद विष्णु पुराण में वर्णित हैं। इसके प्रणेता वेद व्यास माने जाते हैं जो 1000 ई. पू. हुए थे। ज्यामिति /रेखा गणित/ विद्या के उदाहरण 800 ई. पू. में बौधायन के शुल्व सूत्र में और 600 ई. पू. के आपस्तम्ब सूत्र में मिलते हैं जो वैदिककाल में प्रयुक्त कर्मकाण्डीय बलि वेदी के निर्माण की तकनीक का वर्णन करते हैं। हो सकता है कि इन ग्रंथों ने पूर्वकाल में, संभवतया हरप्पाकाल में अर्जित ज्यामितीय ज्ञान का उपयोग किया हो। बौधायन सूत्र बुनियादी ज्यामितीय आकारों के बारे तथा एक ज्यामितीय आकार दूसरे समक्षेत्रीय आकार में या उसके अंश या उसके गुणित में परिणत करने की जानकारी प्रदर्शित करता है उदाहरण के लिए एक आयत को एक समक्षेत्रीय वर्ग के रूप में अथवा उसके अंश या गुणित में परिणत करने का तरीका। इन सूत्रों में से कुछ तो निकटतम मान तक ले जाते हैं और कुछ एकदम शुद्ध मान बतलाते हैं तथा कुछ हद तक व्यवहारिक सूक्ष्मता और बुनियादी ज्यामितीय सिद्धांतों की समझ प्रगट करते हैं। गुणन और योग के आधुनिक तरीके संभवतः शुल्व सू़त्र वर्णित गुरों से ही उद्भूत हुए थे।

यूनानी गणितज्ञ और दार्शनिक पायथागोरस जो 6 वीं सदी ई. पू. में हुआ था उपनिषदों से परिचित था और उसने अपनी बुनियादी ज्यामिति शुल्व सूत्रों से ही सीखी थी। पायथागोरस के प्रमेय के नाम से प्रसिद्ध प्रमेय का पूर्ण विवरण बौधायन सू़त्र में इस प्रकार मिलता हैः किसी वर्ग के विकर्ण पर बने हुए वर्ग का क्षेत्रफल उस वर्ग के क्षेत्रफल का दुगुना होता है। आयतों से संबंधित ऐसा ही एक परीक्षण भी उल्लेखनीय है। उसके सूत्र में एक अज्ञात राशि वाले एक रेखीय समीकरण का भी ज्यामितीय हल मिलता है। उसमें द्विघात समीकरण के उदाहरण भी हैं। आपस्तम्ब सूत्र जिसमें बौधायन सूत्र के विस्तार के साथ कई मौलिक योगदान भी हैं 2 का वर्गमूल बतलाता है जो दशमलव के बाद पांचवें स्थान तक शुद्ध है। आपस्तम्ब में वृत्त को एक वर्ग में घेरने, किसी रेखा खंड को सात बराबर भाग में बांटने और सामान्य रेखिक समीकरण का हल निकालने जैसे प्रश्नों पर भी विचार किया गया है। छटवीं सदी ई. पू. के जैन ग्रंथों जैसे सूर्य प्रज्ञाप्ति में दीर्घ वृत्त का विवरण दिया गया है।

ये परिणाम कैसे निकाले गए इस विषय पर आधुनिक विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ का विश्वास है कि ये परिणाम अटकल विधि अथवा रूल आॅफ थंब अथवा कई उदाहरणों से प्राप्त नतीजों के साधारणीकरण से निकाले गए हैं। दूसरा मत यह है कि एकबार वैज्ञानिक विधि न्यायसूत्रों से निश्चित हो गई - ऐसे नतीजों के प्रमाण अवश्य दिए गए होंगे, मगर ये प्रमाण खो गए या नष्ट हो गए अथवा गुरुकुल प्रणाली के जरिये मौखिक रूप से उनका प्रसार हो गया और केवल अंतिम परिणाम ही ग्रंथों में सारिणीबद्ध हो गये। हर हाल में यह तो निश्चित है कि वैदिक काल में गणित के अध्ययन को काफी महत्व दिया जाता था। 1000 ई. पू. में रचित वेदांग ज्योतिष में लिखा है - जैसे मयूर पंख और नागमणि शरीर में शिखर स्थान या भाल पर शोभित होती है उसी प्रकार वेदों और शास्त्रों की सभी शाखाओं में गणित का स्थान शीर्ष पर है। कई शताब्दियों बाद मैसूर के जैन गणितज्ञ महावीराचार्य ने गणित के महत्व पर और जोर देते हुए कहाः इस चलाचल जगत में जो भी वस्तु विद्यमान है वह बिना गणित के आधार के नहीं समझी जा सकती।

पाणिनि और विधि सम्मत वैज्ञानिक संकेत चिन्ह

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भारतीय विज्ञान के इतिहास में एक विशेष प्रगति, जिसका गंभीर प्रभाव सभी परवर्ती गणितीय ग्रंथों पर पड़ना था, संस्कृत व्याकरण और भाषाविज्ञान के प्रणेता पाणिनि द्वारा किया गया काम था। ध्वनिशास्त्र और संरचना विज्ञान पर एक विशद और वैज्ञानिक सिद्धांत पूरी व्याख्या के साथ प्रस्तुत करते हुए पाणिनि ने अपने संस्कृत व्याकरण के ग्रंथ अष्टाध्यायी में विधि सम्मत शब्द उत्पादन के नियम और परिभाषाएं प्रस्तुत कीं। बुनियादी तत्वों जैसे स्वर, व्यंजन, शब्दों के भेद जैसे संज्ञा और सर्वनाम आदि को वर्गीकृत किया गया। संयुक्त शब्दों और वाक्यों के विन्यास की श्रेणीबद्ध नियमों के जरिये उसी प्रकार व्याख्या की गई जैसे विधि सम्मत भाषा सिद्धांत में की जाती है।

आज पाणिनि के विन्यासों को किसी गणितीय क्रिया की आधुनिक परिभाषाओं की तुलना में भी देखा जा सकता है। जी. जी. जोसेफ ’’दी क्रेस्ट आॅफ दा पीकाॅक’’ में विवेचना करते हैं कि भारतीय गणित की बीजगणितीय प्रकृति संस्कृत भाषा की संरचना की परिणति है। इंगरमेन ने अपने शोध प्रबंध में ’’पाणिनि - बैकस फार्म’’ में पाणिनि के संकेत चिन्हों को उतना ही प्रबल बतलाया है जितना कि बैकस के संकेत चिह्न। बैकस नार्मल फार्म आधुनिक कम्प्युटर भाषाओं के वाक्यविन्यास का वर्णन करने के लिए व्यवहृत होता है जिसका अविष्कारकत्र्ता बैकस है। इस प्रकार पाणिनि के कार्यों ने वैज्ञानिक संकेत चिन्हों के प्रादर्श का एक उदाहरण प्रस्तुत किया जिसने बीजगणितीय समीकरणों को वर्णित करने और बीजगणितीय प्रमेयों और उनके फलों को एक वैज्ञानिक खाके में प्रस्तुत करने के लिए अमूर्त संकेत चिह्न प्रयोग में लाने के लिए प्रेरित किया होगा।

दर्शनशास्त्र और गणित

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दार्शनिक सिद्धांतों का गणितीय परिकल्पनाओं और सूत्रीय पदों के विकास पर गहरा प्रभाव पड़ा। विश्व के बारे में उपनिषदों के दृष्टिकोण की भांति जैन दर्शन में भी आकाश और समय असीम माने गये। इससे बहुत बड़ी संख्याओं और अपरिमित संख्ययओं की परिभाषाओं में गहरी रुचि पैदा हुई। पुनरावर्तन (recursive) सूत्रों के जरिये असीम संख्यायें बनाईं गईं। अनुयोगद्वार सूत्र में ऐसा ही किया गया। जैन गणितज्ञों ने पांच प्रकार की असीम संख्यायें बतलाईं :

  • (१) एक दिशा में असीम,
  • (२) दो दिशाओं में असीम,
  • (३) क्षेत्र में असीम,
  • (४) सर्वत्र असीम और
  • (५) सतत असीम

3री सदी ई. पू. में रचित भगवती सूत्रों में और 2री सदी ई. पू. में रचित स्थानांग सूत्र में क्रमचय-संचय (permutation combination) को सूचीबद्ध किया गया है।

जैन समुच्चय सिद्धांत संभवतः जैन ज्ञान मीमांसा के स्यादवाद के समानान्तर ही उद्भूत हुआ जिसमें वास्तविकता को सत्य की दशा-युगलों और अवस्था-परिवर्तन युगलों के रूप में वर्णित किया गया है। अनुयोगद्वार सूत्र घातांक नियम के बारे में एक विचार देता है और इसे लघुगणक की संकल्पना विकसित करने के लिए उपयोग में लाता है। लॉग आधार 2, लाग आधार 3 और लाग आधार 4 के लिए क्रमशः अर्ध आछेद, त्रिक आछेद और चतुराछेद जैसे शब्द प्रयुक्त किए गये हैं। षट्खण्डागम में कई समुच्चयों पर लागरिथमिक फंक्शन्स आधार 2 की क्रिया, उनका वर्ग निकालकर, उनका वर्गमूल निकालकर और सीमित या असीमित घात लगाकर की गई हैं। इन क्रियाओं को बार बार दुहराकर नये समुच्चय बनाये गये हैं। अन्य कृतियों में द्विपद प्रसार (binomial expansion) में आने वाले गुणकों का संयोजनों की संख्या से संबंध दिखाया गया है। चूंकि जैन ज्ञान मीमांसा में वास्तविकता का वर्णन करते समय कुछ अंश तक अनिश्चयता स्वीकार्य है। अतः अनिश्चयात्मक समीकरणों से जूझने में और अपरिमेय संख्याओं का निकटतम संख्यात्मक मान निकालने में वह संभवतया सहायक हुई।

बौद्ध साहित्य भी अनिश्चयात्मक और असीम संख्याओं के प्रति जागरूकता प्रदर्शित करता है। बौद्ध गणित का वर्गीकरण 'गणना' याने सरल गणित या 'सांख्यन' याने उच्चतर गणित में हुआ। संख्यायें तीन प्रकार की मानी गईं : सांखेय याने गिनने योग्य, असांखेय याने अगण्य और अनन्त याने असीम। अंक शून्य की परिकल्पना प्रस्तुत करने में, शून्य के संबंध में दार्शनिक विचारों ने मदद की होगी। ऐसा लगता है कि स्थानीय मान वाली सांख्यिक प्रणाली में सिफर याने बिन्दु का एक खाली स्थान में लिखने का चलन बहुत पहले से चल रहा होगा, पर शून्य की बीजगणितीय परिभाषा और गणितीय क्रिया से इसका संबंध 7 वीं सदी में ब्रह्मगुप्त के गणितीय ग्रंथों में ही देखने को मिलता है। विद्वानों में इस मसले पर मतभेद है कि शून्य के लिए संकेत चिन्ह भारत में कबसे प्रयुक्त होना शुरू हुआ। इफरा का दृढ़ विश्वास है कि शून्य का प्रयोग आर्यभट्ट के समय में भी प्रचलित था। परंतु गुप्तकाल के अंतिम समय में शून्य का उपयोग बहुतायत से होने लगा था। 7 वीं और 11 वीं सदी के बीच में भारतीय अंक अपने आधुनिक रूप में विकसित हो चुके थे और विभिन्न गणितीय क्रियाओं को दर्शाने वाले संकेतों जैसे धन, ऋण, वर्गमूल आदि के साथ आधुनिक गणितीय संकेत चिन्हों के नींव के पत्थर बन गए।

भारतीय अंक प्रणाली

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यद्यपि चीन में भी दशमलव आधारित गणना पद्धति प्रयोग में थी, किन्तु उनकी संकेत प्रणाली भारतीय संकेत चिन्ह प्रणाली जितनी शुद्ध और सरल न थी और यह भारतीय संकेत प्रणाली ही थी जो अरबों के मार्फत पश्चिमी दुनियां में पहुंची और अब वह सार्वभौमिक रूप में स्वीकृत हो चुकी है। इस घटना में कई कारकों ने अपना योगदान दिया जिसका महत्व संभवतः सबसे अच्छे ढंग से फ्रांसीसी गणितज्ञ लाप्लेस ने बताया हैः ’’हर संभव संख्या को दस संकेतों के समुच्चय द्वारा प्रकट करने की अनोखी विधि जिसमें हर संकेत का एक स्थानीय मान और एक परम मान हो, भारत में ही उद्भूत हुई। यह विधि आजकल इतनी सरल लगती है कि इसके गंभीर और प्रभावशाली महत्व पर ध्यान ही नहीं जाता। इसने अपनी सरल विधि द्वारा गणना को अत्यधिक आसान बना दिया और अंकगणित को उपयोगी अविष्कारों की श्रेणी में अग्रगण्य बना दिया।’’

यह अविष्कार प्रतिभाशाली तो था परंतु यह कोई अचानक नहीं हुआ था। पश्चिमी जगत में जटिल रोमन अंकीय प्रणाली एक बड़ी बाधा के रूप में प्रगट हुई और चीन की चित्रलिपि भी एक रुकावट थी। लेकिन भारत में ऐसे विकास के लिए सब कुछ अनुकूल था। दशमलव संख्याओं के प्रयोग का एक लम्बा और स्थापित इतिहास था ही, दार्शनिक और अंतरिक्षीय परिकल्पनाओं ने भी, संख्या सिद्धांत के प्रति एक रचनात्मक विस्तृत दृष्टिकोण को बढ़ावा दिया। पाणिनि के भाषा सिद्धांत और विधि सम्मत भाषा के अध्ययन और संकेतवाद तथा कला और वास्तुशास्त्र में प्रतिनिधित्वात्मक भाव के साथ साथ विवेकवादी सिद्धांत और न्याय सूत्रों की कठिन ज्ञान मीमांसा और स्याद्वाद तथा बौद्ध ज्ञान के नवीनतम भाव ने मिलकर इस अंक सिद्धांत को आगे बढ़ाने में मदद की।

व्यापार और वाणिज्य का प्रभाव, नक्षत्र-विद्या का महत्व

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व्यापार और वाणिज्य में वृद्धि के फलस्वरूप, विशषरूप से ऋण लेने देने में, साधारण और चक्रवृद्धि ब्याज के ज्ञान की जरूरत पड़ी। संभवतः इसने अंकगणितीय और ज्यामितीय श्रेढियों में रुचि को उद्दीप्त किया। ब्रह्मगुप्त द्वारा ऋणात्मक संख्याओं को कर्ज के रूप में और धनात्मक संख्याओं को सम्पत्ति के रूप में वर्णित करना, व्यापार और गणित के बीच संबंध की ओर इशारा करता है। गणित, ज्योतिष का ज्ञान, विशेषकर ज्वारभाटे और नक्षत्रों का ज्ञान व्यापारी समुदायों के लिए बड़ा महत्व रखता था क्योंकि उन्हें रात में रेगिस्तानों और महासागरों को पार करना पड़ता था। जातक कथाओं और कई अन्य लोक कथाओं में इनका बार बार जिक्र आना इसी बात का द्योतक है। वाणिज्य के लिए दूर जाने की इच्छा रखने वालों को अनिवार्य रूप से नक्षत्र विद्या में कुछ आधारभूत जानकारी लेनी पड़ती थी। इससे इस विद्या के शिक्षकों की संख्या काफी बढ़ी जिन्होंने बिहार के कुसुमपुर या मध्य भारत के उज्जैन अथवा अपेक्षाकृत छोटे स्थानीय केन्द्रों या गुरूकुलों में प्रशिक्षण प्राप्त किया। विद्वानों में गणित और नक्षत्र विद्या की पुस्तकों का विनिमय भी हुआ और इस ज्ञान का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्रसार हुआ। लगभग हर भारतीय राज्य ने महान गणितज्ञों को जन्म दिया जिन्होंने कई सदियों पूर्व भारत के अन्य भाग में उत्पन्न गणितज्ञों की कृतियों की समीक्षा की। विज्ञान के संचार में संस्कृत ही जन माध्यम बनी थी।

बीज रोपण समय और फसलों का चुनाव निश्चित करने के लिए आवश्यक था कि जलवायु और वृष्टि की रूपरेखा की जानकारी बेहतर हो। इन आवश्यकताओं और शुद्ध पंचांग की आवश्यकता ने ज्योतिष विज्ञान के घोड़े को ऐड़ लगा दी। इसी समय धर्म और फलित ज्योतिष ने भी ज्योतिष विज्ञान में रुचि पैदा करने में योगदान दिया और इस अविवेकी प्रभाव का एक नकारात्मक नतीजा था, अपने समय से बहुत आगे चलने वाले वैज्ञानिक सिद्धांतों की अस्वीकृति। गुप्तकाल के एक बड़े विज्ञानवेत्ता, आर्यभट ने जो 476 ई. में बिहार के कुसुमपुर में जन्मे थे, अंतरिक्ष में ग्रहों की स्थिति के बारे में एक सुव्यवस्थित व्याख्या दी थी। पृथ्वी के अपने अक्ष पर घूर्णन के बारे में उनकी परिकल्पना सही थी तथा ग्रहों की कक्षा दीर्घवृताकार है उनका यह निष्कर्ष भी सही था। उन्होंने यह भी उचित ढंग से सिद्ध किया था कि चंद्रमा और अन्य ग्रह सूर्य प्रकाश के परावर्तन से प्रकाशित होते थे। उन्होंने सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण से संबंधित सभी अंधविश्वासों और पौराणिक मान्यताओं को नकारते हुए इन घटनाओं की उचित व्याख्या की थी। यद्यपि भास्कर प्रथम, जन्म 6वीं सदी, सौराष्ट्र् में और अश्मक विज्ञान विद्यालय, निजामाबाद, आंध्र के विद्यार्थी, ने उनकी प्रतिभा को और उनके वैज्ञानिक योगदान के असीम महत्व को पहचाना। उनके बाद आने वाले कुछ ज्योतिषियों ने पृथ्वी को अचल मानते हुए, ग्रहणों के बारे में उनकी बौद्धिक व्याख्याओं को नकार दिया। लेकिन इन विपरीतताओं के होते हुए भी आर्यभट का गंभीर प्रभाव परवर्ती ज्योतिर्विदों और गणितज्ञों पर बना रहा जो उनके अनुयायी थे, विशेषकर अश्मक विद्यालय के विद्वानों पर।

सौरमंडल के संबंध में आर्यभट का क्रांतिकारी ज्ञान विकसित होने में गणित का योगदान जीवंत था। पाई का मान, पृथ्वी का घेरा /62832 मील/ और सौर वर्ष की लम्बाई, आधुनिक गणना से 12 मिनट से कम अंतर और उनके द्वारा की गईं कुछ गणनायें थीं जो शुद्ध मान के काफी निकट थीं। इन गणनाओं के समय आर्यभट को कुछ ऐसे गणितीय प्रश्न हल करने पड़े जिन्हें बीजगणित और त्रिकोणमिति में भी पहले कभी नहीं किया गया था।

आर्यभट्ट के अधूरे कार्य को भास्कर प्रथम ने सम्हाला और ग्रहों के देशांतर, ग्रहों के परस्पर तथा प्रकाशमान नक्षत्रों से संबंध, ग्रहों का उदय और अस्त होना तथा चंद्रकला जैसे विषयों की विशद विवेचना की। इन अध्ययनों के लिए और अधिक विकसित गणित की आवश्यकता थी। अतः भास्कर ने आर्यभट द्वारा प्रणीत त्रिकोणमितीय समीकरणों को विस्तृत किया तथा आर्यभट की तरह इस सही निष्कर्ष पर पहुंचे कि पाइ एक अपरिमेय संख्या है। उसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान है - ज्या फलन की गणना जो 11 प्रतिशत तक शुद्ध है। उन्होंने इंडिटर्मिनेट समीकरणों पर भी मौलिक कार्य किया जो उसके पहले किसी ने नहीं किया और सर्वप्रथम ऐसे चतुर्भुजों की विवेचना की जिनकी चारों भुजायें असमान थीं और उनमें आमने सामने की भुजायें समानान्तर नहीं थीं।

ऐसा ही एक दूसरा महत्वपूर्ण ज्योतिर्विद गणितज्ञ वाराहमिहिर उज्जैन में 6 वीं सदी में हुआ था जिसने गणित ज्योतिष पर पूर्व लिखित पुस्तकों को एक साथ लिपिबद्ध किया और आर्यभट्ट के त्रिकोणमितीय सूत्रों का भंडार बढ़ाया। क्रमपरिवर्तन और संयोजन पर उसकी कृतियों ने जैन गणितज्ञों की इस विषय पर उपलब्धियों को परिपूर्ण किया और दबत मान निकालने की एक विधि दी जो अत्याधुनिक ’’पास्कल के त्रिभुज’’ के बहुत सदृश है। 7 वीं सदी में ब्रह्मगुप्त ने बीजगणित के मूल सिद्धांतों को सूचीबद्ध करने का महत्वपूर्ण काम किया। शून्य के बीजगणितीय गुणों की सूची बनाने के साथ साथ उसने ऋणात्मक संख्याओं के बीजगणितीय गुणों की भी सूची बनाई। क्वाड्रैटिक इनडिटरमिनेट समीकरणों का हल निकालने संबंधी उसके कार्य आयलर और लैग्रेंज के कार्यों का पूर्वाभास प्रदान करते हैं।

कैलकुलस का आविर्भाव

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चंद्र ग्रहण का एक सटीक मानचित्र विकसित करने के दौरान आर्यभट्ट को इनफाइनाटसिमल की परिकल्पना प्रस्तुत करना पड़ी, अर्थात् चंद्रमा की अति सूक्ष्मकालीन या लगभग तात्कालिक गति को समझने के लिए असीमित रूप से सूक्ष्म संख्याओं की परिकल्पना करके उन्होने उसे एक मौलिक अवकल समीकरण के रूप में प्रस्तुत किया। आर्यभट के समीकरणों की 10वीं सदी में मंजुला ने और 12वीं सदी में भास्कराचार्य ने विस्तार पूर्वक व्याख्या की। भास्कराचार्य ने ज्या फलन के अवकलज (डिफरेंशल) का मान निकाला। परवर्ती गणितज्ञों ने समाकलन (इंटिग्रेशन) की अपनी विलक्षण समझ का उपयोग करके वक्र तलों के क्षेत्रफल और वक्र तलों द्वारा घिरे आयतन का मान निकाला।

व्यावहारिक गणित, व्यावहारिक प्रश्नों के हल

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इस काल में व्यावहारिक गणित में भी विकास हुआ - त्रिकोणमितीय सारिणी और माप की इकाइयां बनाई गईं। यतिबृषभ की कृति तिलोयपन्नति 6 वीं सदी में तैयार हुई जिसमें समय और दूरी की माप के लिए विभिन्न इकाइयां दीं गईं हैं और असीमित समय की माप की प्रणाली भी बताई गई है।

9वीं सदी में मैसूर के महावीराचार्य ने ’’गणित सार संग्रह’’ लिखा जिसमें उन्होंने लघुत्तम समापवर्त्य निकालने के प्रचलित तरीके का वर्णन किया है। उन्होंने दीर्घवृत्त के अंदर निर्मित चतुर्भुज का क्षेत्रफल निकालने का सूत्र भी निकाला। इस पर ब्रह्मगुप्त ने भी काम किया था। इनडिटर्मिनेट समीकरणों का हल निकालने की समस्या पर भी 9वीं सदी में काफी रुचि दिखलाई दी। कई गणितज्ञों ने विभिन्न प्रकार के इंडिटर्मिनेट समीकरणों का हल निकालने और निकटतम मान निकालने के बारे में योगदान दिया।

9वीं सदी के उत्तरार्ध में श्रीधर ने जो संभवतया बंगाल के थे, नाना प्रकार के व्यवहारिक प्रश्नों जैसे अनुपात, विनिमय, साधारण ब्याज, मिश्रण, क्रय और विक्रय, गति की दर, वेतन और हौज भरना इत्यादि के लिए गणितीय सूत्र प्रदान किए। कुछ उदाहरणों में तो उनके हल काफी जटिल थे। उनका पाटीगणित एक विकसित गणितीय कृति के रूप में स्वीकृत है। इस पुस्तक के कुछ खंड में अंकगणितीय और ज्यामितीय श्रेढ़ियों का वर्णन है जिसमें भिन्नात्मक संख्याओं या पदों की श्रेणियां भी शामिल हैं तथा कुछ सीमित श्रेढ़ियों के योग के सूत्र भी हैं। गणितीय अनुसंधान की यह शृंखला 10 वीं सदी में बनारस के विजय नंदी तक चली आई जिनकी कृति करणतिलक का अलबरूनी ने अरबी में अनुवाद किया था। महाराष्ट्र के श्रीपति भी इस सदी के प्रमुख गणितज्ञों में से एक थे।

भास्कराचार्य 12वीं सदी के भारतीय गणित के पथ प्रदर्शक थे जो गणितज्ञों की एक लम्बी परंपरा के उत्तराधिकारी थे और उज्जैन स्थित वेधशाला के मुखिया थे। उन्होंने 'लीलावती' और 'बीजगणित' जैसी गणित की पुस्तकों की रचना की तथा ’सिद्धान्तशिरोमणि नामक ज्योतिषशास्त्र की पुस्तक लिखी। सर्व प्रथम उन्होंने ही इस तथ्य की पहचान की कि कुछ द्विघात समीकरणों की ऐसी श्रेणी भी हैं जिनके दो हल संभव हैं। इनडिटर्मिनेट समीकरणों को हल करने के लिए उनकी चक्रवाल विधि यूरोपीय विधियों से कई सदियों आगे थीं। अपने सिद्धांत शिरामणि में उन्होंने परिकल्पित किया कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण बल है। उन्होंने इनफाइनाइटसिमल गणनाओं और इंटीग्रेशन के क्षेत्र में विवेचना की। इस पुस्तक के दूसरे भाग में गोलक और उसके गुणों के अध्ययन तथा भूगोल में उनके उपयोग, ग्रहीय औसत गतियां, ग्रहों के उत्केंद्रीय अधिचक्र नमूना, ग्रहों का प्रथम दर्शन, मौसम, चंद्रकला आदि विषयों पर कई अध्याय हैं। उन्होने ज्योतिषीय यंत्रों और गोलकीय त्रिकोणमिति की भी विवेचना की है। उनके त्रिकोणमितीय समीकरण -

तथा

विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं।

भारतीय गणित का प्रसार

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ऐसा लगता है कि इस्लामी हमलों की तीव्रता के बाद, जब महाविद्यालयों और विश्व विद्यालयों का स्थान मदरसों ने ले लिया तब गणित के अध्ययन की गति मंद पड़ गई। लेकिन यही समय था जब भारतीय गणित की पुस्तकें भारी संख्या में अरबी और फारसी भाषाओं में अनूदित हुईं। यद्यपि अरब विद्वान बेबीलोनीय, सीरियाई, ग्रीक और कुछ चीनी पुस्तकों सहित विविध स्रोतों पर निर्भर करते थे परंतु भारतीय गणित की पुस्तकों का योगदान विशेषरूप से महत्वपूर्ण था। 8वीं सदी में बगदाद के इब्न तारिक और अल फजरी, 9वीं सदी में बसरा के अल किंदी, 9वीं सदी में ही खीवा के अल ख्वारिज़्मी, 9वीं सदी में मगरिब के अल कायारवानी जो ’’किताबफी अल हिसाब अल हिंदी’’ के लेखक थे, 10 वीं सदी में दमिश्क के अल उक्लिदिसी जिन्होंने ’’भारतीय गणित के अध्याय’’ लिखी, इब्न सिना, 11 वीं सदी में ग्रेनेडा, स्पेन के इब्न अल सम्ह, 11वीं सदी में खुरासान, फारस के अल नसावी, 11वीं सदी में खीवा में जन्मे अल बरूनी जिनका देहांत अफगानिस्तान में हुआ, तेहरान के अल राजी, 11वीं सदी में कोर्डोवा के इब्न अल सफ्फर ये कुछ नाम हैं जिनकी वैज्ञानिक पुस्तकों का आधार अनूदित भारतीय ग्रंथ थे। कई प्रमाणों, अवधारणाओं और सूत्रों के भारतीय स्रोत के होने के अभिलेख परवर्ती सदियों में धूमिल पड़ गए लेकिन भारतीय गणित की शानदार अतिशय देन को कई मशहूर अरबी और फारसी विद्वानों ने मुक्त कंठ से स्वीकार किया है, विशेष रूप से स्पेन में। अब्बासी विद्वान अल गहेथ ने लिखाः ’’भारत ज्ञान, विचार और अनुभूतियों का स्रोत है।’’ 956 ई में अल मौदूदी ने जिसने पश्चिमी भारत का भ्रमण किया था, भारतीय विज्ञान की महत्ता के बारे में लिखा था। सईद अल अंदलूसी, 11वीं सदी का स्पेन का विद्वान और दरबारी इतिहासकार, भारतीय सभ्यता की जमकर तारीफ करने वालों में से एक था और उसने विज्ञान और गणित में भारत की उपलब्धियों पर विशेष टिप्पणी की थी। अंततः भारतीय बीजगणित और त्रिकोणमिति अनुवाद के एक चक्र से गुजरकर अरब दुनिया से स्पेन और सिसली पहुंची और वहां से सारे यूरोप में प्रविष्ट हुई। उसी समय ग्रीस और मिस्र की वैज्ञानिक कृतियों के अरबी और फारसी अनुवाद भारत में सुगमता से उपलब्ध हो गये।

केरल का गणित सम्प्रदाय (स्कूल)

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आधुनिक काल में भारतीय गणित

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भारतीय गणित का पतन

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१२वीं शताब्दी की अंतिम भाग तक आते आते भारत पर मुसलमानों की विजय शुरू हो गयी थी। इसी के साथ ही सकारात्मक विज्ञानों में भारतीय पहल का क्षय शुरू हुआ। मुगल शासन के पतन के बाद जो थोड़ी मौलिकता भारत में बची थी, वह पश्चिमी सभ्यता के संपर्क में आने से दब गई। इस प्रकार भारत पिछली छह शताब्दियों से एक निराशा से गुजर रहा है, जिससे वह अभी उबर रहा है और आधुनिक संस्कृति की उपलब्धियों के साथ अपनी प्राचीन सभ्यता का एक नया संश्लेषण करने का प्रयास कर रहा है।[1]

भारतीय गणित के इतिहासकार तथा इतिहास-ग्रन्थ

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Foreign Countries in Ancient and Medieval Times, Bull. Natl. Inst. Sc. Ind., 21, 8-30 (1963)

  • अन्य : भाऊ दाजी (1824-74 ई.)[3], हैन्द्रिक केर्ण, शंकर बालकृष्ण दीक्षित, उदयनारायण सिंह (लाइडेन से आर्यभटीय की मुद्रित प्रति प्राप्त की और उसे हिन्दी अनुवाद सहित सन 1906 में मधुरपुर (मुजफ्फरपुर) से प्रकाशित किया। ), बलदेव मिश्र (१९६६ में आर्यभटीक की संस्कृत-हिन्दी टीका प्रकाशित की), बी एस यादव[4], अगाथे केलर (Agathe Keller ; Université Paris Diderot में) , युकियो ओहाशी (Yukio Ohashi)

भारतीय गणित के प्रमुख ग्रन्थ, रचयिता और रचनाकाल

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क्रमांक ग्रन्थ का नाम रचयिता रचानाकाल टिप्पणी
0 अनुयोगद्वार सूत्र (अज्ञात) १०० वर्ष ईसापूर्व जैन ग्रन्थ ; इस ग्रन्थ में बड़ी-बड़ी संख्याएं आयी हैं जैसे 10^96 । इसके अलावा अनेक गणितीय संक्रियाओं जैसे घातों के गुण के बारे में बताया गया है।
1 आपस्तम्ब शुल्बसूत्र आपस्तम्ब
2 आर्यभटीय आर्यभट प्रथम 499 ईस्वी त्रिकोणमिति ; बीजगणित ; खगोलशास्त्र दशमलव प्रणाली ; ज्या ; वृत्त की परिधि और व्यास का अनुपात लगभग 3.1416 है।
3 आर्यभटीय भाष्य भास्कर प्रथम
4 आर्यभट्ट सिद्धांत आर्यभट प्रथम
5 करण प्रकाश गणेश दैवज्ञ 1500 ईस्वी खगोलशास्त्र, गणित, ग्रहों की गणना के लिए सरल सूत्र।
6 करणकुतूहल भास्कर द्वितीय 1183 ईस्वी खगोलशास्त्र ; गणित ; इसमें ग्रहों की गणना के लिए नए सूत्र दिए गए हैं।
7 करणकौस्तुभ कृष्ण दैवज्ञ
8 करणतिलक विजय नन्दी 9वीं सदी ई. खगोलशास्त्र ; गणित ; खगोलशास्त्रीय गणनाओं की विधियों का वर्णन।
9 करणपद्धति पुदुमन सोम्याजिन् 1400-1460 ई. खगोलशास्त्र त्रिकोणमिति ; त्रिकोणमितीय फलनों और खगोलशास्त्रीय गणनाओं पर ग्रंथ।
10 कर्मदीपिका परमेश्वर (गणितज्ञ) 1380 – 1460 ई महाभास्करीय की टीका
11 क्रियाक्रमकरी शंकर वरियार और नारायण पण्डित ने सम्मिलित रूप से लीलावती की टीका
12 क्षेत्रसमास जयशेखर सूरि भूगोल/ज्यामिति विषयक जैन ग्रन्थ
13 खण्डखाद्यक ब्रह्मगुप्त 665 ई. खगोलशास्त्र ; गणित ; खगोलशास्त्रीय गणनाओं के लिए एक व्यावहारिक पुस्तिका।
14 खण्डखाद्यकविवरण पृथूदक स्वामी ८६४ ई ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त का भाष्य ; टॉलेमी के प्रमेय को सिद्ध किया है।
15 गणित कल्पतरु अज्ञात 2000 ईस्वी अंकगणित ; बीजगणित ; गणित के सरल नियम।
16 गणित कौमुदी नारायण पण्डित 1350 ईस्वी अंकगणित ; ज्यामिति ; बीजगणित ; गणित के सरल और जटिल सिद्धान्त।
17 गणिततिलक श्रीपति
18 गणितपंचविंशिका श्रीधराचार्य
19 गणितमुक्तावली देवराज 16वीं सदी ई. गणित विभिन्न गणितीय विषयों पर श्लोकबद्ध रचना
20
21 गणितसार श्रीधराचार्य
22 गणितसारकौमुदी ठक्कर फेरू १४वीं शताब्दी का पूर्वार्ध
23 गणितसारसंग्रह महावीराचार्य 850 ई. अंकगणित ; बीजगणित ; ज्यामिति ; जैन गणितज्ञ जिन्होंने भिन्न अनुपात और ज्यामिति पर महत्वपूर्ण कार्य किया।
24 गोलदीपिका परमेश्वर 1443 ई. गोलीय ज्यामिति एवं खगोल
25 गोलविवृत्ति पृथूदक स्वामी 850 ईस्वी गोलीय ज्यामिति ; खगोलशास्त्र ; गोलाकार पिंडों की गणना।
26 गोलाध्याय भास्कराचार्य 1150 ईस्वी गोलीय ज्यामिति ; खगोलशास्त्र ; गोलाकार पिंडों की गणना के लिए सूत्र।
27 गोलीय रेखागणित सुधाकर द्विवेदी
28 ग्रहगणित भास्कर द्वितीय
29 चंद्रप्रकाश मुनीश्वर 1600 ईस्वी खगोलशास्त्र ; गणित ; चंद्र की गति का विस्तृत वर्णन।
30 चन्द्रप्रज्ञप्ति
31 चलन कलन सुधाकर द्विवेदी
32 छन्दशास्त्र पिंगल
33 तन्त्रसंग्रह नीलकण्ठ सोमयाजिन्
34 ताजिकनीलकण्ठी नीलकण्ठ दैवज्ञ 1587 ई. ज्योतिष
35 यन्त्रराज महेन्द्र सुरि १३७० ई में इसमें ७० RSine के मान दिये हैं।(R=३६००)
36 तिलोयपण्णत्ती यतिवृषभ छठी शताब्दी ई. जैन भूगोल
37 त्रिशतिका श्रीधराचार्य 750 ईस्वी अंकगणित ; बीजगणित ; 300 श्लोकों में गणित के सिद्धान्त।
38 दशगीतिका आर्यभट प्रथम
39 दिग्गणित परमेश्वर दृक-पद्धति का वर्णन (१४३१ में रचित)
40 दीर्घवृत्तलक्षण सुधाकर द्विवेदी
41 दृक्कर्मकरण परमेश्वर 1400-1460 ई. खगोलशास्त्र खगोलीय प्रेक्षणों और गणनाओं की विधियों का वर्णन।
42 द्वादशवर्गसूत्र ब्रह्मगुप्त 7वीं श. समीकरण ; ज्यामिति ; वर्गमूल समासरः समं
43 ध्रुवमानस श्रीपति
44 नवशतिका श्रीधराचार्य
45 पंचसिद्धान्तिका वाराहमिहिर
46 पंचसिद्धान्तिका वराहमिहिर 550 ईस्वी खगोलशास्त्र ; गणित ; पाँच खगोलीय सिद्धान्तों का संग्रह।
47 परमेश्वरी परमेश्वर लघुभास्करीय की टीका
48 पाटीगणित श्रीधराचार्य 750 ईस्वी अंकगणित "अंकगणित का एक व्यवस्थित ग्रंथ" ; बीजगणित ; इसमें गुणा और भाग के नियम सरल तरीके से समझाए गए हैं।
49 पाटीगणितसार या त्रिशतिका श्रीधराचार्य
50 पितामह सिद्धान्त
51 पौलिसा सिद्धान्त
52 बख्शाली पाण्डुलिपि
53 बीजगणितम् भास्कराचार्य 1150 ई. बीजगणित ; द्विघात समीकरणों का विस्तृत विवरण। ; करणी ; बीजगणित के सिद्धांतों और उनके अनुप्रयोगों का विस्तृत वर्णन। उदाहरण: 'अव्यक्तराशिं' (अज्ञात राशि)
54 बीजपल्लवम् कृष्ण दैवज्ञ 16वीं सदी ई. भास्कराचार्य के 'बीजगणित' की टीका
55 बुद्धिविलासिनी गणेश दैवज्ञ भास्कराचार्य के 'लीलावती' की टीका
56 बृहज्जातक वराहमिहिर 550 ई. ज्योतिष ; गणित ; ज्योतिषीय भविष्यवाणियों का विस्तृत ग्रन्थ।
57 बृहत्संहिता वराहमिहिर 550 ईस्वी ज्योतिष ; गणित ; वास्तुशास्त्र ; इसमें गणित के साथ-साथ ज्योतिष का भी वर्णन है।
58 बौधायन शुल्बसूत्र बौधायन
59 ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त ब्रह्मगुप्त 628 ईस्वी शून्य
60 भटदीपिका परमेश्वर (गणितज्ञ) आर्यभटीय की टीका
61 भारतीय ज्योतिष शंकर बालकृष्ण दीक्षित मराठी में
62 भृगु संहिता महर्षि भृगु (अज्ञात) ज्योतिष ; गणित ; ज्योतिषीय भविष्यवाणियां और गणितीय गणनाएं
63 महाभास्करीय भास्कर प्रथम
64 महासिद्धान्त आर्यभट द्वितीय
65 मानव शुल्बसूत्र मानव
66 मुहुर्ततत्व कृपाराम
67 मुहूर्तमाला रामदैवज्ञ 15वीं सदी ई. ज्योतिष ; गणित ; शुभ-अशुभ मुहूर्त का वर्णन।
68 यंत्रचिंतामणि कृपाराम
69 यवनजातक स्फुजिध्वज
70 युक्तिदीपिका शंकर वारियर
71 युक्तिभाषा या 'गणितन्यायसंग्रह' ज्येष्ठदेव 1530 ईस्वी मलयालम भाषा में
72 गणितयुक्तिभाषा रचनाकार अज्ञात संस्कृत में
73 योगयात्रा वराहमिहिर 550 ई. ज्योतिष ; गणित ; यात्रा और शुभ-अशुभ मुहूर्त का वर्णन।
74 रेखागणित जगन्नाथ सम्राट
75 रोमक सिद्धान्त
76 लघुजातक वराहमिहिर 550 ई. ज्योतिष ; गणित ; ज्योतिषीय भविष्यवाणियों का संक्षिप्त ग्रन्थ।
77 लघुभास्करीय भास्कर प्रथम
78 लघुभास्करीयविवरण शंकरनारायण
79 लघुविवृति शंकर वारियर
80 लीलावती भास्कराचार्य 1150 ईस्वी अंकगणित ; ज्यामिति ; बीजगणित ; लीलावती गणित की प्रसिद्ध पुस्तक है।
81 लोकविभाग सर्वनन्दी विश्वरचना सम्बंधी एक जैन ग्रंथ ; इसकी रचना सर्वनन्दि नामक दिगम्बर साधु ने मूलतः प्राकृत भाषा में की थी जो अब अप्राप्य है। किन्तु बाद में सिंहसूरि ने इसका संस्कृत रूपान्तर किया जो उपलब्ध है।
82 वशिष्ठ सिद्धान्त
83 वाक्यकरण परमेश्वर 1282 ईस्वी अनेकों खगोलीय सारणियों के परिकलन की विधियाँ दी गयी हैं।
84 वासनाभाष्य भास्कराचार्य 1150 ईस्वी खगोलशास्त्र ; गणित ; सिद्धान्त शिरोमणि की टीका।
85 विवरण वतसेरी परमेश्वर नम्बुदिरि 1380–1460 सूर्यसिद्धान्त और लीलावती की टीका ; अन्य ग्रन्थ - भटदीपिका (आर्यभटीय की टीका), कर्मदीपिका (महाभास्करीय की टीका), परमेश्वरी (लघुभास्करीय की टीका)
86 वेण्वारोह संगमग्राम के माधव १३५०-१४२५ खगोलीय गन्थ ; इस गन्थ में ७४ श्लोक हैं। इस ग्रन्थ में लगभग प्रत्येक आधे घण्टे बाद चन्द्रमा की सही स्थिति की गणना करने की विधि बतायी गयी है।
87 वेदांग ज्योतिष लगध ईसापूर्व द्वितीय या प्रथम शताब्दी ज्योतिष का आधार ग्रन्थ ; बड़े ही सुन्दर शब्दों में गणित का महत्व प्रतिपादित है।
यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वद् वेदांगशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम्॥ (याजुषज्याेतिषम् ४)
(अर्थ : जिस प्रकार मोरों में शिखा और नागों में मणि का स्थान सबसे उपर है
88 वैदिक गणित स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ गणितीय संक्रिया करने के सरल नियम
89 भगवती सूत्र (अज्ञात) जैन गणित का महत्वपूर्ण ग्रन्थ जिसमें क्रमचय-संचय आदि का वर्णन है।
90 शुल्ब सूत्र बौधायन 800-500 ईसा पूर्व ज्यामिति ; यज्ञ वेदिका निर्माण ; पाइथागोरस प्रमेय का उल्लेख
91 शुल्ब सूत्र आपस्तम्ब 800-600 ई.पू. ज्यामिति गणित ज्यामितीय रचनाओं और यज्ञ वेदियों के निर्माण से संबंधित गणितीय ज्ञान ; २ का वर्गमूल ; समस्य द्विकरणी। प्रमाणं तृतीयेन वर्धयेत्तच्च चतुर्थेनात्मचतुस्त्रिंशोनेन सविशेषः।
92 सद्रत्नमाला शंकर वर्मन सद्रत्नमाला पहले रचित अनेकानेक गणित-ग्रन्थों का सार ; शंकर वर्मन ने इस ग्रन्थ का विस्तृत भाष्य भी लिखा जो मलयालम में है।
93 समीकरण मीमांसा सुधाकर द्विवेदी १८५५ - १९१०
94 सारसंग्रह गणितमु (तेलुगु) पावुलूरी मल्लन ११वीं शताब्दी गणितसारसंग्रह का तेलुगु कविता में अनुवाद
95 सिद्धान्त रत्नाकर सुधाकर द्विवेदी 1900 ईस्वी खगोलशास्त्र ; गणित ; आधुनिक खगोलशास्त्र का विवरण।
96 सिद्धान्त शिरोमणि भास्कर द्वितीय ११५० इसके चार भाग हैं : (१) लीलावती (२) बीजगणित (३) ग्रहगणिताध्याय (४) गोलाध्याय
97 सिद्धान्ततत्वविवेक कमलाकर १६५८
98 सिद्धान्तदर्पण चंद्रशेखरसिंह सामंत 1835 - 1904 संस्कृत में काव्य रूप में रचित ज्योतिष ग्रंथ ; यह अपने पूर्ववर्ती ग्रंथों सूर्यसिद्धान्त तथा सिद्धान्तशिरोमणि का विकसित रूप है।
99 सिद्धान्तराज नित्यानन्द १६३९
100 सिद्धान्तशेखर श्रीपति 1050 ईस्वी खगोलशास्त्र ; गणित ; ग्रहों की गति का विस्तृत विवरण।
101 सिद्धान्तसम्राट जगन्नाथ सम्राट १७१८
102 सिद्धान्तसारकौस्तुभ जगन्नाथ सम्राट
103 सिद्धान्तसार्वभौम मुनीश्वर १६४६
104 सिद्धान्तसुन्दर ज्ञानराज 1503
105 सूर्यप्रज्ञप्ति जैन ग्रन्थ (अज्ञात) खगोलशास्त्र ; गणित ; सूर्य की गति और खगोलीय घटनाओं का वर्णन
106 सूर्यसिद्धान्त (अज्ञात) चौथी-पांचवीं शताब्दी ई. खगोलशास्त्र ; त्रिकोणमिति ; खगोल विज्ञान पर एक प्रमुख ग्रन्थ जिसमें त्रिकोणमिति का भी वर्णन है। वराहमिहिर ने इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है।
107 सुन्दरी उदयदिवाकर 1073 ई० भास्कर प्रथम के लघुभास्करीय की टीका जिसमें जयदेव (गणितज्ञ) की विधि का उल्लेख है।
108 स्थानांग सूत्र (अज्ञात) ईसापूर्व तीसरी-चौथी शताब्दी स्थानांग सूत्र ७४७ के अनुसार गणित के १० विषय हैं- (१) परिकर्म (चार आधारभूत संक्रियाएँ), (२) व्यवहार (subjects of treatment), (३) रज्जु (ज्यामिति), (४) राशि (ठोस ज्यामिति), (५) कलासवर्ण (भिन्न), (६) यावत्-तावत् (सरल समीकरण), (७) वर्ग (वर्ग समीकरण), (८) घन (त्रिघात समीकरण), (९) वर्गवर्ग (biquadratic equation), तथा (१०) विकल्प (सांयोजिकी या 'permutation and combination') ।
109 स्थानांग सूत्र पर पारिभाषिक ग्रन्थ अभयदेवसूरि ११वीं शताब्दी संस्कृत में ; इसमें गणित के बहुत से विषय विधियाँ और संक्रियाएँ दी गयी हैं।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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सन्दर्भ

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