शंकर बालकृष्ण दीक्षित

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शंकर बालकृष्ण दीक्षित (जन्म 24 जुलाई 1853 - मृत्यु 20 अप्रैल 1898) भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषी थे। मराठी में लिखित "भारतीय ज्योतिषशास्त्र" आपका अमूल्य ग्रंथ है।

जीवनी[संपादित करें]

आपका जन्म महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में दापोली के पास मुरुड़ गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम बालकृष्ण तथा मां का नाम दुर्गा था। उनकी शिक्षा गांव के ही प्राइमरी स्कूल और बाद में वहीं के सरकारी स्कूल में हुई। उसी समय उन्होंने संस्कृत और वेद का अध्ययन किया। उसके बाद दो वर्ष तक अंग्रेजी भाषा का अध्ययन किया और 1870 में पूना के ट्रेनिंग कालेज में दाखिला लिया जहाँ से प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण की। वहाँ पढ़ते समय तक प्रतिदिन सुबह एक घंटा अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने जाते थे। 1874 में मैट्रीकुलेशन परीक्षा पास की। उसी वर्ष से वह अध्ययन करने लगे। उन्होंने कई विद्यालयों में अध्यापन किया और जिस समय उन्होंने ग्रंथों की रचना की उस समय उनकी अवस्था 35 वर्ष थी। जिस समय 'भारतीय ज्योतिष' मराठी में छपी उसके पहले तक वे मराठी में ही विद्यार्थी बुद्धिवर्धनी, सृष्टि चमत्कार, ज्योतिर्विलास और धर्ममीमांसा नामक पुस्तकें लिख चुके थे। उन्होंने राबर्ट सेवेल नामक विद्वान के साथ मिलकर अंग्रेजी में 'इंडियन कैलेंडर' नामक ग्रंथ लिखा। उसमें सन् 300 ईस्वी से 1900 तक सौर और चांद्रमासों के अधिमासों का विस्तृत वर्णन है। यह ग्रंथ जून 1896 में प्रकाशित हुआ।

गणित में आपकी रुचि बचपन से ही थी। विसाजी कृष्ण लेले के सायणवाद संबंधी लेखों को पढ़कर ज्योतिष में भी आपकी रुचि हुई। ठाणा के जनार्दन बालाजी मोडक, जिन्हें आप गुरु मानते थे, के स्नेह ने आपकी यह रुचि और भी अधिक बढ़ा दी।

डॉ॰ फ्लीट महोदय ने अपनी पुस्तक "गुप्त इंस्क्रिप्शन्स" में गुप्तों के कालनिर्णय में आपकी सहायता ली थी। इसी प्रकार सीवेल की पुस्तक "इंडियन कैलेंडर" आपके सहलेखकत्व में ही लिखी जा सकी। इसमें आपने अपने मौलिक विचारों को निर्भीकता के साथ रखा है। अपनी पुस्तक "भारतीय ज्योतिषशास्त्र" की प्रस्तावना में आपने भारतीय विद्वानों पर पाश्चात्य विद्वानों के प्रभाव का उल्लेख करते हुए हममें आत्मविश्वास की आवश्यकता पर जोर दिया।

भारतीय ज्योतिषशास्त्र आपका अमूल्य ग्रंथ है। केवल यही ग्रंथ आपकी कीर्ति को ऊपर करने के लिए पर्याप्त है। वैदिक काल से लेकर अपने समय तक ज्योतिष संबंधी सामग्री एकत्र कर उसपर आधारित अनुमानों की ऐतिहासिक दृष्टिकोण से आपने विवेचना की है। इसके लिए 500 से अधिक संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन आपने किया। इसके कारण आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य आदि ग्रंथकारों का परिचय मराठी में सुलभ हो सका। पंचांग संशोधन से संबंधित सामग्री तथा पक्ष और विपक्ष के विभिन्न तर्कों का संग्रह इसमें देखने को मिलता है। इसी ग्रंथ में सायण पंचांग की ग्राह्यता, वेदों की प्राचीनता तथा ज्योतिषशास्त्र में गणित की भारतीयता आदि विषयों में इनके मत भी देखने को मिलते हैं। थीबो, बर्गेस आदि यूरोपीय विद्वानों के उन भ्रमों का जिसमें भारतीय ज्योतिष पर ग्रीस और रोम का प्रभाव देखा जाता था आपने अपने तर्कों से निराकरण किया (भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ 513)

पाश्चात्य और पौरस्त्य ज्योतिष का आपका अध्ययन गम्भीर था। इसीलिए ज्योतिष से सम्बन्धित विषयों पर आप अधिकार के साथ बोलते थे। "दक्षिण प्राइज कमिटी" तथा गायकवाड सरकार ने आपके इस ग्रंथराज को पुरस्कृत कर गौरव का अनुभव किया। आपके इस ग्रंथ को पढ़ने के लिए अनेक देश-विदेश के विद्वानों को मराठी पढ़ने की स्फूर्ति मिली थी। वैदिक वाङ्मय की सम्पूर्ण आलोचना, वेदांगकालीन ज्योतिष की विवेचना और विद्वानों को कंठित करनेवाले अनेक मौलिक तर्कों के कारण इस पुस्तक की उपादेयता महनीय है।

भारतीय ज्योतिषशास्त्र[संपादित करें]

भारतीय ज्योतिषशास्त्र आपका अमूल्य ग्रंथ है। केवल यही ग्रंथ आपकी कीर्ति को ऊपर करने के लिए पर्याप्त है।

"भारतीय ज्योतिष' नामक ग्रंथ लिखने की प्रेरणा उन्हें पूना के "दक्षिण प्राइज कमेटी" की उस विज्ञप्ति से मिली जिसमें पंचांगों की दुरवस्था पर विचार कर ज्योतिष के इतिहास सहित ग्रंथ लिखने का आहवान किया गया था। इसके लिए 450 रुपया पारितोषिक रखा गया था। ग्रंथ लिखने की अवधि 1886 तक निर्धारित की गयी थी। दीक्षित जी ने यह जिम्मा लिया लेकिन लेखन कार्य शुरू करने के पहले प्राचीन और तत्कालीन उपलब्ध ग्रंथों के अध्ययन में ही समय निकल गया तो उन्होंने दक्षिण प्राइज कमेटी से समय बढ़ाने का आग्रह किया। समय बढ़ा और दीक्षित जी ने नवम्बर 1887 में ग्रंथ लिखना शुरू किया जो अक्टूबर 1888 तक पूर्ण हुआ। ग्रंथ पसंद किया गया और उन्हें पुरस्कार प्राप्त हुआ। दीक्षित जी ने इस ग्रंथ को लिखने के पहले पूना के आनन्दाश्रम के ज्योतिष संबंधी सभी 500 ग्रंथ पढ़ डाले हालांकि उनका कहना था कि उस समय तक ज्योतिष ग्रंथों की सूची में लगभग दो सौ ग्रंथ थे।

हिन्दी समिति ने जो अनुवाद प्रकाशित किया है, अनुक्रमणिका सहित 711 पृष्ठों का है। इसके मुख्यतः दो भाग हैं। पहला भाग वैदिक काल तथा वेदाङ्ग काल में ज्योतिष का विकास है और दूसरा भाग ज्योतिष सिद्धान्त काल का ज्योतिषशास्त्र का इतिहास है। इसके अतिरिक्त संहिता स्कन्ध, जातक स्कन्ध भी है और उपसंहार में पश्चिमी विद्वानों के खगोलशास्त्र संबंधी विचार और उनकी समीक्षा है। प्रथम भाग में वेदों की संहितायें, ब्राह्मणों और उपनिषदों में आये ज्योतिष संबंधी विषयों का वर्णन है। इसी में वेदांग, स्मृति और महाभारत में वर्णित ज्योतिष विषयों का भी वर्णन है हालांकि लेखक ने पुराणों और बाल्मीकि रामायण के ज्योतिष वर्णनों को छोड़ दिया है। पुस्तक का द्वितीय भाग सिद्धान्तकालीन ज्योतिष इतिहास है जिसमें प्राचीन सिद्धान्त पंचक से तत्कालीन सिद्धांत ज्योतिष विद्वानों में सुधाकर द्विवेदी तक के ग्रंथों की समीक्षा है।

मराठी में विज्ञान के लोकप्रियकरण में योगदान[संपादित करें]

स्वतंत्रतापूर्ण विज्ञान के लोकप्रियकरण के लिए अन्य भाषाओं की अपेक्षा मराठी में अधिक प्रयास हुए। १९वीं सदी के अंतिम दशकों में महाराष्ट्र के अनेक प्रमुख शहरों, जैसे पुणे और थाणे से निकलने वाले पत्रों में विज्ञान विषयक लेख होते थे और उन पर वाद-विवाद होता था, संपादक के नाम पत्र तक छपते थे। यद्यपि ये लेख मुख्यतः पंचाङ्ग शोधन, गृह, नक्षत्र, वेध और ग्रह गणित से ही सम्बन्धित होते थे लेकिन इससे पाठकों में जिज्ञासा जगती थी और उनमें खगोल विज्ञान के प्रति रुचि पैदा होती थी। इस तरह के लेख लिखने वालों में बापू देव शास्त्री, विसाजी रघुनाथ लेले, कृष्ण शास्त्री गोडबोले, बाल गंगाधर तिलक, केरोपंत क्षत्रे आदि प्रमुख थे। इनके लेख ज्ञानप्रकाश, केसरी, अरुणोदय, इन्द्रप्रकाश, पुणे वैभव आदि पत्रों में प्रकाशित होते थे।

लेकिन खगोल ज्योतिष और पंचांग शोधन के संबंध में सबसे महत्वपूर्ण कार्य श्री शंकर बालकृष्ण दीक्षित ने किया। इनके द्वारा लिखित ग्रंथ आज भी संदर्भ ग्रंथ के रूप में व्यवहृत हो रहे हैं। ग्रह गणित, ग्रह वेध और पंचांग शोधन के लिए दीक्षित जी के कार्य अपने समय के सर्वश्रेष्ठ कार्य हैं। यद्यपि उन्होंने तत्कालीन पत्रों में कई चर्चित लेख लिखे, अनेक पुस्तकों की रचना की लेकिन उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति "भारतीय ज्योतिष शास्त्रा चा इतिहास आणि परिचय" है। यह पुस्तक सन् 1888 अक्टूबर में लिखी गयी और 1896 में आर्य भूषण प्रेस से प्रकाशित हुई। इसे 1957 में हिन्दी समिति लखनऊ ने श्री शिवनाथ झारखंडी से अनुवाद कराकर 'भारतीय ज्योतिष' के नाम से प्रकाशित किया।

दीक्षित कृत 'भारतीय ज्योतिष' के अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह मात्र ज्योतिष ग्रंथों की समीक्षा नहीं करता अपितु समकालीन विज्ञान लेखन, विज्ञान के लोकप्रियकरण के स्वरूप को भी दर्शाता है। जैसे इसमें बताया गया है कि तत्कालीन ज्योतिषी किस तरह ग्रह, नक्षत्र वेध में कितनी रुचि लेते थे। इसमें अनेक ऐसे घटनात्मक वर्णन हैं जो भारतीय खगोल विज्ञान अध्ययन के मील के पत्थर हैं। पुस्त्क में पृष्ठ 579 पर बताया गया है कि 19 अगस्त 1887 को लगे सूर्यग्रहण में ग्वालियर में सूर्य विम्ब का लगभग (7/100) भाग का ग्रहण छाया था और विसाजी रधुनाथ लेले ने केवल नंगी आंखों और शीशे पर काजल लगाकर दो प्रकार से देखा था और वह ठीक से दिखाई भी दिया था। पुस्तक में लेले का यह कथन भी उद्धृत है कि इतना अल्पग्रास भी नेत्रों से देखना भयावह है। इससे नेत्रों को अत्यधिक हानि पहुँचने की संभावना रहती है। पुस्तक के पृष्ठ 463 पर बताया गया है कि मिरज निवासी नरसो गणेश भानु ने ग्रहों के वेध के लिए बनाये जाने वाले यंत्रों के चित्र बनाकर उनके पास भेजे थे। ये यंत्र संभवतः पीतल के ढलवाँ पात्रों से बनाये जाते थे। गणेश भानु सामान्य गृहस्थ थे, किंतु खगोल विज्ञान में उनकी रुचि थी। इसी तरह पुस्तक में ग्रहों के वेध के लिए किये जा रहे प्रयासों का भी वर्णन है। दीक्षित जी का कहना है कि पुणे के अनेक सामान्य जन यह जानते थे कि ग्रह और नक्षत्र भी तरह पूर्व में उदय होते हैं और पश्चिम में अस्त होते हैं और ध्रुव स्थिर नहीं है। खगोल संबंधी यह ज्ञान विज्ञान के लोकप्रिय होने का प्रमाण नहीं तो और क्या है?

दीक्षित जी ने पृष्ठ 413 पर बताया है कि सन् 1867 और 1868 में चिंतामणि रधुनाथ आचार्य ने, जो मद्रास वेधशाला में नियुक्त थे, दो रूपविकारी तारों की खोज की थी और ऐसी खोज करने वाले हिन्दुओं की सूची में उनका नाम प्रथम है। सन् 1874 में शुक्रग्रस्त सूर्यग्रहण हुआ था और रघुनाथाचार्य ने उसका गणित करके अनेक भाषाओं में प्रकाशित कराया था।

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]