भारतीय सिनेमा
भारतीय सिनेमा | |
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पर्दों की संख्या |
6,000 सिंगलप्लेक्स स्क्रीन (2016) 2,100 मल्टीप्लेक्स स्क्रीन [1] |
• प्रति व्यक्ति | 0.6 प्रति 100,000 (2016)[2] |
निर्मित कथा चित्र (2017)[3] | |
कुल | 1,986 |
कुल लागत (2016)[4] | |
कुल | 2,200,000,000 |
कुल कमाई (2017)[7] | |
कुल | 156 करोड़ डॉलर / 11059 करोड़ रुपए [5] (US$साँचा:To USD billion) |
राष्ट्रीय फ़िल्में | India: US$2.1 billion (2015)[6] |
श्रृंखला |
भारत की संस्कृति |
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भारतीय सिनेमा के अन्तर्गत भारत के विभिन्न भागों और भाषाओं में बनने वाली फिल्में आती हैं जिनमें हिन्दी सिनेमा (बॉलीवुड), तेलुगू सिनेमा (टॉलीवुड), असमिया सिनेमा (असम), मैथिली सिनेमा (बिहार), छॉलीवुड (छत्तीसगढ़), ब्रजभाषा चलचित्रपट (उत्तर प्रदेश), गुजराती सिनेमा (गुजरात), हरियाणवी सिनेमा (हरियाणा), कश्मीरी (जम्मू एवं कश्मीर), झॉलीवुड (झारखंड), कन्नड सिनेमा (कर्नाटक), मलयालम सिनेमा (केरल), मराठी सिनेमा (महाराष्ट्र), उड़िया सिनेमा (ओडिशा), पंजाबी सिनेमा (पंजाब), राजस्थान का सिनेमा (राजस्थान), कॉलीवुड (तमिलनाडु) और बाङ्ला सिनेमा (पश्चिम बंगाल) शामिल हैं।[8][9] भारतीय सिनेमा ने २०वीं सदी की शुरुआत से ही विश्व के चलचित्र जगत पर गहरा प्रभाव छोड़ा है।। भारतीय फिल्मों का अनुकरण पूरे दक्षिणी एशिया, ग्रेटर मध्य पूर्व, दक्षिण पूर्व एशिया और पूर्व सोवियत संघ में भी होता है। भारतीय प्रवासियों की बढ़ती संख्या की वजह से अब संयुक्त राज्य अमरीका और यूनाइटेड किंगडम भी भारतीय फिल्मों के लिए एक महत्वपूर्ण बाजार बन गए हैं। एक माध्यम(परिवर्तन) के रूप में सिनेमा ने देश में अभूतपूर्व लोकप्रियता हासिल की और सिनेमा की लोकप्रियता का इसी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि यहाँ सभी भाषाओं में मिलाकर प्रति वर्ष 1,600 तक फिल्में बनी हैं। भारतीय सिनेमा किसी भी अन्य देश की तुलना में अधिक लोगों द्वारा देखी गई फिल्मों का उत्पादन करता है; 2011 में, पूरे भारत में 3.5 बिलियन से अधिक टिकट बेचे गए, जो हॉलीवुड से 900,000 अधिक थे।भारतीय सिनेमा कभी-कभी बोलचाल की भाषा में इंडीवूड के रूप में जाना जाता है [10][11]
दादा साहेब फाल्के भारतीय सिनेमा के जनक के रूप में जाना जाते हैं।[12][13][14][15] दादा साहब फाल्के के भारतीय सिनेमा में आजीवन योगदान के प्रतीक स्वरुप और 1969 में दादा साहब के जन्म शताब्दी वर्ष में भारत सरकार द्वारा दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की स्थापना उनके सम्मान में की गयी। आज यह भारतीय सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित और वांछित पुरस्कार हो गया है।[16]
२०वीं सदी में भारतीय सिनेमा, संयुक्त राज्य अमरीका का सिनेमा हॉलीवुड तथा चीनी फिल्म उद्योग के साथ एक वैश्विक उद्योग बन गया।[17] 2013 में भारत वार्षिक फिल्म निर्माण में पहले स्थान पर था इसके बाद नाइजीरिया सिनेमा, हॉलीवुड और चीन के सिनेमा का स्थान आता है।[18][19] वर्ष 2012 में भारत में 1602 फ़िल्मों का निर्माण हुआ जिसमें तमिल सिनेमा अग्रणी रहा जिसके बाद तेलुगु और बॉलीवुड का स्थान आता है।[10] भारतीय फ़िल्म उद्योग की वर्ष 2011 में कुल आय $1.86 अरब (₹ 93 अरब) की रही। [20] बढ़ती हुई तकनीक और ग्लोबल प्रभाव ने भारतीय सिनेमा का चेहरा बदला है। अब सुपर हीरो तथा विज्ञानं कल्प जैसी फ़िल्में न केवल बन रही हैं बल्कि ऐसी कई फिल्में एंथीरन, रा.वन, ईगा और कृष 3 ब्लॉकबस्टर फिल्मों के रूप में सफल हुई है।[17] भारतीय सिनेमा ने 90 से ज़्यादा देशों में बाजार पाया है जहाँ भारतीय फिल्मे प्रदर्शित होती हैं। [21] दंगल दुनिया भर में $ 300 मिलियन से अधिक की कमाई करके अंतरराष्ट्रीय ब्लॉकबस्टर बन गयी।[22]
सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, अडूर गोपालकृष्णन, बुद्धदेव दासगुप्ता, जी अरविंदन, अपर्णा सेन, शाजी एन करुण, और गिरीश कासरावल्ली जैसे निर्देशकों ने समानांतर सिनेमा में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और वैश्विक प्रशंसा जीती है। शेखर कपूर, मीरा नायर और दीपा मेहता सरीखे फिल्म निर्माताओं ने विदेशों में भी सफलता पाई है। 100% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रावधान से 20वीं सेंचुरी फॉक्स, सोनी पिक्चर्स, वॉल्ट डिज्नी पिक्चर्स और वार्नर ब्रदर्स आदि विदेशी उद्यमों के लिए भारतीय फिल्म बाजार को आकर्षक बना दिया है। [23][24][25] एवीएम प्रोडक्शंस, प्रसाद समूह, सन पिक्चर्स, पीवीपी सिनेमा,जी, यूटीवी, सुरेश प्रोडक्शंस, इरोज फिल्म्स, अयनगर्न इंटरनेशनल, पिरामिड साइमिरा, आस्कार फिल्म्स पीवीआर सिनेमा यशराज फिल्म्स धर्मा प्रोडक्शन्स और एडलैब्स आदि भारतीय उद्यमों ने भी फिल्म उत्पादन और वितरण में सफलता पाई। [25] मल्टीप्लेक्स के लिए कर में छूट से भारत में मल्टीप्लेक्सों की संख्या बढ़ी है और फिल्म दर्शकों के लिए सुविधा भी। 2003 तक फिल्म निर्माण / वितरण / प्रदर्शन से सम्बंधित 30 से ज़्यादा कम्पनियां भारत के नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध की गयी थी जो फिल्म माध्यम के बढ़ते वाणिज्यिक प्रभाव और व्यसायिकरण का सबूत हैं।
भारतीय सिनेमा उद्योग भाषा द्वारा खंडित है। बॉलीवुड या हिंदी भाषा फिल्में सबसे बड़ा 43% बॉक्स ऑफिस राजस्व का योगदान करता है। तमिल सिनेमा और तेलुगू सिनेमा फिल्में 36% राजस्व का प्रतिनिधित्व करते हैं.[26] दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग दक्षिण भारत की चार फिल्म संस्कृतियों को एक इकाई के रूप में परिभाषित करता है। ये कन्नड़ सिनेमा, मलयालम सिनेमा, तेलुगू सिनेमा और तमिल सिनेमा हैं। हालाँकि ये स्वतंत्र रूप से विकसित हुए हैं लेकिन इनमे फिल्म कलाकारों और तकनीशियनों के आदान-प्रदान और वैष्वीकरण ने इस नई पहचान के जन्म में मदद की।
भारत से बाहर निवास कर रहे प्रवासी भारतीय जिनकी संख्या आज लाखों में हैं, उनके लिए भारतीय फिल्में डीवीडी या व्यावसायिक रूप से संभव जगहों में स्क्रीनिंग के माध्यम से प्रदर्शित होती हैं। [27] इस विदेशी बाजार का भारतीय फिल्मों की आय में 12% तक का महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। इसके अलावा भारतीय सिनेमा में संगीत भी राजस्व का एक साधन है। फिल्मों के संगीत अधिकार एक फिल्म की 4 -5 % शुद्ध आय का साधन हो सकते हैं।
इतिहास
[संपादित करें]भारत में सिनेमा का इतिहास फिल्म युग की शुरुआत तक फैला हुआ है। ल्यूमियर (Lumière)और रॉबर्ट पॉल की लंदन (1896) में चलती हुई तस्वीरों की स्क्रीनिंग के बाद, व्यावसायिक छायांकन दुनिया भर में सनसनी बन गया और 1896 के मध्य तक बंबई (अब मुंबई) में लुमीएरे और रॉबर्ट पॉल दोनों फिल्मों को दिखाया गया था।
मूक फिल्में (1890 से 1920)
[संपादित करें]1897 में प्रोफेसर स्टीवेंसन द्वारा एक फिल्म प्रस्तुति कलकत्ता स्टार थियेटर में एक स्टेज शो में की गयी। स्टीवेंसन के प्रोत्साहन और कैमरा से हीरालाल सेन, एक भारतीय फोटोग्राफर ने उस स्टेज शो के दृश्यों से 'द फ्लॉवर ऑफ़ पर्शिया' (1898) [फारस के फूल] फिल्म बनाई। [28] एच एस भटवडेकर की 'द रेस्लर्स' (1899) पहलवान जो मुंबई के हैंगिंग गार्डन में एक कुश्ती मैच को दिखती है किसी भारतीय द्वारा शूट की हुई पहली फिल्म थी। यह पहली भारतीय वृत्तचित्र फिल्म भी थी।[उद्धरण चाहिए]
दादा साहेब तोरणे (आर॰ जी॰ तोर्णे) की 'पुण्डलिक' एक मूक मराठी फिल्म पहली भारतीय फिल्म थी जो 18 मई 1912 को 'कोरोनेशन सिनेमेटोग्राफ', मुंबई, भारत में रिलीज़ हुई।[29][30] कुछ लोगो का मत है की पुण्डलिक पहली भारतीय फिल्म के सम्मान की अधिकारी नहीं है, जिसके कई कारण हैं :- 1.उनकी यह फ़िल्म एक लोकप्रिय मराठी नाटक की रिकॉर्डिंग मात्र थी। 2. इसका चलचित्रकार जॉनसन एक ब्रिटिश नागरिक था। 3. इस फिल्म की प्रोसेसिंग लंदन में हुई थी।[31][32]
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भारत की पहली पूरी अवधि की फीचर फिल्म का निर्माण दादा साहब फाल्के द्वारा किया गया था। दादासाहब भारतीय फिल्म उद्योग के अगुआ थे। वो भारतीय भाषाओँ और संस्कृति के विद्वान थे जिन्होंने संस्कृत महा काव्यों के तत्वों को आधार बना कर राजा हरिश्चन्द्र (1913), मराठी भाषा की मूक फिल्म का निर्माण किया। इस फिल्म में पुरुषों ने महिलाओं का किरदार निभाया।[33] यह फिल्म भारतीय सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। इस फिलम का सिर्फ एक ही प्रिंट बनाया गया था और इसे 'कोरोनेशन सिनेमेटोग्राफ' में 3 मई 1913 को प्रदर्शित किया गया। फिल्म को व्यावसायिक सफलता मिली और इसने अन्य फिल्मो के निर्माण के लिए अवसर प्रदान किया। तमिल भाषा की पहली मूक फिल्म कीचक वधम का निर्माण रंगास्वामी नटराज मुदालियर ने 1916 में किया। मुदालियर ने मद्रास में दक्षिण भारत के पहले फिल्म स्टूडियो की स्थापना भी की।[34][35]
पारसी उद्यमी जमशेदजी फ्रामजी मदन के मदन थिएटर पहली भारतीय सिनेमा थिएटर श्रृंखला थे। जमशेदजी 1902 से हर साल 10 फिल्मों का निर्माण और उनका भारतीय उपमहाद्वीप में वितरण करते थे। [33] उन्होंने कोलकाता में एल्फिंस्टन बॉयोस्कोप कंपनी की स्थापना भी की। एल्फिंस्टन का 1919 में मदन थिएटर लिमिटेड में विलय हुआ जिसके माध्यम से बंगाल के कई लोकप्रिय साहित्यिक कार्यों को स्टेज पर आने का मौका मिला। उन्होंने 1917 में 'सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र' का निर्माण भी किया जो दादासाहब फाल्के की 'राजा हरिश्चंद्र' (1913) का रीमेक थी।
रघुपति वेंकैया नायडू एक कलाकार थे जो मूक और बोलती भारतीय फिल्मों के अगुआ थे। [36] 1909 से वो भारतीय सिनेमा इतिहास के कई पहलुओं से जुड़े थे, जैसे की एशिया के विभिन्न क्षेत्रों में फिल्मो के प्रचार और बढ़ावे के लिए भ्रमण। वो मद्रास के पहले भारतीय सिनेमा हाल गेयटी टॉकीज के निर्माता और स्वामी थे। उन्हें तेलुगु सिनेमा के पिता के रूप में श्रेय दिया गया।[37] दक्षिण भारत में, पहली तमिल टॉकी कालिदास तमिल को 31 अक्टूबर 1931 को रिलीज़ किया गया था।[37] नटराज मुदलियार ने मद्रास में दक्षिण भारत का पहला फिल्म स्टूडियो स्थापित किया। [38]
बीसवी सदी के प्रारंभिक सालों में सिनेमा भारत की जनता के विभिन्न वर्गों में एक माध्यम के रूप में लोकप्रिय हुआ। सिनेमा टिकट को कम दाम पर आम जनता के लिए सस्ता बनाया गया। आर्थिक रूप से सक्षम लोगों के लिए अतिरिक्त आराम देकर प्रवेश टिकट के दाम बढ़ाये गये, क्योंकि मनोरंजन के इस सस्ते माध्यम सिनेमा की टिकट बम्बई में 1 आना (4 पैसा ) के कम दाम में मिलती थी इसी लिए दर्शकों के भीड़ सिनेमा घरों में नज़र आने लगी। इसके साथ ही भारतीय व्यावसायिक सिनेमा की विषय वस्तु को जल्दी से जनता के आकर्षण के हिसाब से ढाला गया।[39] युवा भारतीय निर्माता भारत के सामाजिक जीवन और संस्कृति के तत्वों को सिनेमा में सम्मिलित करने लगे। [39] अन्य निर्माता विश्व के कई कोनो से विचार लाने लगे[39] इन सब वजहों से दुनिया भर के फिल्म दर्शक और फिल्म बाजार भारतीय फिल्म उद्योग के बारे में जानने लगे। [39]
1927 में ब्रिटिश सरकार ने ब्रिटिश फिल्मों को अमरीकी फिल्मों पर प्राथमिकता देने के लिए 'इंडियन सिनेमेटोग्राफ इन्क्वारी कमेटी' गठित की। आई सी सी में टी. रंगाचारी (मद्रास के एक वकील) के नेतृत्व में तीन ब्रिटिश और तीन भारतीय मेम्बर थे.[40] इस कमेटी ने ब्रिटिश फिल्मो को समर्थन देने की वांछित सिफारिश देने की जगह नवजात भारतीय फिल्म उद्योग को समर्थन की सलाह दी। परिणाम स्वरुप इनकी सिफारिशों को ख़ारिज कर दिया गया।
टॉकीज़ (1930-मध्य -1940 के दशक)
[संपादित करें]अर्देशिर ईरानी ने पहली भारतीय बोलती फिल्म आलमआरा 14 मार्च 1931 को रिलीज़ की।[33] ईरानी केवल 7 महीने बाद 31 अक्टूबर 1931, को रिलीज़ हुई पहली दक्षिण भारतीय बोलती फिल्म एच. एम. रेड्डी द्वारा निर्देशित तमिल फिल्म कालिदास के निर्माता भी थे।[41][42] जुमई शास्ति पहली बंगाली बोलती फिल्म थी। 'टॉकीज' के भारत आगमन के बाद कई फिल्म स्टारों की मांग बहुत बढ़ गयी और वह अभािनय के माध्यम से आरामदायक आमदनी कमाने लगे। [33] चित्तोर वी. नागया, पहले बहुभाषी फिल्म अभिनेता, गायक, संगीतकार निर्माता और निर्देशक थे। वो भारत के पॉल मुनि के रूप में जाने जाते थे।[43][44]
1932 में, "टॉलीवुड" का नाम बंगाली फिल्म उद्योग के लिए रखा गया क्योंकि ये टॉलीगंज नाम का "हॉलीवुड" के साथ तुकबंदी था। टॉलीगंज तब भारतीय फिल्म उद्योग का केंद्र था। बॉम्बे ने बाद में टॉलीगंज को उद्योग के केंद्र के रूप में पछाड़ दिया और "बॉलीवुड" और कई अन्य हॉलीवुड से प्रेरित नामों को जन्म दिया ।
1937 में ईस्ट इंडिया फिल्म कंपनी ने कलकत्ता में शूट हुई अपनी पहली भारतीय फिल्म सावित्री रिलीज़ की। 75 हज़ार के बजट में बनी यह फिल्म प्रसिद्ध नाटक म्यलवरम बाल भारती समाजम, पर आधारित थी। निर्देशक सी. पुलइया ने इसमें थिएटर अभिनेता वेमुरी गगइया और दसारी रामाथिलकम को यम और सावित्री के रूप में लिया [45] इस ब्लॉकबस्टर फिल्म को वेनिस फिल्म समारोह में माननीय डिप्लोमा मिला।[46]
10 मार्च 1935 को, एक और अग्रणी फिल्म निर्माता ज्योति प्रसाद अग्रवाल ने असमिया में अपनी पहली फिल्म जॉयमोती बनाई। फिल्मों के बारे में और जानने के लिए ज्योति प्रसाद बर्लिन गए। इंद्रमलती एक और फिल्म है जिसे उन्होंने खुद जॉयमोती के बाद निर्मित और निर्देशित किया था। पहला तेलुगु फिल्म स्टूडियो दुर्गा सिनेटोन 1936 में निदामरथी सुरैय्या द्वारा राजाहमुन्द्री, आंध्र प्रदेश में स्थापित किया गया [47] 1930 के दशक में भारतीय सिनेमा में ध्वनि तकनीक की प्रगति के साथ संगीत और संगीतमय फिल्में जैसे इंद्र सभा और देवी देवयानी के माध्यम से फिल्मों में नाच और गाने का प्रारभ हुआ [33] देवदास, जैसी फिल्मों की देशव्यापी सफलता के बाद और फिल्म निर्माण के एक शिल्प के रूप में उदय के साथ कई मुख्य शहरों चेन्नई, कोलकाता और मुंबई में फिल्म स्टूडियो उभरे। [48] 1940 की फिल्म 'विश्व मोहिनी' भारतीय फिल्म जगत को दर्शाने वाली पहली फिल्म है। इस फिल्म को वाइ. वी. राव ने निर्देशित किया और बलिजेपल्ली लक्ष्मीकांता कवि ने लिखा था।[49]
स्वामीकन्नु विन्सेंट, कोयंबटूर, में पहले सिनेमा हॉल का निर्माता ने "टेन्ट सिनेमा" की शुरुआत की जिसमे शहर या गाँव के नज़दीक खुले मैदान में टेंट लगा कर फिल्मों का प्रदर्शन किया जाता है। एडिसन ग्रैंड सिनेमामेगाफोन नामक पहला स्थाई टेंट सिनेमा मद्रास के एस्प्लेनेड में शुरू हुआ। [50] 1934 में हिमांशु राय, देविका रानी और , राजनारायण दुबे ने उद्योगपति एफ ई दीनशॉ, सर फ़िरोज़ सेठना के साथ मिल कर बॉम्बे टॉकीज़ स्टूडियो शुरू किया. पुणे के 'प्रभात स्टूडियो' ने मराठी दर्शकों के लिए फिल्मों का निर्माण शुरू किया।[48] फिल्मनिर्माता आर इस डी चौधरी की फिल्म व्राथ (1930) पर ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में प्रतिबन्ध लगाया गया क्यों की इसमें भारतीयों को नेताओं के रूप में और भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान इस तरह के चित्रण पर रोक थी।[33] तुकाराम (1608–50), वरकरी संत और आध्यात्मिक कवि के जीवन पर आधारित 1936 की फिल्म संत तुकाराम 1937 'वेनिस फिल्म समारोह' के दौरान प्रदर्शित हुई और किसी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में दिखाई गयी पहली फिल्म बन गयी.[51] 1938 में [गुडावल्ली रामाब्रह्मम द्वारा सह निर्मित और निर्देशित सामाजिक समस्या फिल्म रायथू बिड्डा, ब्रिटिश प्रशासन द्वारा प्रतिबंधित की गयी क्यों की इसमें किसानों द्वारा ज़मींदार के विरूद्ध बगावत दिखाई गयी थी। [52][53]

भारतीय मसाला फिल्म— रोमांस, नाच, गाने वाली व्यावसायिक फिल्म के लिए कठबोली शब्द — का उद्भव दुसरे विश्व युद्ध के बाद हुआ।[48] दक्षिण भारतीय सिनेमा ने एस एस वासन के फिल्म चंद्रलेखा के साथ पूरे भारत में शोहरत हासिल की।[48] 1940 के दशक के दौरान पूरे भारत के सिनेमा हालों में से आधे से ज़्यादा दक्षिण भारत में थे और सिनेमा को सांस्कृतिक पुनर्निर्माण के साधन के रूप में देखा जाने लगा।[48] स्वंतत्रा के बाद भारत विभाजन की वजह से भारत की सिनेमा परिसंपत्तियाँ भी विभाजित हुई और कई स्टूडियो नव निर्मित पाकिस्तान के पास चले गए [48] बँटवारे का विवाद और दंगे अगले कई दशको तक फिल्म निर्माण के लिए चिरस्थायी विषय बने रहे।[48]

भारत की स्वतंत्रता के बाद, एस. के. पाटिल समिति ने भारतीय सिनेमा की तहकीकात व् समीक्षा की। [54] एस. के. पाटिल, समिति प्रमुख ने भारत में सिनेमा को 'कला, उद्यम और मनोरंजन' का मिश्रण कहा और इसके व्यावसायिक महत्व पर भी ध्यान दिया। [54] पाटिल ने वित्त मंत्रालय के अंतर्गत फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन की स्थापना की सिफारिश भी की। [55] इस परामर्श को मानते हुए 1960 में पूरे भारत के प्रतिभाशाली फिल्मकारो की आर्थिक मदद के लिए इस की स्थापना की गयी [55] भारत सरकार ने 1948 'फिल्म डिवीज़न' को स्थापित किया जो आगे चल कर सालाना 200 लघु वृत्तचित्र (18 भाषा में 9000 प्रिंट संपूर्ण भारत में स्थायी सिनेमाघरों के लिए) का निर्माण कर के विश्व का सबसे बडा वृत्तचित्र निर्माता बन गया। [56]
इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा), कम्युनिस्ट झुकाव वाले एक कला आंदोलन ने 1940 और 1950 के दशक में स्वरूप लिया।[54] इप्टा के कई यथार्थवादी नाटकों जैसे 1944 में विजन भट्टाचार्य' का नबन्ना (1943 के बंगाल के अकाल त्रासदी पर आधारित), ने भारतीय सिनेमा में यथार्थवाद की जड़ें मज़बूत की। इसका उदहारण ख़्वाजा अहमद अब्बास' की धरती के लाल (1946) है।[54] इप्टा प्रेरित आंदोलन लगातार सच्चाई और वास्तविकता पर ज़ोर देता रहा जिसके फलस्वरूप मदर इंडिया और प्यासा सरीखी भारत की सबसे अधिक पहचानी जाने वाली फिल्मों का निर्माण हुआ।[57]
भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग
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भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के बाद, 1944 से 1960 की काल अवधि फिल्म इतिहासकारों द्वारा भारतीय सिनेमा का स्वर्ण युग मन जाता है।[64][65][66] पूरे भारतीय सिनेमा इतिहास की समीक्षकों द्वारा सर्वाधिक प्रशंसित फिल्में इस समय निर्मित हुई थी।
इस अवधि में बंगाली सिनेमा के नेतृत्व में एक नया समानांतर सिनेमा आंदोलन उभरा [67] इस आंदोलन की कुछ पहले उदाहरण फिल्मों चेतन आनंद' की नीचा नगर (1946),[68] ऋत्विक घटक' की नागरिक (1952),[69][70] और बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन (1953), ने नव यथार्तवाद[71] और "नयी भारतीय लहर " की नींव रखी .[72] पथेर पांचाली (1955), जो की सत्यजित राय की अपु त्रयी (1955–1959) का पहला भाग था, ने रॉय के भारतीय सिनेमा में प्रवेश की घोषणा थी। [73] अपु त्रयी ने विश्व भर के प्रधान फिल्म समारोहों में प्रमुख पुरुस्कार जीते और भारतीय सिनेमा में 'समानांतर सिनेमा' आंदोलन को सुदृढ़ता से स्थापना की. विश्व सिनेमा पर इसका प्रभाव उन " युवा कमिंग ऑफ ऎज नाटक फिल्मों के रूप में देखा जा सकता है जो 1950 से कला घरों में बाढ़ के रूप में फ़ैल रही है और "अपु त्रयी की कर्ज़दार" हैं। [74]
चलचित्रकार सुब्रत मित्र, जिनकी पहली फिल्म पथेर पांचाली थी का विश्व सिनेकला पर महतवपूर्ण प्रभाव पड़ा . उनकी एक ज़रूरी तकनीक थी बाउंस लाइटिंग, जिसका इस्तमाल करके वह सेट पर दिन के प्रकाश का प्रभाव लाते थे। उन्होंने इस तकनीक को अपराजितो (1956),अपु त्रयी का दूसरा भाग की शूटिंग के दौरान पहली बार इस्तेमाल किया। [75] कुछ और प्रोयगात्मक तकनीक जिनकी सत्यजित राय ने अगुआई करी, उसमे शामिल हैं फोटो-नेगेटिव फ्लैशबैक(कथन) एक्स -रे विषयांतर प्रतिद्वंदी (1972) की शूटिंग के दौरान .[76] कैंसिल हुई 'द एलियन' नामक फिल्म के 1967 में लिखी हुई पठकथा को स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्म ई.टी. द एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल (1982) की प्रेरणा माना जाता है .[77][78][79] सत्यजित राय और ऋत्विक घटक ने आगे चलकर कई और समीक्षक प्रशंसित कला फिल्म का निर्देशन किया। उनके अनुरसरण उनके पद चिन्हों पर चलते हुए अन्य प्रशंसित स्वतंत्र भारतीय फ़िल्मकार मृणाल सेन, मणि कौल, अडूर गोपालकृष्णन, जी. अरविन्दन और बुद्धदेब दासगुप्ता ने किया.[67] 1960s के दशक में इंदिरा गांधी के सूचना और प्रसारण मंत्री कार्यकाल में उनके हस्तक्क्षेप से फिल्म फाइनेंस कारपोरेशन द्वारा और भिन्न सिनेमाई अभिव्यक्ति वाली फिल्मों का निर्माण हुआ। [55]
व्यावसायिक बॉलीवुड। हिंदी सिनेमा भी कामयाब हो रहा था। इस दौर की प्रशंसित फिल्मों में गुरु दत्त की प्यासा (1957) and कागज़ के फूल (1959) और राज कपूर की आवारा (1951) and श्री 420 (1955). ये फिल्मे उस दौर के सामाजिक विषय जो की उस वक़्त के शहरी कामकाजी वर्ग की ज़िन्दगी से जुड़े थे को दर्शाती थी ; आवारा में शहर को भयावह और खूबसूरत सपने की तरह दिखाया गया जबकि प्यासा ने शहरी जीवन के मायाजाल की आलोचना की।[67] कुछ प्रसिद्ध फिल्मे भी इस समय निर्मित हुई जैसे मेहबूब खान की मदर इंडिया (1957), जिसे विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म के अकादमी पुरस्कार,[80] का नामांकन भी मिला और के. आसिफ'की मुग़ल-ए-आज़म (1960)(1960).[81] वी. शांताराम 'की दो आँखें बारह हाथ (1957) को हॉलीवुड फिल्म द डर्टी डॉजेन (1967) की प्रेरणा भी कहा जाता है (1967)।[82] बिमल रॉय द्वारा निर्देशित और ऋत्विक घटक द्वारा लिखित मधुमती (1958) ने पुनर्जन्म के विषय को लोकप्रिय पश्चिम संस्कृति में बढ़ावा दिया.[83] अन्य लोकर्पिय मुख्य धारा के फिल्मेकर थे कमाल अमरोही और विजय भट्ट
1946 में काँस फिल्म फेस्टिवल में चेतन आनंद की सामाजिक यथार्थवादी फिल्म नीचा नगर के प्रधान पुरुस्कार जीतने के बाद [68] 1950 और 1960 के दशक में भारतीय फिल्मे लगातार काँन्स पालमे डी'ओर के मुकाबले में बानी रही और उन में से कई फिल्मों ने पुरुस्कार भी जीते। सत्यजित राय ने अपु त्रयी की अपनी दूसरी फिल्म अपराजितो (1956) के लिए वेनिस फिल्म समारोह में स्वर्ण सिंह और बर्लिन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में स्वर्ण भालू और दो रजत भालू भी जीते। [84] रे के समकालीन ऋत्विक घटक और गुरु दत्त की उनके जीवन काल में हालाँकि उपेक्षा हुई पर 1980 और १९९० के दशक में विलम्ब के साथ अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिली। [84][85] राय को घटक और दत्त के साथ 20वी शताब्दी का सिनेमा के महानतम फिल्मकारों में से एक माना जाता है। [86][87][88] 1992 में साईट और साउंड समीक्षक मतदान में राय को 10 सर्वकालीन श्रेष्ठ निर्देशकों में #7 चुना [89] जबकि 2012 में साईट और साउंड के श्रेष्ठ निर्देशकों मतदान में दत्त को #73 स्थान मिला। [87]
सिवाजी गणेशन अंतरराष्ट्रीय पुरुस्कार पाने वाले पहले भारतीय अभिनेता बने जब उन्होंने 1960 के एफ्रो एशियाई फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का खिताब जीता और 1995 में फ्रेंच सरकार ने उन्हें लीजन ऑफ़ ऑनर में शेवलिएर का सम्मान दिया। .[90] तमिल सिनेमा ने [[तमिल सिनेमा और द्रविड़ राजनीति|द्रविड़ राजनीति]],[91] पर अपना प्रभाव छोड़ा और कई प्रसिद्ध फिल्म व्यक्ति जैसे सी एन अन्नादुरै, एम जी रामचंद्रन, एम करूणानिधि और जयललिता तमिलनाडु के मख्यमंत्री बने। [92]
इस स्वर्ण युग की कई फिल्मे की गिनती समीक्षकों और निर्देशकों के मतानुसार सर्वकालीन श्रेष्ठ फिल्मे में की जाती है। इस दौरान दक्षिण भारतीय सिनेमा महा ग्रन्थ महाभारत पर आधारित कुछ फिल्म निर्माण हुए जैसे मायाबाज़ार, आईबीएन लाइव के 2013 मतदान के सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म [93]इन्डोनेशियाई फिल्म समारोह में नार्थंसला ने सर्वश्रेष्ठ निर्माण योजना और एस. वी. रंगा राव को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरुस्कार मिला।[94] साईट और साउंड समीक्षक मतदानो में सत्यजित राय की कई फिल्मों को स्थान मिला जिनमे 'अपु त्रयी' The Apu Trilogy (ranked No. 4 in 1992 if votes are combined),[95] जलसाघर (1992 में #27 क्रमांक), चारुलता (1992 में #41 क्रमांक2)[96] and अरण्येर दिन रात्रि (1982 में #81 क्रमांक).[97] 2002 साईट और साउंड समीक्षक और निर्देशक मतदान में गुरु दत्त की प्यासा और कागज़ के फूल (दोनों #160 क्रमांक पर ), ऋत्विक घटक की मेघे ढाका तारा (#231 क्रमांक) और कोमल गांधार (#346 क्रमांक), राज कपूर की आवारा, विजय भट्ट' की बैजू बावरा(1952 फिल्म), महबूब खान की मदर इंडिया और के. आसिफ़ की मुग़ल ए आज़म भी शामिल थी .[98] 1998 में एशियाई सिनेमा मैगज़ीन सिनेमाया के समीक्षक मतदान में भी राय की अपु त्रयी(मतों को मिलकर #1) , चारुलता(#11) और जलसाघर(#11), घटक की सुबर्णरेखा (#11) स्थान मिला .[88] 1999 में द विलेज वॉयस के सदी की सर्वश्रेष्ठ 250 फिल्म मत में फिर से अपु त्रयी को मतों को मिलकर 5वा स्थान मिला.[99] 2005 में , अपु त्रयी और प्यासा को टाइम मैगज़ीन की सर्वकालीन 100 श्रेष्ठ फिल्म स्थान मिला.[100]
आधुनिक भारतीय सिनेमा
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1970 के दशक में भी श्याम बेनेगल जैसे कई फ़िल्मकार यथार्थवादी सामानांतर सिनेमा का निर्माण करते रहे। [103] इस दौरान सक्रिय फ़िल्मकार थे सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, बुद्धदेव दासगुप्ता और गौतम घोष बंगाली सिनेमा में, के बालाचंदर, बालू महेंद्र, भारथीराजा और मणि रत्नम तमिल सिनेमा में , अडूर गोपालकृष्णन, शाजी एन करुण , जी अरविंदन, जॉन अब्राहम, भारथन और पद्मराजन मलयालम सिनेमा में, नीरद एन. मोहपात्रा ओड़िया सिनेमा, के. एन. टी सास्त्री और बी. नरसिंग राव तेलुगु सिनेमा में; और मणि कौल, कुमार शाहाणी, केतन मेहता, गोविन्द निहलानी और विजया मेहता हिंदी सिनेमा में. फिल्म फिनान्स कारपोरेशन ने ऐसी कई फिल्मों की आर्थिक मदद भी की लेकिन कला फिल्मों के प्रति इस झुकाव की सरकारी उपक्रमों की जांच कमिटी ने 1976 में व्यवासयिक सिनेमा को बढ़ावा न देने के लिए आलोचना भी की। [104]
दक्षिण भारतीय अभिनेता कमल हसन को 6 साल की आयु में अपनी पहली फिल्म कलाथुर कन्नम्मा के लिए राष्ट्रपति का स्वर्ण मेडल मिला।[94] उन्हें भारतीय सिनेमा में अपने योगदान के लिए 1990 में पद्म श्री और 2014 में पद्म भूषण सम्मान भी मिला। [93] हासन को ममूटी और अमिताभ बच्चन के साथ सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के लिये 3 राष्ट्रीय फिल्म अवार्ड भी मिले हैं। तमिल फिल्म थेवर मगन के लिए सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय फिल्म अवार्ड भी हासन को निर्माता के तौर पर पर मिला है। कमल ने पांच भाषाओँ में रिकॉर्ड 19 फिल्मफेयर अवार्ड भी जीते हैं ; 2000 में अपना आखिरी अवार्ड जीतने के बाद उन्होंने फिल्मफेयर को लिख कर और अपने आप को अवार्ड न देने की गुज़ारिश की। [83][95] 2003 में रॉटरडैम फिल्म समारोह में उनकी फिल्मे हे राम , पुष्पक, नायकन (1987 फिल्म) और कुरथीपूणल निर्देशक फोकस में प्रदर्शित हुई [96] 2004 में पुचोन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में विरुमांडी ने पहला सर्वश्रेष्ठ एशियाई फिल्म का ख़िताब जीता.[41][96]
1970 के दशक में व्यवासयिक सिनेमा ने भी कुछ चिरस्थायी फिल्में जैसे आनंद (1971), अमर प्रेम (1971) and कटी पतंग (1972), जिन्होंने राजेश खन्ना को भारतीय सिनेमा का पहला सुपरस्टार या महानायक बनाया, के साथ उन्नति हासिल की . 1970 दशक के आखरी सालों में अमिताभ बच्चन ज़ंजीर (1974) और भारतीय सिनेमा की सफलतम फिल्मो में से एक शोले (1975) जैसी एक्शन फिल्मो के साथ अपनी एंग्री यंग मैन की छवि बनायी और भारत के दुसरे महानायक का दर्ज़ा प्राप्त किया .[104] धार्मिक फिल्म जय संतोषी माँ जिसने सफलता के कई रिकॉर्ड तोड़े 1975 में रिलीज़ हुई.[104] यश चोपड़ा द्वारा निर्देशित और सलीम-जावेद की लिखी हुई दीवार, एक आपराधिक ड्रामा फिल्म थी जिसमे एक पुलिस अफसर शशि कपूर अपने गैंगस्टर भाई (अमिताभ बच्चन) से लड़ता है जिसका चरित्र असली स्मगलर हाजी मस्तान" पर आधारित था. इस फिल्म को डैनी बॉयल ने भारतीय सिनेमा की असली पहचान बताया है। [105] भारतीय शास्त्रीय संगीत के पुनरुद्धार की कहानी बताती 1979 तेलुगु फिल्म संकरभरणम् को 1981 के बेसांको फ्रेंच फिल्म समारोह का जनता का पुरुस्कार मिला [106]
पट्टाभिराम रेड्डी निर्देशित 1970 कन्नड़ फिल्म संस्कारा ने दक्षिण भारत में सामानांतर सिनेमा आंदोलन की शुरुआत करी. इस फिल्म को लोकार्नो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में कांस्य तेंदुआ सम्मान मिला। [107]
कई तमिल फिल्मों विश्व भर के अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में प्रीमियर या प्रदर्शित हुई हैं जैसे मणि रत्नम' की कन्नथील मुथामित्तल, वसंथबालन' की वेय्यील और अमीर सुल्तान'की परूथीवीरण. कांचीवरम (2009) का प्रीमियर टोरंटो अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में हुआ था . तमिल फिल्मे विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अकादमी अवार्ड के लिए 8 बार भेजी गयी है।[108] मणि रत्नम की नायकन (1987) टाइम मैगज़ीन की सर्वकालीन 100 सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की सूची में भी शामिल की गयी है।[109] के. एस. सेथु माधवन निर्देशित मरूपक्कम (1991) सर्वश्रेष्ठ फीचर फिल्म का राष्ट्रीय अवार्ड पाने वाली पहली तमिल फिल्म थी। [110]
दक्षिण भारतीय मलयालम सिनेमा का स्वर्ण युग 1980s के दशक और 1990s के शुरुआती वर्षों में था। उस काल के कुछ सर्वाधिक प्रशंसित फ़िल्मकार मलयालम सिनेमा से थे जिनमे अडूर गोपालकृष्णन, शाजी एन करुण , जी अरविंदन और टी. वी. चंद्रन प्रमुख हैं।[111] अडूर गोपालकृष्णन, जिन्हें सत्यजित राय का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी माना जाता है [112] ने इस इस समय अपनी कुछ सर्वाधिक प्रशंसित फ़िल्में निर्देशित की जिनमे एलीप्पथायम (1981) लंदन फिल्म समारोह में सुदरलैंड ट्रॉफी विजेता ; मथिलुकल (1989) वेनिस फिल्म समारोह में सम्मान विजेता प्रमुख हैं .[113]
शाजी एन करुण की पहली फिल्म पिरावी (1989) को काँन्स फिल्म फेस्टिवल में कैमरा डी' ऑर सम्मान मिला जबकि उनकी दूसरी फिल्म स्वहम (1994) 1994 के काँन्स फिल्म फेस्टिवल के पॉम डी' ऑर की प्रतियोगिता में थी [114] व्यवासयिक मलयालम सिनेमा को भी जयन की एक्शन फिल्मो से बढ़ावा मिला.
व्यवासयिक हिंदी सिनेमा 1980 और 1990 के दशक मेंएक दूजे के लिए (1981), मिस्टर इंडिया (1987), क़यामत से क़यामत तक (1988), तेज़ाब (1988), चांदनी (1989), मैंने प्यार किया (1989), बाज़ीगर (1993), डर (1993),[104] हम आपके हैं कौन..! (1994), दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995) और कुछ कुछ होता है (1998) जैसी फिल्मों की रिलीज़ के साथ और बढ़ता रहा। इनमे कई नए कलाकार जैसे शाहरुख खान, माधुरी दीक्षित, श्रीदेवी, अक्षय कुमार, आमिर खान और सलमान खान ने अभिनय किया था। इस बीच में शेखर कपूर' की कल्ट श्रेष्ट फिल्म बैंडिट क्वीन (1994) भी बनी जिसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली [115][116]
1990 के दशक के अंत में 'समानांतर सिनेमा' का वयवासयिक और समीक्षक रूप से सफल फिल्म सत्या(1998) के कारण पुनर्जन्म हुआ. भारतीय माफिया। मुंबई अंडरवर्ल्ड से प्रेरित यह एक अपराधिक ड्रामा था जिसका निर्देशन राम गोपाल वर्मा ने किया था और इसके लेखक थे अनुराग कश्यप. इस फिल्म की सफलता से एक नयी भिन्न शैली मुंबई नोयर का उदय हुआ। ये शहरी फिल्मे मुंबई की सामाजिक समस्याओं का चित्रण करती हैं। [117] .[118] कुछ और मुंबई नोयर फ़िल्में है मधुर भंडारकर' की चांदनी बार (2001) and ट्रैफिक सिग्नल (2007), राम गोपाल वर्मा की कंपनी (2002) और इसकी पिछली कड़ी डी (2005), अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्राइडे (2004).
विशाल भारद्वाज की 2014 फिल्म हैदर, उनकी विलियम शेक्सपियर के भारतीय रूपांतरण त्रयी की मक़बूल (2003) and ओमकारा (2006) के बाद तीसरी फिल्म थी। [119] इस फिल्म ने 9वे रोम फिल्म समारोह में मोंडो श्रेणी में पीपलस चॉइस अवार्ड जीतकर ऐसा करने वाली पहली भारतीय फिल्म बन गयी [120] आज के युग में अन्य सक्रिय कला फिल्म निर्देशक हैं मृणाल सेन, मीर शानी, बुद्धदेव दासगुप्ता, गौतम घोष, संदीप रे और अपर्णा सेन बंगाली सिनेमा में, संतोष सिवन और मणि रत्नम तमिल सिनेमा में , नीरद एन. मोहपात्रा ओड़िया सिनेमा, के. एन. टी सास्त्री और बी. नरसिंग राव अक्किकेनि कुटुंबा राव, देवा कट्टातेलुगु सिनेमा में; अडूर गोपालकृष्णन, शाजी एन करुण , टी. वी. चंद्रन, मलयालम सिनेमा में, मणि कौल, कुमार शाहाणी, केतन मेहता, गोविन्द निहलानी, मीरा नायर, नागेश कुकुनूर, और सुधीर मिश्रा हिंदी सिनेमा में और दीपा मेहता, अनंत बालानी, होमी अड़ाजानिया, विजय सिंह और सूनी तारापोरवाला भारतीय अंग्रेजी सिनेमा में.[67]
ग्लोबल आदान प्रदान
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भारतीय फ़िल्मकार उपनिवेशी राज के दौरान यूरोप से फिल्म अपकरण ख़रीदते थे.[39] ब्रिटिश सरकार ने दूसरा विश्वयुद्ध के समय पर युद्धकालीन प्रचार फिल्मों के निर्माण के लिए पैसे भी दिए, जिनमे से कुछ में भारतीय सेना को धुरी राष्ट्र, के खिलाफ युद्ध करते हुए दिखाया गया विशेषकर जापान का साम्राज्य, जो भारत की सीमा में घुसपैठ भी कर ली थी [121] बर्मा रानी ऐसी ही एक कहानी थी जो म्यानमार में जापानी कब्ज़े के खिलाफ ब्रिटिश और भारतीयों द्वारा किये नागरिक विरोध को दिखाती है [121] आज़ादी से पहले के व्यापारी जैसे जे. एफ. मदन और अब्दुलली इसूफल्ली ग्लोबल सिनेमा में व्यापार करते थे.[33]
भारतीय सिनेमा के दुसरे क्षेत्रों के साथ शुरुआती सम्पर्क तब दिखे जब भारतीय फिल्मो ने सोवियत यूनियन, मध्यपूर्व एशिया, दक्षिणपूर्व एशिया आदि में प्रवेश किया। [122] मुख्य धारा फिल्म अभिनेता जैसे रजनीकांत और राज कपूर ने एशिया और पूर्वी यूरोप भर में अंतर्राष्ट्रीय शोहरत पायी। [123][124][125][126] भारतीय फिल्मो ने अंतर्राष्ट्रीय फोरम और फिल्म समारोहों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई। [122] इस माध्यम से सामानांतर बंगाली फिल्मकारों जैसे सत्यजित रे ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पाई और उनकी फिल्मे यूरोपियन, अमरीकी और एशियाई दर्शकों में सफलता पाई। [127] राय की फिल्मो ने तत्पश्चात् विश्वव्यापी प्रभाव डाला और मार्टिन स्कोर्सीसी,[128] जेम्स आइवरी,[129] अब्बास किआरोस्तामी, एलीआ कज़ान, फ्रांकोइस ट्रूफॉट,[130] स्टीवन स्पीलबर्ग,[77][78][79] कार्लोस सौरा,[131] जॉन-लुक गोडार्ड,[132] एसओ टाकाहाटा,[133] ग्रेगोरी नावा, इरा साक्स and वेस एंडरसन[134] उनकी सिनेमाई शैली से प्रभावित हुए और कई अन्य जैसे अकीरा कुरोसावा ने उनके काम की तारीफ़ की। [135] वो " युवा कमिंग ऑफ ऎज नाटक फिल्में जो 1950 से कला घरों में बाढ़ के रूप में फ़ैल रही है अपु त्रयी की कर्ज़दार" हैं। [74]
सुब्रत मित्र की बाउंस लाइटिंग तकनीक जिसका इस्तमाल करके वह सेट पर दिन के प्रकाश का प्रभाव लाते थे का भी काफी प्रभाव पड़ा। .[75] राय की फिल्म 'कंचनजंघा (1962) ने एक कथा सरंचना शैली का इस्तेमाल किया जो बाद में प्रचलित हाइपरलिंक सिनेमा से मिलती है .[136] 1980 के पश्चात, कुछ पहले अनदेखे भारतीय फ़िल्मकार जैसे ऋत्विक घटक [137] और गुरु दत्त [138] ने मरणोपरांत अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है।
तमिल फिल्मो ने दक्षिणपूर्व एशिया के दर्शकों में लगातार लोकप्रियता बनायीं है। चंद्रलेखा के बाद मुथु जापानी भाषा में डब होने वाली दूसरी तमिल फिल्म थी। ( मुटु : ओडूरु महाराजा [139]) और 1998 में इसने रिकॉर्ड $1.6 मिलियन की कमाई करी। [140] 2010 में एंथीरन ने उत्तर अमेरिका में रिकॉर्ड $4 की कमाई की।
कई एशियाई और दक्षिण एशियाई देश पश्चिमी सिनेमा के मुकाबले भारतीय सिनेमा को अपनी संवेदनाओं के निकट पाते हैं [122] जिग्ना देसाई का मानना है की 21वी शताब्दी तक भारतीय सिनेमा सीमाहीन हो गया था और उन सब जगहों तक फ़ैल गया था जहाँ प्रवासी भारतीय सार्थक संख्या में रहते हैं और अन्य अंतराष्ट्रीय सिनेमा का विकल्प बन रहा था.[141]
हाल ही में भारतीय सिनेमा का प्रभाव पश्चिमी संगीतमय फिल्मो पर भी पड़ रहा है और इसने इस शैली के पुनरुद्धार में महत्त्वपूर्ण सहायता करी है बाज़ लुहरमनं ने कहा है की उनकी सफल संगीतमय फिल्म मौलिन रूज़! (2001) बॉलीवुड संगीतमय फिल्मो से सीधी प्रभावित थी। [142] मौलिन रूज़ की व्यावासयिक और समीक्षक सफलता से मरणासन्न पश्चिमी संगीतमय फिल्म शैली में नयी दिलचस्पी पैदा की और इसका नवजागरण हुआ। [143] डैनी बॉयल'की अकादमी अवार्ड विजेता फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर (2008) भी भारतीय फिल्मों से सीढ़ी प्रभावित थी [105][144] और हिंदी व्यावसायिक सिनेमा को एक श्रद्धांजलि भी मानी जाती है। [145] कुछ भारतीय फ़िल्मकार विधु विनोद चोपड़ा, जाह्नू बरुआ, सुधीर मिश्रा और पन नलिन भी ग्लोबल दर्शकों तक पहुंच बनाने की कोशिश कर रहे हैं [.[146]
भारतीय सिनेमा को अमरीकन अकादमी अवार्ड में भी पहचान मिली है . तीन भारतीय फिल्मे मदर इंडिया (1957), सलाम बॉम्बे! (1988), and लगान (2001) सर्वश्रेश्ठ विदेशी भाषा फिल्म के अकादमी अवार्ड के लिए नामांकित हुई हैं। अकादमी अवार्ड जीतने वाले भारतीय हैं भानु अथैया (पशक डिज़ाइनर), सत्यजित राय (फ़िल्मकार), ए. आर. रहमान (संगीतकार), रेसुल पूकुट्टी (ध्वनि संपादक) and गुलज़ार (गीतकार).[147]
प्रेरणा और प्रभाव
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भारतीय लोकप्रिय सिनेमा की परम्पराएँ 6 प्रमुख प्रभावों से बनी है। पहला; प्राचीन भारतीय महाकाव्यों महाभारत और रामायण ने भारतीय सिनेमा के विचार और कल्पना पर गहरा प्रभाव छोड़ा है विशेषकर कथानक पर। इस प्रभाव के उदहारण है साथ की कहानी, पीछे की कहानी और कहानी के अंदर कहानी की तकनीक. लोकप्रिय भारतीय फिल्मों के प्लाट में अक्सर कहानी उप कथाओं में फ़ैल जाती है, ये कथानक का प्रसार 1993 की फिल्म 'खलनायक और गर्दिश में देखा जा सकता है।
दूसरा : प्राचीन संस्कृत नाटक, अपनी शैलीबद्ध स्वरुप और प्रदर्शन पर महत्व के साथ संगीत, नृत्य और भाव भंगिमा मिलकर " जीवंत कलात्मक इकाई का निर्माण करते हैं जहाँ नृत्य और अनुकरण/स्वांग नाटकीय अनुभव का केंद्र हैं"। संस्कृत नाटक नाट्य के नाम से भी जाने जाते हैं। नाट्य शब्द की उत्पत्ति "नृत्" (नाच) शब्द मूल से हुई है जिससे संस्कृत नाटक के भव्य नृत्य नाटक चरित्र का पता चलता है जिस परंपरा का पालन आज भी हिंदी सिनेमा में हो रहा है [152] अभिनय की रास विधि जिसकी उत्पत्ति प्राचीन संस्कृत नाटक के काल में हुई थी, एक मूल गुण है जो जो भारीतय सिनेमा को पश्चिमी सिनेमा से भिन्न करता है। रास विधि में अभिनेता समानुभूतिक " के भाव दिखाता है जिसे दर्शक महसूस करता है पश्चिमी स्टानिसलावस्की पद्धति के विपरीत जहाँ अभिनेता को अपने चरित्र का "जीता जागता अवतार" बनना चाहिए। " अभिनय की रास पद्धति लोकप्रिय हिंदी फिल्म अभिनेता जैसे अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ खान और देश भर में प्रिय फिल्म जैसे रंग दे बसंती (2006),[153] और अंतराष्ट्रीय स्तर पर सराही गयी सत्यजित रे के फिल्मो भी दिखता है। [154]
तीसरा: पारम्परिक लोक भारतीय थिएटर, जो 10 वी शताब्दी में संस्कृत नाटक के पतन के बाद लोकप्रिय हुआ। इन क्षेत्रीय प्रथाओं में बंगाल की जात्रा, उत्तर प्रदेश की राम लीला, कर्णाटक का यक्षगान, आंध्र प्रदेश का चिन्दु नाटकम्, और तमिलनाडु का तेरुक्कुटू है।
चौथा: पारसी थिएटर, जिसमें यथार्थवाद और फंतासी, संगीत और नाच , कथानक और प्रदर्शन, जमीनी संवाद और स्टेज प्रदर्शन की पटुता, और इन सब को एक में पिरो कर अतिनाटक के नाटकीय सम्भाषण में प्रस्तुत किया जाता है। पारसी नाटकों में भोंडा हास्य, मधुर गाने और संगीत , सनसनीखेज और चकाचौंध स्टेज कला होती है। "[152] ये सारे प्रभाव मसाला फिल्मो में स्पष्ट दिखते है जो मनमोहन देसाई जैसे फिल्मकारों ने (1983)१९७० और १९८० में लोकप्रिय बनाया। इसका उदहारण हैं कुली और हाल ही में समीक्षकों द्वारा प्रशंसित रंग दे बसंती .[153]
पाँचवा: 1920s से 1950s का हॉलीवुड जब वहां पर संगीतमय फिल्म लोकप्रिय थी, हालाँकि भारतीय फ़िल्मकार अपने हॉलीवुड समकक्ष से कई तरीकों से अलग थे। उदहारण के लिए हॉलीवुड की संगीतमय फिल्म का प्लाट अधिकतर मनोरंजन की दुनिया में ही होता था जबकि भारतीय फ़िल्मकार लोकप्रिय फिल्मो में फंतासी के तत्वों को बढ़ाते हुए गीत-संगीत और नृत्य को कई परिस्थितियोँ में अभिव्यक्ति का एक प्राकृतिक माध्यम की तरह इस्तेमाल करते थे। गीत और नृत्य के साथ मिथको, इतिहास, परी कथा इत्यादि का कथा वचन एक भारतीय प्रथा है। इसके अतिरिक्त "जहाँ हॉलीवुड के फ़िल्मकार अपनी फिल्मो को निर्मित स्वरुप को छिपाने की कोशिश करते हैं ताकि यथार्थवादी कथानक पूरी तरह से प्रधान रहे, भारतीय फ़िल्मकार इस तथ्य को छुपाने की कोशिश नहीं करते की स्क्रीन पर दिखाया गया दृश्य एक कृति, एक माया, एक कल्पना है। लेकिन उन्हों अपनी इस कृति की लोगों की रोज़ाना की ज़िन्दगी के साथ रोचक और जटिल तरीकों से मिलाया। "[155] एक और प्रभाव पश्चिमी म्यूजिक वीडियो हैं जिनका १९९० के बाद से काफी प्रभाव पड़ा है जिसे नृत्य क्रम, कैमरा एंगल, गति और संगीत मेमे भी देखा जा सकता है। इसका एक शीघ्र उदहारण है मणि रत्नम की 'बॉम्बे (1995).[156]
लोकप्रिय भारतीय सिनेमा की तरह भारतीय समान्तर सिनेमा पर भी भारतीय थिएटर (मुख्यत: संस्कृत नाटक) और भारतीय साहित्य (मुख्यत: बंगाली साहित्य) का प्रभाव पड़ा है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय प्रेरणा के रूप में उस पर यूरोपियन सिनेमा खास तौर पर इतालियन नवयथार्तवाद और फ्रेंच काव्यात्मक यथार्तवाद) का हॉलीवुड के मुकाबले ज़्यादा असर पड़ा है। सत्यजित रे ने इतालियन फ़िल्मकार विट्टोरिओ डे सीका' की बाइसिकल थीव्स (1948) और फ्रेंच फ़िल्मकार जॉन रेनॉर'की द रिवर (1951), को अपनी पहली फिल्म पाथेर पांचाली (1955) की प्रेरणा बताया है। रे ने अपने आप को यूरोपियन सिनेमा और बंगाली साहित्य के अलावा भारतीय थिएटर की परम्परा खास तौर पर शास्त्रीय संस्कृत नाटक की रास पद्धति का भी कर्ज़दार माना है। रास में पात्र न सिर्फ भावना महसूस करते हैं बल्कि उसे एक कलात्मक रूप में दर्शको को भी दर्शाते हैं और यही दोहरा चित्रण अपु त्रयी में दिखता है। .[154] बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन (1953) भी डे सीका की बाइसिकल थीव्स से प्रेरित थी और इसने भारतीय नयी लहर का मार्ग प्रशस्त किया जो फ्रेंच नयी लहर और जापानी नयी लहर का समकालीन था। [72]
बहुभाषी
[संपादित करें]1930 के दशक की कुछ भारतीय फिल्मे "बहुभाषी" (multilingual) के रूप में जानी जाती है। इन फिल्मो को मिलती जुलती लेकिन असमान रूपांतर में विभिन्न भाषाओँ में शूट किया गया था। ' इनसाइक्लोपीडिया ऑफ इंडियन सिनेमा (१९९४) में राजधक्ष्य और विलेमेन के अनुसार, एक बहुभाषी फिल्म अपने सटीक रूप में
एक बहुभाषी या त्रिभाषी [फिल्म] एक प्रकार की फिल्म है जो 1930s में स्टूडियो युग में बनी थी, जिसमे अलग भाषाओँ में हर दृश्य के अलग लेकिन समान शॉट लिए जाते थे जिसमे अभिनेता अलग होते थे लेकिन तकनिकी कर्मी और संगीत एक होते थे। [157]
राजधक्ष्य और विलेमेन के अनुसार अपने इनसाइक्लोपीडिया के शोध के दौरान उन्हें बहुभाषी , डब फिल्मो , रीमेक इत्यादि के बीच में भेद करने में काफी कठिनाई हुई। कुछ मामलो में वही फिल्म अलग शीर्षक के साथ भिन्न फिल्म के रूप में दूसरी भाषा में सूचीबद्ध की गयी हैं। कई वर्षों के विद्वत्तापूर्ण कार्य के बाद ही इसमें निर्णायक विवरण निकाला जा सकता है। "[157]
क्षेत्रीय सिनेमा
[संपादित करें]भारत में क्षेत्रीय भाषाओं में भी बड़ी संख्या में फिल्म निर्माण होता है।
असमिया सिनेमा
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असमिया फिल्म उद्योग की उत्पत्ति क्रांतिकारी कल्पनाकर रुपकोंवर ज्योतिप्रसाद अग्रवाल के कार्यों में है, जो एक कवि, नाटक लेखक, संगीतकार और स्वतंत्रता सेनानी भी थे। उनका चित्रकला मूवीटोन के बैनर में 1935 में बनी पहली असमिया फिल्म जोयमती के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान था। [158] प्रशिक्षित तकनीशियनों के कमी के कारण ज्योतिप्रसाद को अपनी फिल्म बनाते हुए निर्माता और निर्देशक के अलावा पटकथा लेखक, नृत्य निर्देशक, संगीतकार, गीतकार, संपादक आदि कई अतिरिक्त जिम्मेदारियां भी निभानी पड़ी. 60,000 रुपए के बजट में बनी यह फिल्म 10 मार्च 1935 को रिलीज़ हुई और बॉक्स ऑफिस पर असफल रही . कई अन्य शुरुआती भारतीय फिल्मो की तरह जोयमती के भी नेगेटिव और पूरे प्रिंट गायब है। अल्ताफ मज़ीद ने निजी तौर बचे हुए प्रिंट का नवीनीकरण और उपशीर्षक किया है। [3] जोयमती में हुए नुकसान के बावजूद दूसरी असमिया फिल्म इन्द्रमालती को 1937 से 1938 फिल्माया गया और 1939 में रिलीज़ किया गया . 21वी शताब्दी की शुरुआत में बॉलीवुड- शैली में असमिया फिल्मो का निर्माण होने लगा। [159]
बंगाली सिनेमा
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टोलीगंज पश्चिम बंगाल में स्थित बंगाली सिनेमाई परंपरा प्रसिद्ध फ़िल्मकार जैसे सत्यजित रे, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन को अपने सबसे प्रशंसित सदस्यों के रूप में गिनती है। [160] हाल की फिल्मे जिन्होंने राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया है वो हैं ऋतुपर्णो घोष' की चोखेर बाली अभिनीत ऐश्वर्या राय, कौशिक गांगुली की शब्दो आदि .[161] बंगाली सिनेमा में विज्ञानं कल्प और सामाजिक विषयों पर भी फिल्मे बनी है [162] 2010 के दशक में बंगाली 50 - 70 फिल्मे सालाना बना रहा है। [163]
बंगाल में सिनेमा का इतिहास 1890 में शुरू होता है जब पहले "बॉयोस्कोप" कोलकाता के थिएटर में दिखाए गए। दस वर्षों के भीतर ही हीरालाल सेन विक्टोरियन युग सिनेमा के अगुआ ने रॉयल बॉयोस्कोप कंपनी की स्थापना कर बंगाली फिल्म उद्योग के बीज बोए. रॉयल बॉयोस्कोप स्टार थिएटर (कलकत्ता), मिनर्वा थिएटर (कलकत्ता ), क्लासिक थिएटर इत्यादि के लोकप्रिय नाटको के स्टेज निर्माण के सीन दिखाता था। सेन के कार्यों के काफी साल बाद 1918 में धीरेन्द्र नाथ गांगुली ने इंडो ब्रिटिश फिल्म कंपनी पहली बंगाली स्वामित्व वाली निर्माण कंपनी की स्थापना की। लेकिन पहली बंगाली फीचर फिल्म बिल्वमंगल मदन थिएटर के बैनर तले 1919 में निर्मित हुई. बिलत फेरत 1921 में इंडो ब्रिटिश का पहला निर्माण था। मदन थिएटर की जमाई षष्ठी पहली बंगाली बोलती फिल्म थी। [164]
1932 में बंगाली सिनेमा। टॉलीवुड नाम बंगाली फिल्म उद्योग के लिए इस्तेमाल हुआ चूँकि टॉलीगँज फिल्म उद्योग का केंद्र था और ये हॉलीवुड के साथ मेल खाता था। बाद में ये बॉलीवुड और ऐसे ही और हॉलीवुड प्रेरित नाम की भी प्रेरणा बना जब बम्बई (अब मुंबई) टॉलीगँज को पीछे छोड़कर भारतीय फिल्म उद्योग का केंद्र बन गया। [165] 1950s में सामानांतर फिल्म आंदोलन बंगाली फिल्म उद्योग में शुरू हुआ। तब से कई युगों का इतिहास लिखा जा चुका है जिसमे रे, घटक आदि फ़िल्मकार और उत्तम कुमार और सौमित्र चटर्जी आदि अभिनेताओं ने अपनी जगह बनायीं।
भोजपुरी सिनेमा
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भोजपुरी भाषा के फिल्में मुख्यतः पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के निवासियों का मंजोरंजन करती हैं। भोजपुरी बोलने क्षेत्रो से प्रवास के कारण इन फिल्मो का एक बड़ा दर्शक वर्ग दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में भी पाया जाता है। भारत के अलावा अन्य देश जहाँ भोजपुरी भाषा बोलने वाले दर्शक है जैसे दक्षिण अफ्रीका, वेस्ट इंडीज, ओशानिया और दक्षिण अमरीका में भी इन फिल्मों का बाजार पाया जाता है। [166] भोजपुरी फिल्मों का इतिहास 1962 में कुंदन कुमार द्वारा निर्देशित सफल फिल्म गंगा मैय्या तोहे पियरी चढ़इबो ("गंगा माँ, मैं तुम्हें पीली साड़ी चढ़ाऊंगा"), से शुरू माना जाता है। [167] इसके बाद कई दशकों तक भोजपुरी फिल्मों का निर्माण यदा कदा ही हुआ। हालाँकि एस एन त्रिपाठी निर्देशित बिदेसिया ("विदेशी") (1963) और कुंदन कुमार द्वारा निर्देशित गंगा(भोजपुरी फिल्म) (1965) जैसी फिल्मे लोकप्रिय भी हुई और उन्होंने मुनाफा भी कमाया लेकिन 1960 से 1990 के दशक तक भोजपुरी फिल्मों का निर्माण सामान्यतः नहीं होता था।
मोहन प्रसाद निर्देशित सुपर हिट फिल्म सैय्याँ हमार (2001) ने भोजपुरी फिल्म उद्योग को पुनर्जीवित किया और इस फिल्म के हीरो रवि किशन को भोजपुरी फिल्मो का पहला सुपर स्टार बनाया। [168] इस फिल्म की सफलता के बाद कई और सफल भोजपुरी फिल्मों का निर्माण हुआ जैसे मोहन प्रसाद निर्देशित पंडितजी बताई न बियाह कब होइ (2005) और ससुरा बड़ा पइसा वाला (2005) . भोजपुरी फिल्म उद्योग की सफलता के प्रमाण के रूप में इन फिल्मों ने उत्तर प्रदेश और बिहार में इन फिल्मों ने अपने प्रदर्शन के समय बॉलीवुड की मुख्यधारा फिल्मो से बेहतर व्यवसाय किया और कम बजट में बनी दोनों ही फिल्मों ने अपनी लागत से दस गुना ज़्यादा मुनाफा कमाया। [169] हालाँकि भोजपुरी सिनेमा अन्य भारतीय सिनेमा उद्योग के मुकाबले छोटा आकार का है, भोजपुरी फिल्मो की शीघ्र सफलता से भोजपुरी सिनेमा को बहुत प्रसार मिला है। अब भोजपुरी फिल्म उद्योग का एक फिल्म पुरुस्कार समारोह है [170] और एक फिल्म व्यापार पत्रिका भोजपुरी सिटी भी है [171]
छत्तीसगढ़ी सिनेमा
[संपादित करें]छॉलीवुड का जन्म 1965 में मनु नायक द्वारा निर्मित और निर्देशित पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म " कही देबे सन्देश " के प्रदर्शन के साथ हुआ [172] इस फिल्म की कहानी अंतरजाति प्रेम पर आधारित थी। कहा जाता है की भूतपूर्व भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस फिल्म को देखा था। [उद्धरण चाहिए] [173] . इस फिल्म के दो गाने लोकप्रिय गायक मोहम्मद रफ़ी ने गाये थे . इसके बाद 1971 में निरंजन तिवारी निर्देशित और विजय कुमार पाण्डेय द्वारा निर्मित घर द्वार का निर्माण हुआ। . लेकिन दोनों फिल्मो ने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं किया और अपने निर्माताओं को निराश किया। जिसकी वजह से अगले 30 तक किसी छत्तीसगढ़ी फिल्म का निर्माण नहीं हुआ। [174]
गुजराती सिनेमा
[संपादित करें]गुजरात के फिल्म उद्योग की शुरुआत 1932 में हुई . उस समय से गुजराती सिनेमा ने भारतीय सिनेमा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। अन्य क्षेत्रीय भाषा के सिनेमा के मुकाबले गुजराती सिनेमा ने काफी लोकप्रियता हासिल करी है। गुजराती सिनेमा की कहानियाँ पुराणो, इतिहास, समाज और राजनीती पर आधारित होती हैं। अपने उद्भव से ही गुजरती फिल्मकारों ने भारतीय समाज के मुद्दों और कहानियों के साथ प्रयोग किये हैं। गुजरात ने अपने अभिनेताओं के रूप में बॉलीवुड को भी योगदान दिया है। गुजराती फिल्म उद्योग में निम्न कलाकारों का काम भी शामिल है संजीव कुमार, राजेंद्र कुमार, बिंदु, आशा पारेख, किरण कुमार, अरविन्द त्रिवेदी, अरुणा ईरानी, मल्लिका साराभाई, नरेश कनोड़िआ, महेश कनोड़िआ और असरानी.
गुजराती फिल्मो की स्क्रिप्ट और कहानियाँ आतंरिक रूप से मानवीय होती है। ये रिश्तों और पारवारिक विषयों के साथ मानवीय आकाँक्षाओं को भारतीय परिवारों के सन्दर्भ में देखती है। पहली गुजराती फिल्म, नानुभाई वकील द्वारा निर्देशित नरसिंह मेहता, 1932 में रिलीज़ हुई थी। इस फिल्म के अभिनेता मोहन लाला, मारुती राव, मास्टर मनहर और मिस मेहताब थे। संत नरसिंह मेहता, के जीवन पर आधारित ये फिल्म "संत फिल्मो" की श्रेणी में गिनी जाती है। लेकिन संत फिल्मो के विपरीत इस फिल्म में कोई भी चमत्कार नहीं दर्शाये गए थे। 1935 में एक और सामाजिक फिल्म, होमी मास्टर द्वारा निर्देशित, घर जमाई रिलीज़ हुई। इस फिल्म में हीरा , जमना, बेबी नूरजहां, अमू, अलिमिया, जमशेदजी और गुलाम रसूल ने अभिनय किया था। इस फिल्म में अपने ससुराल में रह रहे दामाद (घर जमाई) और उसकी हरकतों और उसके महिलाओं की स्वतंत्रता के बारे में समस्यात्मक रुख को दर्शाया गया था। यह एक कॉमेडी फिल्म थी जिसे काफी सफलता मिली।
गुजराती सिनेमा में आगे भी ईसी प्रकार कई और महत्त्वपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक विषयो पर फिल्मों का निर्माण हुआ। 1948, 1950, 1968 और 1971 में गुजराती सिनेमा के कुछ नए आयाम स्थापित हुए। चतुर्भुज दोशी निर्देशित करियावर, रामचन्द्र ठाकुर की वडिलोना वांक, रतिभाई पूणतर की गडानो बेल और वल्लभ चोकसी की लीलुडी धरती ने गुजराती सिनेमा में काफी सफल रही. वर्त्तमान में गुजराती फिल्मे आधुनिकता की समस्याओं के प्रसंग पर चर्चा करती है। गडानो बेल जैसी फिल्मो में यथार्थवाद और बदलाव की झलक देखी जा सकती है।
हिंदी सिनेमा
[संपादित करें]मुंबई में केंद्रित हिंदी भाषा फिल्म उद्योग जिसे [175] बॉलीवुड के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय सिनेमा को नियंत्रित करती है और उसकी सबसे बड़ी और शक्तिशाली शाखा है। [176]
हिंदी सिनेमा ने अपने शुरुआती दौर में अछूत कन्या (1936) and सुजाता (1959) आदि फिल्मों के माध्यम से जाति और संस्कृति की समस्याओं का विशेलषण किया .[177] हिंदी सिनेमा को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति चेतन आनंद की नीचा नगर, राज कपूर ' की आवारा(फिल्म)। आवारा और शक्ति सामंत की आराधना आदि फिल्मों से मिली.[178]
१९९० के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था उदारीकरण के बाद जब सतत रूप से विकसित हुई तो हिंदी सिनेमा उद्योग भी एक व्यवसाय के रूप में 15% की वर्षिक दर से बढ़ा [27] फिल्मो के बजट बड़े हुए और स्टार अभिनेताओं की आमदनी भी काफी बढ़ी। कई अभिनेता साथ साथ 3–4 फिल्मों में काम करने लगे [179] वाणिज्यिक संस्थान जैसे भारतीय औद्योगिक विकास बैंक आई डी बी आई हिन्दी फिल्मों में पूँजी लगाने लगे। [179] 21वी सदी के पहले दशक में फिल्म उद्योग ने और अधिक कॉर्पोरेट स्वरूप लिया जहाँ फिल्म स्टूडियो कंपनियों की तरह कार्य कर रहे हैं, फिल्मों की मार्केटिंग हो रही है, आय और उसके स्रोत बढ़ने की कोशिश हो रही है और जॉइंट वेंचर भी हो रहे है।
हिंदी फिल्मों के दर्शक फिल्मों के साथ सिनेमा हाल में ताली, सीटी बजाने, गाना गाने डायलॉग बोलने आदि द्वारा अपनी भागीदारी के लिए जाने जाते हैं[180]
कन्नड़ सिनेमा
[संपादित करें]कन्नड़ फिल्म उद्योग (सन्दलवुड) बंगळुरु में केंद्रित है और कर्नाटक राज्य की मनोरंजन आवश्यकताएं पूरी करता है। राजकुमार कन्नड़ सिनेमा के प्रख्यात महानायक है। अपने फ़िल्मी करियर में उन्होंने बहुमुखी किरदार निभाए और सैकड़ों गाने गाये। अन्य मशहूर कन्नड़ और तुलु अभिनेता है विष्णुवर्धन, अम्बरीष, रविचंद्रन, गिरीश कर्नाड, प्रकाश राज, शंकर नाग, अनंथ नाग, उपेन्द्र, दर्शन, सुदीप, गणेश, शिवराज कुमार(अभिनेता), पुनीत राजकुमार, कल्पना, भारथी, जयंथी, पंडरी बाई, तारा, उमाश्री और रम्या.
कन्नड़ सिनेमा के फिल्म निर्देशक जैसे गिरीश कसरावल्ली, पी. शेषाद्रि राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है। पुट्टण्णा कनगल, जी. वी. अय्यर , गिरीश कर्नाड, टी. एस. नागभारना, केसरी हरवू, उपेन्द्र, योगराज भट्ट, और सूरी अन्य मशहूर कन्नड़ निर्देशक है। जी.के. वेंकटेश, विजय भास्कर, राजन नागेन्द्र, हंसलेखा, गुरुकिरण, अनूप सेलिन और वी. हरिकृष्ण मशहूर कन्नड़ संगीत निर्देशक है .
कन्नड़ सिनेमा ने भी बंगाली और मलयालम फिल्मों के साथ भारतीय सामानांतर सिनेमा के युग में योगदान किया है। इस श्रेणी की कुछ प्रभावशाली फ़िल्में है संस्कारा (यू. आर. अनंतमूर्ति के उपन्यास पर आधारित), बी. वी. करंथ की चोमाना डूडी , ताबरना कथे, वंसावृक्षा, कडु कुडुरे, हंसगीथे, भूतय्यना मगा अय्यु, एक्सीडेंट, मानसा सरोवर, घटाश्रद्धा, मने, क्रौर्य, थाई साहेबा, द्वीपा, मुन्नुदी, अतिथि, बेरु, थुत्तुरी, विमुक्थि, बेत्तडा जीवा और भारत स्टोर्स.
कोंकणी सिनेमा
[संपादित करें]कोंकणी भाषा की फिल्मो का निर्माण मुख्यता गोवा में होता है। 2009 में 4 फिल्मों के निर्माण के साथ ये भारत के सबसे छोटे फिल्म उद्योगों में से एक है। [181]
कोंकणी भाषा मुख्यत गोवा, महाराष्ट्र, कर्नाटक और सीमित मात्रा में केरल में बोली जाती है। पहली पूर्ण अवधि की कोंकणी फीचर फिल्म मोगचो अंवद्ड़ो निर्माता निर्देशक जेरी ब्रगांजा के एटिका पिक्चर्स बैनर तले 24 अप्रैल 1950 को रिलीज़ हुई थी [182][183] इसी लिए 24 अप्रैल को कोंकणी फिल्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। [184] कज़र् (हिंदी: शादी ) 2009 में बनी रिचर्ड कास्टेलिनो द्वारा निर्देशित और फ्रैंक फर्नॅंडेज़ द्वारा निर्मित कोंकणी फिल्म है। कासरगोड चिन्ना की 'उजवाडु ' पुराने विषयों पर नया प्रकाश डालती है। मोग आणि मैपस एक मंगलोरी कोंकणी फिल्म है।
मलयालम सिनेमा
[संपादित करें]मलयालम फिल्म उद्योग जिसे मौलीवुड, के नाम से भी जाना जाता है केरल में स्थित है। यह भारत का चौथा सबसे बड़ा फिल्म उद्योग है। मलयालम फिल्म उद्योग को सामानांतर सिनेमा और मुख्यधारा सिनेमा के बीच की दूरी को पाटने वाली सामाजिक विषयों पर विचारो को प्रेरित करने वाली तकनिकी रूप से उत्तम काम बजट की फिल्मों के लिए जाना जाता है। अडूर गोपालकृष्णन, जी अरविंदन, शाजी एन करुण, के. जी. जॉर्ज, पद्मराजन, सथ्यन अन्थिकड़, टी. वी. चंद्रन और भारतन मलयालम सिनेमा के नामचीन फिल्मकार है।
जे. सी. डैनियल द्वारा निर्मित व निर्देशित विगतकुमारन, 1928 में रिलीज़ हुई मूक फिल्म से मलयालम फिल्म उद्योग की शुरुआत हुई। [185] 1938 में रिलीज़ हुई बालन, पहली मलयालम "टॉकीज " या बोलती फिल्म थी। [186][187] 1947 तक जब पहले मलयालम फिल्म स्टूडियो, उदय स्टूडियो की केरल में शुरुआत हुई, मलयालम फिल्में का निर्माण तमिल निर्माताओं द्वारा होता था। [188] 1954 में नीलककुयिल फिल्म बे राष्ट्रपति का रजत मेडल जीत कर राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया। मशहूर मलयालम उपन्यासकार उरूब द्वारा लिखित और पी. भास्करन एवं रामू करिअत द्वारा निर्देशित इस फिल्म को पहली प्रामाणिक मलयालम माना जाता है। [189] 1955 में छात्रों के समूह द्वारा निर्मित न्यूज़पेपर बॉय (अख़बार वाला लड़का)पहली नव यथार्थवादी मलयालम फिल्म थी। [190] थक़ाज़ी सिवसंकरा पिल्लै की कहानी पर आधारित रामू करिअत द्वारा निर्देशित चेम्मीन (1965), बहुत लोकप्रिय हुई और सर्वोत्तम फीचर फिल्म का राष्ट्रीय पुरुस्कार पाने वालीं दक्षिण भारत की पहली फिल्म थी। [191]
मोहनलाल, ममूटी, सुरेश गोपी, जयराम, मुरली, थिलकन, श्रीनिवासन और नेदुमुदी वेणु जैसे अभिनेताओं और आई. वी. ससी, भारतन, पद्मराजन, के. जी. जॉर्ज, सथ्यन अन्थिकड़, प्रियदर्शन, ऐ. के. लोहितादास, सिद्दीकी-लाल , और टी . के . राजीव कुमार जैसे फिल्मकारों के उदय के साथ 1980s से 1990s तक का समय 'मलयालम सिनेमा का स्वर्ण युग ' माना जाता है। [192]
मराठी सिनेमा
[संपादित करें]मराठी फिल्म उद्योग मराठी भाषा में फिल्मो का निर्माण करता है जिनका प्रमुख बाजार महाराष्ट्र राज्य है। मराठी सिनेमा भारतीय फिल्म जगत के सबसे पुराने फिल्म उद्योगों में से एक है। वास्तव में भारतीय सिनेमा के अग्र-दूत दादा साहेब फाल्के, जिन्होंने 1913 में भारत में चल चित्र क्रांति की शुरुआत की अपनी स्वदेशी निर्मित मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र से की , उसे भारत के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह (आई ऍफ़ ऍफ़ आई) और अन्य संस्थाओं द्वारा मराठी सिनेमा का अंग माना जाता है क्यों की उसका निर्माण एक मराठी कर्मीदल द्वारा हुआ था।
पहली मराठी बोलती (टॉकीज) फिल्म अयोध्येचा राजा (प्रभात फिल्म्स द्वारा निर्मित) 1932 में रिलीज़ हुई, "आलम आरा" पहली हिंदी बोलती (टॉकीज) फिल्म के सिर्फ एक साल बाद। हाल के वर्षों में "श्वास" (2004) और "हरिशचंद्राची फैक्ट्री" (2009), जैसी फिल्मो के निर्माण से मराठी सिनेमा का विकास हुआ है। ये दोनों फिल्मे ऑस्कर पुरुस्कार के लिए भारत की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में भेजी गयी. आज मराठी सिनेमा मुंबई में स्थित है पर अतीत में इसका विकास कोल्हापुर और पुणे में हुआ।
मराठी भाषा की कुछ उल्लेखनीय फिल्म है 'सांगते एका ','एक गाव बारा भानगड़ी', वी. शांताराम की 'पिंजरा' ,'सिंहासन', 'पथलॉग' 'जैत रे जैत' 'सामना', 'संत वहते कृष्णमि ','संत तुकाराम', और प्रह्लाद केशव अत्रे के साने गुरूजी के उपन्यास पर आधारित 'श्यामची आई' .
मराठी सिनेमा के कई कलाकारों ने हिंदी सिनेमा ' बॉलीवुड' में भी कॅाफ़ी योगदान किया है। इनमे से कुछ प्रसिद्ध कलाकार है नूतन, तनूजा, वी. शांताराम, श्रीराम लागू, रमेश देव, सीमा देव, नाना पाटेकर, स्मिता पाटिल, माधुरी दीक्षित, सोनाली बेंद्रे, उर्मिला मांतोडकर, रीमा लागू, ललिता पवार, नंदा, पद्मिनी कोल्हापुरे, सदाशिव अमरापुरकर,विक्रम गोखले, सचिन खेडेकर, अमोल पालेकर, सचिन पिलगाओंकर, सोनाली कुलकर्णी, मकरंद देशपांडे, रितेश देशमुख, दुर्गा खोटे और अन्य।
उड़िया सिनेमा
[संपादित करें]भुबनेश्वर और कटक स्थित उड़िया फिल्म उद्योग, ओलीवुड उड़िया भाषा में फिल्मो का निर्माण करता है। पहली उड़िया बोलती (टॉकीज) फिल्म सीता बिबाह का निर्माण 1936 में सुन्दर देब गोस्वामी ने किया था। गापा हेले बे साता ( कहानी है पर सच है) पहली रंगीन उड़िया फिल्म थी। इसका निर्माण नगेन रे ने किया था और इसके चलचित्रकार पुणे के फिल्म इंस्टिट्यूट में प्रशिक्षित सुरेन्द्र साहू थे। 1984 उड़िया सिनेमा का स्वर्णिम वर्षा था जब दो उड़िया फिल्मे ' माया मृगा ' और ' धारे अलुआ' को भारतीय चित्रमाला (पैनारोमा) में प्रदर्शित किया गया. नीरद मोहपात्रा की माया मृगा को कांन्स फिल्म समारोह में क्रिटिक (आलोचक) सप्ताह के लिए निमंत्रण मिला और इसने मैंनहेइम में सर्वश्रेष्ठ तीसरी दुनिया फिल्म का पुरुस्कार तथा हवाई में जूरी पुरुस्कार मिला। इसे लंदन फिल्म समारोह में प्रदर्शित भी किया गया।
पंजाबी सिनेमा
[संपादित करें]के. डी. मेहरा ने पहली पंजाबी फिल्म शीला (पिंड दी कुड़ी के नाम से भी जानी जाती है) का निर्माण किया। लोकप्रिय अभिनेत्री बेबी नूर जहाँ को इसी फिल्म में अभिनेत्री और गायिका के रूप में पहली बार देखा गया। शीला का निर्माण कलकत्ता (अब कोलकाता) में हुआ और इसे पंजाब की तत्कालीन राजधानी लाहौर में रिलीज़ किया गया। ये फिल्म पूरे राज्य में बहुत सफलतापूर्वक चली और हिट घोषित हुई। पंजाबी भाषा की इस पहली फिल्म की सफलता की वजह से कई और फिल्मकार पंजाबी भाषा में फिल्मे बनाने लगे। वर्ष 2009 तक पंजाबी सिनेमा में 900 से 1,000 फिल्मो का निर्माण हो चुका था। हालाँकि 1970 के दशक में 9 फिल्मो की रिलीज़ से गिरते हुए 1997 में सिर्फ 5 पंजाबी फिल्मे ही रिलीज़ हुई। लेकिन 2000s ने पंजाबी सिनेमा में पुनर्जीवन का संचार हुआ। अब हर साल ज़्यादा फिल्मे रिलीज़ हो रही है जिनके बजट भी बढे हैं और स्थानीय फिल्म अभिनेताओं के साथ बॉलीवूड के पंजाबी कलाकार भी इन फिल्मो में अभिनय कर रहे है। [193] 2013 में पहली पंजाबी 3D फिल्म पहचान 3D रिलीज़ हुई।
राजस्थान का सिनेमा
[संपादित करें]राजस्थान का सिनेमा (राजीवुड) ऐतिहासिक रूप से गौरव पूर्ण रहा है प्रथम राजस्थानी फिल्म नजराना को भी समझा जाता है जो १९४२ में प्रदर्शित हुई। जबकि कुछ विशेषज्ञ उसे एक मारवाड़ी फिल्म मानते हैं। इसके पीछे तथ्य दिया जाता है कि उस समय राजस्थान आस्तित्व में नहीं था, केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड था नहीं। ब्रिटिश सरकार के नियम मान्य होते थे और उस फिल्म को राजस्थानी फिल्म माना ही नहीं गया। राजस्थान गठन के पश्चात ही राजस्थानी सिनेमा का आरंभ माना जाता है। और इस प्रकार १९६१ में प्रदर्शित हुई फिल्म बाबासा री लाडली प्रथम स्वतंत्र राजस्थानी फिल्म मानी गई। पर राजस्थानी भाषा में बना पहला सफल फिल्म बाई चाली सासरिए थी। जो १९८८ में प्रदर्शित हुई। बाद में राजस्थानी सिनेमा में कई फिल्मों का निर्माण हुआ। अब तो राजस्थानी सिनेमा में भी बॉलीवुड स्तर की फिल्म बनने लगी हैं।
सिंधी सिनेमा
[संपादित करें]सिंधी सिनेमा, भारत में किसी राज्य या क्षेत्र का प्रतिनिधि न होने के कारण अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। इसके बावजूद समय समय पर सिंधी फिल्मो का निर्माण होता रहता है। 1958 में निर्मित अबाना पहली सिंधी फिल्म थी और इसे सफलता भी मिली। विगत कुछ समय में सिंधी सिनेमा ने बॉलीवूड शैली में फिल्मो का निर्माण हुआ है जैसे हल ता भाजी हलूं, परेवारी, दिल दीजे दिल वरन खे, हो जमालो, प्यार करे दिस: फील द पावर ऑफ़ लव and द अवेकनिंग. पाकिस्तानी सिनेमा और बॉलीवुड में सिंधी समुदाय के कई व्यक्तित्व है जैसे जी पी सिप्पी, रमेश सिप्पी, रामसे बंधू , गोविन्द निहलानी, संगीता बिजलानी, बबिता, साधना, असरानी, आफताब शिवदासानी,वशु भगनानी, राजकुमार हिरानी, दिलीप ताहिल, विशाल ददलानी, रणवीर सिंह, हंसिका मोटवानी, निखिल अडवाणी, रितेश सिधवानी, प्रीती झंगिआनी आदि।
शेरुडुकपेन सिनेमा
[संपादित करें]निर्देशक सोंगे दोरजी थोंडोक शेरुडुकपेन में पहली भारतीय फिल्म क्रासिंग ब्रिज्स 2014 मे बनायीं। . शेरुडुकपेन भाषा भारत के पूर्वोत्तर राज्य अरुणाचल प्रदेश में बोली जाती है। दोरजी शेरुडुकपेन में और भी फिल्मे बनें चाहते है ताकि भारतीय सिनेमा में एक और क्षेत्रीय भाषा की बढ़ोतरी हो। [194]
तमिल सिनेमा
[संपादित करें]
चेन्नई (पूर्व में मद्रास) एक समय में पूरे दक्षिण भारतीय फिल्मे का मूल स्थान था और वर्तमान में भी दक्षिण भारत का सबसे बड़ा फिल्म निर्माण केंद्र है। [195]
एच. एम. रेड्डी ने पहली दक्षिण भारतीय टॉकीज कालिदास को निर्देशित किया जिसको तमिल और तेलुगु दोनों भाषाओँ में शूट किया गया था। शिवाजी गणेशन अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार पाने वाले भारत के पहले कलाकार बने जब उन्हें 1960 के एफ्रो एशियाई फिल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता चुना गया। उन्हें फ़्रांस सरकार द्वारा लीजन ऑफ़ ऑनर पुरुस्कार में शेवलिएर की उपाधि French Government 1995 में प्रदान की गयी। [90] तमिल सिनेमा द्रविड़ राजनीिति द्वारा प्रभावित होता है [91] . के. बी. सुन्दरम्बल राज्य विधानसभा के लिए चुनी गयी भारत की पहली फिल्म व्यक्तित्व थी। [196] भरतिया फिल्म उद्योग में एक लाख रुपए वेतन पाने वाली वह पहली महिला थी। प्रसिद्ध फिल्म व्यक्तित्व जैसे सी एन अन्नादुराई , एम जी रामचंद्रन, एम करूणानिधि और जयललिता तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने। [92] तमिल फिल्मे एशिया, दक्षिण अफ्रीका, उत्तर अमेरिका, यूरोप और ओशानिया में वितरित होती हैं। [197] कॉलीवुड के प्रभाव से श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर और कनाडा में तमिल फिल्मों का निर्माण हुआ है।
प्रसिद्ध तमिल फिल्म अभिनेता रजनीकांत को "सुपरस्टार" बोला जाता है और वो लम्बे समय से दक्षिण भारत के लोकप्रिय अभिनेता बने हुए हैं [198] उनका फ़िल्मी परदे पर रंग ढंग और संवाद बोलने की शैली (डायलाग डिलीवरी) जनता में उनकी व्यापक लोकप्रियता और अपील का कारण माने जाते हैं। [198] शिवाजी (2007) में अपने रोल के लिए ₹26 करोड़ (US$3.8 मिलियन) कमाने की बाद वह एशिया में जैकी चान के बाद Jackie Chan]] सर्वाधिक कमाने वाले अभिनेता बन गए हैं। प्रसिद्ध अभिनेता कमल हासन ने सर्वप्रथम कलाथुर कन्नमा फिल्म में अभिनय किया। इस फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ बाल अभिनेता का राष्ट्रपति स्वर्ण पदक मिला। हासन ने सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय फिल्म पुरुस्कार ममूटी और अमिताभ बच्चन की तरह तीन बार प्राप्त किया है। 7 प्रविष्टियों के साथ कमल हासन ने सर्वाधिक [[विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अकादमी पुरस्कार के लिए प्रविष्ठ भारतीय फिल्मो। विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अकादमी पुरस्कार के लिए भारतीय फिल्म प्रविष्टियों की सूची ]] में अभिनय किया है।
तमिल सिनेमा में संगीत और गाने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। समीक्षक प्रशंसित तमिल फिल्म संगीतकार इल्लियाराजा और ए. आर. रहमान के भारत के अलावा विदेशों में भी प्रशंसक है।
तेलुगू सिनेमा
[संपादित करें]भारत के 10167 फिल्म थिएटर में से सर्वाधिक 2809 थिएटर आंध्र प्रदेश और तेलेंगाना राज्यों में है जहाँ तेलुगू भाषा में फिल्मो का निर्माण होता है। [199][200] 2005, 2006 और 2008 में तेलुगू सिनेमा ने 268, 245 and 286 फिल्मो के निर्माण के साथ बॉलीवुड को पीछे छोड़ते हुए भारत में सर्वाधिक फिल्मो का निर्माण किया। [201][202] गिनेस वर्ल्ड रिकॉर्ड के अनुसार विश्व का सबसे बड़ा फिल्म निर्माण स्थल रामोजी फिल्मसिटी हैदराबाद, भारत। हैदराबाद में है। [203] प्रसाद आईमैक्स, हैदराबाद विश्व का सबसे बड़ा और सबसे ज़्यादा दर्शकों वाला 3D आईमैक्स स्क्रीन है [148][149][150]
तेलुगू सिनेमा में मूक फिल्मो का निर्माण 1921 में रघुपथी वेंकैया नायडू और आर. एस. प्रकाश की "भीष्म प्रतिज्ञा" के साथ शुरू हुआ। [204][205] 1932 में पहली तेलुगु टॉकीज फिल्म भक्त प्रह्लाद का निर्माण एच. एम. रेड्डी ने किया जिन्होंने पहली दक्षिण भारतीय टॉकीज फिल्म कालिदास (1931) निर्देशित की थी।
पहला तेलुगु फिल्म स्टूडियो दुर्गा सिनेटोन 1936 में निदामरथी सुरैय्या द्वारा राजाहमुन्द्री, आंध्र प्रदेश में स्थापित किया गया।
वुप्पलादियाम नागेयाः पद्मश्री पुरुस्कार पाने वाले दक्षिण भारत के पहले बहुभाषी फिल्म अभिनेता , गायक , संगीत निर्देशक, निर्माता और अभिनेता थे .[206] वो भारत के पॉल मुनि के रूप में जाने जाते थे। [43][207] एस. वी. रंगा राव भारत के अंतर राष्ट्रीय पुरुस्कार पाने वाले पहले अभिनेताओँ में से एक थे। उन्हें इंडोनेशियाआई फिल्म समारोह, जकार्ता (1963) में नर्थंनसाला के लिए पुरूस्कृत किया गया था। [208] एन. टी. रामा राव जिन्हे (एन. टी. आर) के नाम से जाना जाता है, राजनीति में आने से पहले तेलुगु सिनेमा के व्यावसायिक रूप से सफल अभिनेताओं में से एक थे। [209]
बी. नरसिंग राव, के. एन. टी. सास्त्री और पट्टाभिरामा रेड्डी ने समान्तर सिनेमा में अपने पथ प्रदर्शक काम के लिए अंतर राष्ट्रीय पहचान पाई है। [210][211] अदुरथी सुब्बा राव, ने निर्देशक के रूप में अपने कार्य के लिए कई राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त किये। [212] पुरुष पार्श्वगायक के रूप में सबसे अधिक गाना गाने के लिए गिनेस रिकॉर्ड धारक एस. पी. बालसुब्रमण्यम ने सबसे अधिक गाने तेलुगु में गाये हैं। [213][214][215]
एस. वी. रंगा राव, एन. टी. रामा राव, कांता राव, भानुमथी रामकृष्णा, सावित्री, गुम्मडी और सोभन बाबू को अभिनय के लिए राष्ट्रपति मेडल। [216][217] शारदा, अर्चना, विजया शांति, रोहिणी, नागार्जुन अक्किकेनि और पी. एल. नारायणा को National Film Award for best performance in acting from this industry. Chiranjeevi, was listed among "The men who changed the face of the Indian Cinema" by IBN-live India.[218][219]
तुलु सिनेमा
[संपादित करें]तुलु फिल्म उद्योग वार्षिक 2 - 3 फिल्मों के निर्माण के साथ भारतीय सिनेमा का एक लघु उद्योग है। आमतौर पर यह फिल्मे तुलु भाषी क्षेत्रों। तुलु नाडु और डीवीडी पर रिलीज़ होती है। [220] 1971 में रिलीज़ हुई इन्ना ठंगडी तुलु भाषा की पहली फिल्म थी। समीक्षकों द्वारा प्रशंसित तुलु फिल्म सुधा ने 2006 के ओशियान सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म का पुरुस्कार जीता। [221][222][223] 2011 में रिलीज़ हुई एच. एस. राजशेखर की ओरियाडोरी असल तुलु भाषा की सबसे सफल फिल्म है। [224] कुछ अन्य तुलु फिल्म तथ्य
- विष्णु कुमार की कोटी चेन्नया (1973) पहली ऐतिहासिक तुलु फिल्म है
- अरूर भीमाराव की करियानी कट्टण्डी कन्दनी (1978) तुलु भाषा में पहेली रंगीन फिल्म थी
- बिसाटी बाबू (1972) राज्य सरकार द्वारा पुरुस्कृत पहली तुलु फिल्म थी
- रिचर्ड कास्टेलिनो की सितम्बर 8की पूरी शूटिंग सिर्फ 24 घंटो में मंगलौर हुई जो की एक रिकॉर्ड है
संस्कृत सिनेमा
[संपादित करें]संस्कृत सिनेमा भारत के दो प्रमुख राष्ट्रीय चलचित्र उद्योगों में से एक है। भारतीय सिनेमा में संस्कृत सिनेमा एवं हिन्दी सिनेमा का नाम प्रमुखता से आता है। संस्कृत में अब तक लगभग ९ चलचित्र बन चुके हैं। यह भारत का सबसे सभ्य सिनेमा माना जाता है।
प्रकार और शैली
[संपादित करें]मसाला फिल्म
[संपादित करें]मसाला भारतीय फिल्मों की एक शैली है जो की मुख्यतः बॉलीवुड, बंगाली और दक्षिण भारतीय सिनेमा में बनती है। मसाला फिल्मों एक ही फिल्म में विभिन्न शैली की फिल्मो के तत्वों का मिश्रण होता है। उदाहरण के लिए, एक मसाला फिल्म में एक्शन, कॉमेडी, ड्रामा, रोमांस और मेलोड्रामा सब का चित्रण हो सकता है। मसाला फिल्में संगीतमय भी होती है और इनमे चित्रात्मक या प्राकृतिक जगहों में फिल्माए गए गाने भी होते हैं जो बॉलीवुड या दक्षिण भारतीय मसाला फिल्मों में बहुत सामान्य है। इन फिल्मो की कहानी नए या अनजान दर्शकों को तर्कहीन या असम्बह्व भी लग सकती है। इस शैली का नाम भारतीय भोजन में प्रयोग होने वाले मसालों के नाम पर रखा गया है।
समानांतर सिनेमा
[संपादित करें]समानांतर सिनेमा, जिसे कला सिनेमा और नयी भारतीय लहर के नाम से भी जाना जाता है , भारतीय सिनेमा का एक विशिष्ट आन्दोलन है। समानांतर सिनेमा यथार्थवाद और प्रकृतिवाद की अपनी गंभीर सामग्री के साथ समकालीन सामाजिक-राजनीतिक माहौल पर गहरी नज़र के साथ लिए जाना जाता है,। यह आंदोलन मुख्यधारा बॉलीवुड सिनेमा से अलग है और नयी फ्रेंच लहर और जापानी नयी लहर के आस पास ही शुरू हुआ. इस आंदोलन का नेतृत्व शुरू में बंगाली सिनेमा (जिसने सत्यजीत रे, मृणाल सेन, ऋत्विक घटक और दूसरे कई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित फिल्मकारों को जन्म दिया ) ने किया और बाद में अन्य भारतीय फिल्म उद्योगों में प्रसिद्धि प्राप्त की। इस आन्दोलन की कुछ फिल्मों ने व्यवसायिक सफलता भी प्राप्त कर कला और व्यावसयिक सिनेमा के बीच सामंजस्य बनाया. इस का शुरुआती उदहारण है बिमल रॉय की फिल्म दो बीघा ज़मीन (1953), जिसने दोनों व्यावसायिक और समालोचनात्मक सफलता प्राप्त की तथा 1954 के कान फ़िल्म महोत्सव में अन्तरराष्ट्रीय फिल्म का पुरस्कार भी जीता। इस फिल्म की सफलता ने नयी भारतीय लहर के लिए मार्ग प्रशस्त किया। [71][72][225]
नवयथार्थवादी फिल्मकारों में प्रमुख थे बंगाली फ़िल्मकार जैसे सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, श्याम बेनेगल, मलयाली फ़िल्मकार जैसे शाजी एन. करुण , अडूर गोपालकृष्णन[67] और कन्नड़ गिरीश कासरवल्ली .[226] रे की अपु त्रयी की फिल्म पथेर पांचाली (1955) , अपराजितो (1956) और अपूर संसार (1959) ने विश्व भर के प्रधान फिल्म समारोहों में प्रमुख पुरस्कार जीते और भारतीय सिनेमा में 'समानांतर सिनेमा' आंदोलन को सुदृढ़ता से स्थापित किया। इन्हें विश्व की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में गिना जाता है। [99][100][227][228]
फिल्म निर्माण कम्पनियां
[संपादित करें]भारतीय फिल्म उद्योग में 1000 से अधिक फिल्म निर्माण कम्पनियां हैं, लेकिन इनमे से कुछ ही अंतराष्ट्रीय बाजार में सफल होने में कामयाब रहे हैं। इन निर्माण घरों (प्रोडक्शन हाउस) ने भारतीय सिनेमा को विदेशों में फिल्म रिलीज़ और विदेशी दर्शकों के लिए वितरण से अंतर्राष्ट्रीय मंच तक पहुँचने में मदद की है। भारतीय फिल्म उद्योग में कुछ निर्माण घर है यशराज फिल्म्स, रेड चिल्लीस एंटरटेनमेंट, धर्मा प्रोडक्शन, एरोस इंटरनेशनल, बालाजी मोशन पिक्चर और यूटीवी मोशन पिक्चर .[229]
फिल्मी संगीत
[संपादित करें]संगीत भारतीय फिल्मो का एक अभिन्न अंग है। एक सामान्य भारतीय फिल्म में लगभग 5-6 गीत हो सकते है जिनमे से कई संयोजित नृत्य भी सकते है। [230] भारतीय सिनेमा में संगीत राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है। फिल्म के संगीत अधिकार अकेले एक फिल्म के राजस्व का 4-5% भाग तक हो सकते हैं। [179] भारत की प्रमुख फिल्म संगीत कंपनियों में सारेगामा (ऎच एम् वी) , टी सीरीज , सोनी म्यूजिक और यूनिवर्सल म्यूजिक आदि हैं[179] व्यवसयिक रूप में फिल्म संगीत की बिक्री भारत के पूरे संगीत की बिक्री का 48% है। [179]
एक बहुसांस्कृतिक, और तेजी से वैश्विक (ग्लोबल) भारतीय दर्शकों की मांग के फलस्वरूप भारतीय फिल्म संगीत अक्सर विभिन्न स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय संगीत शैलीयों का मिश्रण करता है। [230] लेकिन फिर भी स्थानीय नृत्य और संगीत समय की परीक्षा में सफल हो कर कालातीत बना है और इसी लिए ये बार बार भारतीय फिल्मों में इस्तेमाल होता है। इसने भारतीय प्रवासियों के साथ साथ भारत की सीमाओं के बाहर भी अपना रास्ता बना दिया है। [230] पार्श्व गायक मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर, येसुदास आदि ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्म संगीत स्टेज शो के साथ बड़ी संख्या में भीड़ को आकर्षित किया है। [230] 20 वीं सदी के अंत और 21 वीं की शुरुआत में भारतीय और पश्चिमी दुनिया के कलाकारों के बीच व्यापक आदान प्रदान हुआ। [231] भारतीय मूल के कलाकारों ने अपने देश के लोगों को अपनी विरासत की परंपराओं से मिश्रित लोकप्रिय समकालीन संगीत को जन्म दिया। [231] भारत के भीतर भी गायकों की संख्या इतनी ज्यादा हो गयी है कि संगीत प्रेमी एक गायक को सिर्फ उसकी आवाज के आधार पर नहीं पहचान सकते है। [232] भारतीय संगीतकार ऐ आर रहमान ने दो अकादमी पुरुस्कार, दो ग्रैमी पुरुस्कार, एक बाफ्टा और एक गोल्डन ग्लोब पुरुस्कार के साथ भारतीय फिल्म संगीत को विश्व में एक नयी पहचान दी है। [233]
भारत में फिल्म स्थल
[संपादित करें]फिल्म निर्माण में, एक फिल्म स्थान (लोकेशन) वो जगह है जहां एक फिल्म कर्मी दल अभिनेताओं को फिल्माएगा और उनके संवाद (डायलाग) की रिकॉर्डिंग करेगा। फिल्म निर्माता अक्सर फिल्म स्थान पर शूट करने के लिए चुनते हैं, क्योंकि वे मानते हैं कि अधिक से अधिक यथार्थवाद स्टूडियो की जगह एक "वास्तविक" जगह में प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन लोकेशन शूटिंग अक्सर फिल्म के बजट पर निर्भर होती है चूंकि इसकी लागत स्टूडियो शूटिंग से अधिक होती है।
भारत में फिल्म की शूटिंग के लिए सबसे लोकप्रिय स्थानों में आम तौर पर भारतीय सिनेमा के भाषा केंद्र हैं। उदाहरण के लिए। मुंबई (बॉम्बे) बॉलीवुड / हिंदी और मराठी सिनेमा के लिए, कोलकाता (कलकत्ता) बंगाली सिनेमा के लिए, चेन्नई (मद्रास) तमिल सिनेमा के लिए, हैदराबाद तेलुगु सिनेमा के लिए आदि। इसके अलावा भारत में कई और लोकेशन है जिन्हे भारतीय फ़िल्मकार अपनी फिल्मों में इस्तेमाल करते है। ये है हिमाचल प्रदेश में मनाली और शिमला , जम्मू और कश्मीर में श्रीनगर, गुलमर्ग और लदाख, लखनऊ, आगरा और वाराणसी उत्तर प्रदेश में , तमिलनाडु में ऊटी, पंजाब में अमृतसर, पश्चिम बंगाल में दार्जीलिंग, राजस्थान में बीकानेर, उदयपुर, जोधपुर, जयपुर और जैसलमेर, दिल्ली, गोवा और केरल .[235][236] वर्तमान में छत्तीसगढ़ से भी नेषनल और इंटरनेषनल स्तर पर फिल्म निर्माण किया जा रहा है
पुरस्कार
[संपादित करें]इस खंड में राष्ट्रीय, राज्यों और अन्य संस्थाओं के द्वारा भारतीय सिनेमा के लिए दिए जाने वाले सबसे महत्वपूर्ण फिल्म पुरस्कारों की सूची है।
पुरस्कार | स्थापना वर्ष | सम्मान द्वारा |
---|---|---|
बंगाल फिल्म पत्रकार एसोसिएशन पुरस्कार | 1937 | पश्चिम बंगाल सरकार |
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार | 1954 | Directorate of Film Festivals, भारत सरकार |
महाराष्ट्र राज्य फिल्म पुरस्कार | 1963 | महाराष्ट्र सरकार |
नंदी पुरस्कार | 1964 | आंध्र प्रदेश सरकार |
तमिलनाडु सरकार राज्य फिल्म पुरस्कार | 1967 | तमिलनाडु सरकार |
कर्णाटक राज्य फिल्म पुरस्कार | 1967 | कर्णाटक सरकार |
ओडिशा राज्य फिल्म पुरस्कार | 1968 | ओडिशा सरकार |
केरल राज्य फिल्म पुरस्कार | 1969 | केरल सरकार |
नीचे प्रमुख गैर सरकारी (निजी) पुरस्कार दिए गए हैं।
पुरस्कार | स्थापना वर्ष | सम्मान द्वारा |
---|---|---|
फिल्मफेयर पुरस्कार फिल्मफेयर पुरस्कार दक्षिण |
1954 | बेनेट कोलेमन एंड कंपनी लिमिटिड |
स्क्रीन पुरस्कार | 1994 | स्क्रीन साप्ताहिक |
ज़ी सिने पुरस्कार | 1998 | ज़ी एंटरटेनमेंट इंटरप्राइजेज |
एशियानेट फिल्म पुरस्कार | 1998 | Asianet |
आइफा पुरस्कार | 2000 | विजक्राफ्ट इंटरनेशनल एंटरटेनमेंट |
स्टारडस्ट पुरस्कार | 2003 | स्टारडस्ट |
ज़ी गौरव पुरस्कार | 2003 | ज़ी एंटरटेनमेंट इंटरप्राइजेज |
अप्सरा पुरस्कार | 2004 | अप्सरा प्रोडूसर्स गिल्ड |
विजय पुरस्कार | 2006 | विजय टीवी |
मराठी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म और थिएटर पुरस्कार | 2010 | मराठी फिल्म उद्योग |
दक्षिण भारतीय अंतर्राष्ट्रीय मूवी पुरस्कार | 2012 | दक्षिण भारतीय फिल्म उद्योग |
पंजाबी अंतर्राष्ट्रीय फिल्म अकादमी पुरस्कार | 2012 | प्रवासी मीडिया |
फिल्मफेयर पुरस्कार पूर्व | 2014 | बेनेट कोलेमन एंड कंपनी लिमिटिड |
भारत में फिल्म संस्थान
[संपादित करें]कई भारतीय संस्थान, सरकारी और निजी, फिल्म निर्माण के विभिन्न पहलुओं के बारे में औपचारिक शिक्षा प्रदान करते हैं। इनमे से कुछ प्रमुख है
- भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (FTII), पुणे
- सत्यजीत रे फिल्म और टेलीविजन संस्थान, कोलकता
- ऐजेके मास कम्युनिकेशन रिसर्च सेंटर, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली
- बीजू पटनायक फिल्म और टेलीविजन संस्थान, ओडिशा
- राजकीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान, बेंगलुरु [237]
- राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान, अहमदाबाद [238]
- क्षेत्रीय राजकीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (RGFTI), गुवाहाटी
- एशियन अकैडमी ऑफ़ फिल्म एंड टेलीविज़न
- संस्कृति और मीडिया अध्ययन विभाग, राजस्थान केन्द्रीय विश्वविद्यालय
- के आर नारायणन नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ विसुअल साइंसेज एंड आर्ट्स , कोट्टायम , केरल [239]
- एल वी प्रसाद फिल्म एंड टीवी अकैडमी, चेन्नई [240]
- सृष्टि स्कूल और आर्ट, डिज़ाइन एंड टेक्नोलॉजी, बेंगलुरु, कर्णाटक
- व्हिस्टलिंग वुड्स इंटरनेशनल
- BOFTA - Blue Ocean Film and Television Academy, Kodambakkam, Chennai, Tamil Nadu
- सेंटर फॉर एडवांस्ड मीडिया स्टडीज, पंजाबी विश्वविद्यालय , पटीयाला
- मद्रास फिल्म इंस्टिट्यूट, चेन्नई
- मात्रिकास फिल्म स्कूल [241]
- पर्फोमिंग आर्ट विभाग (फ़िल्म & ड्रामा) महात्मा गाँधी, अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्ध्यालय,वर्धा (सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ़ महाराष्ट्र) https://web.archive.org/web/20190417213132/http://www.hindivishwa.org/
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]- बॉलीवुड
- भारतीय सिनेमा के सौ वर्ष
- हिन्दी सिनेमा
- भारतीय सिनेमा परिचय Archived 2022-02-25 at the वेबैक मशीन
सन्दर्भ-स्रोत
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आगे पढ़ें
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बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- डॉ॰ विजय शिंदे का आलेख - विश्व सिनेमा के इतिहास का विहंगावलोकन
- डॉ॰ विजय शिंदे का आलेख - भारतीय सिनेमा का आरंभ
- डॉ॰ विजय शिंदे का आलेख - सिनेमा की कथा संरचना (Narrative Structure of Film)
- सिनेमा का सफ़र
- https://web.archive.org/web/20190103051111/http://agoodplace4all.com/
- भारतीय सिनेमा - 1930 से अब तक
- भारतीय सिनेमा का स्वर्णिम काल - सन् 1950 से 1980
- Report Of The Indian Cinematograph Committee 1927-1928. Superintendent, The Government Press, Madras. 1928. Archived from the original on 28 अक्तूबर 2012. Retrieved 6 मई 2012.
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(help) - Cinema India: The Visual Culture of Hindi Film (2002), Rachel Dwyer and Divia Patel, Rutgers University Press, ISBN 978-0-8135-3175-5
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- लेख जिनमें January 2018 से स्रोतहीन कथन हैं
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