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भारत के नृत्य

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मोहनजोदड़ो से प्राप्त कांसे की नृत्य प्रतिमा
कुचीपुडी नृत्य by Yamini Reddy

नृत्य का इतिहास, मानव इतिहास जितना ही पुराना है। इसका का प्राचीनतम ग्रंथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र है। लेकिन इसके उल्लेख वेदों में भी मिलते हैं, जिससे पता चलता है कि प्रागैतिहासिक काल में नृत्य की खोज हो चुकी थी। इस काल में मानव जंगलों में स्वतंत्र विचरता था। धीरे-धीरे उसने समूह में पानी के स्रोतों और शिकार बहुल क्षेत्र में टिक कर रहना आरंभ किया- उस समय उसकी सर्वप्रथम समस्या भोजन की होती थी- जिसकी पूर्ति के बाद वह हर्षोल्लास के साथ उछल कूद कर आग के चारों ओर नृत्य किया करते थे। ये मानव विपदाओं से भयभीत हो जाते थे- जिनके निराकरण हेतु इन्होंने किसी अदृश्य दैविक शक्ति का अनुमान लगाया होगा तथा उसे प्रसन्न करने हेतु अनेकों उपायों का सहारा लिया- इन उपायों में से मानव ने नृत्य को अराधना का प्रमुख साधन बनाया।

इतिहास की दृष्टि में सबसे पहले उपलब्ध साक्ष्य गुफाओं में प्राप्त आदिमानव के उकेरे चित्रों तथा हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाईयों में प्राप्त मूर्तिया- हैं, जिनमें एक कांसे की बनी तन्वंगी की मूर्ति है- जिसकी समीक्षा करने वाले विद्वानों ने यह सिद्ध किया है कि यह नृत्य की भावभंगिमा से युक्त है। भारतीय नृत्य कला के इतिहास में- उत्खनन से प्राप्त यह नृत्यांगना की मूर्ति- प्रथम मूल्यवान उपलब्धि है जो आज भी दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी हुई है। हड़प्पा की खुदाई में भी एक काले पत्थर की नृत्यरत मूर्ति प्राप्त हुई है जिसके संबंध में पुरातत्वेत्ता मार्शल ने नर्तकी होने का दावा किया है।

वैदिक काल में नृत्य

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सिन्धुघाटी की सभ्यता के पश्चात नृत्यकला के इतिहास में वैदिक काल का प्रवेश होता है। इस काल में चारों वेदों की रचना भी हुई। जो हमारी सभी कलात्मक विरासतों के मूल ग्रंथ माने भी जाते हैं। सबसे पहले ऋगवेद फिर क्रमशः यर्जुवेद, अर्थववेद और सामवेद की आचार्यों एवं ऋषियों द्वारा इनकी स्थापना हुई। ऋग्वेद संसार के प्राचीनतम ग्रंथों में से एक है और इसमें नृत्य संबंधी सामग्री प्रचुर मात्रा में दृष्टिगोचर होती है। ऋगवेद के निम्नलिखित श्लोकों की प्रतियों में इन्द्र की महिमा का गान करते हुए उन्हें प्राणियों को नचाने वाला कहा है।

इन्द्र यथा हयस्तितेपरीतं नृतोशग्वः । तथा

नह्यंगं नृतो त्वदन्यं विन्दामि राधसे।

अर्थात- इन्द्र तुम बहुतों द्वारा आहूत तथा सबको नचाने वाले हो। इससे स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समाज में नृत्यकला का प्रचार-प्रसार सर्वत्र था। इस युग में नृत्य के साथ निम्नलिखित वाद्यों का प्रयोग होता था। वीणा वादं पाणिघ्नं तूणब्रह्मं तानृत्यान्दाय तलवम्।

अर्थात- नृत्य के साथ वीणा वादक और मृदंगवादक और वंशीवादक को संगत करनी चाहिए और ताल बजाने वाले को बैठना चाहिये।

ऋग्वेद की तरह यर्जुवेद में भी नृत्य संबंधी सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। यर्जुवेद के एक मंत्र से यह पता चलता है कि वैदिक युग में नृत्य करने वाले को सूत कहा जाता था और गाने वाले को शैलूष कहते थे। इन लोगों का एक समुदाय स्थापित हो चुका था। ये लोग गा-बजाकर और नाच कर अपना भरण-पोषण किया करते थे। समाज में नृत्य-गान की शिक्षा का कार्य भी यही सूत व शैलूष ही किया करते थे। क्योंकि इस युग में देवी-देवताओं से लेकर स्त्री-पुरुषों तथा सभी वर्गों के लिये नृत्य का महत्वपूर्ण स्थान था। सामवेद की रचना ऋग्वेद के पाठ्य अंशों को गाने के लिये की गई अत- यह वेद गान क्रिया से संबंधित है- इसलिये इसमें नृत्य संबंधी सामग्री नहीं मिलती है। नाट्य के चतुर्थ अंग गति को नाट्य वेद के निर्माता परम पिता ब्रह्मा ने सामवेद से ही ग्रहण किया है।

नृत्यकला के विकास में अन्य वेदों की तरह 'अथर्ववेद' का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इसके अध्ययन से नृत्य संबंधी सामग्री प्रचुरता से मिलती है। इसमें नृत्यकला का उत्कृष्ट रूप देखने को मिलता है। अथर्ववेद के मंत्रों में गायन-वादन का एक साथ उल्लेख देखने को मिलता है।

यस्यां गायन्ति नृत्यंति भूम्यां मर्त्यायैलिवाः "

"युद्धन्ते यस्यमा-न्दो यस्यां वदति दुन्दुभिः।

अर्थात- जिस भूमि में आनंद के बाजे बज रहे हैं- जहा- लोग प्रसन्नता से नाचते गाते हैं और वीर लोग उत्साह से अपने राष्ट्र की रक्षा में तत्पर हैं।

नृत्य को उस युग में व्यायाम के रूप में माना गया था। शरीर को अरोग्य रखने के लिये नृत्यकला का प्रयोग किया जाता था। यह केवल 'नृत्त' ही था जिसका प्रयोग समाज में केवल आनंद के अवसरों पर किया जाता था। उपर्युक्त कथन से प्रमाणित होता है कि तांडव और लास्य के बीज वैदिक काल में थे। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वैदिक काल में नाट्य- नृत- नृत्य तथा तांडव- लास्य का बीजारोपण हो चुका था।

पुराणों में नृत्य के तत्त्व

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हरिवंश पुराण- जैन धर्म से संबंधित इस पुराण में गुरु अष्टनेमि की लीलाओं एवं उनके समय की संस्कृति का चित्रण है। प्रस्तुत हरिवंश पुराण के रचयिता ने अपना परिचय भली प्रकार से देते हुए यह कृति शक संवत् ७०५ में समाप्त की थी। इसमें नृत्य संबंधी घटनाओं का उल्लेख है। भगवान नेमिनाथ के जन्म के समय के कलापूर्ण नृत्य व गायन के समारोहों का वर्णन इसमें मिलता है। हरिवंश पुराण में नाटक कला का भी उल्लेख है।

श्रीमदभागवत महापुराण- इसमें अनेकों स्थानों पर नृत्त- नृत्य का विस्तृत विवरण पाया गया है- साथ ही संगीत वाद्यों का और आहार्य एवं अभिनय एवं नाट्य का भी उदाहरण मिलता है।

मंथन के समय जब शोभा की मूर्ति स्वयं लक्ष्मी प्रकट हुइंर् तब उस समय गंधर्वों ने मंगलमयी संगीत छेड़ा- नर्तकिया- नाच नाच कर गाने लगीं और शंख- प्रहर- मृदंग आदि बजने लगे।

तथा कृष्ण के विवरणों में तो राधा कृष्ण का कोई मिलन नृत्य संगीत के बिना पूर्ण ही नहीं होता। भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविकाएं- गोपिया- एक दूसरे की बा-ह में बा-ह डाले यमुना के पुलीन तट पर खड़ी हैं और कृष्ण आकर रासलीला प्रारंभ करते हैं। रास 'कथक' नृत्य का प्रारंभिक नृत्य है। उस युग में नृत्य गान वादन विधाएं शिक्षा के आवश्यक अंग थे- तथा गुरूकुल में इनकी विधिवत शिक्षा दी जाती थी।

शिव पुराण- शिव पुराण में भी नृत्य का उल्लेख कई विवरणों में पाया गया है। इसी प्रकार तेजस्वी तेजों में अग्रणी कांति धारण करने वाले शिव- सब पर शासन करने वाले - सबके जनक- प्रकाश स्वरूप प्रकाश देने को सतत- नृत्य करने वाले नृत्य को प्रिय मानने वाले हैं।

कूर्म पुराण- कूर्म पुराण में भी नृत्य का उल्लेख कई विवरणों में मिला है। जैसे 'गंधर्व- किन्नर- मुनि और सिद्ध स्तुति के प्रयोजन से नाचने लगे। अप्सराएँ मोहक नृत्य करने लगीं।'

रामायण व महाभारत काल में नृत्य

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रामायण में भी नृत्य के तत्त्व मिलते हैं। भगवान राम के जन्म के समय- विवाहोत्सव में- राज्याभिषेक - विजयोत्सव आदि अवसरों पर नृत्य समारोहों का विवरण मिलता है।

महाभारत में भी समय-समय पर नृत्य पाया गया है। इस युग में आकर नृत्त- नृत्य- नाट्य तीनों का विकास हो चुका था।

भरतमुनि काल में नृत्य

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भरत के नाट्य शास्त्र के समय तक भारतीय समाज में कई प्रकार की कलाओं का पूर्णरूपेण विकास हो चुका था। जन साधारण की रुचि कलाओं में इतनी अधिक बढ़ गई थी कि तत्कालीन प्रशासनों में यदा-कदा यह भय व्याप्त हो जाता कि लोग कहीं अपने कार्य छोड़ मात्र कलाओं तथा आमोद प्रमोद में ही न वक्त गुज़ारने लगे सो इन पर कभी-कभी प्रतिबंध भी लग जाता था। भरत मुनि ने नाट्य कला को अपना लक्ष्य बना कर उसी के विकास के लिये नाट्य शास्त्र की अत्यंत उपयोगी और पूर्णत- व्यावहारिक विवेचनात्मक रचना की- जो कि आज इतने समय बाद भी नाट्य-नृत्य कला के लिये उतना ही उपयोगी ग्रंथ है जितना कि तब रहा होगा- यह सारे शास्त्रीय नृत्यों की रीढ़ है। नाट्यशास्त्र को ही इस कला का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ मान गया है। यह महा ग्रंथ न केवल नाट्य कला अपितु नृत्य- संगीत- अलंकार शास्त्र- छंद शास्त्र आदि अनेक विषयों का आदिम ग्रंथ है- इसलिये इसे पंचमवेद कह कर सम्मानित किया गया है। भरत मुनि का नृत्य जगत में यह योगदान बहुमूल्य है। इसके बाद संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों जैसे कालिदास के शाकुंतलम- मेघदूतम- वात्सयायन की कामसूत्र- तथा मृच्छकटिकम आदि ग्रंथों में इन नृत्य का विवरण हमारी भारतीय संस्कृति की कलाप्रियता को दर्शाता है- जो कि आज भी अक्षुण्ण है।

आधुनिक काल में नृत्य

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आज भी हमारे समाज में नृत्य- संगीत को उतना ही महत्त्व दिया जाता है कि हमारे कोई भी समारोह नृत्य के बिना संपूर्ण नहीं होते। भारत के विविध शास्त्रीय नृत्यों की अनवरत शिष्य परंपराएँ हमारी इस सांस्कृतिक विरासत की धारा को लगातार पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहित करती रहेंगी।

सन्दर्भ

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बाहरी कड़ियाँ

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  1. Bishnupriya Dutt; Urmimala Sarkar Munsi (9 September 2010). Engendering Performance: Indian Women Performers in Search of an Identity. SAGE Publications. पपृ॰ 216–. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-321-0612-8.