नाना साहेब

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श्रीमंत नानासाहेब धोंडोपंत पेशवा
Nānā Sāhēb

नानासाहेब, का एक लघु चित्रल. 1857.[1]
जन्म 8 दिसंबर 1824
वेणगाव,‌ कर्जत, महाराष्ट्र
मौत 24 सितम्बर 1859 (आयु 35)
पदवी पेशवा
पूर्वाधिकारी बाजी राव द्वितीय
माता-पिता नारायणराव भट और मैनावती
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अपने रक्षकों के साथ नानासाहेब
श्रीमंत नानासाहेब धोंडोपंत पेशवा ( 8 दिसंबर, 1824 - 24 सितम्बर 1859) सन 1857 के भारतीय स्वतन्त्रता के प्रथम संग्राम के शिल्पकार थे। उनका मूल नाम 'धोंडूपन्त' था। स्वतन्त्रता संग्राम में नाना साहेब ने कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध नेतृत्व किया।[2]

जीवन वृतान्त[संपादित करें]

नाना साहेब का बिठूर स्थित शनिवार वाडा किला, जो की अब उनका स्मारक है

नानासाहेब धोंडोपंत पेशवा ने 8 दिसंबर 1824 में महाराष्ट्र के वेणगाव, कर्जत के निवासी माधवराव नारायण भट्ट तथा मैनावती के घर जन्म लिया था। इनके पिता पेशवा बाजीराव द्वितीय के सगोत्र भाई थे। पेशवा ने बालक नानाराव को अपना दत्तक पुत्र स्वीकार किया और उनकी शिक्षा दीक्षा का यथेष्ट प्रबन्ध किया। उन्हें हाथी घोड़े की सवारी, तलवार व बन्दूक चलाने की विधि सिखाई गई और कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान भी कराया गया। नानासाहेब की तीन पत्नीयां‌ थी। सरजाबाई, काशीबाई और कृष्णाबाई।

जनवरी 28 सन् 1851 को बाजीराव पेशवा का स्वर्गवास हो गया। नानाराव ने बड़ी शान के साथ पेशवा का अन्तिम संस्कार किया। दिवंगत पेशवा के उत्तराधिकार का प्रश्न उठा। कम्पनी के शासन ने बिठूर स्थित कमिश्नर को यह आदेश दिया कि वह नानाराव को यह सूचना दे कि शासन ने उन्हें केवल पेशवाई धन सम्पत्ति का ही उत्तराधिकारी माना है न कि पेशवा की उपाधि का या उससे संलग्न राजनैतिक व व्यक्तिगत सुविधाओं का। एतदर्थ पेशवा की गद्दी प्राप्त करने के सम्बन्ध में व कोई समारोह या प्रदर्शन न करें। परन्तु महत्वाकांक्षी नानाराव ने सारी समृपत्ति को अपने हाथ में लेकर पेशवा के शस्त्रागार पर भी अधिकार कर लिया। थोड़े ही दिनों में नानाराव ने पेशवा की सभी उपाधियों को धारण कर लिया। तुरन्त ही उन्होंने ब्रिटिश सरकार को आवेदनपत्र दिया और पेशवाई पेंशन के चालू कराने की न्यायोचित माँग की। साथ ही उन्होंने अपने वकील के साथ खरीता आदि भी भेजा जो कानपुर के कलेक्टर ने वापस कर दिया तथा उन्हें सूचित कराया कि सरकार उनकी पेशवाई उपाधियों को स्वीकार नहीं करती। नानाराव धुन्धूपन्त को इससे बड़ा कष्ट हुआ क्योंकि उन्हें अनेक आश्रितों का भरण पोषण करना था। नाना साहब ने पेंशन पाने के लिए लार्ड डलहौजी से लिखापढ़ी की, किन्तु जब उसने भी इन्कार कर दिया तो उन्होंने अजीमुल्ला खाँ को अपना वकील नियुक्त कर महारानी विक्टोरिया के पास भेजा। अजीमुल्ला ने अनेक प्रयत्न किए पर असफल रहे। लौटते समय उन्होंने फ्रांस, इटली तथा रूस आदि की यात्रा की। वापस आकर अजीमुल्ला ने नाना साहब को अपनी विफलता, अंग्रेजों की वास्तविक परिस्थिति तथा यूरोप के स्वाधीनता आंदोलनों का ज्ञान कराया।

नानाराव धून्धूपन्त को अंग्रेज सरकार के रुख से बड़ा कष्ट हुआ। वे चुप बैठनेवाले न थे। उन्होंने इसी समय तीर्थयात्रा प्रारम्भ की। नाना साहब का इस उमर में तीर्थयात्रा पर निकलना कुछ रहस्यात्मक सा जान पड़ता है। सन् 1857 में वह काल्पी, दिल्ली तथा लखनऊ गए। काल्पी में आपने बिहार के प्रसिद्ध कुँवर सिंह से भेंट की और भावी क्रांति की कल्पना की। जब मेरठ में क्रांति का श्रीगणेश हुआ तो नाना साहब ने बड़ी वीरता और दक्षता से क्रान्ति की सेनाओं का कभी गुप्त रूप से और कभी प्रकट रूप से नेतृत्व किया। क्रान्ति प्रारम्भ होते ही उनके अनुयायियों ने अंग्रेजी खजाने से साढ़े आठ लाख रुपया और कुछ युद्धसामग्री प्राप्त की। कानपुर के अंग्रेज एक गढ़ में कैद हो गए और क्रां न्तिकारियों ने वहाँ पर भारतीय ध्वजा फहराई। सभी क्रान्तिकारी दिल्ली जाने को कानपुर में एकत्र हुए। नाना साहब ने उनका नेतृत्व किया और दिल्ली जाने से उन्हें रोक लिया क्योंकि वहाँ जाकर वे और खतरा ही मोल लेते। कल्यानपुर से ही नाना साहब ने युद्ध की घोषणा की। अपने सैनिकों का उन्होंने कई टुकड़ियों में बाँटा। अंग्रेजों से बराबर लड़ाई लड़ने के बाद उन्होंने अंग्रेजों को हारने के लिए मजबूर कर दिया और अंत में उन्होंने अंग्रेजों के पास एक पत्र भेजकर उनसे वापस इलाहाबाद जाने का वादा अलाहाबाद सुरक्षित भेजने का वादा किया जिसमें अंग्रेज इस बात को जनरल टू व्हीलर ने मान लिया और उन सबको सचिन चौरा घाट पर नाव पर बैठने के लिए उन्होंने कई सारी वोटों का इन्तजाम भी किया।जब सब अंग्रेज कानपुर के सतीचौरा घाट से नावों पर जा रहे थे तो क्रान्तिकारियों ने उनपर गोलियाँ चलाईं और उनमें से बहुत से मारे गए। अंग्रेज इतिहासकार इसके लिए नाना के ही दोषी मानते हैं परन्तु उसके पक्ष में यथेष्ट प्रमाण नहीं मिलता। बाद में इलाहाबाद से बढ़ती हुई सेना ने वापस कानपुर पर अपना कब्जा जमा लिया सती चौरा घाट पर जो गोलियाँ चली थी उसके बाद उसने जितनी भी औरतें होती थी उनको सबको वीबी घर में कैद कर लिया गया बाद में इलाहाबाद से अंग्रेजों की सेना चल पड़ी और नाना साहेब ने उनकी हार हो गई या फिर किसी और ने 200 महिलाओं को खतम कर दिया गया और इसका प्रमाण नहीं मिलता किसी और ने कुछ लोगों का कहना है कि यह बात उनहोने नही कही थी इसके बाद पता चला कि वहां से भाग निकले और बिठुर को तहस नहस कर दिया गया और वे नेपाल चले गये वहां पर वहां के प्रधानमन्त्री की सुरक्षा में ही रहे और लोगों का मानना है वह जहाँ 1902 में उनकी मृत्यु हुई परन्तु कुछ लोग उनका सम्बन्ध सीहोर से भी मानते हैं और उनकी मृत्यु हुई।.[3]

जुलाई 1, 1857 को जब कानपुर से अंग्रेजों ने प्रस्थान किया तो नाना साहब ने पूर्ण् स्वतन्त्रता की घोषणा की तथा पेशवा की उपाधि भी धारण की। नाना साहब का अदम्य साहस कभी भी कम नहीं हुआ और उन्होंने क्रान्तिकारी सेनाओं का बराबर नेतृत्व किया। फतेहपुर तथा आंग आदि के स्थानों में नाना के दल से और अंग्रेजों में भीषण युद्ध हुए। कभी क्रान्तिकारी जीते तो कभी अंग्रेज। तथापि अंग्रेज बढ़ते आ रहे थे। इसके अनन्तर नाना साहब ने अंग्रेजों सेनाओं को बढ़ते देख नाना साहब ने गंगा नदी पार की और लखनऊ को प्रस्थान किया। नाना साहब एक बार फिर कानपूर लौटे और वहाँ आकर उन्होंने अंग्रेजी सेना ने कानपुर व लखनऊ के बीच के मार्ग को अपने अधिकार में कर लिया तो नाना साहब अवध छोड़कर रुहेलखण्ड की ओर चले गए। रुहेलखण्ड पहुँचकर उन्होंने खान बहादुर खान् को अपना सहयोग दिया। अब तक अंग्रेजों ने यह समझ लिया था कि जब तक नाना साहब पकड़े नहीं जाते, विप्लव नहीं दबाया जा सकता। जब बरेली में भी क्रान्तिकारियों की हार हुई तब नाना साहब ने महाराणा प्रताप की भाँति अनेक कष्ट सहे परंतु उन्होंने फिरंगियों और उनके मित्रों के संमुख आत्मसमर्पण नहीं। अंग्रेज सरकार ने नाना साहब को पकड़वाने के निमित्त बड़े बड़े इनाम घोषित किए किन्तु वे निष्फल रहे। सचमुच नाना साहब का त्याग एवं स्वातंत्र्य, उनकी वीरता और सैनिक योग्यता उन्हें भारतीय इतिहास के एक प्रमुख व्यक्ति के आसन पर बिठा देती है।[4][5]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

नानासाहेब एक बहुत बड़े क्रांतिकारी थे जिन्होंने स्वतंत्रता में बहुत सहयोग दिया |

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  1. "Nana Sahib, Rani of Jhansi, Koer Singh and Baji Bai of Gwalior, 1857, National Army Museum, London". collection.nam.ac.uk (अंग्रेज़ी में). मूल से 17 अक्तूबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 17 October 2017.
  2. Wolert, Stanley. A New History of India (3rd ed., 1989), pp. 226–28. Oxford University Press.
  3. "1857 revolt hero Nanasaheb Peshwa's life remains a mystery". India Today. 26 January 2004. मूल से 16 जनवरी 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 January 2015.
  4. "British Empire: Forces: Campaigns: Indian Mutiny, 1857 - 58: The Siege of Cawnpore". britishempire.co.uk. मूल से 7 अक्तूबर 2012 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 6 April 2015.
  5. Brock, William (1857). A Biographical Sketch of Sir Henry Havelock, K. C. B. Tauchnitz. अभिगमन तिथि 12 July 2007.