कुँवर सिंह


कुंवर सिंह का जन्म एक राजपूत परिवार मे हुआ था (13 नवंबर 1782 - 26 अप्रैल 1858) सन 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सिपाही और महानायक थे। विरोधी व स्वतंत्रता प्रेमी बाबू कुंवर सिंह कुशल सेना नायक थे। इनको 80 वर्ष की उम्र में भी लड़ने तथा विजय करने के लिए जाना जाता है।[1]
जीवन अवधि[संपादित करें]
वीर कुंवर सिंह का जन्म 13 नवम्बर 1777 को बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव के एक क्षत्रिय जमीनदार परिवार में हुआ था। इनके पिता बाबू साहबजादा सिंह प्रसिद्ध परमार राजपूत शासक राजा भोज के वंशजों में से थे। उनके माताजी का नाम पंचरत्न कुंवर था. उनके छोटे भाई अमर सिंह, दयालु सिंह और राजपति सिंह एवं इसी खानदान के बाबू उदवंत सिंह, उमराव सिंह तथा गजराज सिंह नामी जागीरदार रहे तथा अपनी आजादी कायम रखने के खातिर सदा लड़ते रहे। [2] [3]
1857 के संग्राम में बाबू कुंवर सिंह[संपादित करें]
1857 में अंग्रेजों को भारत से भगाने के लिए हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर कदम बढ़ाया। मंगल पांडे की बहादुरी ने सारे देश में विप्लव मचा दिया।[4] बिहार की दानापुर रेजिमेंट, बंगाल के बैरकपुर और रामगढ़ के सिपाहियों ने बगावत कर दी। मेरठ, कानपुर, लखनऊ, इलाहाबाद, झांसी और दिल्ली में भी आग भड़क उठी। ऐसे हालात में बाबू कुंवर सिंह ने अपने सेनापति मैकु सिंह एवं भारतीय सैनिकों का नेतृत्व किया।[5]
27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ आरा नगर पर बाबू वीर कुंवर सिंह ने कब्जा कर लिया। अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बाद भी भोजपुर लंबे समय तक स्वतंत्र रहा। जब अंग्रेजी फौज ने आरा पर हमला करने की कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई। बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए। आरा पर फिर से कब्जा जमाने के बाद अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर आक्रमण कर दिया। बाबू कुंवर सिंह और अमर सिंह को जन्म भूमि छोड़नी पड़ी। अमर सिंह अंग्रेजों से छापामार लड़ाई लड़ते रहे और बाबू कुंवर सिंह रामगढ़ के बहादुर सिपाहियों के साथ बांदा, रीवां, आजमगढ़, बनारस, बलिया, गाजीपुर एवं गोरखपुर में विप्लव के नगाड़े बजाते रहे। ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने उनके बारे में लिखा है, 'उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी। यह गनीमत थी कि युद्ध के समय कुंवर सिंह की उम्र अस्सी के करीब थी। अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता।'[6]
वीरगति[संपादित करें]
इन्होंने 23 अप्रैल 1858 में, जगदीशपुर के पास अंतिम लड़ाई लड़ी। ईस्ट इंडिया कंपनी के भाड़े के सैनिकों को इन्होंने पूरी तरह खदेड़ दिया। उस दिन बुरी तरह घायल होने पर भी इस बहादुर ने जगदीशपुर किले से "यूनियन जैक" नाम का झंडा उतार कर ही दम लिया। वहाँ से अपने किले में लौटने के बाद 26 अप्रैल 1858 को इन्होंने वीरगति पाई।[7]
सन्दर्भ[संपादित करें]
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 25 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 दिसंबर 2014.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 30 दिसंबर 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 30 दिसंबर 2014.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 30 मई 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 7 जनवरी 2015.
- ↑ http://www.khabarexpress.com/Vartmaan-Sahitya-Magzine-1-7- Archived 2019-04-23 at the Wayback Machine 177.html
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 2 जनवरी 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 जनवरी 2015.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 2 जनवरी 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 जनवरी 2015.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 21 जनवरी 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 8 जनवरी 2015.
इन्हें भी देखें[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
- स्मरण : बाबू कुंवर सिंह (जागरण-याहू)