जय जिनेन्द्र

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जय जिनेन्द्र! एक प्रख्यात अभिवादन है।जैन पंथ जिसे धर्म की मान्यता सरकार ने दी के अनुयायियों द्वारा प्रयोग किया जाता है। इसका अर्थ होता है  "जिनेन्द्र (तीर्थंकर) को नमस्कार"।[1] यह दो संस्कृत अक्षरों के मेल से बना है: जय और जिनेन्द्र। जैन ग्रंथो अनुसार घनघोर तपस्या से महावीर स्वामी को मोक्ष मिल गया था। प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव, ईस्वी सन् से लगभग 1500 वर्ष पूर्व हुए थे। उन्हें हिन्दू भी भगवान श्रीकृष्ण के बाद 22 वाँ अंश कला विष्णु अवतार मानते है जिनका उल्लेख नारायण कवच में भी हुआ है। 23 वे अंश अवतार बुद्ध गया बिहार मे अवतरित हुए, 24 वे अवतार कल्कि पूर्ण अवतार होंगे।

जय शब्द जिनेन्द्र भगवान के गुणों की प्रशंसा के लिए उपयोग किया जाता है।
जिनेन्द्र उन आत्माओं के लिए प्रयोग किया जाता है जिन्होंने अपने मन, वचन और काया को जीत लिया और केवल ज्ञान प्राप्त कर लिया हो।[1][2][3]

दोहा[संपादित करें]

चार मिले चौंसठ खिले,मिले बीस कर जोड़।
सज्जन से सज्जन मिले, हर्षित चार करोड़।।

अर्थात्-:जब भी हम किसी समाजबंधु से मिलते हैं तो दूर से ही हमारे चेहरे पर मुस्कान आ जाती है और दोनों हाथ जुड़ जाते हैं हमारे मुख से जय जिनेन्द्र निकल ही जाता है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Rankin 2013, पृ॰ 37.
  2. Sangave 2001, पृ॰ 16.
  3. Sangave 2001, पृ॰ 164.

स्रोत ग्रन्थ[संपादित करें]

  • Rankin, Aidan (2013), "Chapter 1. Jains Jainism and Jainness", Living Jainism: An Ethical Science, John Hunt Publishing, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1780999111, मूल से 3 मार्च 2016 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 20 सितंबर 2015
  • Sangave, Vilas Adinath (2001), Aspects of Jaina religion (3rd संस्करण), Bharatiya Jnanpith, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-263-0626-2, मूल से 6 मई 2016 को पुरालेखित, अभिगमन तिथि 20 सितंबर 2015