सामग्री पर जाएँ

जैन धर्म की शाखाएं

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

जैन धर्म की दो मुख्य शाखाएँ है - श्वेतांबर तथा दिगंबर

आठ निह्नव

[संपादित करें]

प्राचीन जैन सूत्रों में सात निह्नवों का उल्लेख मिलता है, इनमें से दो निह्नव तो महावीर के जीवन-काल में ही उत्पन्न हो गए थे। बहुरत नाम के पहले निह्नव के संस्थापक क्षत्रियकुंड ग्राम के निवासी स्वयं भगवान महावीर के दामाद जमालि थे; महावीर को केवलज्ञान होने के १४ वर्ष पश्चात् श्रावस्ती में इनकी उत्पत्ति हुई मानी जाती है। जमालि की मान्यता थी कि किसी कार्य को पूर्ण होने में बहुत समय लगता है, एक समय में वह पूर्ण नहीं होता, अतएव क्रियमाण को कृत नहीं किया जा सकता। महावीर की पुत्री प्रियदर्शना ने पहले तो अपने पति के पक्ष का समर्थन किया लेकिन बाद में वह महावीर की शिष्या बन गई। इसके दो वर्ष पश्चात् आचार्य बसु के शिष्य तिष्यगुप्त ने राजगृह में आत्मा संबंधी विवाद खड़ा किया। महावीर के मतानुसार आत्मा शरीर के समस्त परमाणुओं में व्याप्त है, लेकिन तिष्यगुप्त का कहना था कि जीव का कोई एक या दो प्रदेश जीव नहीं कहा जा सकता, किसी अंतिम प्रदेश को ही जीव कहना चाहिए। यह जीव प्रदेश नाम का दूसरा निह्नव है। फिर महावीर-निर्वाण के २१४ वर्ष पश्चात् अव्यक्तवादी आषाढ़भूति आचार्य हुए जिन्होंने सेतव्यानगरी में समस्त जगत् को अव्यक्त प्रतिपादन करते हुए साधु या देवयोनि में कोई भेद स्वीकार करने से इनकार कर दिया। यह अव्यक्तवाद नाम का तीसरा निह्नव कहलाया। इसके ६ वर्ष पश्चात् समुच्छेदवादी महागिरि के प्रशिष्य और कौंडिन्य के शिष्य अश्वमित्र ने मिथिला में प्रतिपादन किया कि जीव तो प्रति समय नष्ट होता रहता है, फिर पुण्य-पाप का भोग कौन करेगा? इसी को लेकर चौथे निह्नव की स्थापना हुई। इसे ८ वर्ष बाद महागिरि के प्रशिष्य और धनगुप्त के शिष्य गंगाचार्य ने उल्लुकातीर में द्वैक्रियवाद नामक पाँचवाँ निह्नव स्थापित किया। इस सिद्धांत के अनुसार शीत और उष्ण आदि परस्पर विरोधी भावों का संवेदन संभव है। तत्पश्चात् महावीर-निर्वाण के ५४४ वर्ष बाद श्रीगुप्त के शिष्य रोहगुप्त (अथवा वैशेषिक मत के प्रवर्तक षडुलुक) ने अंतरंजिया में त्रिराशिवाद का प्रतिपादन करते हुए जीव-राशि को पृथक् स्वीकार किया। कुछ लोग मंखलि गोशाल को इस मत का अनुयायी स्वीकार करते हैं, और कुछ वैशेषिक दर्शन को त्रिराशिवाद का अंग मानते हैं। यह छठा निह्नव है। महावीर-निर्वाण के ५८४ वर्ष बाद अबद्धवादी गोष्ठामहिल हुए जिनके मतानुसार आत्मा का कर्म के साथ बंध नहीं होता, केवल स्पर्श भर होता है। यह सातवाँ निह्नव है जिसकी उत्पत्ति दशपुर में हुई। 600 A.D मे शिवभूति द्वारा दिगंबर मत का प्रतिपादन कर 8 वा निंहव बनाया गया।

जैन स्थविरावलि

[संपादित करें]

मूल जैन श्वेतांबर आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने अपने कल्पसूत्र में जैन आचार्यों की स्थविरावलि दी है। इनके अनेक गण, कुल और शाखाओं का उल्लेख यहाँ मिलता है। इनके नाम मथुरा के कंकाली टीले के शिलालेखों में उत्कीर्ण हैं।

मूल जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजकों के गच्छ

श्वेतांबर मूर्तिपूजकों को पुजेरा, मूर्तिपुजक, देरावासी अथवा मंदिरमार्गी भी कहा जाता है। श्वेताम्बर संप्रदाय द्वारा मान्य गच्छों के नामों में मतभेद देखने में आता है। अनेक पत्रकों में सुप्रसिद्ध गच्छों के नाम भी नहीं पाए जाते। उद्योतन सूरि के समय (ईo ९३७) से इन गच्छों का आरंभ हुआ माना जाता है। कहते हैं, उद्योतन सूरि के ८४ शिष्यों ने ८४ गच्छों की स्थापना की। समय समय पर गच्छों के नामों में संशोधन परिवर्तन होता रहा। समस्त गच्छों के ऊपर एक श्रीपूज्य होता है; साधुओं के चातुर्मास आदि के संबंध में वह अपना निर्णय देता है, और आवश्यकता पड़ने पर किसी साधु को संघ के बाहर कर सकता है। जैन परंपरा में गच्छ में मुनियों या साधु साध्वियों के ऊपर एक आचार्य पद होता है, उसके नीचे उपाध्याय और उपाध्याय पद के नीचे पंन्यास होता है जो यतियों की क्रियाओं का ध्यान रखता है पंन्यास पद के नीचे गणि पद होता है, वह भगवतीसूत्र तक का अभ्यासी होता है। जिन मुनियों का महानिशीथ तक का अभ्यास एवं योगोद्वहन किया हुआ होता है वे ही श्रावकों को व्रत दे सकते हैं।

८४ गच्छों में उपकेश, खरतर, तपा,तपा-त्रिस्तुतिक पायचंद (पार्श्व गच्छ), पूनमिया, अंचल और आगमिक आदि गच्छ मुख्य हैं।

स्थानकवासी संप्रदाय

स्थानकवासियों की समस्त क्रियाएँ स्थानक (उपाश्रय) में होती हैं इसलिये ये स्थानकवासी कहे जाते हैं। इन्हें ढूँढ़िया, बिस्तोला अथवा साधुमार्गी भी कहते हैं। ये भी मूलतः श्वेतांबर ही हैं, लेकिन अविच्छिन्नकाल से आ रही मूर्तिपूजा को नहीं मानते और जैन धर्म के ४५ आगमों में से केवल ३२ आगमों को ही अपनी सुविधानुसार प्रमाण मानते हैं। इसके संस्थापक लोंकाशाह थे जो अहमदाबाद में जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक वर्ग के मुनियों के आदेशानुसार जैन शास्त्रों की नकल या प्रतिलिपियाँ किया करते थे। कुछ जैन मुनियों के साथ इनके द्वारा किये गए प्रतिलिपि कार्य मे दोष के कारण विवाद हुआ और बाद इन्होंने द्वेषपूर्ण तरीक़े से यह प्रचारित करना शुरू किया कि इन्हें आगमों के अध्ययन से पता चला कि इनमें मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं है, तथा सभी आगम प्रमाण नहीं माने जा सकते। आगे चलकर सन् १४६७ में लोंकाशाह साधु बन गए। इन्होंने लोंका अथवा लुंपाक संघ चलाया; भाणजी नामक श्रावक उनका प्रथम शिष्य हुआ।

वीर के पुत्र लवजी ने लोंकामत में सुधार करने का प्रयत्न किया। उन्होंने सन् १६५३ में ढूँढ़िया नामक संप्रदाय चलाया जो बाद में लोंकामत का ही समर्थक हुआ। इस संप्रदाय के गुजरात में अनेक शिष्य बने।