कषाय

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भारतीय दर्शन में कषाय शब्द का प्रयोग विशेष रूप से राग, द्वेष आदि दोषों के लिए हुआ है।

छांदोग्य उपनिषद के अनुसार मृदित कषाय (जिनका कषाय नष्ट हो गया है) नारद को भगवान् सनत्कुमार ने अविद्यारूपा तम के पार परमार्थतत्व को दिखलाया। शंकराचार्य के मत से ज्ञान, वैराग्य और अभ्यास से कषाय का नाश होता हे।

बौद्ध दर्शन में इस शब्द का प्रयोग अशुद्धि, पतन तथा क्षय के अर्थ में हुआ है। उसके अनुसार कषाय पाँच प्रकार के हैं- आयु, दृष्टि, क्लेश, सत्व तथा कल्प। कषायों के कारण आयु क्षीण होती है, मिथ्या दृष्टि उत्पन्न होती है, क्लेश होते हैं, प्राणियों का ह्रास होता है तथा संसार के एक कल्प अथवा युग का क्षय होता है।

जैन दर्शन में कषाय के मुख्य चार भेद- क्रोध, मान, माया तथा लोभ माने गए हैं। इनके कारण जीव में पुद्गल कणों का आश्रव होता है और यह कर्मबंधन से अधिकाधिक ग्रस्त होता जाता है। जीव की कषाय सहित तथा कषायरहित, ये दो अवस्थाएँ होती हैं। कषायों का विनाश होने पर ही जीव को मोक्ष प्राप्त होता है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • काढ़ा, जिसे 'कषाय' भी कहते हैं।