जीव (जैन दर्शन)
जीव शब्द का प्रयोग जैन दर्शन में आत्मा के लिए किया जाता है। जैन दर्शन सबसे पुराना भारतीय दर्शन है जिसमें कि शरीर (अजीव) और आत्मा (जीव) को पूर्णता पृथक माना गया है। [1] इन दोनों के मेल को अनादि से बताया गया है, जिसे रत्नात्रय (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, और सम्यक् चरित्र) के माध्यम से पूर्णता पृथक किया जा सकता है। संयम से जीव मुक्ति या मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।"[2] आचार्य उमास्वामी ने तीर्थंकर महावीर के मन्तव्यों को पहली सदी में सूत्रित करते हुए तत्त्वार्थ सूत्र में लिखा है: "परस्परोपग्रहो जीवानाम्"। इस सूत्र का अर्थ है, 'जीवों के परस्पर में उपकार है'।[3]
जीव द्रव्य
[संपादित करें]जैन आत्मा को छह शाश्वत द्रव्यों में से एक मानते हैं जिससे इस सृष्टि की रचना हुई है। आत्मा द्रव्य की दो मुख्य पर्याय है — स्वाभाव (शुद्ध आत्मा) और विभाव (अशुद्ध आत्मा)। जन्म मरण (संसार) के चक्र में पड़ी आत्मा अशुद्ध (संसरी) और इससे मुक्त होने पर शुद्ध आत्मा कहलाती है। [4]
स्थानांतरगमन में आत्मा
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जैन दर्शन के अनुसार संसार (स्थानांतरगमन) में फँसी जीव आत्मा चार गतियों में जन्म मरण करती रहती है। यह है— देव, मनुष्य, नरक और तिर्यंच (जानवर एवं पौधें)।
नोट
[संपादित करें]- ↑ "dravya - Jainism". Encyclopedia Britannica. 1 अप्रैल 2016 को मूल से पुरालेखित. अभिगमन तिथि: 26 सितंबर 2016.
- ↑ Hubbard, Jamie; Swanson, Paul Loren (1997). Pruning the Bodhi Tree: The Storm Over Critical Buddhism. University of Hawaii Press. p. 246. ISBN 9780824819491. 29 जून 2014 को मूल से पुरालेखित. अभिगमन तिथि: 19 February 2013.
For the Jains, therefore, ascetic practices such as fasting and the like serve to liberate the spirit (atman) from the body by diminishing and finally extinguishing the functions of the body.
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specified (help) - ↑ जैन २०११, p. ७२.
- ↑ Kundakunda, Acharya; Chakravarti, Appaswami; Upādhye, Ādinātha Neminātha (2001). Ācārya Kundakunda's Pañcāstikāya-sāra. ISBN 978-81-263-1813-1. 5 अक्तूबर 2016 को मूल से पुरालेखित. अभिगमन तिथि: 26 सितंबर 2016.
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सन्दर्भ
[संपादित करें]- Jaini, Jagmander Lal (2013), Outlines of Jainism, Cambridge University Press, ISBN 978-1-107-61567-0, 24 अप्रैल 2017 को मूल से पुरालेखित, अभिगमन तिथि: 26 सितंबर 2016
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: More than one of|ISBN=
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specified (help) - Jain, Vijay K. (2012), Acharya Kundkund's Samayasara, Vikalp Printers, ISBN 978-81-903639-3-8, 6 अगस्त 2016 को मूल से पुरालेखित, अभिगमन तिथि: 26 सितंबर 2016,
Non-Copyright
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