पर्यूषण पर्व

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दशलक्षण या पर्यूषण

अमेरिका का जैन केन्द्र, न्यूयॉर्क शहर में दशलक्षण या पर्यूषण का आयोजन।
अन्य नाम दशलक्षण (दिगंबर)
अनुयायी जैन
उत्सव 8 दिन (श्वेतांबर)
10 दिन (दिगंबर)
अनुष्ठान उपवास, जैन मन्दिर में जाना
समान पर्व संवत्सरी (श्वेतांबर)
क्षमावणी (दिगंबर)

पर्यूषण पर्व, जैन समाज का एक महत्वपूर्ण पर्व है। जैन धर्मावलंबी भाद्रपद मास में पर्यूषण पर्व मनाते हैं। श्वेताम्बर संप्रदाय के पर्यूषण 8 दिन चलते हैं। 8 वें दिन जैन धर्म के लोगों का महत्वपूर्ण त्यौहार संवत्सरी महापर्व मनाया जाता है। इस दिन यथा शक्ति उपवास रखा जाता है। पर्यूषण पर्व की समाप्ति पर क्षमायाचना पर्व मनाया जाता है। उसके बाद दिगंबर संप्रदाय वाले 10 दिन तक पर्यूषण मनाते हैं जिसे वो 'दशलक्षण धर्म' के नाम से संबोधित करते हैं।

जैन धर्म के दस लक्षण इस प्रकार है:-

1) उत्तम क्षमा, 2) उत्तम मार्दव, 3) उत्तम आर्जव, 4) उत्तम शौच, 5) उत्तम सत्य, 6) उत्तम संयम, 7) उत्तम तप, 8) उत्तम त्याग, 9) उत्तम अकिंचन्य, 10) उत्तम ब्रहमचर्य।

कहते हैं जो इन दस लक्षणों का अच्छी तरह से पालन कर ले उसे इस संसार से मुक्ति मिल सकती है। पर सांसारिक जीवन का निर्वाह करने में हर समय इन नियमों का पालन करना मुश्किल हो जाता है और बहुत शुभ और अशुभ कर्मों का बन्ध हो जाता है। इन कर्मो का प्रक्षालन करने के लिए श्रावक उत्तम क्षमा आदि धर्मों का पालन करते है।

इन दस लक्षणों का पालन करने हेतु जैन धर्म में साल में तीन बार दशलक्षण पर्व मनाया जाता है।

  1. चैत्र शुक्ल ५ से १४ तक
  2. भाद्र शुक्ल ५ से १४ तक और
  3. माघ शुक्ल ५ से १४ तक।

भाद्रपद महीने में आने वाले दशलक्षण पर्व को लोगों द्वारा ज्यादा धूमधाम से मनाया जाता है।[1] इन दस दिनों में श्रावक अपनी शक्ति अनुसार व्रत-उपवास आदि करते है। ज्यादा से ज्यादा समय भगवन की पूजा-अर्चना में व्यतीत किया जाता है।

दशलक्षण धर्म[संपादित करें]

जैन ग्रन्थ, तत्त्वार्थ सूत्र में १० धर्मों का वर्णन है। यह १० धर्म है:[2]

  • उत्तम क्षमा
  • उत्तम मार्दव
  • उत्तम आर्जव
  • उत्तम सत्य
  • उत्तम सोच
  • उत्तम संयम
  • उत्तम तप
  • उत्तम त्याग
  • उत्तम आकिंचन्य
  • उत्तम ब्रह्मचर्य

दशलक्षण पर्व पर इन दस धर्मों को धारण किया जाता है।

उत्तम क्षमा[संपादित करें]

  • (क) हम उनसे क्षमा मांगते है जिनके साथ हमने बुरा व्यवहार किया हो और उन्हें क्षमा करते है जिन्होंने हमारे साथ बुरा व्यवहार किया हो॥ सिर्फ मनुष्यों के हेतु ही नहीं वरन हर एक इन्द्रिय से पांच इन्द्रिय जीवों के प्रति जिनमें जीवन है उनके प्रति भी ऐसा भाव रखते हैं ॥
  • (ख) उत्तम क्षमा हमारी आत्मा को श्रेष्ठ मार्ग खोजने मे और क्षमा को जीवन और व्यवहार में लाना सिखाता है जिससे सम्यक दर्शन प्राप्त होता है ॥ सम्यक दर्शन वो भाव है जो आत्मा को कठोर तप त्याग की कुछ समय की यातना सहन करके परम आनन्द मोक्ष को पाने का प्रथम मार्ग है ॥
इस पवित्र दिन बोला जाता है-

॥ मिच्छामि दुक्कडं ॥ ॥ सबको क्षमा सबसे क्षमा ॥

उत्तम मार्दव[संपादित करें]

  • (क) अक्सर धन, संपदा, ऐश्वर्य मनुष्य को अहंकारी और अभिमानी बना देता है ऐसा व्यक्ति दूसरों को छोटा और स्वयं को सर्वोच्च मानता है॥

यह सब चीजें नाशवंत है यह सब चीजें एक दिन आप को छोड़ देंगी या फिर आपको एक दिन जबरन इन चीजों को छोड़ना ही पड़ेगा ॥ नाशवंत चीजों के पीछे भागने से बेहतर है कि अभिमान और परिग्रह सब बुरे कर्मों में बढ़ोतरी करते है जिनको छोड़ा जाये और सब से विनम्र भाव से पेश आए सब जीवों के प्रति मैत्री भाव रखें क्योंकि सभी जीवों को जीवन जीने का अधिकार है ॥

  • (ख) मार्दव धर्म हमें अपने आप की सही वृत्ति को समझने का माध्यम है क्योंकि सभी को एक न एक दिन जाना ही है तो फिर यह सब परिग्रहो का त्याग करें और बेहतर है कि खुद को पहचानो और परिग्रहो का नाश करने के लिए खुदको तप, त्याग के साथ साधना रुपी भठठी में झोंक दो क्योंकि इनसे बचने का और परमशांति मोक्ष को पाने की साधना ही एकमात्र विकल्प है ॥

उत्तम आर्जव[संपादित करें]

  • (क) हम सब को सरल स्वभाव रखना चाहिए और कपट को त्याग करना चाहिए॥
  • (ख) कपट के भ्रम में जीना दुखी होने का मूल कारण है॥

आत्मा ज्ञान, खुशी, प्रयास, विश्वास जैसे असंख्य गुणों से सिंचित है उस में इतनी ताकत है कि केवल ज्ञान को प्राप्त कर सके॥ उत्तम आर्जव धर्म हमें सिखाता है कि मोह-माया, बुरे कर्म सब छोड़ छाड़ कर सरल स्वभाव के साथ परम आनंद मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं ॥

उत्तम सत्य[संपादित करें]

  • (क) झूठ बोलना बुरे कर्मों में बढ़ोतरी करता है ॥
  • (ख) सत्य जो 'सत' शब्द से आया है जिसका अर्थ है वास्तविक होना॥

उत्तम सत्य धर्म हमें यही सिखाता है कि आत्मा की प्रकृति जानने के लिए सत्य आवश्यक है और इसके आधार पर ही परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करना संभव है ॥ अपने मन, आत्मा को सरल और शुद्ध बना लें तो सत्य अपने आप ही आ जाएगा ॥

उत्तम सोच[संपादित करें]

  • (क) किसी चीज़ की इच्छा होना इस बात का प्रतीक है कि हमारे पास वह चीज़ नहीं है तो बेहतर है कि जो हमारे पास उसके लिए परमात्मा को धन्यवाद कहें और संतोषी बनकर उसी में काम चलाये ॥
  • (ख) भौतिक संसाधनों और धन दौलत में खुशी खोजना यह महज आत्मा का एक भ्रम है।

उत्तम शौच धर्म हमें यही सिखाता है कि शुद्ध मन से जितना मिला है उसी में खुश रहो परमात्मा का हमेशा आभार मानों और अपनी आत्मा को शुद्ध बनाकर ही परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करना संभव है ॥

उत्तम संयम[संपादित करें]

पसंद, नापसंद ग़ुस्से का त्याग करना। इन सब से छुटकारा तब ही मुमकिन है जब हम अपनी आत्मा को इन सब प्रलोभनों से मुक्त करें और स्थिर मन के साथ संयम रखें ॥ इसी राह पर चलते परम आनंद मोक्ष की प्राप्ति मुमकिन है ॥

उत्तम तप[संपादित करें]

  • (क) तप का अर्थ केवल उपवास तक ही सीमित नहीं है बल्कि तप का असली अर्थ है कि इन सब क्रियाओं के साथ अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को वश में रखना, ऐसा तप अच्छे गुणवान कर्मों में वृद्धि करते है ॥
  • (ख) साधना इच्छाओं में वृद्धि ना करने का एकमात्र मार्ग है ॥ पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ ने लगभग छह महीनों तक ऐसी तप साधना (बिना खाए बिना पिए) की थी और परम आनंद मोक्ष को प्राप्त किया था ॥

हमारे तीर्थंकरों जैसी तप साधना करना इस काल में प्राय नहीं है पर हम भी ऐसी ही भावना रखते है और पर्यूषण पर्व के 10 दिनों के दौरान उपवास (बिना खाए बिना पिए), ऐकाशन (एकबार खाना-पानी) करतें है और परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करने की राह पर चलने का प्रयत्न करते हैं ॥

उत्तम त्याग[संपादित करें]

  • (क) 'त्याग' शब्द से ही पता चल जाता है कि इसका मतलब छोड़ना है और जीवन को संतुष्ट बना कर अपनी इच्छाओं को वश में करना है, यह न सिर्फ अच्छे गुणवान कर्मों में वृद्धि करता है बल्कि बुरे कर्मों का नाश भी करता है ॥

त्यागने की भावना जैन धर्म में सबसे अधिक है क्योंकि जैन संत केवल घरबार ही नहीं यहां तक कि अपने कपड़े भी त्याग देता है और पूरा जीवन दिगंबर मुद्रा धारण करके व्यतीत करता है ॥ इंसान की शक्ति इससे नहीं परखी जाती कि उसके पास कितनी धन दौलत है बल्कि इससे परखी जाती है कि उसने कितना छोड़ा, कितना त्याग किया है !

  • (ख) उत्तम त्याग धर्म हमें यही सिखाता है कि मन को संतोषी बनाके ही इच्छाओं और भावनाओं का त्याग करना मुमकिन है ॥ त्याग की भावना भीतरी आत्मा को शुद्ध बनाकर ही प्राप्त होती है ॥

उत्तम आकिंचन्य[संपादित करें]

  • (क) आँकिंचन हमें मोह को त्याग करना सिखाता है ॥ दस शक्यता है जिसके हम बाहरी रूप में मालिक हो सकते है; जमीन, घर, चाँदी, सोना, धन, अन्न, महिला नौकर, पुरुष नौकर, कपडे और संसाधन इन सब का मोह न रखकर ना सिफॅ इच्छाओं पर काबू रख सकते हैं बल्कि इससे गुणवान कर्मों मे वृद्धि भी होती है ॥
  • (ख) आत्मा के भीतरी मोह जैसे गलत मान्यता, गुस्सा, घमंड, कपट, लालच, मजाक, पसंद नापसंद, डर, शोक, और वासना इन सब मोह का त्याग करके ही आत्मा को शुद्ध बनाया जा सकता है ॥

सब मोह पप्रलोभनों और परिग्रहो को छोडकर ही परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करना मुमकिन है ॥

उत्तम ब्रह्मचर्य[संपादित करें]

  • (क) ब्रह्मचर्य हमें सिखाता है कि उन परिग्रहो का त्याग करना जो हमारे भौतिक संपर्क से जुडी हुई है

जैसे जमीन पर सोना न कि गद्दे तकियों पर, जरुरत से ज्यादा किसी वस्तु का उपयोग न करना, व्यय, मोह, वासना ना रखते सादगी से जीवन व्यतित करना ॥ कोई भी संत ईसका पालन करते है और विशेषकर जैनसंत शरीर, जुबान और दिमाग से सबसे ज्यादा इसका ही पालन करते हैं ॥

  • (ख) 'ब्रह्म' जिसका मतलब आत्मा, और 'चर्या' का मतलब रखना, ईसको मिलाकर ब्रह्मचर्य शब्द बना है, ब्रह्मचर्य का मतलब अपनी आत्मा मे रहना है ॥

ब्रह्मचर्य का पालन करने से आपको पूरे ब्रह्मांड का ज्ञान और शक्ति प्राप्त होगी और ऐसा न करने पर आप सिर्फ अपनी इच्छाओं और कामनाओ के गुलाम हि हैं ॥

इस दिन शाम को प्रतिक्रमण करते हुए पूरे साल मे किये गए पाप और कटू वचन से किसी के दिल को जानते और अनजाने ठेस पहुंची हो तो क्षमा याचना करते है ॥ एक दूसरे को क्षमा करते है और एक दूसरे से क्षमा माँगते है और हाथ जोड कर गले मिलकर मिच्छामी दूक्कडम करते है॥

उद्देश्य[संपादित करें]

पर्यूषण या दशलक्षण पर्व मनाने का मूल उद्देश्य आत्मा को शुद्ध बनाने के लिए आवश्यक उपक्रमों पर ध्यान केंद्रित करना होता है। पर्यावरण का शोधन इसके लिए वांछनीय माना जाता है। आत्मा को पर्यावरण के प्रति तटस्थ या वीतराग बनाए बिना शुद्ध स्वरूप प्रदान करना संभव नहीं है। इस दृष्टि से'कल्पसूत्र' या तत्वार्थ सूत्र का वाचन और विवेचन किया जाता है और संत-मुनियों और विद्वानों के सान्निध्य में स्वाध्याय किया जाता है।

पूजा, अर्चना, आरती, समागम, त्याग, तपस्या, उपवास में अधिक से अधिक समय व्यतीत किया जाता है और दैनिक व्यावसायिक तथा सावद्य क्रियाओं से दूर रहने का प्रयास किया जाता है। संयम और विवेक का प्रयोग करने का अभ्यास चलता रहता है।

समारोह[संपादित करें]

मंदिर, उपाश्रय, स्थानक तथा समवशरण परिसर में अधिकतम समय तक रहना जरूरी माना जाता है। वैसे तो पर्यूषण पर्व दीपावली व क्रिसमस की तरह उल्लास-आनंद के त्योहार नहीं हैं। फिर भी उनका प्रभाव पूरे समाज में दिखाई देता है। उपवास, बेला, तेला, अठ्ठाई, मासखमण जैसी लंबी बिनाकुछ खाए, बिना कुछ पिए, निर्जला तपस्या करने वाले हजारों लोग सराहना प्राप्त करते हैं। भारत के अलावा ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जापान, जर्मनी व अन्य अनेक देशों में भी पर्यूषण पर्व धूमधाम से मनाए जाते हैं।

मगर पर्यूषण पर्व पर क्षमत्क्षमापना या क्षमावाणी का कार्यक्रम ऐसा है जिससे जैनेतर जनता को काफी प्रेरणा मिलती है। इसे सामूहिक रूप से विश्व-मैत्री दिवस के रूप में मनाया जा सकता है। पर्यूषण पर्व के समापन पर इसे मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी या ऋषि पंचमी को संवत्सरी पर्व मनाया जाता है।

उस दिन लोग उपवास रखते हैं और स्वयं के पापों की आलोचना करते हुए भविष्य में उनसे बचने की प्रतिज्ञा करते हैं। इसके साथ ही वे चौरासी लाख योनियों में विचरण कर रहे, समस्त जीवों से क्षमा माँगते हुए यह सूचित करते हैं कि उनका किसी से कोई बैर नहीं है।

संकल्प[संपादित करें]

परोक्ष रूप से वे यह संकल्प करते हैं कि वे पर्यावरण में कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे। मन, वचन और काया से जानते या अजानते वे किसी भी हिंसा की गतिविधि में भाग न तो स्वयं लेंगे, न दूसरों को लेने को कहेंगे और न लेने वालों का अनुमोदन करेंगे। यह आश्वासन देने के लिए कि उनका किसी से कोई बैर नहीं है, वे यह भी घोषित करते हैं कि उन्होंने विश्व के समस्त जीवों को क्षमा कर दिया है और उन जीवों को क्षमा माँगने वाले से डरने की जरूरत नहीं है।

खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे।

मित्तिमे सव्व भुएस्‌ वैरं ममझं न केणई।

यह वाक्य परंपरागत जरूर है, मगर विशेष आशय रखता है। इसके अनुसार क्षमा माँगने से ज्यादा जरूरी क्षमा करना है।

क्षमा देने से आप अन्य समस्त जीवों को अभयदान देते हैं और उनकी रक्षा करने का संकल्प लेते हैं। तब आप संयम और विवेक का अनुसरण करेंगे, आत्मिक शांति अनुभव करेंगे और सभी जीवों और पदार्थों के प्रति मैत्री भाव रखेंगे। आत्मा तभी शुद्ध रह सकती है जब वह अपने सेबाहर हस्तक्षेप न करे और बाहरी तत्व से विचलित न हो। क्षमा-भाव इसका मूलमंत्र है।

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  • जैन, विजय कुमार (२०११), आचार्य उमास्वामी तत्तवार्थसूत्र, Vikalp Printers, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-903639-2-1