मोक्ष (जैन धर्म)

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
सिद्धशिला जहाँ सिद्ध (जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया है) विराजते है का एक चित्र

जैन धर्म में मोक्ष का अर्थ है पुद्ग़ल कर्मों से मुक्ति। जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष प्राप्त करने के बाद जीव (आत्मा) जन्म मरण के चक्र से निकल जाता है और लोक के अग्रभाग सिद्धशिला में विराजमान हो जाती है। सभी कर्मों का नाश करने के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। मोक्ष के उपरांत आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप (अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, और अनन्त शक्ति) में आ जाती है। ऐसी आत्मा को सिद्ध कहते है। मोक्ष प्राप्ति हर जीव के लिए उच्चतम लक्ष्य माना गया  है। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चरित्र से इसे प्राप्त किया जा सकता है। जैन धर्म को मोक्षमार्ग भी कहा जाता है।

रत्नत्रय[संपादित करें]

जैन धर्म के अनुसार 'रत्नत्रय', सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र की एक रूपता ही मोक्ष का मार्ग है। प्रमुख जैन ग्रन्थ, तत्त्वार्थसूत्र का पहला श्लोक है —

सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:
—तत्त्वार्थसूत्र(१-१)[1]

जीव का असली स्वभाव सम्यक् चरित्र है।

निर्वाण[संपादित करें]

निर्वाण यानी समस्त कर्मों से मुक्ति। जब साधु घातिया कर्म अर्थात जो आत्मा के गुणों का नाश करते है, ऐसे कर्मों का नाश करते है, तो केवल ज्ञान प्रकट होता है और जब केवली भगवान बचे हुए अगहतिया कर्मों का नाश करते है और संसार सागर से मुक्त हो जाते है तो वह निर्वाण कहलाता है। मोक्ष और निर्वाण शब्द जैन ग्रंथों में एक दूसरे की जगह प्रयोग किए गए है। निर्वाण के उपरांत अरिहन्त सिद्ध बन जाते है। जैन ग्रन्थों के अनुसार तीर्थंकर भगवान के पाँच कल्याणक देवों द्वारा मनाए जाते है, इनमें अंतिम निर्वाण कल्याणक होता है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. जैन २०११, पृ॰ २.

सन्दर्भ सूची[संपादित करें]

  • जैन, विजय कुमार (२०११), आचार्य उमास्वामी तत्तवार्थसूत्र, Vikalp Printers, आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-903639-2-1