रत्नकरण्ड श्रावकाचार
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रत्नकरण्ड श्रावकाचार | |
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लेखक | आचार्य समन्तभद्र |
भाषा | संस्कृत |
रत्नकरण्ड श्रावकाचार एक प्रमुख जैन ग्रन्थ हैं जिसके रचियता आचार्य समन्तभद्र हैं। इस ग्रंथ में जैन श्रावक की चर्या का वर्णन है। आचार्य समन्तभद्र ने जैन श्रावक कैसा होना चाहीए इसके बारे में विस्तार से बताया है|
श्लोक[संपादित करें]
रत्नकरण्ड श्रावकाचार का पहला श्लोक तीर्थंकर वर्धमान को समर्पित हैं|
- "नमः श्रीवर्धमानाय निर्धूतकलिलात्मने |
- सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्या दर्पणायते ||१||"
- अर्थात:- जिनके केवलज्ञान रूप दर्पण में अलोकाकाश सहित षट्द्रव्यों के समूहरूप सम्पूर्ण लोक अपनी भूत, भविष्यत्, वर्तमान की समस्त अनंतानंत पर्यायों सहित प्रतिबिंबित हो रहा है और जिनका आत्मा समस्त कर्ममल रहित हो गया है, ऐसे श्री वर्द्धमान देवाधिदेव अंतिम तीर्थंकर को मैं अनपे आवरण, कषायादी मल रहित सम्यग्ज्ञान प्रकाश के प्रगट होने के लिए नमस्कार करता हूँ |