द्रव्य (जैन दर्शन)

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छः शाश्वत द्रव्य

द्रव्य शब्द का प्रयोग जैन दर्शन में द्रव्य (Substance) के लिए किया जाता है। जैन दर्शन के अनुसार तीन लोक में कोई भी कार्य निम्नलिखित छः द्रव्य के बिना नहीं हो सकता। अर्थात यह लोक मूल भूत इन छः द्रव्यों से बना हैं:-[1][2] 

  1. जीव (आत्मा)
  2. धर्मास्तिकाय (मोशन)
  3. अधर्मास्तिकाय (रूकाव)
  4. पुद्गलास्तिकाय (मेटर)
  5. आकाशास्तिका (स्पेस)
  6. काल (समय)

आख़री के पाँच द्रव्य अजीव की श्रेणी में आते है। जैन दर्शन में एक द्रव्य को शरीर या वस्तु से भिन्न माना गया है। द्रव्य को एक सच्चाई के रूप में और शरीर को एक स्कंध (कम्पाउंङ) के रूप में माना गया है। [3] जैन धर्म के अनुसार शरीर या वस्तु जो द्रवय की

पर्याय है का विनाश सम्भव है परंतु किसी द्रव्य को मिटाया या बनाया नहीं जा सकता, यह हमेशा से है और हमेशा रहेंगे।

जीव[संपादित करें]

जैन दर्शन के अनुसार इस लोक में अनंत जीव है। जीवों को दो श्रेणी में रखा गया है-

  1. मुक्त
  2. संसारी

कर्म बन्ध के कारण संसरी जीव का जन्म मरण होता है, परंतु मुक्त जीव कर्म बंध से मुक्त होने के कारण, जन्म मरण के चक्र से मुक्त है।

अजीव[संपादित करें]

पुद्ग़ल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल यह पाँच द्रव्य अजीव है।

पुद्गलास्तिकाय[संपादित करें]

पुद्ग़ल (Matter) शब्द दो शब्दों के मेल से बना हैं: पुद् यानि की एकीकरण और गल यानि की विभाजन। जिसका निरंतर एकीकरण और विभाजन होता हैं उससे पुद्ग़ल कहते हैं। पुद्गल- जो पूरण-गलन (बनने-मिटने) के स्वभाव को लिए हुए है, उसे पुद्गल कहा गया है। जैसे घड़ा, कपड़ा, चटाई मकान, वाहन आदि। यह सूक्ष्म और स्थूल अथवा अणु और स्कन्ध के रूप में समस्त लोक में पाया जाता है। यह इन्द्रिय ग्राह्य और इन्द्रिय-अग्राह्य दोनों प्रकार का है। इसमें रूप, रस, गन्ध, और स्पर्श पाये जाते हैं, जो उस के गुण हैं।

  • रूप पांच प्रकार का है- काला, पीला, नील, लाल और सफ़ेद। इन्हें यथा योग्य मिलाकर और रूप भी बनाये जा सकते हैं। इनका ज्ञान चक्षु:इन्द्रिय से होता है।
  • रस भी पांच तरह का है- खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चर्परा। इनका ग्रहण रसना (जिह्वा) इन्द्रिय से होता है।
  • गन्ध दो प्रकार का है- सुगन्ध और दुर्गन्ध। इन दोनों गन्धों का ज्ञान घ्राण (नासिका) इन्द्रिय से होता है।
  • स्पर्श के आठ भेद हैं- कड़ा, नरम, हलका, भारी, ठंडा, गर्म, चिकना और रूखा। इन आठों स्पर्शों का ज्ञान स्पर्शन इन्द्रिय से होता है। ये रूपादि बीस गुण पुद्गल में ही पाये जाते हैं[16], अन्य द्रव्यों से नहीं। अत: पुद्गल को ही रूपी (मूर्तिक) और शेष द्रव्यों को अरूपी (अमूर्तिक) कहा गया है।

पुद्गल द्रव्य:— पुद्गल शब्द का अर्थ पूरण और गलन हैं। अर्थात जो परस्पर परमाणुओं के संयोग और वियोग से बनता हैं, पुद्गल कहलाता है। जिस हृदय में रूप, रस, गंध, पूर्ण सारी चारों गुण पाये जाते हैं। पुद्गल द्रव्य कहलाता है। पुद्गल द्रव्य मूर्तिक हैं। पुद्गल के दो भेद हैं— परमाणु और स्कंध। विज्ञान के अनुसार वायु, पानी, अग्नि, पृथ्वि, मन सभी पुद्गल हैं। विज्ञान और जैन दर्शन दोनों ने शब्द अर्थात ध्वनि को भी पुद्गल सिद्ध किया है।

पुद्गल में स्निग्ध और रूक्ष गुण पाये जाने से तथा परस्पर आकर्षण शक्ति के कारण जुड़ने से स्कंध बनते हैं तथा टूटने से परमाणु बनते हैं स्निग्ध और रूक्ष गुणों को ही विज्ञान ने धनात्मकता पोझीटीवली एवं ऋणात्मकता, नेगेटीवली माना हैं, जिससे विद्युत उत्पन्न की जा सकती है।

धर्मास्तिकाय[संपादित करें]

जीव एवं पुदगल के गमन में अर्थात् एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में सहायक होता है।

अधर्मास्तिकाय[संपादित करें]

गमन करते हुए जीव एवं पुदगल द्रव्य को रुकने में सहायता प्रदान करता है।[4]

आकाशास्तिकाय[संपादित करें]

आकाश बाक़ी द्रव्यों को स्थान देता है। [5]

काल[संपादित करें]

काल द्रव्य जीव व पुदगल के परिणमन अर्थात् पर्याय परिवर्तन में सहायक होता है।[6]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. Acarya Nemicandra; Nalini Balbir (2010) p. 1 of Introduction
  2. Grimes, John (1996).
  3. Champat Rai Jain 1917, पृ॰ 15.
  4. Acarya Nemicandra; Nalini Balbir (2010) p.11
  5. Acarya Nemicandra; Nalini Balbir (2010) p.11–12
  6. Champat Rai Jain 1917, पृ॰ 17.