सामग्री पर जाएँ

नमाज़

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
(सलात से अनुप्रेषित)
सलात / सलाह

नमाज़ के दौरान रुकू करते हुए मुस्लिम
आधिकारिक नाम صلاة
अन्य नाम इस्लाम में उपासना
अनुयायी मुस्लिम
प्रकार इस्लामीय
उद्देश्य फ़िक़ह के मुताबिक़ अल्लाह की इबादत का तरीक़ा.
अनुष्ठान
समान पर्व तिलावत, रुकू, सुजूद
काहिरा में नमाज़, 1865। ज़ाँ-लेयॉ ज़ेरोम
मस्जिद में नमाज़ ऐडा करते हुए मुस्लिम, बांग्लादेश.

नमाज़ (उर्दू: نماز) या सलाह (अरबी: صلوة), नमाज़ एक अरबी शब्द है। ईश्वर की वंदना करना ही नमाज है। उर्दू में अरबी शब्द सलात का पर्याय है। कुरान शरीफ में सलात शब्द बार-बार आया है और प्रत्येक मुसलमान स्त्री और पुरुष को नमाज पढ़ने का आदेश ताकीद के साथ दिया गया है। इस्लाम के आरंभकाल से ही नमाज की प्रथा और उसे पढ़ने का आदेश है। यह मुसलमानों का बहुत बड़ा कर्तव्य है और इसे नियमपूर्वक पढ़ना पुण्य तथा त्याग देना पाप है।

इस्लाम धर्म में हर मुस्लमान पर पांच इब्दात फ़र्ज़ हैं जिन्हे पूरा करना हर मुस्लमान पर जरुरी हैं यानि फ़र्ज़ हैं। इन्ही पांच फ़र्ज़ में से एक फ़र्ज़ नमाज़ हैं नमाज़ दिन में पांच वक़्त पढ़ी जाती हैं हर नमाज़ का वक़्त अलग अलग होता हैं मर्द मुसलमानो को नमाज़ मस्जिद में पढ़ना जरुरी होता हैं और औरतो को घर में ही नमाज़ पढ़ना जरुरी हैं औरत मस्जिद में नमाज़ पढ़ सकती और मर्द को घर में फ़र्ज़ नमाज़ पढ़ना जरुरी नहीं होता हैं अगर कोई कारन से मर्द मस्जिद ना जा सके तो मर्द घर में ही नमाज़ पढ़ सकता हैं ये इस्लाम में शर्त हैं।

इस जहां में फैली सभी मोमिन को जरूर नमाज़ अदा करनी चाहिए कि नमाज़ अदा करने से हम सभी का रब अल्लाह तबारक व तआला अपने नेक बन्दों से खुश होता है और दुनिया व आखिरत में अपने नेक बन्दों का रास्ता आसान फरमाता है।

पाँच नमाजें

[संपादित करें]

प्रत्येक मुसलमान के लिए प्रति दिन पाँच समय की नमाज पढ़ने का विधान है।

  • नमाज़-ए-फ़ज्र (उषाकाल की नमाज)-यह पहली नमाज है जो प्रात: काल सूर्य के उदय होने के पहले पढ़ी जाती है। इस नमाज में कुल 4 चार रकअत नमाज पढ़ी जाती है
  • नमाज-ए-ज़ुहर (अवनतिकाल की नमाज) यह दूसरी नमाज है जो मध्याह्न सूर्य के ढलना शुरु करने के बाद पढ़ी जाती है। इस नमाज-ए-जुहर में कुल 12 बारह रकअत नमाज पढ़ी जाती है।
  • नमाज-ए-अस्र (दिवसावसान की नमाज)- यह तीसरी नमाज है जो सूर्य के अस्त होने के कुछ पहले होती है। इस समय 8 आठ रकअत नमाज अदा की जाती है।
  • नमाज-ए-मग़रिब (सायंकाल की नमाज)- चौथी नमाज जो सूर्यास्त के तुरंत बाद होती है। नमाज-ए-मग़रिब में कुल 7 सात रकअत नमाज पढ़ी जाती है।
  • नमाज-ए-ईशा (रात्रि की नमाज)- अंतिम पाँचवीं नमाज जो सूर्यास्त के डेढ़ घंटे बाद पढ़ी जाती है। इस वक्त में कुल 17 सत्रह रकअत नमाज पढ़ी जाती है।

एक दिन में मज़हब-ए-इस्लाम में इस मज़हब के लोग 48 अड़तालिस रकअत नमाज अदा करते हैं।

नमाज पढ़ने के पहले प्रत्येक मुसलमान वज़ू करता है अर्थात् दोनों हाथो को टक्नो सहित धोना, कुल्ली करना, नाक साफ करना, चेहरा धोना, कुहनियों तक हाथ का धोना, सर के बालों पर भीगा हाथ फेरना और दोनों पैरों को धोना। फ़र्ज़ नमाज के लिए "अज़ान" दी जाती है। नमाज तथा अज़ान के बीच में लगभग कुछ मिनटों का अंतर होता है।[1]

उर्दू में अज़ान का अर्थ (पुकार) है। नमाज के पहले अज़ान इसीलिए दी जाती है कि आस-पास के मुसलमानों को नमाज की सूचना मिल जाए और वे सांसारिक कार्यों को छोड़कर कुछ मिनटों के लिए मस्जिद में खुदा की इबादत करने के लिए आ जाएँ। सुन्नत/नफ्ल नमाज अकेले पढ़ी जाती है और फ़र्ज़ समूह (जमा'त) के साथ। फ़र्ज़ नमाज साथ मिलकर (जमा'त) के साथ पढ़ी जाती है उसमें एक व्यक्ति आगे खड़ा होता है, जिसे इमाम कहते हैं और बाकी लोग पंक्ति बाँधकर पीछे खड़े हो जाते हैं। इमाम नमाज पढ़ाता है और अन्य लोग उसका अनुसरण करते हैं।

नमाज पढ़ने के लिए मुसलमान मक्का (किबला) की ओर मुख करके खड़ा हो जाता है, नमाज की इच्छा इरादा करता है और फिर "अल्लाह हो अकबर" कहकर तकबीर कहता है। इसके बाद दोनों हाथों को कानों तक उठाकर नाभि के करीब इस तरह बाँध लेता है कि दायां हाथ बाएं हाथ पर। वह बड़े सम्मान से खड़ा होता है उसकी नज़र सामने ज़मीन पर होती हैं। वह समझता है कि वह खुदा के सामने खड़ा है और खुदा उसे देख रहा है।

कुछ दुआ पढ़ता है और कुरान शरीफ से कुछ तिलावत करता है, जिसमें फातिह: (कुरान शरीफ की पहली सूरह) का पढ़ना आवश्यक है। इसके बाद अन्य सूरह । कभी उच्च तथा कभी मद्धिम स्वर से पढ़े जाते हैं। इसके बाद वह झुकता है जिसे रुक़ू कहते हैं, फिर खड़ा होता है जिसे क़ौमा कहते है, फिर सजदा में सर झुकाता है। कुछ क्षणों के बाद वह घुटनों के बल बैठता है और फिर सिजदा में सर झुकाता है। फिर कुछ देर के बाद खड़ा हो जाता है। इन सब कार्यों के बीच-बीच वह छोटी-छोटी दुआएँ भी पढ़ता जाता है, जिनमें अल्लाह की प्रशंसा होती है। इस प्रकार नमाज की एक रकअत समाप्त होती है। फिर दूसरी रकअत इसी प्रकार पढ़ता है और सिजदा के उपरांत घुटनों के बल बैठ जाता है। फिर पहले दाईं ओर सलाम फेरता है और तब बाईं ओर। इसके बाद वह अल्लाह से हाथ उठाकर दुआ माँगता है और इस प्रकार नमाज़ की दो रकअत पूरी करता है अधिकतर नमाजें दो रकअत करके पढ़ी जाती हैं और कभी-कभी चार रकअतों की भी नमाज़ पढ़ी जाती है। वित्र नमाज तीन रकअतो की पढ़ी जाती है। सभी नमाज पढ़ने का तरीका कम अधिक यही है।

नमाज़ों की अहमियत

[संपादित करें]

क़ुरआन अपनी एक आयत में बयान फर्माता है:

"वस्त-ईनू बिस्सब्री वस्स्लाह"

सब्र और नमाजों से मदद चाहो

नमाज़ खालिस बन्दे की आसानी के लिए अल्लाह की नेमत है। 5 नमाजों की मिसाल ऐसी है, मानो आपके द्वार पर 5 पवित्र नहरे। दिन में 5 बार आप उनमे स्नान कर के क्या अपवित्र रह सकते हैं? वैसे ही आप अपने मन को इन नहरों में स्नान करवा दुनिया द्वारा दी गई कलिख और मैल को धो डालते हैं। अल्लाह का डर और उसकी मदद आप को कामयाब इन्सान बनाने में मदद देतें हैं।

ग्रान्धिक अर्थ (लुगवी मानी)

[संपादित करें]

नमाज़ के लुगवी मानी "दुआ" के हैं। फरमान-ए-बारी तआला है

خُذْ مِنْ أَمْوَالِهِمْ صَدَقَةً تُطَهِّرُهُمْ وَتُزَكِّيهِمْ بِهَا وَصَلِّ عَلَيْهِمْ إِنَّ صَلَاتَكَ سَكَنٌ لَهُمْ وَاللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ

अनुवाद: ए पैग़ंबर! उन लोगों के माल में से सदक़ा वसूल कर लो जिस के ज़रीये उनके माल पाक हो जाएं और उन के लिए बाइस-ए-बरकत बने और उन के लिए दुआ करो। यक़ीनन! तुम्हारी दुआ उन के लिए सरापा तसकीन है और अल्लाह हर बात सुनता और सब कुछ जानता है
--अल-क़ुरआन सूरत अलतोबा:१०

जबकि फरमान-ए-नबवी सल्ल अल्लाह अलैहि वसल्लम है: जब तुम में से किसी को दावत दी जाय तो वो उसे क़बूल करले फिर अगर वो रोज़े से हो तो दुआ करदे और अगर रोज़े से ना हो तो खाले,
और अल्लाह की जानिब से "सलात" के मानी बेहतरीन ज़िक्र के हैं जबकि मलाइका की तरफ़ से "सलात" के मानी दुआ ही के लिए जाऐंगे। इरशाद-ए-बारी ताला है:

إِنَّ اللَّهَ وَمَلَائِكَتَهُ يُصَلُّونَ عَلَى النَّبِيِّ يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا صَلُّوا عَلَيْهِ وَسَلِّمُوا تَسْلِيمًا

अनुवाद: बेशक अल्लाह और इस के फ़रिश्ते नबी पर दरूद भेजते हैं। ए ईमान वालो! तुम भी उन पर दरूद भेजो और ख़ूब सलाम भेजा करो
--अल-क़ुरआन सूरत अल्लाहज़ अब:५

फ़लसफ़ा-ए-नमाज़

[संपादित करें]

इस्लामी क़वानीन और दुस्सह तीर के मुख़्तलिफ़ और मुतअद्दिद फ़लसफ़े और अस्बाब हैं जिन की वजह से उन्हें वज़ा किया गया है। इन फ़लसफ़ों और अस्बाब तक रसाई सिर्फ वही और मादिन वही (रसूल-ओ-आल-ए-रसूल (ए)) के ज़रीया ही मुम्किन है। क़ुरान मजीद और मासूमीन अलैहिम अस्सलाम की अहादीस में बाअज़ क़वानीन इस्लामी के बाअज़ फ़लसफ़ा और अस्बाब की तरफ़ इशारा किया गया है। उन्हें दस्तो रात में से एक नमाज़ है जो सारी इबादतों का मर्कज़, मुश्किलात और सख़्तियों में इंसान के तआदुल-ओ-तवाज़ुन की मुहाफ़िज़, मोमिन की मेराज, इंसान को बुराईयों और मुनकिरात से रोकने वाली और दूसरे आमाल की क़बूलीयत की ज़ामिन है। अल्लाह तआला इस सिलसिला में इरशाद फ़रमाते हैं:

وَأَقِمِ الصَّلَاةَ لِذِكْرِي

अनुवाद: मेरी याद के लिए नमाज़ क़ायम करो
--अल-क़ुरआन सूरत ताहा:१४

इस आयत की रोशनी में नमाज़ का सब से अहम फ़लसफ़ा याद ख़ुदा है और याद ख़ुदा ही है जो मुश्किलात और सख़्त हालात में इंसान के दिल को आराम और इतमीनान अता करती है।

أَلَا بِذِكْرِ اللَّهِ تَطْمَئِنُّ الْقُلُوبُ

अनुवाद: आगाह हो जाओ कि यादे ख़ुदा ही से दिलो को इतमीनान हासिल होता है।
--अल-क़ुरआन सूरत अलराद:२८.

रसूल ख़ुदा सल्लल्लाह अलैहि वसल्लम ने भी इसी बात की तरफ़ इशारा फ़रमाया है:

नमाज़ और हज-ओ-तवाफ़ को इस लिए वाजिब क़रार दिया गया है ताकी अल्लाह का ज़िक्र मुहक़्क़िक़ हो सके

शहीद महिराब, इमाम मुत्तक़ीन हज़रत अली अलैहि अस्सलाम फ़लसफ़ा-ए-नमाज़ को इस तरह ब्यान फ़रमाते हैं:

अल्लाह ने नमाज़ को इस लिए फ़र्ज़ क़रार दिया है ताकि इंसान तकब्बुर से पाक-ओ-पाकीज़ा हो जाए नमाज़ के ज़रीये अल्लाह से क़रीब हो जाओ। नमाज़ गुनाहों को इंसान से इस तरह गिरा देती है जैसे दरख़्त से सूखे पत्ते गिरते हैं, नमाज़ इंसान को (गुनाहों से) इस तरह आज़ाद कर देती है जैसे जानवरों की गर्दन से रस्सी खोल कर उन्हें आज़ाद किया जाता है हज़रत अली रज़ी अल्लाह अन्ह०

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा रज़ीअल्लाह अन्हा मस्जिद नबवी में अपने तारीख़ी ख़ुतबा में इस्लामी अह्क़ाम को ब्यान फ़रमाते हुए नमाज़ के बारे में इशारा फ़रमाती हैं:

अल्लाह ने नमाज़ को वाजिब क़रार दिया ताकि इंसान को किबर-ओ-तकब्बुर और ख़ुद बीनी से पाक-ओ-पाकीज़ा कर दे

हिशाम बिन हुक्म ने इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहि अस्सलाम से सवाल किया : नमाज़ का क्या फ़लसफ़ा है कि लोगों को कारोबार से रोक दिया जाय और उन के लिए ज़हमत का सबब बने? इमाम अलैहि अस्सलाम ने इस के जवाब में फ़रमाया:

नमाज़ के बहुत से फ़लसफ़े हैं उन्हें में से एक ये भी है कि पहले लोग आज़ाद थे और ख़ुदा-ओ-रसूल की याद से ग़ाफ़िल थे और उन के दरमयान सिर्फ क़ुरआन था उम्मत मुस्लिमा भी गुज़शता उम्मतों की तरह थी क्योंकि उन्हों ने सिर्फ दीन को इख़तियार कर रखा था और किताब और अनबया-ए-को छोड़ रखा था और उन को क़तल तक कर देते थे। नतीजा में इन का दीन पुराना (बैरवा) हो गया और उन लोगों को जहां जाना चाहिए था चले गए। अल्लाह ने इरादा किया कि ये उम्मत दीन को फ़रामोश ना करे लिहाज़ा इस उम्मत मुस्लिमा के ऊपर नमाज़ को वाजिब क़रार दिया ताकि हर रोज़ पाँच बार आँहज़रत को याद करें और उन का इस्म गिरामी ज़बान पर যक़ब लाएंगे और इस नमाज़ के ज़रीया ख़ुदा को याद करें ताकि इस से ग़ाफ़िल ना हो सकें और इस ख़ुदा को तर्क ना कर दिया जाय

इमाम रज़ा अलैहि अस्सलाम फ़लसफ़ा-ए-नमाज़ के सिलसिला में यूं फ़रमाते हैं:

नमाज़ के वाजिब होने का सबब,अल्लाह की रबूबियत का इक़रार, शिर्क की नफ़ी और इंसान का अल्लाह की बारगाह में ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ू के साथ खड़ा होना है। नमाज़ गुनाहों का एतराफ़ और गुज़शता गुनाहों से तलब अफ़व और तौबा है। सजदा, अल्लाह की ताज़ीम-ओ-तकरीम के लिए ख़ाक पर चेहरा रखना है

नमाज़ सबब बनती है कि इंसान हमेशा अल्लाह की याद में रहे और उसे भूले नहीं, नाफ़रमानी और सरकशी ना करे। ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ू और रग़बत-ओ-शौक़ के साथ अपने दुनियावी और उखरवी हिस्सा में इज़ाफ़ा का तलबगार हो। इस के इलावा इंसान नमाज़ के ज़रीया हमेशा और हरवक़त अल्लाह की बारगाह में हाज़िर रहे और उसकी याद से सरशार रहे। नमाज़ गुनाहों से रोकती और मुख़्तलिफ़ बुराईयों से मना करती है सजदा का फ़लसफ़ा ग़रूर-ओ-तकब्बुर, ख़ुद ख़्वाही और सरकशी को ख़ुद से दूर करना और अल्लाह वहिदा ला शरीक की याद में रहना और गुनाहों से दूर रहना है।

अन्य नमाजें

[संपादित करें]

प्रति दिन की पाँचों समय की नमाज़ों के सिवा कुछ अन्य नमाज़ें हैं, जो समूहबद्ध हैं। पहली नमाज़ जुमअ (शुक्रवार) की है, जो सूर्य के ढलने के अनंतर नमाज़ ज़ह्र के स्थान पर पढ़ी जाती है। इसमें इमाम नमाज़ पढ़ाने के पहले एक भाषण देता है, जिसे खुतबा कहते हैं खुतबा वाजिब होता है बगैर इसके जुमअ की नमाज़ नहीं। इसमें अल्लाह की प्रशंसा के सिवा मुसलमानों को नेकी का उपदेश दिया जाता है। दूसरी नमाज ईदुलफित्र के दिन पढ़ी जाती है। यह मुसलमानों का वह त्योहार है, जिसे उर्दू में ईद कहते हैं. जिसे रमजान के पूरे महीने रोजे (दिन भर का उपवास) रखने के अनंतर जिस रात नया चंद्रमा निकलता है उसके दूसरे दिन मानते हैं। तीसरी नमाज़ ईद अल् अज़हा के अवसर पर पढ़ी जाती है। इस ईद को कुर्बानी की ईद कहते हैं। ये नमाज़ें सामान्य नमाज़ों की तरह पढ़ी जाती हैं। विभिन्नता केवल इतनी रहती है कि इनमें पहली रकअत में तीन बार, सुर: से पहले और दूसरी रकअत में पुन: तीन बार अधिक रुकु से पहले कानों तक हाथ उठाना पड़ता है। नमाज़ के बाद इमाम खुतबा देता है जिसका सुनना वाजिब होता है, जिसमें नेकी व भलाई करने के उपदेश रहते हैं।

कुछ नमाजें ऐसी भी होती हैं जिनके न पढ़ने से कोई मुसलमान दोषी नहीं होता। इन नमाजों में सबसे अधिक महत्व तहज्जुद नमाज़ को प्राप्त है। यह नमाज़ रात्रि के पिछले पहर में पढ़ी जाती है। आज भी बहुत से मुसलमान इस नमाज़ को दृढ़ता से पढ़ते हैं। इस्लाम धर्म में नमाज़ जनाज़ा का भी बहुत महत्व है। इसकी हैसियत प्रार्थना सी है। जब किसी मुसलमान की मृत्यु हो जाती है तब उसे नहला धुलाकर दो श्वेत वस्त्र से ढक देते हैं, जिसे कफन कहते हैं और फिर जनाज़ा को खुले मैदान में ले जाते हैं अगर बारिश हो रही है तो जनाज़ा की नमाज़ मस्जिद मे हो सकती है। वहाँ इमाम जनाज़ा के पीछे खड़ा होता है और दूसरे लोग उसके पीछे पंक्ति बाँधकर खड़े हो जाते हैं। इस नमाज़ में न ही रुकू है और न सिजदा है, केवल हाथ बाँधकर खड़ा रह जाता है तथा दुआ पढ़ी जाती है।

इन्हें भी देखें

[संपादित करें]

सन्दर्भ

[संपादित करें]
  1. WD. "नमाज़ का असल मकसद". hindi.webdunia.com. अभिगमन तिथि 2020-12-20.