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"महात्मा गांधी": अवतरणों में अंतर

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'''मोहनदास करमचन्द गांधी''' ([[२ अक्टूबर]] [[१८६९]] - [[३० जनवरी]] [[१९४८]]) [[भारत]] एवं [[भारतीय स्वतंत्रता संग्राम|भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन]] के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। वे ''[[सत्याग्रह]]'' (व्यापक सविनय अवज्ञा) के माध्यम से [[अत्याचार]] के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण [[अहिंसा]] के सिद्धान्त पर रखी गयी थी जिसने भारत को [[भारतीय स्वतंत्रता संग्राम|आजादी]] दिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें दुनिया में आम जनता '''महात्मा गांधी''' के नाम से जानती है। [[संस्कृत भाषा]] में महात्मा अथवा महान आत्मा एक [[सम्मान|सम्मान सूचक]] शब्द है। गांधी को [[महात्मा]] के नाम से सबसे पहले १९१५ में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने संबोधित किया था।<ref name="क्रान्त">{{cite book |last1=क्रान्त |first1=|authorlink1= |last2= |first2= |editor1-first= |editor1-last= |editor1-link= |others= |title=स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास |url=http://www.worldcat.org/title/svadhinata-sangrama-ke-krantikari-sahitya-ka-itihasa/oclc/271682218 |format= |accessdate= |edition=1 |series= |volume=1 |date= |year=2006 |month= |origyear= |publisher=प्रवीण प्रकाशन |location=नई दिल्ली | language = hi |isbn= 81-7783-119-4|oclc= |doi= |id= |page=107 |pages= |chapter= |chapterurl= |quote=1915 के प्रारम्भ में जब पहला विश्वयुद्ध चल रहा था गान्धी अपनी पूरी भक्त मण्डली के साथ भारत में अवतरित हुए। उन्होंने आते ही यह घोषणा की कि वह राजनीति में भाग नहीं लेंगे, केवल समाज-सेवा का कार्य करेंगे। सौराष्ट्र की गोंडाल नामक रियासत में गान्धी के सम्मान में एक सार्वजनिक सभा की गयी जिसमें गोंडाल के दीवान रणछोड़दास पटवारी की अध्यक्षता में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने उन्हें 'महात्मा' की उपाधि से विभूषित किया। |ref= |bibcode= |laysummary= |laydate= |separator= |postscript= |lastauthoramp=}}</ref>। उन्हें ''बापू'' ([[गुजराती भाषा]] में બાપુ बापू यानी पिता) के नाम से भी याद किया जाता है। [[सुभाष चन्द्र बोस]] ने ६ जुलाई १९४४ को [[रंगून]] रेडियो से गांधी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें [[राष्ट्रपिता]] कहकर सम्बोधित करते हुए [[आज़ाद हिन्द फ़ौज|आज़ाद हिन्द फौज़]] के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं।<ref>{{cite book |last1=क्रान्त|first1=मदनलाल वर्मा |authorlink1= |last2= |first2= |editor1-first= |editor1-last= |editor1-link= |others= |title=स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास |url=http://www.worldcat.org/title/svadhinata-sangrama-ke-krantikari-sahitya-ka-itihasa/oclc/271682218 |format= |accessdate= |edition=1 |series= |volume=2 |date= |year=2006 |month= |origyear= |publisher=प्रवीण प्रकाशन |location=नई दिल्ली | language = hi |isbn= 81-7783-120-8|oclc= |doi= |id= |page=512 |pages= |chapter= |chapterurl= |quote=मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी। मैं इस बात का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये। अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं। मैंने जो कुछ किया है अपने देश के लिये किया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिये किया है। भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनायें चाहते हैं।|ref= |bibcode= |laysummary= |laydate= |separator= |postscript= |lastauthoramp=}}</ref> प्रति वर्ष [[२ अक्टूबर]] को उनका जन्म दिन भारत में [[गांधी जयंती]] के रूप में और पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के नाम से मनाया जाता है।
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सबसे पहले गान्धी ने प्रवासी वकील के रूप में [[दक्षिण अफ़्रीका|दक्षिण अफ्रीका]] में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु सत्याग्रह करना शुरू किया। १९१५ में उनकी भारत वापसी हुई।<ref>{{Cite web|url=https://theprint.in/opinion/ramachandra-guha-is-wrong-a-middle-aged-gandhi-was-racist-and-no-mahatma/168222/|title=Ramachandra Guha is wrong. Gandhi went from a racist young man to a racist middle-aged man}}</ref> उसके बाद उन्होंने यहाँ के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। १९२१ में [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में गरीबी से राहत दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये [[दलित|अस्पृश्‍यता]] के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला [[स्वराज]] की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाये गये नमक कर के विरोध में १९३० में [[नमक सत्याग्रह]] और इसके बाद १९४२ में अंग्रेजो [[भारत छोड़ो आन्दोलन]] से खासी प्रसिद्धि प्राप्त की। दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें जेल में भी रहना पड़ा।
सबसे पहले गान्धी ने प्रवासी वकील के रूप में [[दक्षिण अफ़्रीका|दक्षिण अफ्रीका]] में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु सत्याग्रह करना शुरू किया। १९१५ में उनकी भारत वापसी हुई।<ref>{{Cite web|url=https://theprint.in/opinion/ramachandra-guha-is-wrong-a-middle-aged-gandhi-was-racist-and-no-mahatma/168222/|title=Ramachandra Guha is wrong. Gandhi went from a racist young man to a racist middle-aged man}}</ref> उसके बाद उन्होंने यहाँ के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। १९२१ में [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]] की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में गरीबी से राहत दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये [[दलित|अस्पृश्‍यता]] के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला [[स्वराज]] की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाये गये नमक कर के विरोध में १९३० में [[नमक सत्याग्रह]] और इसके बाद १९४२ में अंग्रेजो [[भारत छोड़ो आन्दोलन]] से खासी प्रसिद्धि प्राप्त की। दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें जेल में भी रहना पड़ा।

13:22, 6 जनवरी 2020 का अवतरण

महात्मा गांधी
जन्म 2 अक्टूबर 1869[1][2][3][4][5][6][7][8][9][10][11][12][13][14][15][16][17][18]
पोरबन्दर[19][20]
मौत 30 जनवरी 1948[1][2][3][4][5][6][7][8][9][10][11][12][14][15][16][17][21][18]
गाँधी स्मृति[22][23]
मौत की वजह मानव हत्या[24] बैलिस्टिक आघात[25]
जाति गुजराती[26]
नागरिकता भारत
शिक्षा महात्मा गांधी म्यूजियम, यूनिवर्सिटी कॉलेज, लन्दन[6]
पेशा राजनीतिज्ञ,[27][28][29][16] बैरिस्टर,[27][26] पत्रकार,[26] दार्शनिक,[30][26] निबंधकार,[6] संस्मरण लेखक,[6] क्रांतिकारी, लेखक,[31] विधिवेत्ता, स्वतंत्रता सेनानी
ऊंचाई 164 शतिमान
भार 164 शतिमान
राजनैतिक पार्टी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस[26]
धर्म हिन्दू धर्म[6]
जीवनसाथी कस्तूरबा गाँधी[32][6]
बच्चे हरिलाल मोहनदास गाँधी,[32][33] मणिलाल गाँधी,[34][33] रामदास गाँधी,[33] देवदास गाँधी[33]
माता-पिता करमचंद गाँधी[6][35] पुतलीबाई करमचंद गाँधी[6][35]
पुरस्कार कैसर-ए-हिंद मेडल[36]
हस्ताक्षर

मोहनदास करमचन्द गांधी (२ अक्टूबर १८६९ - ३० जनवरी १९४८) भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। वे सत्याग्रह (व्यापक सविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी जिसने भारत को आजादी दिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें दुनिया में आम जनता महात्मा गांधी के नाम से जानती है। संस्कृत भाषा में महात्मा अथवा महान आत्मा एक सम्मान सूचक शब्द है। गांधी को महात्मा के नाम से सबसे पहले १९१५ में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने संबोधित किया था।[37]। उन्हें बापू (गुजराती भाषा में બાપુ बापू यानी पिता) के नाम से भी याद किया जाता है। सुभाष चन्द्र बोस ने ६ जुलाई १९४४ को रंगून रेडियो से गांधी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं।[38] प्रति वर्ष २ अक्टूबर को उनका जन्म दिन भारत में गांधी जयंती के रूप में और पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के नाम से मनाया जाता है।

सबसे पहले गान्धी ने प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु सत्याग्रह करना शुरू किया। १९१५ में उनकी भारत वापसी हुई।[39] उसके बाद उन्होंने यहाँ के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। १९२१ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में गरीबी से राहत दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्‍यता के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला स्वराज की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाये गये नमक कर के विरोध में १९३० में नमक सत्याग्रह और इसके बाद १९४२ में अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन से खासी प्रसिद्धि प्राप्त की। दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें जेल में भी रहना पड़ा।

गांधी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिये वकालत भी की। उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन गुजारा और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। उन्होंने सादा शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास रखे।

प्रारम्भिक जीवन

सन् १८७६ में खींचा गया गान्धी के बचपन का चित्र जब उनकी आयु ७ वर्ष की रही होगी
पिनाकिनी सत्याग्रह आश्रम, गांधी जी

मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म पश्चिमी भारत में वर्तमान गुजरात के एक तटीय शहर पोरबंदर नामक स्थान पर २ अक्टूबर सन् १८६९ को हुआ था। उनके पिता करमचन्द गान्धी सनातन धर्म की पंसारी जाति से सम्बन्ध रखते थे और ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत (पोरबंदर) के दीवान अर्थात् प्रधान मन्त्री थे। गुजराती भाषा में गान्धी का अर्थ है पंसारी[40] जबकि हिन्दी भाषा में गन्धी का अर्थ है इत्र फुलेल बेचने वाला जिसे अंग्रेजी में परफ्यूमर कहा जाता है।[41] उनकी माता पुतलीबाई परनामी वैश्य समुदाय की थीं। पुतलीबाई करमचन्द की चौथी पत्नी थी। उनकी पहली तीन पत्नियाँ प्रसव के समय मर गयीं थीं। भक्ति करने वाली माता की देखरेख और उस क्षेत्र की जैन परम्पराओं के कारण युवा मोहनदास पर वे प्रभाव प्रारम्भ में ही पड़ गये थे जिन्होंने आगे चलकर उनके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन प्रभावों में शामिल थे दुर्बलों में जोश की भावना, शाकाहारी जीवन, आत्मशुद्धि के लिये उपवास तथा विभिन्न जातियों के लोगों के बीच सहिष्णुता।

कम आयु में विवाह

गांधीजी-कस्तूरबा ,पोरबंदर ,गुजरात ,भारत में
चित्र:Gandhi ji with children.JPG
गांधीजी बच्चों के साथ

मई १८८३ में साढे १३ साल की आयु पूर्ण करते ही उनका विवाह १४ साल की कस्तूर बाई मकनजी से कर दिया गया। पत्नी का पहला नाम छोटा करके कस्तूरबा कर दिया गया और उसे लोग प्यार से बा कहते थे। यह विवाह उनके माता पिता द्वारा तय किया गया व्यवस्थित बाल विवाह था जो उस समय उस क्षेत्र में प्रचलित था। लेकिन उस क्षेत्र में यही रीति थी कि किशोर दुल्हन को अपने माता पिता के घर और अपने पति से अलग अधिक समय तक रहना पड़ता था। १८८५ में जब गान्धी जी १५ वर्ष के थे तब इनकी पहली सन्तान ने जन्म लिया। लेकिन वह केवल कुछ दिन ही जीवित रही। और इसी साल उनके पिता करमचन्द गांधी भी चल बसे। मोहनदास और कस्तूरबा के चार सन्तान हुईं जो सभी पुत्र थे। हरीलाल गान्धी १८८८ में, मणिलाल गान्धी १८९२ में, रामदास गान्धी १८९७ में और देवदास गांधी १९०० में जन्मे। पोरबंदर से उन्होंने मिडिल और राजकोट से हाई स्कूल किया। दोनों परीक्षाओं में शैक्षणिक स्तर वह एक औसत छात्र रहे। मैट्रिक के बाद की परीक्षा उन्होंने भावनगर के शामलदास कॉलेज से कुछ परेशानी के साथ उत्तीर्ण की। जब तक वे वहाँ रहे अप्रसन्न ही रहे क्योंकि उनका परिवार उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहता था।

विदेश में शिक्षा व विदेश में ही वकालत

गान्धी व उनकी पत्नी कस्तूरबा (1902 का फोटो)

अपने १९वें जन्मदिन से लगभग एक महीने पहले ही ४ सितम्बर १८८८ को गांधी यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढाई करने और बैरिस्टर बनने के लिये इंग्लैंड चले गये। भारत छोड़ते समय जैन भिक्षु बेचारजी के समक्ष हिन्दुओं को मांस, शराब तथा संकीर्ण विचारधारा को त्यागने के लिए अपनी अपनी माता जी को दिए गये एक वचन ने उनके शाही राजधानी लंदन में बिताये गये समय को काफी प्रभावित किया। हालांकि गांधी जी ने अंग्रेजी रीति रिवाजों का अनुभव भी किया जैसे उदाहरण के तौर पर नृत्य कक्षाओं में जाने आदि का। फिर भी वह अपनी मकान मालकिन द्वारा मांस एवं पत्ता गोभी को हजम.नहीं कर सके। उन्होंने कुछ शाकाहारी भोजनालयों की ओर इशारा किया। अपनी माता की इच्छाओं के बारे में जो कुछ उन्होंने पढा था उसे सीधे अपनाने की बजाय उन्होंने बौद्धिकता से शाकाहारी भोजन का अपना भोजन स्वीकार किया। उन्होंने शाकाहारी समाज की सदस्यता ग्रहण की और इसकी कार्यकारी समिति के लिये उनका चयन भी हो गया जहाँ उन्होंने एक स्थानीय अध्याय की नींव रखी। बाद में उन्होने संस्थाएँ गठित करने में महत्वपूर्ण अनुभव का परिचय देते हुए इसे श्रेय दिया। वे जिन शाकाहारी लोगों से मिले उनमें से कुछ थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य भी थे। इस सोसाइटी की स्थापना १८७५ में विश्व बन्धुत्व को प्रबल करने के लिये की गयी थी और इसे बौद्ध धर्म एवं सनातन धर्म के साहित्य के अध्ययन के लिये समर्पित किया गया था।

उन्हों लोगों ने गांधी जी को श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने के लिये प्रेरित किया। हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, इस्लाम और अन्य धर्मों .के बारे में पढ़ने से पहले गांधी ने धर्म में विशेष रुचि नहीं दिखायी। इंग्लैंड और वेल्स बार एसोसिएशन में वापस बुलावे पर वे भारत लौट आये किन्तु बम्बई में वकालत करने में उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। बाद में एक हाई स्कूल शिक्षक के रूप में अंशकालिक नौकरी का प्रार्थना पत्र अस्वीकार कर दिये जाने पर उन्होंने जरूरतमन्दों के लिये मुकदमे की अर्जियाँ लिखने के लिये राजकोट को ही अपना स्थायी मुकाम बना लिया। परन्तु एक अंग्रेज अधिकारी की मूर्खता के कारण उन्हें यह कारोबार भी छोड़ना पड़ा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस घटना का वर्णन अपने बड़े भाई की ओर से परोपकार की असफल कोशिश के रूप में किया है। यही वह कारण था जिस वजह से उन्होंने सन् १८९३ में एक भारतीय फर्म से नेटाल दक्षिण अफ्रीका में, जो उन दिनों ब्रिटिश साम्राज्य का भाग होता था, एक वर्ष के करार पर वकालत का कारोवार स्वीकार कर लिया।

दक्षिण अफ्रीका (१८९३-१९१४) में नागरिक अधिकारों के आन्दोलन

गांधी दक्षिण अफ्रीका में (१८९५)

दक्षिण अफ्रीका में गान्धी को भारतीयों पर भेदभाव का सामना करना पड़ा। आरम्भ में उन्हें प्रथम श्रेणी कोच की वैध टिकट होने के बाद तीसरी श्रेणी के डिब्बे में जाने से इन्कार करने के लिए ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया था। इतना ही नहीं पायदान पर शेष यात्रा करते हुए एक यूरोपियन यात्री के अन्दर आने पर चालक की मार भी झेलनी पड़ी। उन्होंने अपनी इस यात्रा में अन्य भी कई कठिनाइयों का सामना किया। अफ्रीका में कई होटलों को उनके लिए वर्जित कर दिया गया। इसी तरह ही बहुत सी घटनाओं में से एक यह भी थी जिसमें अदालत के न्यायाधीश ने उन्हें अपनी पगड़ी उतारने का आदेश दिया था जिसे उन्होंने नहीं माना। ये सारी घटनाएँ गान्धी के जीवन में एक मोड़ बन गईं और विद्यमान सामाजिक अन्याय के प्रति जागरुकता का कारण बनीं तथा सामाजिक सक्रियता की व्याख्या करने में मददगार सिद्ध हुईं। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अन्याय को देखते हुए गान्धी ने अंग्रेजी साम्राज्य के अन्तर्गत अपने देशवासियों के सम्मान तथा देश में स्वयं अपनी स्थिति के लिए प्रश्न उठाये।

१९०६ के ज़ुलु युद्ध में भूमिका

१९०६ में, ज़ुलु (Zulu) दक्षिण अफ्रीका में नए चुनाव कर के लागू करने के बाद दो अंग्रेज अधिकारियों को मार डाला गया। बदले में अंग्रेजों ने जूलू के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। गांधी जी ने भारतीयों को भर्ती करने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों को सक्रिय रूप से प्रेरित किया। उनका तर्क था अपनी नागरिकता के दावों को कानूनी जामा पहनाने के लिए भारतीयों को युद्ध प्रयासों में सहयोग देना चाहिए। तथापि, अंग्रेजों ने अपनी सेना में भारतीयों को पद देने से इंकार कर दिया था। इसके बावजूद उन्होने गांधी जी के इस प्रस्ताव को मान लिया कि भारतीय घायल अंग्रेज सैनिकों को उपचार के लिए स्टेचर पर लाने के लिए स्वैच्छा पूर्वक कार्य कर सकते हैं। इस कोर की बागडोर गांधी ने थामी।२१ जुलाई (July 21), १९०६ को गांधी जी ने भारतीय जनमत इंडियन ओपिनिय (Indian Opinion) में लिखा कि २३ भारतीय[42] निवासियों के विरूद्ध चलाए गए आप्रेशन के संबंध में प्रयोग द्वारा नेटाल सरकार के कहने पर एक कोर का गठन किया गया है।दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों से इंडियन ओपिनियन में अपने कॉलमों के माध्‍यम से इस युद्ध में शामिल होने के लिए आग्रह किया और कहा, यदि सरकार केवल यही महसूस करती हे कि आरक्षित बल बेकार हो रहे हैं तब वे इसका उपयोग करेंगे और असली लड़ाई के लिए भारतीयों का प्रशिक्षण देकर इसका अवसर देंगे।[43]

गांधी की राय में, १९०६ का मसौदा अध्यादेश भारतीयों की स्थिति में किसी निवासी के नीचे वाले स्तर के समान लाने जैसा था। इसलिए उन्होंने सत्याग्रह (Satyagraha), की तर्ज पर "काफिर (Kaffir)s " .का उदाहरण देते हुए भारतीयों से अध्यादेश का विरोध करने का आग्रह किया। उनके शब्दों में, " यहाँ तक कि आधी जातियां और काफिर जो हमसे कम आधुनिक हैं ने भी सरकार का विरोध किया है। पास का नियम उन पर भी लागू होता है किंतु वे पास[44] नहीं दिखाते हैं।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए संघर्ष (१९१६ -१९४५)

गांधी १९१५ में दक्षिण अफ्रीका से भारत में रहने के लिए लौट आए।[45] उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों पर अपने विचार व्य‍क्त किए, लेकिन उनके विचार भारत के मुख्य मुद्दों, राजनीति तथा उस समय के कांग्रेस दल के प्रमुख भारतीय नेता गोपाल कृष्ण गोखले पर ही आधारित थे जो एक सम्मानित नेता थे।

चंपारण और खेड़ा

१९१८ में खेड़ा और चंपारन सत्याग्रह के समय १९१८ में गांधी

गांधी की पहली बड़ी उपलब्धि १९१८ में चम्पारन सत्याग्रह और खेड़ा सत्याग्रह में मिली हालांकि अपने निर्वाह के लिए जरूरी खाद्य फसलों की बजाए नील (indigo) नकद पैसा देने वाली खाद्य फसलों की खेती वाले आंदोलन भी महत्वपूर्ण रहे। जमींदारों (अधिकांश अंग्रेज) की ताकत से दमन हुए भारतीयों को नाममात्र भरपाई भत्ता दिया गया जिससे वे अत्यधिक गरीबी से घिर गए। गांवों को बुरी तरह गंदा और अस्वास्थ्यकर (unhygienic); और शराब, अस्पृश्यता और पर्दा से बांध दिया गया। अब एक विनाशकारी अकाल के कारण शाही कोष की भरपाई के लिए अंग्रेजों ने दमनकारी कर लगा दिए जिनका बोझ दिन प्रतिदिन बढता ही गया। यह स्थिति निराशजनक थी। खेड़ा (Kheda), गुजरात में भी यही समस्या थी। गांधी जी ने वहां एक आश्रम (ashram) बनाया जहाँ उनके बहुत सारे समर्थकों और नए स्वेच्छिक कार्यकर्ताओं को संगठित किया गया। उन्होंने गांवों का एक विस्तृत अध्ययन और सर्वेक्षण किया जिसमें प्राणियों पर हुए अत्याचार के भयानक कांडों का लेखाजोखा रखा गया और इसमें लोगों की अनुत्पादकीय सामान्य अवस्था को भी शामिल किया गया था। ग्रामीणों में विश्‍वास पैदा करते हुए उन्होंने अपना कार्य गांवों की सफाई करने से आरंभ किया जिसके अंतर्गत स्कूल और अस्पताल बनाए गए और उपरोक्त वर्णित बहुत सी सामाजिक बुराईयों को समाप्त करने के लिए ग्रामीण नेतृत्व प्रेरित किया।

लेकिन इसके प्रमुख प्रभाव उस समय देखने को मिले जब उन्हें अशांति फैलाने के लिए पुलिस ने गिरफ्तार किया और उन्हें प्रांत छोड़ने के लिए आदेश दिया गया। हजारों की तादाद में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किए ओर जेल, पुलिस स्टेशन एवं अदालतों के बाहर रैलियां निकालकर गांधी जी को बिना शर्त रिहा करने की मांग की। गांधी जी ने जमींदारों के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन और हड़तालों को का नेतृत्व किया जिन्होंने अंग्रेजी सरकार के मार्गदर्शन में उस क्षेत्र के गरीब किसानों को अधिक क्षतिपूर्ति मंजूर करने तथा खेती पर नियंत्रण, राजस्व में बढोतरी को रद्द करना तथा इसे संग्रहित करने वाले एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस संघर्ष के दौरान ही, गांधी जी को जनता ने बापू पिता और महात्मा (महान आत्मा) के नाम से संबोधित किया। खेड़ा में सरदार पटेल ने अंग्रेजों के साथ विचार विमर्श के लिए किसानों का नेतृत्व किया जिसमें अंग्रेजों ने राजस्व संग्रहण से मुक्ति देकर सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया था। इसके परिणामस्वरूप, गांधी की ख्याति देश भर में फैल गई।

असहयोग आन्दोलन

गांधी जी ने असहयोग, अहिंसा तथा शांतिपूर्ण प्रतिकार को अंग्रेजों के खिलाफ़ शस्त्र के रूप में उपयोग किया। पंजाब में अंग्रेजी फोजों द्वारा भारतीयों पर जलियावांला नरसंहार जिसे अमृतसर नरसंहार के नाम से भी जाना जाता है ने देश को भारी आघात पहुंचाया जिससे जनता में क्रोध और हिंसा की ज्वाला भड़क उठी। गांधीजी ने ब्रिटिश राज तथा भारतीयों द्वारा ‍प्रतिकारात्मक रवैया दोनों की की। उन्होंने ब्रिटिश नागरिकों तथा दंगों के शिकार लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त की तथा पार्टी के आरंभिक विरोध के बाद दंगों की भंर्त्सना की। गांधी जी के भावनात्मक भाषण के बाद अपने सिद्धांत की वकालत की कि सभी हिंसा और बुराई को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है।[46] किंतु ऐसा इस नरसंहार और उसके बाद हुई हिंसा से गांधी जी ने अपना मन संपूर्ण सरकार आर भारतीय सरकार के कब्जे वाली संस्थाओं पर संपूर्ण नियंत्रण लाने पर केंद्रित था जो जल्‍दी ही स्वराज अथवा संपूर्ण व्यक्तिगत, आध्‍यात्मिक एवं राजनैतिक आजादी में बदलने वाला था।

साबरमती आश्रम : गुजरात में गांधी का घर

दिसम्बर १९२१ में गांधी जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस.का कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस को स्वराज.के नाम वाले एक नए उद्देश्‍य के साथ संगठित किया गया। पार्दी में सदस्यता सांकेतिक शुल्क का भुगताने पर सभी के लिए खुली थी। पार्टी को किसी एक कुलीन संगठन की न बनाकर इसे राष्ट्रीय जनता की पार्टी बनाने के लिए इसके अंदर अनुशासन में सुधार लाने के लिए एक पदसोपान समिति गठित की गई। गांधी जी ने अपने अहिंसात्मक मंच को स्वदेशी नीति — में शामिल करने के लिए विस्तार किया जिसमें विदेशी वस्तुओं विशेषकर अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करना था। इससे जुड़ने वाली उनकी वकालत का कहना था कि सभी भारतीय अंग्रेजों द्वारा बनाए वस्त्रों की अपेक्षा हमारे अपने लोगों द्वारा हाथ से बनाई गई खादी पहनें। गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन[47] को सहयोग देने के लिएपुरूषों और महिलाओं को प्रतिदिन खादी के लिए सूत कातने में समय बिताने के लिए कहा। यह अनुशासन और समर्पण लाने की ऐसी नीति थी जिससे अनिच्छा और महत्वाकाक्षा को दूर किया जा सके और इनके स्थान पर उस समय महिलाओं को शामिल किया जाए जब ऐसे बहुत से विचार आने लगे कि इस प्रकार की गतिविधियां महिलाओं के लिए सम्मानजनक नहीं हैं। इसके अलावा गांधी जी ने ब्रिटेन की शैक्षिक संस्थाओं तथा अदालतों का बहिष्कार और सरकारी नौकरियों को छोड़ने का तथा सरकार से प्राप्त तमगों और सम्मान (honours) को वापस लौटाने का भी अनुरोध किया।

असहयोग को दूर-दूर से अपील और सफलता मिली जिससे समाज के सभी वर्गों की जनता में जोश और भागीदारी बढ गई। फिर जैसे ही यह आंदोलन अपने शीर्ष पर पहुंचा वैसे फरवरी १९२२ में इसका अंत चौरी-चोरा, उत्तरप्रदेश में भयानक द्वेष के रूप में अंत हुआ। आंदोलन द्वारा हिंसा का रूख अपनाने के डर को ध्‍यान में रखते हुए और इस पर विचार करते हुए कि इससे उसके सभी कार्यों पर पानी फिर जाएगा, गांधी जी ने व्यापक असहयोग[48] के इस आंदोलन को वापस ले लिया। गांधी पर गिरफ्तार किया गया १० मार्च, १९२२, को राजद्रोह के लिए गांधी जी पर मुकदमा चलाया गया जिसमें उन्हें छह साल कैद की सजा सुनाकर जैल भेद दिया गया। १८ मार्च, १९२२ से लेकर उन्होंने केवल २ साल ही जैल में बिताए थे कि उन्हें फरवरी १९२४ में आंतों के ऑपरेशन के लिए रिहा कर दिया गया।

गांधी जी के एकता वाले व्यक्तित्व के बिना इंडियन नेशनल कांग्रेस उसके जेल में दो साल रहने के दौरान ही दो दलों में बंटने लगी जिसके एक दल का नेतृत्व सदन में पार्टी की भागीदारी के पक्ष वाले चित्त रंजन दास तथा मोतीलाल नेहरू ने किया तो दूसरे दल का नेतृत्व इसके विपरीत चलने वाले चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया। इसके अलावा, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अहिंसा आंदोलन की चरम सीमा पर पहुंचकर सहयोग टूट रहा था। गांधी जी ने इस खाई को बहुत से साधनों से भरने का प्रयास किया जिसमें उन्होंने १९२४ की बसंत में सीमित सफलता दिलाने वाले तीन सप्ताह का उपवास करना भी शामिल था।[49]

स्वराज और नमक सत्याग्रह (नमक मार्च)

दांडी में गाँधी, ५ अप्रैल, १९३०, के अंत में नमक मार्च

गांधी जी सक्रिय राजनीति से दूर ही रहे और १९२० की अधिकांश अवधि तक वे स्वराज पार्टी और इंडियन नेशनल कांग्रेस के बीच खाई को भरने में लगे रहे और इसके अतिरिक्त वे अस्पृश्यता, शराब, अज्ञानता और गरीबी के खिलाफ आंदोलन छेड़ते भी रहे। उन्होंने पहले १९२८ में लौटे .एक साल पहले अंग्रेजी सरकार ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक नया संवेधानिक सुधार आयोग बनाया जिसमें एक भी सदस्य भारतीय नहीं था। इसका परिणाम भारतीय राजनैतिक दलों द्वारा बहिष्कार निकला। दिसम्बर १९२८ में गांधी जी ने कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के एक अधिवेशन में एक प्रस्ताव रखा जिसमें भारतीय साम्राज्य को सत्ता प्रदान करने के लिए कहा गया था अथवा ऐसा न करने के बदले अपने उद्देश्य के रूप में संपूर्ण देश की आजादी के लिए असहयोग आंदोलन का सामना करने के लिए तैयार रहें। गांधी जी ने न केवल युवा वर्ग सुभाष चंद्र बोस तथा जवाहरलाल नेहरू जैसे पुरूषों द्वारा तत्काल आजादी की मांग के विचारों को फलीभूत किया बल्कि अपनी स्वयं की मांग को दो साल[50] की बजाए एक साल के लिए रोक दिया। अंग्रेजों ने कोई जवाब नहीं दिया।.नहीं ३१ दिसम्बर १९२९, भारत का झंडा फहराया गया था लाहौर में है।२६ जनवरी १९३० का दिन लाहौर में भारतीय स्वतंत्रता दिवस के रूप में इंडियन नेशनल कांग्रेस ने मनाया। यह दिन लगभग प्रत्येक भारतीय संगठनों द्वारा भी मनाया गया। इसके बाद गांधी जी ने मार्च १९३० में नमक पर कर लगाए जाने के विरोध में नया सत्याग्रह चलाया जिसे १२ मार्च से ६ अप्रेल तक नमक आंदोलन के याद में ४०० किलोमीटर (२४८ मील) तक का सफर अहमदाबाद से दांडी, गुजरात तक चलाया गया ताकि स्वयं नमक उत्पन्न किया जा सके। समुद्र की ओर इस यात्रा में हजारों की संख्‍या में भारतीयों ने भाग लिया। भारत में अंग्रेजों की पकड़ को विचलित करने वाला यह एक सर्वाधिक सफल आंदोलन था जिसमें अंग्रेजों ने ८०,००० से अधिक लोगों को जेल भेजा।

लार्ड एडवर्ड इरविन द्वारा प्रतिनिधित्व वाली सरकार ने गांधी जी के साथ विचार विमर्श करने का निर्णय लिया। यह इरविन गांधी की संधि मार्च १९३१ में हस्ताक्षर किए थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन को बंद करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने सभी राजनैतिक कैदियों को रिहा करने के लिए अपनी रजामंदी दे दी। इस समझौते के परिणामस्वरूप गांधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में लंदन में आयोजित होने वाले गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। यह सम्मेलन गांधी जी और राष्ट्रीयवादी लोगों के लिए घोर निराशाजनक रहा, इसका कारण सत्ता का हस्तांतरण करने की बजाय भारतीय कीमतों एवं भारतीय अल्पसंख्‍यकों पर केंद्रित होना था। इसके अलावा, लार्ड इरविन के उत्तराधिकारी लार्ड विलिंगटन, ने राष्‍ट्रवादियों के आंदोलन को नियंत्रित एवं कुचलने का एक नया अभियान आरंभ करदिया। गांधी फिर से गिरफ्तार कर लिए गए और सरकार ने उनके अनुयाईयों को उनसे पूर्णतया दूर रखते हुए गांधी जी द्वारा प्रभावित होने से रोकने की कोशिश की। लेकिन, यह युक्ति सफल नहीं थी।

दलित आंदोलन और निश्चय दिवस

१९३२ में, दलित नेता और प्रकांड विद्वान डॉ॰ बाबासाहेब अम्बेडकर के चुनाव प्रचार के माध्यम से, सरकार ने अछूतों को एक नए संविधान के अंतर्गत अलग निर्वाचन मंजूर कर दिया। इसके विरोध में दलित हतों के विरोधी गांधी जी ने सितंबर १९३२ में छ: दिन का अनशन ले लिया जिसने सरकार को सफलतापूर्वक दलित से राजनैतिक नेता बने पलवंकर बालू द्वारा की गई मध्‍यस्ता वाली एक समान व्यवस्था को अपनाने पर बल दिया। अछूतों के जीवन को सुधारने के लिए गांधी जी द्वारा चलाए गए इस अभियान की शुरूआत थी। गांधी जी ने इन अछूतों को हरिजन का नाम दिया जिन्हें वे भगवान की संतान मानते थे। ८ मई १९३३ को गांधी जी ने हरिजन आंदोलन[51] में मदद करने के लिए आत्म शुद्धिकरण का २१ दिन तक चलने वाला उपवास किया। यह नया अभियान दलितों को पसंद नहीं आया तथापि वे एक प्रमुख नेता बने रहे। डॉ॰ अम्बेडकर ने गांधी जी द्वारा हरिजन शब्द का उपयोग करने की स्पष्ट निंदा की, कि दलित सामाजिक रूप से अपरिपक्व हैं और सुविधासंपन्न जाति वाले भारतीयों ने पितृसत्तात्मक भूमिका निभाई है। अम्बेडकर और उसके सहयोगी दलों को भी महसूस हुआ कि गांधी जी दलितों के राजनीतिक अधिकारों को कम आंक रहे हैं। हालांकि गांधी जी एक वैश्य जाति में पैदा हुए फिर भी उन्होनें इस बात पर जोर दिया कि वह डॉ॰ अम्बेडकर जैसे दलित मसिहा के होते हुए भी वह दलितों के लिए आवाज उठा सकता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में हिन्दुस्तान की सामाजिक बुराइयों में में छुआछूत एक प्रमुख बुराई थी जिसके के विरूद्ध महात्मा गांधी और उनके अनुयायी संघर्षरत रहते थे। उस समय देश के प्रमुख मंदिरों में हरिजनों का प्रवेश पूर्णतः प्रतिबंधित था। केरल राज्य का जनपद त्रिशुर दक्षिण भारत की एक प्रमुख धार्मिक नगरी है। यहीं एक प्रतिष्ठित मंदिर है गुरुवायुर मंदिर, जिसमें कृष्ण भगवान के बालरूप के दर्शन कराती भगवान गुरूवायुरप्पन की मूर्ति स्थापित है। आजादी से पूर्व अन्य मंदिरों की भांति इस मंदिर में भी हरिजनों के प्रवेश पर पूर्ण प्रतिबंध था।

केरल के गांधी समर्थक श्री केलप्पन ने महात्मा की आज्ञा से इस प्रथा के विरूद्ध आवाज उठायी और अंततः इसके लिये सन् १९३३ ई0 में सविनय अवज्ञा प्रारंभ की गयी। मंदिर के ट्रस्टियों को इस बात की ताकीद की गयी कि नये वर्ष का प्रथम दिवस अर्थात १ जनवरी १९३४ को अंतिम निश्चय दिवस के रूप में मनाया जायेगा और इस तिथि पर उनके स्तर से कोई निश्चय न होने की स्थिति मे महात्मा गांधी तथा श्री केलप्पन द्वारा आन्दोलनकारियों के पक्ष में आमरण अनशन किया जा सकता है। इस कारण गुरूवायूर मंदिर के ट्रस्टियो की ओर से बैठक बुलाकर मंदिर के उपासको की राय भी प्राप्त की गयी। बैठक मे ७७ प्रतिशत उपासको के द्वारा दिये गये बहुमत के आधार पर मंदिर में हरिजनों के प्रवेश को स्वीकृति दे दी गयी और इस प्रकार १ जनवरी १९३४ से केरल के श्री गुरूवायूर मंदिर में किये गये निश्चय दिवस की सफलता के रूप में हरिजनों के प्रवेश को सैद्वांतिक स्वीकृति मिल गयी। गुरूवायूर मंदिर जिसमें आज भी गैर हिन्दुओं का प्रवेश वर्जित है तथापि कई धर्मों को मानने वाले भगवान भगवान गुरूवायूरप्पन के परम भक्त हैं। महात्मा गांधी की प्रेरणा से जनवरी माह के प्रथम दिवस को निश्चय दिवस के रूप में मनाया गया और किये गये निश्चय को प्राप्त किया गया। [52]। १९३४ की गर्मियों में, उनकी जान लेने के लिए उन पर तीन असफल प्रयास किए गए थे।

जब कांग्रेस पार्टी के चुनाव लड़ने के लिए चुना और संघीय योजना के अंतर्गत सत्ता स्वीकार की तब गांधी जी ने पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा देने का निर्णय ले लिया। वह पार्टी के इस कदम से असहमत नहीं थे किंतु महसूस करते थे कि यदि वे इस्तीफा देते हैं तब भारतीयों के साथ उसकी लोकप्रियता पार्टी की सदस्यता को मजबूत करने में आसानी प्रदान करेगी जो अब तक कम्यूनिसटों, समाजवादियों, व्यापार संघों, छात्रों, धार्मिक नेताओं से लेकर व्यापार संघों और विभिन्न आवाजों के बीच विद्यमान थी। इससे इन सभी को अपनी अपनी बातों के सुन जाने का अवसर प्राप्त होगा। गांधी जी राज के लिए किसी पार्टी का नेतृत्व करते हुए प्रचार द्वारा कोई ऐसा लक्ष्‍य सिद्ध नहीं करना चाहते थे जिसे राज[53] के साथ अस्थायी तौर पर राजनैतिक व्यवस्‍था के रूप में स्वीकार कर लिया जाए।

गांधी जी नेहरू प्रेजीडेन्सी और कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के साथ ही १९३६ में भारत लौट आए। हालांकि गांधी की पूर्ण इच्छा थी कि वे आजादी प्राप्त करने पर अपना संपूर्ण ध्‍यान केंद्रित करें न कि भारत के भविष्य के बारे में अटकलों पर। उसने कांग्रेस को समाजवाद को अपने उद्देश्‍य के रूप में अपनाने से नहीं रोका। १९३८ में पार्टी अध्यक्ष पद के लिए चुने गए सुभाष बोस के साथ गांधी जी के मतभेद थे। बोस के साथ मतभेदों में गांधी के मुख्य बिंदु बोस की लोकतंत्र में प्रतिबद्धता की कमी तथा अहिंसा में विश्वास की कमी थी। बोस ने गांधी जी की आलोचना के बावजूद भी दूसरी बार जीत हासिल की किंतु कांग्रेस को उस समय छोड़ दिया जब सभी भारतीय नेताओं ने गांधी[54] जी द्वारा लागू किए गए सभी सिद्धातों का परित्याग कर दिया गया।

द्वितीय विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आन्दोलन

द्वितीय विश्व युद्ध १९३९ में जब छिड़ने नाजी जर्मनी आक्रमण पोलैंड.आरंभ में गांधी जी ने अंग्रेजों के प्रयासों को अहिंसात्मक नैतिक सहयोग देने का पक्ष लिया किंतु दूसरे कांग्रेस के नेताओं ने युद्ध में जनता के प्रतिनिधियों के परामर्श लिए बिना इसमें एकतरफा शामिल किए जाने का विरोध किया। कांग्रेस के सभी चयनित सदस्यों ने सामूहिक तौर[55] पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया। लंबी चर्चा के बाद, गांधी ने घोषणा की कि जब स्वयं भारत को आजादी से इंकार किया गया हो तब लोकतांत्रिक आजादी के लिए बाहर से लड़ने पर भारत किसी भी युद्ध के लिए पार्टी नहीं बनेगी। जैसे जैसे युद्ध बढता गया गांधी जी ने आजादी के लिए अपनी मांग को अंग्रेजों को भारत छोड़ो आन्दोलन नामक विधेयक देकर तीव्र कर दिया। यह गांधी तथा कांग्रेस पार्टी का सर्वाधिक स्पष्ट विद्रोह था जो भारत देश[56] से अंग्रेजों को खदेड़ने पर लक्षित था।

गांधी जी के दूसरे नंबर पर बैठे जवाहरलाल नेहरू की पार्टी के कुछ सदस्यों तथा कुछ अन्य राजनैतिक भारतीय दलों ने आलोचना की जो अंग्रेजों के पक्ष तथा विपक्ष दोनों में ही विश्‍वास रखते थे। कुछ का मानना था कि अपने जीवन काल में अथवा मौत के संघर्ष में अंग्रेजों का विरोध करना एक नश्वर कार्य है जबकि कुछ मानते थे कि गांधी जी पर्याप्त कोशिश नहीं कर रहे हैं। भारत छोड़ो इस संघर्ष का सर्वाधिक शक्तिशाली आंदोलन बन गया जिसमें व्यापक हिंसा और गिरफ्तारी हुई।[57] पुलिस की गोलियों से हजारों की संख्‍या में स्वतंत्रता सेनानी या तो मारे गए या घायल हो गए और हजारों गिरफ्तार कर लिए गए। गांधी और उनके समर्थकों ने स्पष्ट कर दिया कि वह युद्ध के प्रयासों का समर्थन तब तक नहीं देंगे तब तक भारत को तत्‍काल आजादी न दे दी जाए। उन्होंने स्पष्ट किया कि इस बार भी यह आन्दोलन बन्द नहीं होगा यदि हिंसा के व्यक्तिगत कृत्यों को मूर्त रूप दिया जाता है। उन्होंने कहा कि उनके चारों ओर अराजकता का आदेश असली अराजकता से भी बुरा है। उन्होंने सभी कांग्रेसियों और भारतीयों को अहिंसा के साथ करो या मरो (अंग्रेजी में डू ऑर डाय) के द्वारा अन्तिम स्वतन्त्रता के लिए अनुशासन बनाए रखने को कहा।

गांधी जी और कांग्रेस कार्यकारणी समिति के सभी सदस्यों को अंग्रेजों द्वारा मुबंई में ९ अगस्त १९४२ को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधी जी को पुणे के आंगा खां महल में दो साल तक बंदी बनाकर रखा गया। यही वह समय था जब गांधी जी को उनके निजी जीवन में दो गहरे आघात लगे। उनका ५० साल पुराना सचिव महादेव देसाई ६ दिन बाद ही दिल का दौरा पड़ने से मर गए और गांधी जी के १८ महीने जेल में रहने के बाद २२ फरवरी १९४४ को उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी का देहांत हो गया। इसके छ: सप्ताह बाद गांधी जी को भी मलेरिया का भयंकर शिकार होना पड़ा। उनके खराब स्वास्थ्‍य और जरूरी उपचार के कारण ६ मई १९४४ को युद्ध की समाप्ति से पूर्व ही उन्हें रिहा कर दिया गया। राज उन्हें जेल में दम तोड़ते हुए नहीं देखना चाहते थे जिससे देश का क्रोध बढ़ जाए। हालांकि भारत छोड़ो आंदोलन को अपने उद्देश्य में आशिंक सफलता ही मिली लेकिन आंदोलन के निष्‍ठुर दमन ने १९४३ के अंत तक भारत को संगठित कर दिया। युद्ध के अंत में, ब्रिटिश ने स्पष्ट संकेत दे दिया था कि संत्ता का हस्तांतरण कर उसे भारतीयों के हाथ में सोंप दिया जाएगा। इस समय गांधी जी ने आंदोलन को बंद कर दिया जिससे कांग्रेसी नेताओं सहित लगभग १००,००० राजनैतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया।

स्वतंत्रता और भारत का विभाजन

गांधी जी ने १९४६ में कांग्रेस को ब्रिटिश केबीनेट मिशन (British Cabinet Mission) के प्रस्ताव को ठुकराने का परामर्श दिया क्योकि उसे मुस्लिम बाहुलता वाले प्रांतों के लिए प्रस्तावित समूहीकरण के प्रति उनका गहन संदेह होना था इसलिए गांधी जी ने प्रकरण को एक विभाजन के पूर्वाभ्यास के रूप में देखा। हालांकि कुछ समय से गांधी जी के साथ कांग्रेस द्वारा मतभेदों वाली घटना में से यह भी एक घटना बनी (हालांकि उसके नेत्त्व के कारण नहीं) चूंकि नेहरू और पटेल जानते थे कि यदि कांग्रेस इस योजना का अनुमोदन नहीं करती है तब सरकार का नियंत्रण मुस्लिम लीग के पास चला जाएगा। १९४८ के बीच लगभग ५००० से भी अधिक लोगों को हिंसा के दौरान मौत के घाट उतार दिया गया। गांधी जी किसी भी ऐसी योजना के खिलाफ थे जो भारत को दो अलग अलग देशों में विभाजित कर दे। भारत में रहने वाले बहुत से हिंदुओं और सिक्खों एवं मुस्लिमों का भारी बहुमत देश के बंटवारे [तथ्य वांछित] के पक्ष में था। इसके अतिरिक्त मुहम्मद अली जिन्ना, मुस्लिम लीग के नेता ने, पश्चिम पंजाब, सिंध, उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत और पूर्वी बंगाल [तथ्य वांछित] में व्यापक सहयोग का परिचय दिया। व्यापक स्तर पर फैलने वाले हिंदु मुस्लिम लड़ाई को रोकने के लिए ही कांग्रेस नेताओं ने बंटवारे की इस योजना को अपनी मंजूरी दे दी थी। कांगेस नेता जानते थे कि गांधी जी बंटवारे का विरोध करेंगे और उसकी सहमति के बिना कांग्रेस के लिए आगे बझना बसंभव था चुकि पाटर्ठी में गांधी जी का सहयोग और संपूर्ण भारत में उनकी स्थिति मजबूत थी। गांधी जी के करीबी सहयोगियों ने बंटवारे को एक सर्वोत्तम उपाय के रूप में स्वीकार किया और सरदार पटेल ने गांधी जी को समझाने का प्रयास किया कि नागरिक अशांति वाले युद्ध को रोकने का यही एक उपाय है। मज़बूर गांधी ने अपनी अनुमति दे दी।

उन्होंने उत्तर भारत के साथ-साथ बंगाल में भी मुस्लिम और हिंदु समुदाय के नेताओं के साथ गर्म रवैये को शांत करने के लिए गहन विचार विमर्श किया। १९४७ के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बावजूद उन्हें उस समय परेशान किया गया जब सरकार ने पाकिस्तान को विभाजन परिषद द्वारा बनाए गए समझौते के अनुसार ५५ करोड़ रू0 न देने का निर्णय लियाथा। सरदार पटेल जैसे नेताओं को डर था कि पाकिस्तान इस धन का उपयोग भारत के खिलाफ़ जंग छेड़ने में कर सकता है। जब यह मांग उठने लगी कि सभी मुस्लिमों को पाकिस्तान भेजा जाए और मुस्लिमों और हिंदु नेताओं ने इस पर असंतोष व्य‍क्त किया और एक दूसरे[58] के साथ समझौता करने से मना करने से गांधी जी को गहरा सदमा पहुंचा। उन्होंने दिल्ली में अपना पहला आमरण अनशन आरंभ किया जिसमें साम्प्रदायिक हिंसा को सभी के लिए तत्काल समाप्त करने और पाकिस्तान को 55 करोड़ रू0 का भुगतान करने के लिए कहा गया था। गांधी जी को डर था कि पाकिस्तान में अस्थिरता और असुरक्षा से भारत के प्रति उनका गुस्सा और बढ़ जाएगा तथा सीमा पर हिंसा फैल जाएगी। उन्हें आगे भी डर था कि हिंदु और मुस्लिम अपनी शत्रुता को फिर से नया कर देंगे और उससे नागरिक युद्ध हो जाने की आशंका बन सकती है। जीवन भर गांधी जी का साथ देने वाले सहयोगियों के साथ भावुक बहस के बाद गांधी जी ने बात का मानने से इंकार कर दिया और सरकार को अपनी नीति पर अडिग रहना पड़ा तथा पाकिस्तान को भुगतान कर दिया। हिंदु मुस्लिम और सिक्ख समुदाय के नेताओं ने उन्हें विश्‍वास दिलाया कि वे हिंसा को भुला कर शांति लाएंगे। इन समुदायों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा शामिल थे। इस प्रकार गांधी जी ने संतरे का जूस[59] पीकर अपना अनशन तोड़ दिया।

हत्या

राज घाट (Raj Ghat):आगा खान पैलेस में गांधी की अस्थियां (पुणे, भारत) .

मैनचेस्टर गार्जियन, १८ फरवरी, १९४८, की गलियों से ले जाते हुआ दिखाया गया था।

३० जनवरी, १९४८, गांधी की उस समय नाथूराम गोडसे द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी गई जब वे नई दिल्ली के बिड़ला भवन (बिरला हाउस के मैदान में रात चहलकदमी कर रहे थे। गांधी का हत्यारा नाथूराम गौड़से हिन्दू राष्ट्रवादी थे जिनके कट्टरपंथी हिंदु महासभा के साथ संबंध थे जिसने गांधी जी को पाकिस्तान[60] को भुगतान करने के मुद्दे को लेकर भारत को कमजोर बनाने के लिए जिम्मेदार ठहराया था। गोड़से और उसके उनके सह षड्यंत्रकारी नारायण आप्टे को बाद में केस चलाकर सजा दी गई तथा १५ नवंबर १९४९ को इन्हें फांसी दे दी गई। राज घाट, नई दिल्ली, में गांधी जी के स्मारक पर "देवनागरी में हे राम " लिखा हुआ है। ऐसा व्यापक तौर पर माना जाता है कि जब गांधी जी को गोली मारी गई तब उनके मुख से निकलने वाले ये अंतिम शब्द थे। हालांकि इस कथन पर विवाद उठ खड़े हुए हैं।[61]जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो के माध्यम से राष्ट्र को संबोधित किया :

गांधी जी की राख को एक अस्थि-रख दिया गया और उनकी सेवाओं की याद दिलाने के लिए संपूर्ण भारत में ले जाया गया। इनमें से अधिकांश को इलाहाबाद में संगम पर १२ फरवरी १९४८ को जल में विसर्जित कर दिया गया किंतु कुछ को अलग[62] पवित्र रूप में रख दिया गया। १९९७ में, तुषार गाँधी ने बैंक में नपाए गए एक अस्थि-कलश की कुछ सामग्री को अदालत के माध्यम से, इलाहाबाद में संगम[62][63] नामक स्थान पर जल में विसर्जित कर दिया। ३० जनवरी२००८ को दुबई में रहने वाले एक व्यापारी द्वारा गांधी जी की राख वाले एक अन्य अस्थि-कलश को मुंबई संग्रहालय[62] में भेजने के उपरांत उन्हें गिरगाम चौपाटी नामक स्थान पर जल में विसर्जित कर दिया गया। एक अन्य अस्थि कलश आगा खान जो पुणे[62] में है, (जहाँ उन्होंने १९४२ से कैद करने के लिए किया गया था १९४४) वहां समाप्त हो गया और दूसरा आत्मबोध फैलोशिप झील मंदिर में लॉस एंजिल्स.[64] रखा हुआ है। इस परिवार को पता है कि इस पवित्र राख का राजनीतिक उद्देश्यों के लिए दुरूपयोग किया जा सकता है लेकिन उन्हें यहां से हटाना नहीं चाहती हैं क्योंकि इससे मंदिरों .[62] को तोड़ने का खतरा पैदा हो सकता है।

गांधी के सिद्धान्त

साँचा:गांधी के सिद्धांत

लेखन कार्य एवं प्रकाशन

गाँधी जी पर हवाई बहस करने एवं मनमाना निष्कर्ष निकालने की अपेक्षा यह युगीन आवश्यकता ही नहीं वरन् समझदारी का तकाजा भी है कि गाँधीजी की मान्यताओं के आधार की प्रामाणिकता को ध्यान में रखा जाए। सामान्य से विशिष्ट तक -- सभी संदर्भों में दस्तावेजी रूप प्राप्त गाँधी जी का लिखा-बोला प्रायः प्रत्येक शब्द अध्ययन के लिए उपलब्ध है। इसलिए स्वभावतः यह आवश्यक है कि इनके मद्देनजर ही किसी बात को यथोचित मुकाम की ओर ले जाया जाए। लिखने की प्रवृत्ति गाँधीजी में आरंभ से ही थी। अपने संपूर्ण जीवन में उन्होंने वाचिक की अपेक्षा कहीं अधिक लिखा है। चाहे वह टिप्पणियों के रूप में हो या पत्रों के रूप में। कई पुस्तकें लिखने के अतिरिक्त उन्होंने कई पत्रिकाएँ भी निकालीं और उनमें प्रभूत लेखन किया। उनके महत्त्वपूर्ण लेखन कार्य को निम्न बिंदुओं के अंतर्गत देखा जा सकता है:

पत्रिकाएँ

गाँधीजी द्वारा सम्पादित पत्र-पत्रिकाएँ

गाँधी जी एक सफल लेखक थे। कई दशकों तक वे अनेक पत्रों का संपादन कर चुके थे जिसमे हरिजन, इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया आदि सम्मिलित हैं। जब वे भारत में वापस आए तब उन्होंने 'नवजीवन' नामक मासिक पत्रिका निकाली। बाद में नवजीवन का प्रकाशन हिन्दी में भी हुआ।[65] इसके अलावा उन्होंने लगभग हर रोज व्यक्तियों और समाचार पत्रों को पत्र लिखा

प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें

गाँधी जी द्वारा मौलिक रूप से लिखित पुस्तकें चार हैं-- हिंद स्वराज, दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास, सत्य के प्रयोग (आत्मकथा), तथा गीता पदार्थ कोश सहित संपूर्ण गीता की टीका। गाँधी जी आमतौर पर गुजराती में लिखते थे, परन्तु अपनी किताबों का हिन्दी और अंग्रेजी में भी अनुवाद करते या करवाते थे।

हिंद स्वराज

हिंद स्वराज (मूलतः हिंद स्वराज्य) नामक अल्पकाय ग्रंथरत्न गाँधीजी ने इंग्लैंड से लौटते समय किल्डोनन कैसिल नामक जहाज पर गुजराती में लिखा था और उनके दक्षिण अफ्रीका पहुँचने पर इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित हुआ था। आरंभ के बारह अध्याय 11 दिसंबर 1909 के अंक में और शेष 18 दिसंबर 1909 के अंक में। पुस्तक रूप में इसका प्रकाशन पहली बार जनवरी 1910 में हुआ था और भारत में बम्बई सरकार द्वारा 24 मार्च 1910 को इसके प्रचार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। बम्बई सरकार की इस कार्रवाई का जवाब गाँधीजी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करके दिया।[66] इस पुस्तक के परिशिष्ट-1 में पुस्तक में प्रतिपादित विषय के अधिक अध्ययन के लिए 20 पुस्तकों की सूची भी दी गयी है जिससे गाँधीजी के तत्कालीन अध्ययन के विस्तार की एक झलक भी मिलती है।

दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास

'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' मूलतः गुजराती में 'दक्षिण आफ्रिकाना सत्याग्रहनो इतिहास' नाम से 26 नवंबर 1923 को, जब वे यरवदा जेल में थे, लिखना शुरू किया। 5 फरवरी 1924 को रिहा होने के समय तक उन्होंने प्रथम 30 अध्याय लिख डाले थे। यह इतिहास लेखमाला के रूप में 13 अप्रैल 1924 से 22 नवंबर 1925 तक 'नवजीवन' में प्रकाशित हुआ। पुस्तक के रूप में इसके दो खंड क्रमशः 1924 और 1925 में छपे। वालजी देसाई द्वारा किये गये अंग्रेजी अनुवाद का प्रथम संस्करण अपेक्षित संशोधनों के साथ एस० गणेशन मद्रास ने 1928 में और द्वितीय और तृतीय संस्करण नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद ने 1950 और 1961 में प्रकाशित किया था।[67]

सत्य के प्रयोग (आत्मकथा)

आत्मकथा के मूल गुजराती अध्याय धारावाहिक रूप से 'नवजीवन' के अंकों में प्रकाशित हुए थे। 29 नवंबर 1925 के अंक में 'प्रस्तावना' के प्रकाशन से उसका आरंभ हुआ और 3 फरवरी 1929 के अंक में 'पूर्णाहुति' शीर्षक अंतिम अध्याय से उसकी समाप्ति। गुजराती अध्यायों के प्रकाशन के साथ ही हिन्दी नवजीवन में उनका हिन्दी अनुवाद और यंग इंडिया में उनका अंग्रेजी अनुवाद भी दिया जाता रहा। तदनुसार 'प्रस्तावना' का अनुवाद 'हिन्दी नवजीवन' के 3 दिसंबर 1925 के अंक में प्रकाशित हुआ था। हिन्दी अनुवाद में आत्मकथा का पहला खंड पुस्तक के रूप में पहली बार सस्ता साहित्य मंडल, दिल्ली से सन् 1928 में प्रकाशित हुआ था। गाँधी जी की रचनाओं के स्वत्वाधिकारी नवजीवन ट्रस्ट ने अपनी ओर से उसके हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन सन् 1957 में किया था।[68]

गीता माता

श्रीमद्भगवद्गीता से गाँधी जी का हार्दिक लगाव प्रायः आजीवन रहा। गीता पर उनका चिंतन-मनन तथा लेखन भी लंबे समय तक चलते रहा। सम्पूर्ण गीता का गुजराती अनुवाद, प्रस्तावना सहित, उन्होंने जून 1929 में पूरा किया था और 12 मार्च 1930 को नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद से 'अनासक्ति योग' नाम से उसका पुस्तकाकार प्रकाशन हुआ था। उसका हिंदी, बांग्ला एवं मराठी में अनुवाद भी तत्काल हो गया था। अंग्रेजी अनुवाद इसके बाद जनवरी 1931 में संपन्न हुआ था तथा पहले यंग इंडिया के अंक में प्रकाशित हुआ था।[69]

गीता के प्रत्येक श्लोक का अनुवाद सामान्य पाठकों के लिए सहज बोधगम्य न होने से गाँधी जी ने गीता के प्रत्येक अध्याय के भावों को सामान्य पाठकों के लिए सहज बोधगम्य रूप में लिखा। यरवदा सेंट्रल जेल में 1930 और 1932 में प्रत्येक सप्ताह पत्र के रूप में ये भाव भी नारायणदास गांधी को भेजे जाते रहे ताकि उन्हें आश्रम की प्रार्थना सभाओं में पढ़े जायें।[70] इन्हीं का प्रकाशन बाद में पुस्तक रूप में 'गीता-बोध' नाम से हुआ। इनके अतिरिक्त भी उन्होंने गीता पर प्रार्थना सभाओं में अनेक प्रवचन दिये थे। गीता से गाँधी जी का जुड़ाव इस कदर था कि अपने अत्यंत व्यस्त जीवन के बावजूद उन्होंने गीता के प्रत्येक पद का अक्षर क्रम से कोश तैयार किया जिसमें पद के अर्थ के साथ-साथ उनके प्रयोग-स्थल भी निर्दिष्ट थे। इन समस्त सामग्रियों का एकत्र प्रकाशन ही 'गीता माता' के नाम से हुआ है।

सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय के प्रथम संस्करण (1958) एवं नवीन संस्करण (1997) की झलक

गाँधी जी के लिखित एवं वाचिक समग्र साहित्य के प्रकाशन हेतु भारत सरकार द्वारा एक ग्रंथमाला के प्रकाशन का निर्णय प्रकाशन जगत में निःसंदेह एक ऐतिहासिक कदम रहा है। इस ग्रंथमाला का उद्देश्य गाँधी जी ने दिन-प्रति-दिन और वर्ष-प्रति-वर्ष जो कुछ कहा और लिखा उस सबको एकत्र करना था।[71]

इसी निर्णय के तहत अनेक अधीत विद्वानों के सहयोग से सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय का प्रकाशन हुआ। यह प्रकाशन तीन भाषाओं में हुआ। अंग्रेजी में पहली बार 100 खंडों में (THE COLLECTED WORKS OF MAHATMA GANDHI नाम से) तथा संशोधित रूप (pdf) में 98 खंडों में इसका प्रकाशन हुआ है। हिन्दी में 97 खंडों में तथा गुजराती में 70 खंडों में यह प्रकाशकीय महाकुंभ संपन्न हुआ है। सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय (हिन्दी) में दो अतिरिक्त वैशिष्ट्य भी सम्मिलित हैं। एक तो यह कि प्रत्येक खंड के अंत में अक्षरक्रम से शब्दानुक्रमणिका दी गयी है जिससे अध्ययन तथा विभिन्न कार्यवश पुनरावलोकन में अत्यंत सुविधा हो गयी है; तथा दूसरी यह कि प्रत्येक खंड के अंत में गाँधी जी का तारीखवार जीवन-वृत्तान्त दिया गया है, जिससे सरलतापूर्वक एक नज़र में गाँधीजी के जीवन की सभी महत्वपूर्ण घटनाओं एवं बातों की संक्षिप्त जानकारी उपलब्ध हो जाती है।

अन्य

इनके अतिरिक्त गाँधी जी के समग्र साहित्य से चुनिंदा अंशों के संचयन तथा विभिन्न विषयों पर केंद्रित छोटी-छोटी पुस्तिकाओं का भी विभिन्न नामों से प्रकाशन होते रहा है। इनमें दो संचयन अति प्रसिद्ध तथा अत्युपयोगी रहे हैं और इन दोनों का प्रकाशन भी गाँधी जी के जीवन-काल में ही (अंग्रेजी में, 1945 एवं 1947 में) हो गया था:

  1. महात्मा गांधी के विचार - सं०- आर० के० प्रभु एवं यू० आर० राव (नेशनल बुक ट्रस्ट, नयी दिल्ली)
  2. मेरे सपनों का भारत - सं०- आर० के० प्रभु (नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद)

गाँधी जी ने जॉन रस्किन की अन्टू दिस लास्ट (Unto This Last) की गुजराती में व्याख्या भी की है।[72] अन्तिम निबंध को उनका अर्थशास्त्र से सम्बंधित कार्यक्रम कहा जा सकता है उन्होंने शाकाहार, भोजन और स्वास्थ्य, धर्म, सामाजिक सुधार पर भी विस्तार से लिखा है।

सन् २००० में गाँधी जी के संपूर्ण कार्य (CWMG) का संशोधित संस्करण विवादों के घेरे में आ गया क्योंकि गाँधी जी के अनुयायियों ने सरकार पर राजनीतिक उद्देश्यों के लिए परिवर्तन शामिल करने का आरोप लगाया.[73]

गाँधी पर पुस्तकें

कई जीवनी लेखकों ने गाँधी के जीवन-वर्णन का कार्य किया है। उनमें से दो कार्य व्यापक एवं अपने आप में उदाहरण हैं:

  1. MAHATMA (In 8 Volumes) By: D. G. Tendulkar (First Edition : January 1954) [The Publications Division, govt. of India, New Delhi]
  2. MAHATMA GANDHI -(In 10 Volumes) {The Early Phase to Last Phase} - By Pyarelal & Sushila Nayar [Navajivan Publishing House, Ahmedabad]

इस दूसरे महाग्रंथ के अंतिम खण्ड (Last Phase) का चार खण्डों में हिन्दी अनुवाद महात्मा गांधी : पूर्णाहुति नाम से प्रकाशित है।

कर्नल जी बी अमेरिकी सेना के सिंह ने कहा कि अपनी तथ्यात्मक शोध पुस्तक 'देवत्व के मुखौटे के पीछे गाँधी' (गाँधी: बिहाइंड द मास्क ऑफ़ डिविनिटी) के मूल भाषण और लेखन के लिए उन्होंने अपने २० वर्ष[74] लगा दिए।

कथित समलैंगिक प्रेम संबंध

२०११ में प्रकाशित किताब ग्रेट सोल: महात्मा गांधी एंड हिज़ स्ट्रगल विद इंडिया में पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता लेखक जोसेफ़ लेलीवेल्ड ने महात्मा गाँधी और उनके दक्षिण अफ़्रीका में रहे सहयोगी हर्मन केलेनबाख के रिश्तों को अनन्य प्रेम सम्बन्ध बताया है। पुस्तक के प्रकाशन के समय इस कारण से भारत में विवाद हो गया, और गाँधी के गृह राज्य गुजरात की विधान सभा ने एक संकल्प के माध्यम से इस पुस्तक की बिक्री प्र रोक लगा दी।[75] लेलीवेल्ड के मुताबिक, उनकी पुस्तक के आधार पर गाँधी की समलैंगी या द्विलिंगी होने के लगाए जा रहे आंकलन गलत हैं। उन्होंने कहा, "यह किताब ये नहीं कहती कि गाँधी समलैंगिक या द्विलिंगी थे।यह [किताब] कहती है कि [गाँधी] ब्रह्मचारी थे, और कैलेनबाख से गहरे [दिल] से जुडे थे। और यह कोई नई जानकारी नहीं है।" [76](यथाशब्द)।

गांधी और कालेनबाख

महात्मा गांधी और उनके दक्षिण अफ्रीकी मित्र हरमन कालेनबाख से संबंधित दस्तावेजों को 1.28 मिलियन डॉलर (करीब 6.88 करोड़ रुपए) में खरीद कर भारत लाया गया है। 2012 में नीलाम होने से पहले भारत सरकार ने इन्हें सोदबी नीलामी घर से गोपनीय करार में खरीदा था। कालेनबाख दक्षिण अफ्रीका में जिम्नास्ट, बॉडी बिल्डर और आर्किटेक्ट थे। उन्होंने एमके गांधी को कुछ ऐसे भी पत्र भेजे थे जिन्हें कुछ समीक्षक ‘प्रेम पत्र’ कहते हैं। इन दोनों लोगों का रिश्ता काफी विवादित रहा था।[77]

अनुयायियों और प्रभाव

महत्वपूर्ण नेता और राजनीतिक गतिविधियाँ गाँधी से प्रभावित थीं। अमेरिका के नागरिक अधिकार आन्दोलन के नेताओं में मार्टिन लूथर किंग और जेम्स लाव्सन गाँधी के लेखन जो उन्हीं के सिद्धांत अहिंसा को विकसित करती है, से काफी आकर्षित हुए थे।[78] विरोधी-रंगभेद कार्यकर्ता और दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला, गाँधी जी से प्रेरित थे।[79] और दुसरे लोग खान अब्दुल गफ्फेर खान,[80]स्टीव बिको और औंग सू कई (Aung San Suu Kyi) हैं।[81]

गाँधी का जीवन तथा उपदेश कई लोगों को प्रेरित करती है जो गाँधी को अपना गुरु मानते है या जो गाँधी के विचारों का प्रसार करने में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। यूरोप के, रोमेन रोल्लांड पहला व्यक्ति था जिसने १९२४ में अपने किताब महात्मा गाँधी में गाँधी जी पर चर्चा की थी और ब्राजील की अराजकतावादी (anarchist) और नारीवादी मारिया लासर्दा दे मौरा ने अपने कार्य शांतिवाद में गाँधी के बारें में लिखा.१९३१ में उल्लेखनीय भौतिक विज्ञानी अलबर्ट आइंस्टाइन, गाँधी के साथ पत्राचार करते थे और अपने बाद के पत्रों में उन्हें "आने वाले पीढियों का आदर्श" कहा.[82]लांजा देल वस्तो (Lanza del Vasto) महात्मा गाँधी के साथ रहने के इरादे से सन १९३६ में भारत आया; और बाद में गाँधी दर्शन को फैलाने के लिए वह यूरोप वापस आया और १९४८ में उसने कम्युनिटी ऑफ़ द आर्क की स्थापना की। (गाँधी के आश्रम से प्रभावित होकर)मदेलिने स्लेड (मीराबेन) ब्रिटिश नौसेनापति की बेटी थी जिसने अपना अधिक से अधिक व्यस्क जीवन गाँधी के भक्त के रूप में भारत में बिताया था।

इसके अतिरिक्त, ब्रिटिश संगीतकार जॉन लेनन ने गाँधी का हवाला दिया जब वे अहिंसा पर अपने विचारों को व्यक्त कर रहे थे।[83] २००७ में केन्स लिओंस अन्तर राष्ट्रीय विज्ञापन महोत्सव (Cannes Lions International Advertising Festival), अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति और पर्यावरणविद अल गोर ने उन पर गाँधी के प्रभाव को बताया। [84]

पैतृक सम्पति

शत वर्षीय महात्मा गाँधी की मूर्ति व्यापारिक क्षेत्र के केंद्रीय स्थान पिएतेर्मारित्ज्बुर्ग (Pietermaritzburg), दक्षिण अफ्रीका में है।

२ अक्टूबर गाँधी का जन्मदिन है इसलिए गाँधी जयंती के अवसर पर भारत में राष्ट्रीय अवकाश होता है १५ जून २००७ को यह घोषणा की गई थी कि "संयुक्त राष्ट्र महासभा " एक प्रस्ताव की घोषणा की, कि २ अक्टूबर (2 October) को "अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस" के रूप में मनाया जाएगा.[85]

अक्सर पश्चिम में महात्मा शब्द का अर्थ ग़लत रूप में ले लिया जाता है उनके अनुसार यह संस्कृत से लिया गया है जिसमे महा का अर्थ महान और आत्म का अर्थ आत्मा होता है। ज्यादातर सूत्रों के अनुसार जैसे दत्ता और रोबिनसन के रबिन्द्रनाथ टगोर: संकलन में कहा गया है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सबसे पहले गाँधी को महात्मा का खिताब दिया था।[86] अन्य सूत्रों के अनुसार नौतामलाल भगवानजी मेहता ने २१ जनवरी १९१५ में उन्हें यह खिताब दिया था।[87] हालाँकि गाँधी ने अपनी आत्मकथा में कहा है कि उन्हें कभी नहीं लगा कि वे इस सम्मान के योग्य हैं।[88] मानपत्र के अनुसार, गाँधी को उनके न्याय और सत्य के सराहनीये बलिदान के लिए महात्मा नाम मिला है।[89]

१९३० में टाइम पत्रिका ने महात्मा गाँधी को वर्ष का पुरूष का नाम दियाI १९९९ में गाँधी अलबर्ट आइंस्टाइन जिन्हे सदी का पुरूष नाम दिया गया के मुकाबले द्वितीय स्थान जगह पर थे। टाइम पत्रिका ने दलाई लामा, लेच वालेसा, डॉ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर, सेसर शावेज़, औंग सान सू कई, बेनिग्नो अकुइनो जूनियर, डेसमंड टूटू और नेल्सन मंडेला को गाँधी के अहिंसा के आद्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप में कहा गया.[90] भारत सरकार प्रति वर्ष उल्लेखनीय सामाजिक कार्यकर्ताओं, विश्व के नेताओं और नागरिकों को महात्मा गाँधी शान्ति पुरस्कार से पुरस्कृत करती है। दक्षिण अफ्रीकी नेल्सन मंडेला, जो कि जातीय मतभेद और पार्थक्य के उन्मूलन में संघर्षरत रहे, इस पुरूस्कार को पाने वाले पहले गैर-भारतीय थे।

१९९६ में, भारत सरकार ने महात्मा गाँधी की श्रृंखला के नोटों के मुद्रण को १, ५, १०, २०, ५०, १००, ५०० और १००० के अंकन के रूप में आरम्भ किया। आज जितने भी नोट इस्तेमाल में हैं उनपर महात्मा गाँधी का चित्र है। १९६९ में यूनाइटेड किंगडम ने डाक टिकेट की एक श्रृंखला महात्मा गाँधी के शत्वर्शिक जयंती के उपलक्ष्य में जारी की।

नई दिल्ली में गाँधी स्मृति पर सहादत स्तम्भ उस स्थान को चिन्हित करता है जहाँ पर उनकी हत्या हुयी.

यूनाइटेड किंगडम में ऐसे अनेक गाँधी जी की प्रतिमाएँ उन ख़ास स्थानों पर हैं जैसे लन्दन विश्वविद्यालय कालेज के पास ताविस्तोक चौक, लन्दन जहाँ पर उन्होंने कानून की शिक्षा प्राप्त की। यूनाइटेड किंगडम में जनवरी ३० को “राष्ट्रीय गाँधी स्मृति दिवस” मनाया जाता है।संयुक्त राज्य में, गाँधी की प्रतिमाएँ न्यू यार्क शहर में यूनियन स्क्वायर के बहार और अटलांटा में मार्टिन लूथर किंग जूनियर राष्ट्रीय ऐतिहासिक स्थल और वाशिंगटन डी.सी में भारतीय दूतावास के समीप मेसासुशैट्स मार्ग में हैं। भारतीय दूतावास के समीप पितर्मरित्ज़्बर्ग, दक्षिण अफ्रीका, जहाँ पर १८९३ में गाँधी को प्रथम-श्रेणी से निकल दिया गया था वहां उनकी स्मृति में एक प्रतिमा स्थापित की गए है। गाँधी की प्रतिमाएँ मदाम टुसौड के मोम संग्रहालय, लन्दन में, न्यू यार्क और विश्व के अनेक शहरों में स्थापित हैं।

गाँधी को कभी भी शान्ति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त नहीं हुआ, हालाँकि उनको १९३७ से १९४८ के बीच, पाँच बार मनोनीत किया गया जिसमे अमेरिकन फ्रेंड्स सर्विस कमिटी द्वारा दिया गया नामांकन भी शामिल है .[91] दशको उपरांत नोबेल समिति ने सार्वजानिक रूप में यह घोषित किया कि उन्हें अपनी इस भूल पर खेद है और यह स्वीकार किया कि पुरूस्कार न देने की वजह विभाजित राष्ट्रीय विचार थे। महात्मा गाँधी को यह पुरुस्कार १९४८ में दिया जाना था, परन्तु उनकी हत्या के कारण इसे रोक देना पड़ा.उस साल दो नए राष्ट्र भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाना भी एक जटिल कारण था।[92] गाँधी के मृत्यु वर्ष १९४८ में पुरस्कार इस वजह से नहीं दिया गया कि कोई जीवित योग्य उम्मीदवार नहीं था और जब १९८९ में दलाई लामा को पुरस्कृत किया गया तो समिति के अध्यक्ष ने यह कहा कि "यह महात्मा गाँधी की याद में श्रद्धांजलि का ही हिस्सा है।"[93]

राज घाट, नई-दिल्ली, भारत में, उस स्थान को चिन्हित करता है जहाँ पर १९४८ में गाँधी का दाह-संस्कार हुआ था

बिरला भवन (या बिरला हॉउस), नई दिल्ली जहाँ पर ३०जन्वरी, १९४८ को गाँधी की हत्या की गयी का अधिग्रहण भारत सरकार ने १९७१ में कर लिया तथा १९७३ में गाँधी स्मृति के रूप में जनता के लिए खोल दिया। यह उस कमरे को संजोय हुए है जहाँ गाँधी ने अपने आख़िर के चार महीने बिताये और वह मैदान भी जहाँ रात के टहलने के लिए जाते वक्त उनकी हत्या कर दी गयी। एक शहीद स्तम्भ अब उस जगह को चिन्हित करता हैं जहाँ पर उनकी हत्या कर दी गयी थी।

प्रति वर्ष ३० जनवरी को, महात्मा गाँधी के पुण्यतिथि पर कई देशों के स्कूलों में अहिंसा और शान्ति का स्कूली दिन (DENIP मनाया जाता है जिसकी स्थापना १९६४ स्पेन में हुयी थी। वे देश जिनमें दक्षिणी गोलार्ध कैलेंडर इस्तेमाल किया जाता हैं, वहां ३० मार्च को इसे मनाया जाता है।

आदर्श और आलोचनाएँ

महात्मा गांधी (Józef Gosławski, 1932)

गाँधी के कठोर अहिंसा का नतीजा शांतिवाद (pacifism) है, जो की राजनैतिक क्षेत्र से आलोचना का एक मूल आधार है।

विभाजन की संकल्पना

नियम के रूप में गाँधी विभाजन की अवधारणा के खिलाफ थे क्योंकि यह उनके धार्मिक एकता के दृष्टिकोण के प्रतिकूल थी।[94]अक्टूबर १९४६ में हरिजन में उन्होंने भारत का विभाजन पाकिस्तान बनाने के लिए, के बारे में लिखा:

(पाकिस्तान की मांग) जैसा की मुस्लीम लीग द्वारा प्रस्तुत किया गया गैर-इस्लामी है और मैं इसे पापयुक्त कहने से नही हिचकूंगाइस्लाम मानव जाति के भाईचारे और एकता के लिए खड़ा है, न कि मानव परिवार के एक्य का अवरोध करने के लिए.इस वजह से जो यह चाहते हैं कि भारत दो युद्ध के समूहों में बदल जाए वे भारत और इस्लाम दोनों के दुश्मन हैं। वे मुझे टुकडों में काट सकते हैं पर मुझे उस चीज़ के लिए राज़ी नहीं कर सकते जिसे मैं ग़लत समझता हूँ[...] हमें आस नही छोडनी चाहिए, इसके बावजूद कि ख्याली बाते हो रही हैं कि हमें मुसलमानों को अपने प्रेम के कैद में अबलाम्बित कर लेना चाहिए.[95]

फिर भी, जैक होमर गाँधी के जिन्ना के साथ पाकिस्तान के विषय को लेकर एक लंबे पत्राचार पर ध्यान देते हुए कहते हैं- "हालाँकि गांधी वैयक्तिक रूप में विभाजन के खिलाफ थे, उन्होंने सहमति का सुझाव दिया जिसके तहत कांग्रेस और मुस्लिम लीग अस्थायी सरकार के नीचे समझौता करते हुए अपनी आजादी प्राप्त करें जिसके बाद विभाजन के प्रश्न का फैसला उन जिलों के जनमत द्वारा होगा जहाँ पर मुसलमानों की संख्या ज्यादा है।"[96].

भारत के विभाजन के विषय को लेकर यह दोहरी स्थिति रखना, गाँधी ने इससे हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों तरफ़ से आलोचना के आयाम खोल दिए। मुहम्मद अली जिन्ना तथा समकालीन पाकिस्तानियों ने गाँधी को मुस्लमान राजनैतिक हक़ को कम कर आंकने के लिए निंदा की। विनायक दामोदर सावरकार और उनके सहयोगियों ने गाँधी की निंदा की और आरोप लगाया कि वे राजनैतिक रूप से मुसलमानों को मनाने में लगे हुए हैं तथा हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार के प्रति वे लापरवाह हैं और पाकिस्तान के निर्माण के लिए स्वीकृति दे दी है (हालाँकि सार्वजानिक रूप से उन्होंने यह घोषित किया था कि विभाजन से पहले मेरे शरीर को दो हिस्सों में काट दिया जाएगा).[97] यह आज भी राजनैतिक रूप से विवादस्पद है, जैसे कि पाकिस्तानी-अमरीकी इतिहासकार आयेशा जलाल यह तर्क देती हैं कि विभाजन की वजह गाँधी और कांग्रेस मुस्लीम लीग के साथ सत्ता बांटने में इक्छुक नहीं थे, दुसरे मसलन हिंदू राष्ट्रवादी राजनेता प्रवीण तोगडिया भी गाँधी के इस विषय को लेकर नेतृत्व की आलोचना करते हैं, यह भी इंगित करते हैं कि उनके हिस्से की अत्यधिक कमजोरी की वजह से भारत का विभाजन हुआ।

गाँधी ने १९३० के अंत-अंत में विभाजन को लेकर इस्राइल के निर्माण के लिए फिलिस्तीन के विभाजन के प्रति भी अपनी अरुचि जाहिर की थी२६ अक्टूबर १९३८ को उन्होंने हरिजन में कहा था:

मुझे कई पत्र प्राप्त हुए जिनमे मुझसे पूछा गया कि मैं घोषित करुँ कि जर्मनी में यहूदियों के उत्पीडन और अरब-यहूदियों के बारे में क्या विचार रखता हूँ (persecution of the Jews in Germany). ऐसा नही कि इस कठिन प्रश्न पर अपने विचार मैं बिना झिझक के दे पाउँगा. मेरी सहानुभूति यहुदिओं के साथ है। मैं उनसे दक्षिण अफ्रीका से ही नजदीकी रूप से परिचित हूँ कुछ तो जीवन भर के लिए मेरे साथी बन गए हैं। इन मित्रों के द्वारा ही मुझे लंबे समय से हो रहे उत्पीडन के बारे में जानकारी मिली. वे ईसाई धर्म के अछूत रहे हैं पर मेरी सहानुभूति मुझे न्याय की आवश्यकता से विवेकशून्य नही करती यहूदियों के लिए एक राष्ट्र की दुहाई मुझे ज्यादा आकर्षित नही करती. जिसकी मंजूरी बाईबल में दी गयी और जिस जिद से वे अपनी वापसी में फिलिस्तीन को चाहने लगे हैं। क्यों नही वे, पृथ्वी के दुसरे लोगों से प्रेम करते हैं, उस देश को अपना घर बनाते जहाँ पर उनका जन्म हुआ और जहाँ पर उन्होंने जीविकोपार्जन किया। फिलिस्तीन अरबों का हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह इनलैंड अंग्रेजों का और फ्रांस फ्रंसिसिओं का. यहूदियों को अरबों पर अधिरोपित करना अनुचित और अमानवीय है जो कुछ भी आज फिलिस्तीन में हो रहा हैं उसे किसी भी आचार संहिता से सही साबित नही किया जा सकता.[98][99]

हिंसक प्रतिरोध की अस्वीकृति

जो लोग हिंसा के जरिये आजादी हासिल करना चाहते थे गाँधी उनकी आलोचना के कारण भी थोड़ा सा राजनैतिक आग की लपेट में भी आ गये भगत सिंह, सुखदेव, उदम सिंह, राजगुरु की फांसी के ख़िलाफ़ उनका इनकार कुछ दलों में उनकी निंदा का कारण बनी। [100][101]

इस आलोचना के लिए गाँधी ने कहा,"एक ऐसा समय था जब लोग मुझे सुना करते थे की किस तरह अंग्रेजो से बिना हथियार लड़ा जा सकता है क्योंकि तब हथयार नही थे।..पर आज मुझे कहा जाता है कि मेरी अहिंसा किसी काम की नही क्योंकि इससे हिंदू-मुसलमानों के दंगो को नही रोका जा सकता इसलिए आत्मरक्षा के लिए सशस्त्र हो जाना चाहिए."[102]

उन्होंने अपनी बहस कई लेखो में की, जो की होमर जैक्स के द गाँधी रीडर: एक स्रोत उनके लेखनी और जीवन का . १९३८ में जब पहली बार "यहूदीवाद और सेमेटीसम विरोधी" लिखी गई, गाँधी ने १९३० में हुए जर्मनी में यहूदियों पर हुए उत्पीडन (persecution of the Jews in Germany) को सत्याग्रह के अंतर्गत बताया उन्होंने जर्मनी में यहूदियों द्वारा सहे गए कठिनाइयों के लिए अहिंसा के तरीके को इस्तेमाल करने की पेशकश यह कहते हुए की

अगर मैं एक यहूदी होता और जर्मनी में जन्मा होता और अपना जीविकोपार्जन वहीं से कर रहा होता तो जर्मनी को अपना घर मानता इसके वावजूद कि कोई सभ्य जर्मन मुझे धमकाता कि वह मुझे गोली मार देगा या किसी अंधकूपकारागार में फ़ेंक देगा, मैं तडीपार और मतभेदीये आचरण के अधीन होने से इंकार कर दूँगा . और इसके लिए मैं यहूदी भाइयों का इंतज़ार नाहे करूंगा कि वे आयें और मेरे वैधानिक प्रैत्रोध में मुझसे जुडें, बल्कि मुझे आत्मविश्वास होगा कि आख़िर में सभी मेरा उदहारण मानने के लिए बाध्य हो जायेंगे. यहाँ पर जो नुस्खा दिया गया है अगर वह एक भी यहूदी या सारे यहूदी स्वीकार कर लें, तो उनकी स्थिति जो आज है उससे बदतर नही होगी. और अगर दिए गए पीडा को वे स्वेच्छापूर्वक सह लें तो वह उन्हें अंदरूनी शक्ति और आनंद प्रदान करेगा और हिटलर की सुविचारित हिंसा भी यहूदियों की एक साधारण नर संहार के रूप में निष्कर्षित हो तथा यह उसके अत्याचारों की घोषणा के खिलाफ पहला जवाब होगी. अगर यहूदियों का दिमाग स्वेच्छयापूर्वक पीड़ा सहने के लिए तयार हो, मेरी कल्पना है कि संहार का दिन भी धन्यवाद ज्ञापन और आनंद के दिन में बदल जाएगा जैसा कि जिहोवा ने गढा.. एक अत्याचारी के हाथ में अपनी ज़ाति को देकर किया। इश्वर का भय रखने वाले, मृत्यु के आतंक से नही डरते.[103]

गाँधी की इन वक्तव्यों के कारण काफ़ी आलोचना हुयी जिनका जवाब उन्होंने "यहूदियों पर प्रश्न" लेख में दिया साथ में उनके मित्रों ने यहूदियों को किए गए मेरे अपील की आलोचना में समाचार पत्र कि दो कर्तने भेजीं दो आलोचनाएँ यह संकेत करती हैं कि मैंने जो यहूदियों के खिलाफ हुए अन्याय का उपाय बताया, वह बिल्कुल नया नहीं है।...मेरा केवल यह निवेदन हैं कि अगर हृदय से हिंसा को त्याग दे तो निष्कर्षतः वह अभ्यास से एक शक्ति सृजित करेगा जो कि बड़े त्याग कि वजह से है।[104] उन्होंने आलोचनाओं का उत्तर "यहूदी मित्रो को जवाब"[105] और "यहूदी और फिलिस्तीन"[106] में दिया यह जाहिर करते हुए कि "मैंने हृदय से हिंसा के त्याग के लिए कहा जिससे निष्कर्षतः अभ्यास से एक शक्ति सृजित करेगा जो कि बड़े त्याग कि वजह से है।[104]

यहूदियों की आसन्न आहुति को लेकर गाँधी के बयान ने कई टीकाकारों की आलोचना को आकर्षित किया।[107]मार्टिन बूबर (Martin Buber), जो की स्वयं यहूदी राज्य के एक विरोधी हैं ने गाँधी को २४ फरवरी, १९३९ को एक तीक्ष्ण आलोचनात्मक पत्र लिखा. बूबर ने दृढ़ता के साथ कहा कि अंग्रेजों द्वारा भारतीय लोगों के साथ जो व्यवहार किया गया वह नाजियों द्वारा यहूदियों के साथ किए गए व्यवहार से भिन्न है, इसके अलावा जब भारतीय उत्पीडन के शिकार थे, गाँधी ने कुछ अवसरों पर बल के प्रयोग का समर्थन किया।[108]

गाँधी ने १९३० में जर्मनी में यहूदियों (persecution of the Jews in Germany) के उत्पीडन को सत्याग्रह के भीतर ही सन्दर्भित कहा। नवम्बर १९३८ में उपरावित यहूदियों के नाजी उत्पीडन के लिए उन्होंने अहिंसा के उपाय को सुझाया:

आभास होता है कि यहूदियों के जर्मन उत्पीडन का इतिहास में कोई सामानांतर नही. पुराने जमाने के तानाशाह कभी इतने पागल नही हुए जितना कि हिटलर हुआ और इसे वे धार्मिक उत्साह के साथ करते हैं कि वह एक ऐसे अनन्य धर्म और जंगी राष्ट्र को प्रस्तुत कर रहा है जिसके नाम पर कोई भी अमानवीयता मानवीयता का नियम बन जाती है जिसे अभी और भविष्य में पुरुस्कृत किया जायेगा. जाहिर सी बात है कि एक पागल परन्तु निडर युवा द्वारा किया गया अपराध सारी जाति पर अविश्वसनीय उग्रता के साथ पड़ेगा.यदि कभी कोई न्यायसंगत युद्ध मानवता के नाम पर, तो एक पुरी कॉम के प्रति जर्मनी के ढीठ उत्पीडन के खिलाफ युद्ध को पूर्ण रूप से उचित कहा जा सकता हैं। पर मैं किसी युद्ध में विश्वास नही रखता. इसे युद्ध के नफा-नुकसान के बारे में चर्चा मेरे अधिकार क्षेत्र में नही है। परन्तु जर्मनी द्वारा यहूदियों पर किए गए इस तरह के अपराध के खिलाफ युद्ध नही किया जा सकता तो जर्मनी के साथ गठबंधन भी नही किया जा सकता यह कैसे हो सकता हैं कि ऐसे देशों के बीच गठबंधन हो जिसमे से एक न्याय और प्रजातंत्र का दावा करता हैं और दूसरा जिसे दोनों का दुश्मन घोषित कर दिया गया है?"[109][110]

दक्षिण अफ्रीका के प्रारंभिक लेख

गाँधी के दक्षिण अफ्रीका को लेकर शुरुआती लेख काफी विवादस्पद हैं ७ मार्च, १९०८ को, गाँधी ने इंडियन ओपिनियन में दक्षिण अफ्रीका में उनके कारागार जीवन के बारे में लिखा "काफिर शासन में ही असभ्य हैं - कैदी के रूप में तो और भी. वे कष्टदायक, गंदे और लगभग पशुओं की तरह रहते हैं।"[111] १९०३ में अप्रवास के विषय को लेकर गाँधी ने टिप्पणी की कि "मैं मानता हूँ कि जितना वे अपनी जाति की शुद्धता पर विश्वास करते हैं उतना हम भी...हम मानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका में जो गोरी जाति है उसे ही श्रेष्ट जाति होनी चाहिए."[112] दक्षिण अफ्रीका में अपने समय के दौरान गाँधी ने बार-बार भारतीयों का अश्वेतों के साथ सामाजिक वर्गीकरण को लेकर विरोध किया, जिनके बारे में वे वर्णन करते हैं कि " निसंदेह पूर्ण रूप से काफिरों से श्रेष्ठ हैं".[113] यह ध्यान देने योग्य हैं कि गाँधी के समय में काफिर का वर्तमान में (a different connotation) इस्तेमाल हो रहे अर्थ से एक अलग अर्थ था (its present-day usage). गाँधी के इन कथनों ने उन्हें कुछ लोगों द्वारा नसलवादी होने के आरोप को लगाने का मौका दिया है।[114]

इतिहास के दो प्रोफ़ेसर सुरेन्द्र भाना और गुलाम वाहेद, जो दक्षिण अफ्रीका के इतिहास पर महारत रखते हैं, ने अपने मूलग्रन्थ द मेकिंग ऑफ़ अ पोलिटिकल रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ अफ्रीका, १८९३ - १९१४ में इस विवाद की जांच की है।(नई दिल्ली:मनोहर,२००५).[115] अध्याय एक के केन्द्र में,"गाँधी, औपनिवेशिक स्थिति में जन्मे अफ्रीकी और भारतीय" जो कि "श्वेत आधिपत्य" में अफ्रीकी और भारतीय समुदायों के संबंधों पर है तथा उन नीतियों पर जिनकी वजह से विभाजन हुआ (और वे तर्क देते हैं कि इन समुदायों के बीच संघर्ष लाजिमी सा है) इस सम्बन्ध के बारे में वे कहते हैं, "युवा गाँधी १८९० में उन विभाजीय विचारों से प्रभावित थे जो कि उस समय प्रबल थीं।"[116] साथ ही साथ वे यह भी कहते हैं, "गाँधी के जेल के अनुभव ने उन्हें उन लोगों कि स्थिति के प्रति अधीक संवेदनशील बना दिया था।..आगे गाँधी दृढ़ हो गए थे; वे अफ्रीकियों के प्रति अपने अभिव्यक्ति में पूर्वाग्रह को लेकर बहुत कम निर्णायक हो गए और वृहत स्तर पर समान कारणों के बिन्दुओं को देखने लगे थे। जोहान्सबर्ग जेल में उनके नकारात्मक दृष्टिकोण में ढीठ अफ्रीकी कैदी थे न कि आम अफ्रीकी."[117]

दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला गाँधी के अनुयायी हैं,[79] २००३ में गाँधी के आलोचकों द्वारा प्रतिमा के अनावरण को रोकने की कोशिश के बावजूद उन्होंने उसे जोहान्सबर्ग में अनावृत किया।[114] भाना और वाहेद ने अनावरण के इर्द-गिर्द होने वाली घटनाओं पर द मेकिंग ऑफ़ अ पोलिटिकल रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ अफ्रीका, १९१३-१९१४ में टिप्पणी किया है। अनुभाग " दक्षिण अफ्रीका के लिए गाँधी के विरासत" में वे लिखते हैं " गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका के सक्रिय कार्यकर्ताओं के आने वाली पीढियों को श्वेत अधिपत्य को ख़त्म करने के लिये प्रेरित किया। यह विरासत उन्हें नेल्सन मंडेला से जोड़ती हैं।.माने यह कि जिस कम को गाँधी ने शुरू किया था उसे मंडेला ने खत्म किया।"[118] वे जारी रखते हैं उन विवादों का हवाला देते हुए जो गाँधी कि प्रतिमा के अनावरण के दौरान उठे थे।[119] गाँधी के प्रति इन दो दृष्टिकोणों के प्रतिक्रिया स्वरुप, भाना और वाहेद तर्क देते हैं : वे लोग को दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के पश्चात अपने राजनैतिक उद्देश्य के लिए गाँधी को सही ठहराना चाहते हैं वे उनके बारे में कई तथ्यों को नजरंदाज करते हुए कारण में कुछ ज्यादा मदद नहीं करते; और जो उन्हें केवल एक नस्लवादी कहते हैं वे भी ग़लत बयानी के उतने ही दोषी हैं/विकृति के उतने ही दोषी हैं।"[120]

राज्य विरोधी

गाँधी राज विरोधी (anti statist) उस रूप में थे जहाँ उनका दृष्टिकोण उस भारत का हैं जो कि किसी सरकार के अधीन न हो। [121] उनका विचार था कि एक देश में सच्चे स्वशासन (self rule) का अर्थ है कि प्रत्यक व्यक्ति ख़ुद पर शासन करता हैं तथा कोई ऐसा राज्य नहीं जो लोगों पर कानून लागु कर सके। [122][123] कुछ मौकों पर उन्होंने स्वयं को एक दार्शनिक अराजकतावादी कहा है (philosophical anarchist).[124] उनके अर्थ में एक स्वतंत्र भारत का अस्तित्व उन हजारों छोटे छोटे आत्मनिर्भर समुदायों से है (संभवतः टालस्टोय का विचार) जो बिना दूसरो के अड़चन बने ख़ुद पर राज्य करते हैं। इसका यह मतलब नहीं था कि ब्रिटिशों द्वारा स्थापित प्रशाशनिक ढांचे को भारतीयों को स्थानांतरित कर देना जिसके लिए उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान को इंगलिस्तान बनाना है.[125] ब्रिटिश ढंग के संसदीय तंत्र पर कोई विश्वास न होने के कारण वे भारत में आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी को भंग कर प्रत्यक्ष लोकतंत्र (direct democracy) प्रणाली को[126] स्थापित करना चाहते थे।[127]

गांधी जी की आलोचना

गांधी के सिद्धान्तों और करनी को लेकर प्रयः उनकी आलोचना भी की जाती है।[128] उनकी आलोचना के मुख्य बिन्दु हैं-

  • अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रान्तिकारियों के हिंसात्मक कार्यों की निन्दा करना,[131][132]
  • भारत की स्वतंत्रता के बाद नेहरू को प्रधानमंत्री का दावेदार बनाना,
  • स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान को ५५ करोड़ रूपये देने की जिद पर अनशन करना,

इन्हें भी देखें

आगे के अध्ययन के लिए

  • भाना, सुरेन्द्र और गुलाम वाहेद.द मेकिंग ऑफ़ अ पोलिटिकल रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ अफ्रीका, १८९३-१९१४. नई दिल्ली: मनोहर, २००५
  • बोंदुरंत्त, जुआअन वी. हिंसा की जीत: गाँधीवादी दर्शन का संघर्ष. प्रिन्सटन यूपी, १९९८ आईएसबीऍन ०-६९१-०२२८१-X
  • चेर्नस, ईरा. अमरीकी अहिंसा: विचारों का इतिहास, सातवाँ अध्याय .आईएसबीऍन १-५७०७५-५४७-७
  • चड्ढा, योगेश .गाँधी: एक जीवन .आईएसबीऍन ०-४७१-३५०६२-१
  • डेलटन, डेनिस (ईडी) .महात्मा गाँधी: चुनिन्दा राजनैतिक लेख .इंडियानापोलिस/कैमब्रिज : हैकट प्रकशन कंपनी (Hackett Publishing Company), १९९६ आईएसबीऍन ०-८७२२०-३३०-१
  • गाँधी, महात्मा .महात्मा गाँधी के संचित लेख .नई दिल्ली: प्रकाशन विभाग, सुचना एवम प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, १९९४.
  • इश्वरण, एकनाथ (Eswaran, Eknath).गाँधी एक मनुष्य .आईएसबीऍन ०-९१५१३२-९६-६
  • फिशर, लुईस .द एसेनसियल गांधी : उनके जीवन, कार्यों और विचारों का संग्रह . प्राचीन: न्यूयार्क, २००२. (पुनर्मुद्रित संस्करण), आईएसबीऍन १-४०००-३०५०-१
  • गाँधी, एम.के. गाँधी के पाठक: उनके जीवन और लेखन का एक स्रोत पुस्तक.होमर जैक (ईडी) ग्रोव प्रेस, न्यू योर्क, १९५६
  • गाँधी, राजमोहन .पटेल: एक जीवन .नवजीवन प्रकाशन घर, १९९० आईएसबीऍन ८१-७२२९-१३८-८
  • हंट, जेम्स डी. लन्दन में गाँधी . नई दिल्ली: प्रोमिला एवं कंपनी, प्रकाशक, १९७८
  • मान्न, बर्नहार्ड, महात्मा गाँधी और पाउलो फरेरी के शैक्षणिक अवधारणाएं. क्लौबें, बी, में .(ईडी) राजनैतिक समाजीकरण एव शिक्षा में अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन बीडी. ८.हैम्बर्ग १९९६.आईएसबीऍन ३-९२६९५२-९७-०
  • रूहे, पीटर. गाँधी: एक छायाचित्र जीवनी .आईएसबीऍन ०-७१४८-९२७९-३
  • शार्प, जीन. गाँधी एक राजनैतिक नीतिज्ञ के रूप में, अपने मूल्यों और राजनैतिक निबंधो के साथ. बोस्टन: एक्सटेंडिंग होराइज़ोन पुस्तकें, १९७९.
  • सोफ्री, गियान्नी. गाँधी और भारत: केन्द्र में एक सदी (१९९५) आईएसबीएन १-९००६२४-१२-५
  • गौरडन, हैम.आध्यात्मिक साम्राज्यवाद से अस्वीकृति: गाँधी को बूबर के पत्रों की झलकी .'सार्वभौमिक अध्ययन की पत्रिका, २२ जून १९९९.
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  38. क्रान्त, मदनलाल वर्मा (2006). स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास. 2 (1 संस्करण). नई दिल्ली: प्रवीण प्रकाशन. पृ॰ 512. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7783-120-8. मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी। मैं इस बात का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये। अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं। मैंने जो कुछ किया है अपने देश के लिये किया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिये किया है। भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनायें चाहते हैं।
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  63. गांधी जी की राख को ३० जनवरी १९९७ को सिनसिनाती चौकी पर बिखेर दिया गया था। कारण किसी को पता नहीँ था राख के एक भाग को नई दिल्ली के दक्षिणपूर्व में एक सुरक्षित डिपाजिट बॉक्स में कटक के निकट समुद्र तट पर रख दिया गया था। तुषार गाँधी ने १९५५ में अखबारों द्वारा समाचार प्रकाशित किए जाने पर कि गांधी जी की राख बैंक में रखी हुई है, को अपनी हिरासत में लेने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया।
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  117. छठा अध्याय, हिंद स्वराज, मोहनदास करमचंद द्वारा .गांधी
  118. भट्टाचार्य, बुधदेवगाँधी के राजनैतिक दर्शन का विकास कलकत्ता पुस्तक घर: कलकत्ता, १९६९, पीपी ४७९
  119. छठा अध्याय, हिंद स्वराज, मोहनदास करमचंद द्वारागाँधी
  120. The criticism on M.K. Gandhi's politics
  121. Mahatma Gandhi's role in 1899 Anglo Boer War
  122. Gandhi's Wars
  123. Mahatma Gandhi's war on Indian revolutionaries
  124. Fundamental conflicts in Indian nationhood: Gandhi Vs Revolutionaries
  125. Resistance to the Soul : Gandhi and his critics
  126. असहयोग आंदोलन से काफी विचलित हुए थे विट्ठल भाई
  127. Resistance to the Soul : Gandhi and his critics

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