सामग्री पर जाएँ

ब्रह्मचर्य

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

ब्रह्मचर्य योग के आधारभूत स्तंभों में से एक है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है सात्विक जीवन बिताना, शुभ विचारों से अपने वीर्य का रक्षण करना, भगवान का ध्यान करना और विद्या ग्रहण करना। यह वैदिक धर्म वर्णाश्रम का पहला आश्रम भी है, जिसके अनुसार यह ०-२५ वर्ष तक की आयु का होता है और जिस आश्रम का पालन करते हुए विद्यार्थियों को भावी जीवन के लिये शिक्षा ग्रहण करनी होती है। ब्रह्मचर्य से असाधारण ज्ञान पाया जा सकता है वैदिक काल और वर्तमान समय के सभी ऋषियों ने इसका अनुसरण करने को कहा है क्यों महत्वपूर्ण है ब्रह्मचर्य- हमारी जिंदगी मे जितना जरुरी वायु ग्रहण करना है उतना ही जरुरी ब्रह्मचर्य है। वेद का उपदेश है - ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर कन्या युवा पति को प्राप्त करे ।[1][2] आज से पहले हजारों वर्ष से हमारे ऋषि मुनि ब्रह्मचर्य का तप करते आए हैं क्योंकि इसका पालन करने से हम इस संसार के सर्वसुखो की प्राप्ति कर सकते हैं।ब्रह्मचर्य पालन करने का सबसे आसान साधन सिद्धासन करना है।इसे करने के लिए बाए पैर की ऐड़ी को गुड्डा द्वार और लिंग के मध्य स्थित करना होता है तथा से पैर की ऐड़ी को ठीक लिंग के ऊपर रखना होता है।

व्युत्पत्ति

[संपादित करें]

ये शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है:- ब्रह्म + चर्य , अर्थात ज्ञान प्राप्ति के लिए जीवन बिताना।

अष्ट मैथुन

[संपादित करें]

अष्ट मैथुनो का परित्याग करना ही ब्रह्मचर्य की व्याख्या है।[3][4]

स्मरणं कीर्तनं केलि प्रेक्षणं गुह्य भाषणं । संकल्पो अध्यवसायश्च क्रिया निवृतिरेवच ।।[5][6] अर्थात् शारीरिक और मानसिक क्षीणता करने वाले ये अष्ट मैथुन हैं - (१) स्त्री का ध्यान करना , स्त्री के बारे में सोचते रहना कल्पना करते रहना । (२) कोई श्रृंगारिक , कामुक कथा का पढ़ना , सुनना । (३) अंगों का स्पर्श , पुरुषों के द्वारा स्त्री के अंगों का स्पर्श करना । (४) श्रृंगारिक क्रीडाएँ करना । (५) आलिंगन करना । (६) दर्शन अर्थात् नग्न चित्र या चलचित्र का दर्शन करना । (७) एकांतवास अर्थात अकेले में पड़े रहना । (८) समागम करना अर्थात यौन सम्बन्ध स्थापित करना । जो इन सभी मैथुनों को त्याग देता है वही ब्रह्मचारी है ।[7][8][9][10]

योग में ब्रह्मचर्य का अर्थ अधिकतर यौन संयम समझा जाता है। यौन-संयम का अर्थ अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग समझा जाता है, जैसे विवाहितों का एक-दूसरे के प्रति निष्ठावान रहना, या आध्यात्मिक आकांक्षी के लिये पूर्ण ब्रह्मचर्य।

योगसुत्र (२/३८) के अनुसार - ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः । अर्थात् ब्रह्मचर्य के धारण करने से वीर्य यानि बल की प्राप्ति होती है।[11] अष्टांग योग का पहला अंग यम है। इस में अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पाँच यम बताए गए हैं ।[12][13]

श्रीमद्भगवद्गीता में ब्रह्मचर्य

[संपादित करें]

योगेश्वर श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं - यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः । ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥ ११ ॥ अर्थात् वेद के जानने वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं ; रागरहित यत्नशील जिसमें प्रवेश करते हैं ; जिसकी इच्छा से ( साधक गण ) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं उस पद ( लक्ष्य ) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा।[14][15][16] भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मचर्य को शारीरिक तप बताया है - ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।। (श्रीमद्भागवतगीता १७/१४)[17]

जैन धर्म में ब्रह्मचर्य

[संपादित करें]

ब्रह्मचर्य, जैन धर्म में पवित्र रहने का गुण है, यह जैन मुनि और श्रावक के पांच मुख्य व्रतों में से एक है (अन्य है सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह )| जैन मुनि और आर्यिका दीक्षा लेने के लिए मन, वचन और काय से ब्रह्मचर्य अनिवार्य है। जैन श्रावक के लिए ब्रह्मचर्य का अर्थ है शुद्धता। यह यौन गतिविधियों में भोग को नियंत्रित करने के लिए इंद्रियों पर नियंत्रण के अभ्यास के लिए हैं। जो अविवाहित हैं, उन जैन श्रावको के लिए, विवाह से पहले यौनाचार से दूर रहना अनिवार्य है।

आयुर्वेद में ब्रह्मचर्य का महत्व

[संपादित करें]

आयुर्वेद में कहा गया है कि ब्रह्मचर्य शरीर के तीन स्तम्भों में से एक प्रमुख स्तम्भ (आधार) है।

त्रयः उपस्तम्भाः । आहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्यं च सति ।
(तीन उपस्तम्भ हैं। आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य।)
सुश्रुत में तो स्त्रियों को पुरूष रोगी के पास फटकने का भी निषेध किया है , क्योंकि इनके दर्शन से यदि रोगी में वीर्य नाश हो जाय , तो बहुत हानि करता है ।[18] महर्षि सुश्रुत कहते हैं - रक्तं ततो मांस मांसान्मेदः प्रजायते । मेदसोऽस्थि ततो मज्जा मज्जायाः शुक्रसम्भवः ॥ अर्थात् - मनुष्य जो कुछ भोजन करता है वह पहिले पेट में जाकर पचने लगता है फिर उसका रस बनता है , उस रस का पाँच दिन तक पाचन होकर उससे रक्त पैदा होता है । रक्त का भी पाँच दिन पाचन होकर उससे मांस बनता है । इस प्रकार पाँच - पाँच दिनके पश्चात् मांस से मेद , मेद से हड्डी , हड्डी से मज्जा और अन्त में मज्जा से सप्तम सार पदार्थ वीर्य बनता है । यही वीर्य फिर ' ओजस् ' रूपमें सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त होकर चमकता रहता है । स्त्री के इस सप्तम अति शुद्ध सार पदार्थ को रज कहते हैं ।[19][20]
भगवान धन्वन्तरि कहते हैं - मृत्युव्याधिजरानाशी पीयूष परमौषधम् । ब्रह्मचर्य महदरतन सत्यमय वदाम्यहम् ॥ अर्थात् अर्थात सभी रोगों , वृद्धावस्था और मृत्यु को नष्ट करने के लिए केवल ब्रह्मचर्य ही महान औषधि है । मैं सच बोल रहा हूँ । यदि आप शांति , सौंदर्य , स्मृति , ज्ञान , स्वास्थ्य और अच्छे बच्चे चाहते हैं , तो आपको ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए ।[21][22]

ब्रह्मचारीसूक्त

[संपादित करें]

अथर्ववेद का ग्यारहवें काण्ड का पाँचवाँ सूक्त ब्रह्मचर्य्य के लिये ही समर्पित है। इसमें तरह-तरह से ब्रह्मचर्य की महिमा वर्णित है।

ब्रह्मचार्येति समिधा समिद्धः कार्ष्णं वसानो दीक्षितो दीर्घश्मश्रुः।
स सद्य एति पूर्वस्मादुत्तरं समुद्रं लोकान्त्संगृभ्य मुहुराचरिक्रत्॥ -- (अथर्ववेद ११.५.१७)
अर्थ-- जो ब्रह्मचारी होता है, वही ज्ञान से प्रकाशित तप और बड़े बड़े केश श्मश्रुओं से युक्त दीक्षा को प्राप्त होके विद्या को प्राप्त होता है। तथा जो कि शीघ्र ही विद्या को ग्रहण करके पूर्व समुद्र जो ब्रह्मचर्याश्रम का अनुष्ठान है, उसके पार उतर के उत्तर समुद्रस्वरूप गृहाश्रम को प्राप्त होता है और अच्छी प्रकार विद्या का संग्रह करके विचारपूर्वक अपने उपदेश का सौभाग्य बढ़ाता है।

ब्रह्मचारी जनयन् ब्रह्मापो लोकं प्रजापतिं परमेष्ठिनं विराजम्।
गर्भो भूत्वामृतस्य योनाविन्द्रो ह भूत्वाऽसुरांस्ततर्ह॥ -- (अथर्ववेद ११.५.१८)
अर्थ-- वह ब्रह्मचारी वेदविद्या को यथार्थ जान के प्राणविद्या, लोकविद्या तथा प्रजापति परमेश्वर जो कि सब से बड़ा और सब का प्रकाशक है, उस का जानना, इन विद्याओं में गर्भरूप और इन्द्र अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त हो के असुर अर्थात् मूर्खों की अविद्या का छेदन कर देता है।

ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं वि रक्षति।
आचार्यो ब्रह्मचर्य्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते॥ -- (अथर्ववेद ११.५.१९)
अर्थ-- पूर्ण ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ के और सत्यधर्म के अनुष्ठान से राजा राज्य करने को और आचार्य विद्या पढ़ाने को समर्थ होता है। आचार्य उस को कहते हैं कि जो असत्याचार को छुड़ा के सत्याचार का और अनर्थों को छुड़ा के अर्थों का ग्रहण कराके ज्ञान को बढ़ा देता है॥6॥

बौद्ध मत में ब्रह्मचर्य

[संपादित करें]

पंचशील के महत्व को समझाते हुए तथागत बुद्ध ने भिक्खुओं को धम्मोपदेश दिया था। तृतीय पंचशील का नियम है - व्यभिचार से विरत रहना : मानव को मिथ्या आचरणों के कारण अपमानित होना पड़ता है , इसलिए गलत आचरण करने से बचना चाहिए । व्याभिचारी व्यक्ति का जीवन पतित होता है , समाज में ऐसे व्यक्ति को सम्मान नहीं मिलता । जो मानव कामवासना से विरत रहता है , समाज उसका सम्मान करता है । तथागत बुद्ध ने भिक्खुओं को धम्मोपदेश देते कहा है कि मनुष्य को शारीरिक दुष्चरित्र को त्याग करके शरीर से सदाचार का आचरण करना चाहिए । शरीर को सदैव संयत रखना चाहिए । पर - स्त्री का सेवन करने वाला प्रमत्त मनुष्य का जीवन पापमय व दुखदायी होता है यथा - चत्तारि ठानानि नरो पमत्तो , आपज्जति परदारूपसेवी । अपुज्जलाभं न निकामसेय्यं निन्दं ततियं निरयं चतुत्थ ।। धम्मपद - 309

अर्थात्- प्रमादी एवँ परस्त्रीगामी मनुष्य को चार - गतियां प्राप्त होती है- पाप का भागीदार , सुख में अनिद्रा , निन्दा तथा दुखदायी जीवन |

यो च वस्ससतं जीवे , दुस्सीलो असमाहितो । एकाहं जीवितं सेय्यो , सीलवन्तस्स झायिनो । धम्मपद - 110

अर्थात्- दुराचारी और असंयत रहकर सौ वर्ष जीवित रहना निरर्थक है , सदाचारी और संयत शीलवान का एक दिन का जीवित रहना ही श्रेष्ठ है ।[23]

भगवान बुद्ध कहते हैं - जो लोग ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते और जवानी में धन नहीं जुटाते , वे उसी तरह नष्ट हो जाते हैं , जिस तरह मछलियों से रहित तालाब में बूढ़े क्रौंच पक्षी ।[24]

ब्रह्मचर्य के लाभ

[संपादित करें]

शिवसंहिता में लिखा है - मरणं बिन्दु पातेन जीवनं बिन्दु - धारणात् अर्थात् बिंदु या वीर्य धारण करना ही जीवन है एवं बिन्दु का पतन हो जाना ही मृत्यु है ।[25][26][27][28] ब्रह्मचर्य से कितने लाभ होते हैं यह बताते हुए डॉ.मोन्टेगाजा कहते हैं - ‘‘ सभी मनुष्य , विशेषकर नवयुवक ब्रह्मचर्य के लाभों का तत्काल अनुभव कर सकते हैं । स्मृति की स्थिरता और धारण एवं ग्रहण शक्ति बढ़ जाती है । बुद्धिशक्ति तीव्र हो जाती है , इच्छाशक्ति बलवती हो जाती है । सच्चारित्र्य से सभी अंगों में एक ऐसी शक्ति आ जाती है कि विलासी लोग जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते । ब्रह्मचर्य से हमें परिस्थितियाँ एक विशेष आनंददायक रंग में रँगी हुई प्रतीत होती हैं । ब्रह्मचर्य अपने तेज - ओज से संसार के प्रत्येक पदार्थ को आलोकित कर देता है और हमें कभी न समाप्त होनेवाले विशुद्ध एवं निर्मल आनंद की अवस्था में ले जाता है , ऐसा आनंद जो कभी नहीं घटता । "[29] अगर आप मन, वाणी व बुद्धि को शुध्द रखना चाहते है तो आप को ब्रह्मचर्य पालन करना बहुत जरुरी है आयुर्वेद का भी यही कहना है कि अगर आप ब्रह्मचर्य का पालन पूर्णतया 3 महीनो तक करते है तो आप को मनोवल, देहवल और वचनवल मे परिवर्तन महसूस होगा , जीवन के ऊँचे से ऊँचे लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य का जीवन मे होना बहुत जरुरी है।

ब्रह्मचर्य मनुष्य का मन उनके नियंत्रण में रहता है।
ब्रह्मचर्य का पालन करने से देह निरोगी रहती है।
ब्रह्मचर्य का पालन करने से मनोबल बढ़ता है।
ब्रह्मचर्य का पालन करने से रोग प्रतिरोधक शक्ति बढती है।
ब्रह्मचर्य मनुष्य की एकाग्रता और ग्रहण करने की क्षमता बढाता है।
ब्रह्मचर्य पालन करने वाला व्यक्ति किसी भी कार्य को पूरा कर सकता है।
ब्रह्मचारी मनुष्य हर परिस्थिति में भी स्थिर रहकर उसका सामना कर सकता है।
ब्रम्हचर्य के पालन से शारीरिक क्षमता , मानसिक बल , बौद्धिक क्षमता और दृढ़ता बढ़ती है।
ब्रम्हचर्य का पालन करने से चित्त एकदम शुद्ध हो जाता है।

ब्रह्मचर्य नाश से हानीयाँ

[संपादित करें]

ब्रह्मचर्य को नष्ट करने से आधि भौतिक , आधि दैविक और आध्यात्मिक तीनों प्रकार की हानियाँ होती है ।[30]

(१) आधि भौतिक हानि यह है कि शरीर कमजोर हो जाता है , नेत्रों की दृष्टि निर्बल पड़ जाती है । पाचन क्रिया मंद होती है , फेफड़े निर्बल बनते हैं , सहन शक्ति घटती है । तेज नष्ट होता है और दुर्बलता के कारण देह में नाना प्रकार के रोगों का अड्डा स्थापित हो जाता है ।[30]

(२) आधि दैविक हानियाँ यह हैं कि - मस्तिष्क पोला हो जाता है । बुद्धि मंद पड़ जाती है , स्मरण शक्ति का ह्मस होता है । सूक्ष्म विचारों को ग्रहण करने की शक्ति घट जाती है , विद्या सीखी नहीं जाती । अन्तः करण ऐसा मलीन हो जाता है कि , स्वार्थ , लोभ , कपट , पाप आदि के आक्रमणों का विरोध करने की उसमें क्षमता नहीं रहती , इच्छा शक्ति , ज्ञान मनुष्य साहस हीन , इन्द्रियों का गुलाम भयभीत , चिन्तित और हीन मनोवृत्ति का बन जाता है ।[30]

(३) ब्रह्मचर्य नष्ट करने से जो आध्यात्मिक हानि होती है वह तो बहुत ही दुखदायी है । आत्मा के स्वरूप को पहचानना , ईश्वर में परायण होना , धर्म कर्तव्यों पर बढ़ने के लिए कदम उठाना विषय वासना में रत मनुष्य के लिए क्या कभी संभव है ? ऐसे व्यक्तियों के लिए योग साधना एक कल्पना का विषय ही हो सकता है । कई असंयमी मनुष्य योग क्रियाओं में उलझे तो उन्हें तपैदिक , पागलपन या अकाल मृत्यु का सामना करना पड़ा ।[30]

ब्रह्मचर्य को नष्ट करना एक ऐसा अपराध है जिसका फल न केवल अपने को वरन् समस्त सृष्टि को भोगना पड़ता है । लम्पट व्यक्तियों के निर्बल वीर्य से जो संतान उत्पन्न होती है वह भी अपने पिता की कमजोरी विरासत में साथ लाती है । ऐसी सन्तान संसार के लिए भार रूप ही सिद्ध होती है वह अपने और दूसरों के कष्ट में ही वृद्धि करती रहती है । जीवों के श्रेणी उत्पादन का क्रम यही है कि उन्नत आत्माएं तेजस्वी पिताओं के वीर्य में प्रवृष्ट होकर जन्म धारण करती हैं और पाप योनियों में जाने वाली पतित आत्मायें निर्बल व्यक्तियों के वीर्य का आश्रय ग्रहण करके जन्म लेती हैं । जिस देश के मनुष्य लम्पट और दुर्बल होंगे वहाँ कुल को कलंक लगाने वाली , देश और जाति को लज्जित करने वाली संतान ही उत्पन्न होगी ।[30]

इन्हें भी देखें

[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ

[संपादित करें]

सन्दर्भ

[संपादित करें]
  1. Sahay, Shiva Swarup (1998). Pracheen Bharat Ka Samajik Aur Arthik Itihas Hindu Samajik Sansthaon Sahit (Hindi में). Motilal Banarsidass Publishers Pvt. Limited. पृ॰ 125. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120823648. ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम् । ( ब्रह्मचर्य द्वारा कन्या युवा पति को प्राप्त करती है )सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  2. Vaidika dharma (Hindi में). 52. Swadhyaya Mandal. 1971. पृ॰ 108. ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम् । अर्थ- ' कन्या ' षोडश वर्षानन्तर ब्रह्मचयंसे युक्त युवा पतिको प्राप्त करे ।सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  3. Nīkharā, Omaprakāśa (1991). Harivaṃśapurāṇa meṃ dharma (Hindi में). Īsṭarna Buka Liṅkarsa. पृ॰ 38. भारतीय धर्मशास्त्रों में मन , वचन एवं कर्म से , सभी अवस्थाओं में , सर्व काल में " मैथुन " का परित्याग करना ही " ब्रह्मचर्य " कहा गया है । धर्मग्रन्थों में मैथुन आठ प्रकार के बतलाये गए हैं - स्त्री का स्मरण , कीर्तन , प्रेक्षण , केलि , गुह्य भाषण , संकल्प अध्यवसाय एवं क्रिया उक्त आठ प्रकार के...सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  4. Varmā, Dr Śyāma Bahādura (2010). बृहत् हिन्दी शब्दकोश (Hindi में). 1. Prabhāta Prakāśana. पृ॰ 245. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788173157691. अष्ट मैथुन - पु ० = ( पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन के लिए वर्जित ) आठ प्रकार के स्त्री- पुरुष - प्रसंग ।सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  5. Caturvedī, Giridhara Śarmā; Agrawala, Vasudeva S. (1962). Gītā pravacana Gītā vyākhyāna mālā (Hindi में). 1. Nepāla Rājya Saṃskr̥ta Prakāśana Maṇḍala. पृ॰ 602.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  6. Baudhāyana, Acharya; Bhaṭṭa, Ananta (1986). Śrī Gr̥hyasūtram (Sanskrit में). 1. Śrī Subrahmaṇya prācya vidyāpīṭham. पृ॰ 85.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  7. Suthar, Dr. Shyamlal. भारतीय आयुर्वेद विज्ञान (सम्पूर्ण स्वास्थ्य एवं जीवन का विज्ञानं) (Hindi में). Rudra Publications. पृ॰ 91. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9789393767097.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  8. Gupta, Śāligrāma (1992). Premākhyānaka śabda-kośa saṅkhyāparaka (Hindi में). Bhāshā-Sāhitya-Saṃsthāna. पृ॰ 9. कामशास्त्र में संभोग के आठ अंग माने गए हैं — स्मरण , कीर्तन , केलि , प्रेक्षण , गुह्य भाषण , संकल्प , अध्यवसाय एवं क्रियानिष्पत्तिसीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  9. Sharma, Chandrapal (2017). भारतीय संस्कृति और मूल अंकों के स्वर : अंक चक्र. Diamond Pocket Books Pvt Ltd. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9789352784875.
  10. Śarmā, Rājendra (1958). Jṅāna-satasaī (Hindi में). Ātmārāma. पृ॰ 93.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  11. Aranya, Hari Haranand; Bhattacharya (sampadak), Ram Shankar (2007). Patanjal Yogadarshan (Vyasbhashya, Uska Hindi Anuvad Tatha Suvishad Vyakhya). Motilal Banarsidass Publishers Pvt. Limited. पृ॰ 259. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788120822559. ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः । (२/३८) ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा होने पर वीर्यलाभ होता है।
  12. Kirti, Mridul (2021). Patanjali Yog Darshan. Prabhat Prakashan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9789386300263. अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ॥30 ॥ भावार्थ अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह- ये पाँच यम हैं ।
  13. Ramdev, Swami (2005). Yog Darshan. Divyā Prakāśana. पृ॰ 62. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788189235345.
  14. Sharma, Rambilas; Śarmā, Rāmavilāsa (1999). Bhāratīya saṃskr̥ti aura Hindī-pradeśa (Hindi और Sanskrit में). 1. Kitābaghara Prakāśana. पृ॰ 342. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788170164388.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  15. Sreemad Bhagawad Geeta (The divine song of the Lord) (English और Sanskrit में). Motilal Banarsidass Publishers. पृ॰ 170. यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥ ( ८ । ११ )सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  16. Chinmayanand, Swami. Shrimad Baghwadgeeta (Hindi और Sanskrit में). Central Chinmaya Mission Trust. पृ॰ 371.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  17. Muralikrishna, Dr. Dantu (2018). Sambhavami Yuge Yuge (Bhagavadgita). Indra Publishing. पृ॰ 62. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9781545716748. ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते । 17.14 ब्रह्मचर्य, और अहिंसा आदि शारीरिक तप कहलाते हैं।
  18. Vidyalankar, Atrideva (1956). Saṃskr̥ta sāhityameṃ āyurveda. काशी: Bhāratīya Jñānapīṭha. पृ॰ 115. स्त्रियाँ भी आयुर्वेद सीखती थीं— सुश्रुतमें तो स्त्रियोंको रोगीके पास फटकनेका भी निषेध किया है , क्योंकि इनके दर्शनसे यदि रोगी में वीर्य नाश हो जाय , तो बहुत हानि करता है । [सुश्रुत सू. अ. १९/१४-१५ ]
  19. RANA, JAGENDRA (2022). SAMARTH SADGURU (Hindi में). Blue Rose Publishers. पृ॰ 34.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  20. Atrideva, Atrideva; Ghanekar, Bhaskar Govindji; Vaidya, Lalchandraji (2007). Sushrut Samhita. Motilal Banarsidass Publishers Pvt. Limited. पृ॰ 50. रक्त रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते । मेदसोऽस्थि ततो मज्जा मज्ज्ञः शुक्रं तु जायते ॥ १० ॥ पाकजन्य प्रसाद भाग से क्रमशः -रस से रक्त , रक्त से मांस , मांस से मेद , मेद से अस्थि , अस्थि से मजा , मज्जा से शुक्र उत्पन्न होता है ।
  21. कुमार, डॉ. विनोद (2021). ब्रह्मचर्य के १०० लाभ (Hindi और Sanskrit में). स्वामी दयानन्द प्राकृतिक चिकित्सालय.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  22. कुमार, डॉ. विनोद (2023). सर्जरी के बिना बड़ी हुयी तिल्ली ( प्लीहा ) का इलाज (Hindi में). SDN Hospital.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  23. Chowdhary "Shri", Shripati Prasad (2023). Tathagata Buddha Dhamma Va Dham (Hindi में). Booksclinic Publishing. पपृ॰ 52–54. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9789355357816.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  24. GAUR, ED. ANITA (2014). Main Buddha Bol Raha Hoon. Prabhat Prakashan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9789351861034.
  25. Jain, Mahaveer Saran (2006). Bhagwan Mahaveer Jeevan Aur Darshan (Hindi में). Lokbharati Prakashan. पृ॰ 261. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9788180310805. योग परम्परा में ' मरणं बिन्दु - पातेन ' कहकर बिन्दु पतन को मृत्यु तथा ' जीवनं बिन्दु - धारणात् ' कहकर बिन्दु धारण को जीवन की संज्ञा दी गयी है ।सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  26. (Sādhvī), Puṇyayaśa (2009). Namaskāra mahāmantra eka anuśīlana (Hindi, Sanskrit, और Prakrit में). Jaina Viśvabhāratī. पृ॰ 139. कहा गया है - ' मरणं बिन्दु पातेन , जीवनं बिन्दु धारणात् ' - बिन्दु के पात से मरण होता है और बिन्दु धारण से जीवन प्राप्त होता है ।सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  27. Kumar, Prashant (1983). Dharama kā svarūpa (Hindi और Sanskrit में). Govindarāma Hāsānanda. पृ॰ 57. ' शिव संहिता ' में लिखा है- ' मरणं बिन्दु पातेन जीवनं बिन्दु - धारणात् ' अर्थात् ' वीर्य बिन्दु को गिराते रहने से मृत्यु हो जाती है और वीर्य बिन्दु की रक्षा करते रहने से जीवन बना रहता है । 'सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  28. Svāsthya (Hindi में). 44. Kṛshṇa Gopāla Ayurveda Bhavana. 1996. पृ॰ 54. मरण बिन्दु पातेन जीवन बिन्दु धारणात " अर्थात् वीर्य का बून्द गिरने से मरण और धारण से जीवन रक्षा होती है ।सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  29. यौवन सुरक्षा-2 (Hindi में). Sant Shri AsharamJi Ashram. पृ॰ 16.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  30. "वीर्य नाश से अहित - Akhandjyoti April 1943 :: (All World Gayatri Pariwar)". literature.awgp.org. अभिगमन तिथि 2023-09-30.