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'''''वृत्तरत्नाकर''''' एक [[छन्दशास्त्र|छन्दशास्त्रीय]] संस्कृत ग्रन्थ है जिसके रचयिता [[केदारभट्ट]] हैं। केदारभट्ट के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती। इस ग्रन्थ का रचनाकाल १५वीं शताब्दी स्वीकार किया जाता है। छन्दोविवेचन की दृष्टि से वृत्तरत्नाकर एक प्रौढ़ रचना है। इसमें छः अध्याय तथा १३६ श्लोक हैं।
'''''वृत्तरत्नाकर''''' एक [[छन्दशास्त्र|छन्दशास्त्रीय]] संस्कृत ग्रन्थ है जिसके रचयिता [[केदारभट्ट]] हैं। केदारभट्ट के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती। इस ग्रन्थ का रचनाकाल १५वीं शताब्दी स्वीकार किया जाता है। छन्दोविवेचन की दृष्टि से वृत्तरत्नाकर एक प्रौढ़ रचना है। इसमें छः अध्याय तथा १३६ श्लोक हैं।


वृत्तरत्नाकर की एक विशेषता यह है कि [[छन्द]] के लक्षण रूप में प्रयुक्त पङ्क्ति छन्द के उदाहरण रूप में भी घटित हो जाती है। <ref>[http://www.pratnakirti.com/pratnkirti-currentissue-pdf/sugmavritkatkar.pdf 'सुगमा' : वृत्तरत्नाकर की एक दुर्लभ संस्कृत-टीका] ( राजीव कुमार ‘त्रिगती')</ref>अधिक उपयोगी होने के कारण वृत्तरत्नाकर की अनेक टीकाएँ लिखीं गयीं। इस पर प्राचीन चौदह टीकाएं उपब्ध हैं जिनमें से नारायणी टीका को ज्ञानवर्धन की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना गया है।
वृत्तरत्नाकर की एक विशेषता यह है कि [[छंद|छन्द]] के लक्षण रूप में प्रयुक्त पङ्क्ति छन्द के उदाहरण रूप में भी घटित हो जाती है। <ref>[http://www.pratnakirti.com/pratnkirti-currentissue-pdf/sugmavritkatkar.pdf 'सुगमा' : वृत्तरत्नाकर की एक दुर्लभ संस्कृत-टीका] ( राजीव कुमार ‘त्रिगती')</ref>अधिक उपयोगी होने के कारण वृत्तरत्नाकर की अनेक टीकाएँ लिखीं गयीं। इस पर प्राचीन चौदह टीकाएं उपब्ध हैं जिनमें से नारायणी टीका को ज्ञानवर्धन की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना गया है।


पिङ्गल के अनन्तर बहुत से छन्दशास्त्रकार हुए हैं जिनमें केदार भट्ट भी हैं। इन्होंने ‘वृत्तरत्नाकर' बनाया। वृत्तरत्नाकर में भी कई छन्दशास्त्र के प्राचार्यों के नाम का उल्लेख मिलता है जैसे सैतव, काश्यप, राम। परन्तु इन आचार्यों के ग्रन्थों के नाम तक अभी उपलब्ध नहीं हुए। [[कालिदास]] को 'श्रुतबोध' ख्यातिप्राप्त ग्रन्थ है सही, पर इसमें बहुत थोड़े छन्दों का निरूपण है अतः यह अधिक महत्त्व नहीं प्राप्त कर सका। गंगादास की 'छन्दोमञ्जरी' छन्द का अच्छा ग्रन्थ है, परन्तु इसका भी अधिक प्रचार नहीं हो पाया। [[क्षेमेन्द्र]] का ‘सुवृत्ततिलक' छन्दोनिरूपण की अपेक्षा छन्दों की आलोचना विशेष करता है, इसलिये उसका भी अधिक प्रचार नहीं हुआ। इनके अतिरिक्त और भी छन्द के ग्रन्थ हैं पर प्रायः सब अप्रचलित हैं। इन सब में 'वृत्तरत्नाकर' का ही वर्तमान काल में अधिक प्रचार है। मल्लिनाथ आदि प्राचीन टीकाकारों ने भी छन्द के लक्षणों का जहाँ निर्देश किया है वे सब वृत्तरत्नाकर के हैं-ऐसा विद्वजनों का विचार है।
पिङ्गल के अनन्तर बहुत से छन्दशास्त्रकार हुए हैं जिनमें केदार भट्ट भी हैं। इन्होंने ‘वृत्तरत्नाकर' बनाया। वृत्तरत्नाकर में भी कई छन्दशास्त्र के प्राचार्यों के नाम का उल्लेख मिलता है जैसे सैतव, काश्यप, राम। परन्तु इन आचार्यों के ग्रन्थों के नाम तक अभी उपलब्ध नहीं हुए। [[कालिदास]] को 'श्रुतबोध' ख्यातिप्राप्त ग्रन्थ है सही, पर इसमें बहुत थोड़े छन्दों का निरूपण है अतः यह अधिक महत्त्व नहीं प्राप्त कर सका। गंगादास की 'छन्दोमञ्जरी' छन्द का अच्छा ग्रन्थ है, परन्तु इसका भी अधिक प्रचार नहीं हो पाया। [[क्षेमेंद्र|क्षेमेन्द्र]] का ‘सुवृत्ततिलक' छन्दोनिरूपण की अपेक्षा छन्दों की आलोचना विशेष करता है, इसलिये उसका भी अधिक प्रचार नहीं हुआ। इनके अतिरिक्त और भी छन्द के ग्रन्थ हैं पर प्रायः सब अप्रचलित हैं। इन सब में 'वृत्तरत्नाकर' का ही वर्तमान काल में अधिक प्रचार है। मल्लिनाथ आदि प्राचीन टीकाकारों ने भी छन्द के लक्षणों का जहाँ निर्देश किया है वे सब वृत्तरत्नाकर के हैं-ऐसा विद्वजनों का विचार है।


वृत्तरत्नाकर के अधिक प्रचलित होने का कारण, इसकी दो विशेषताएँ हैं। एक तो यह कि इसमें छन्द का लक्षण उसी छन्द में किया गया है अर्थात् [[भुजङ्गप्रयात]] छन्द का लक्षण ‘भुजङ्गप्रयात' छन्द में ही है, जैसे ‘भुजङ्गप्रयातं भवेद् यैश्चतुर्भिः' । तात्पर्य यह है कि लक्षण और उदाहरण एक ही रूप में बताया गया है। स्वयं ग्रन्थकार ने अपने ग्रन्थ की इस विशेषता का उल्लेख किया है। छन्दशास्त्र में ही नहीं अपितु अन्य लक्षण-ग्रन्थों में भी यह बात नहीं पाई जाती। इस शैली से लक्षण का उदाहरण में समन्वय करना अत्यन्त सरल हो गया है। उदाहरण अन्यत्र ढूंढने की आवश्यकता नहीं रही। दूसरी विशेषता यह है कि इसका परिमाण अत्यल्प है। कुल १३६ श्लोक हैं तथापि इसमें सभी प्रचलित आवश्यक छन्दों का निरूपण हो गया है।
वृत्तरत्नाकर के अधिक प्रचलित होने का कारण, इसकी दो विशेषताएँ हैं। एक तो यह कि इसमें छन्द का लक्षण उसी छन्द में किया गया है अर्थात् [[भुजङ्गप्रयात]] छन्द का लक्षण ‘भुजङ्गप्रयात' छन्द में ही है, जैसे ‘भुजङ्गप्रयातं भवेद् यैश्चतुर्भिः' । तात्पर्य यह है कि लक्षण और उदाहरण एक ही रूप में बताया गया है। स्वयं ग्रन्थकार ने अपने ग्रन्थ की इस विशेषता का उल्लेख किया है। छन्दशास्त्र में ही नहीं अपितु अन्य लक्षण-ग्रन्थों में भी यह बात नहीं पाई जाती। इस शैली से लक्षण का उदाहरण में समन्वय करना अत्यन्त सरल हो गया है। उदाहरण अन्यत्र ढूंढने की आवश्यकता नहीं रही। दूसरी विशेषता यह है कि इसका परिमाण अत्यल्प है। कुल १३६ श्लोक हैं तथापि इसमें सभी प्रचलित आवश्यक छन्दों का निरूपण हो गया है।


वृत्तरत्नाकर के रचयिता केदारभट्ट हैं। इनके पिता का नाम पव्येक है जो एक शिवभक्त विद्वान ब्राह्मण थे। कश्यप इनका [[गोत्र]] है। समय के विषय में ग्रन्थकार ने कुछ नहीं लिखा और न किसी ऐतिहासिक विद्वान् ने ही इसके लिये प्रयत्न किया। इतना कहा जा सकता है कि केदारभट्ट भी प्राचीन हैं। अपने को इन्होंने जोर देकर शैव घोषित किया है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सभवतः ये उस जमाने में हुए हैं जब [[शैव धर्म]] का प्राबल्य था या शैव और वैष्णवों का संघर्ष चल रहा था।
वृत्तरत्नाकर के रचयिता केदारभट्ट हैं। इनके पिता का नाम पव्येक है जो एक शिवभक्त विद्वान ब्राह्मण थे। कश्यप इनका [[गोत्र]] है। समय के विषय में ग्रन्थकार ने कुछ नहीं लिखा और न किसी ऐतिहासिक विद्वान् ने ही इसके लिये प्रयत्न किया। इतना कहा जा सकता है कि केदारभट्ट भी प्राचीन हैं। अपने को इन्होंने जोर देकर शैव घोषित किया है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सभवतः ये उस जमाने में हुए हैं जब [[शैव|शैव धर्म]] का प्राबल्य था या शैव और वैष्णवों का संघर्ष चल रहा था।


वृत्तरत्नाकर पर कई टीकाएँ हो चुकी हैं जिनमें उल्लेख योग्य दो हैं- एक काशीनिवासी नारायणभट्ट की, और दूसरी सेतुटीका।
वृत्तरत्नाकर पर कई टीकाएँ हो चुकी हैं जिनमें उल्लेख योग्य दो हैं- एक काशीनिवासी नारायणभट्ट की, और दूसरी सेतुटीका।

09:16, 15 मार्च 2020 का अवतरण

वृत्तरत्नाकर एक छन्दशास्त्रीय संस्कृत ग्रन्थ है जिसके रचयिता केदारभट्ट हैं। केदारभट्ट के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर अधिक जानकारी प्राप्त नहीं होती। इस ग्रन्थ का रचनाकाल १५वीं शताब्दी स्वीकार किया जाता है। छन्दोविवेचन की दृष्टि से वृत्तरत्नाकर एक प्रौढ़ रचना है। इसमें छः अध्याय तथा १३६ श्लोक हैं।

वृत्तरत्नाकर की एक विशेषता यह है कि छन्द के लक्षण रूप में प्रयुक्त पङ्क्ति छन्द के उदाहरण रूप में भी घटित हो जाती है। [1]अधिक उपयोगी होने के कारण वृत्तरत्नाकर की अनेक टीकाएँ लिखीं गयीं। इस पर प्राचीन चौदह टीकाएं उपब्ध हैं जिनमें से नारायणी टीका को ज्ञानवर्धन की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना गया है।

पिङ्गल के अनन्तर बहुत से छन्दशास्त्रकार हुए हैं जिनमें केदार भट्ट भी हैं। इन्होंने ‘वृत्तरत्नाकर' बनाया। वृत्तरत्नाकर में भी कई छन्दशास्त्र के प्राचार्यों के नाम का उल्लेख मिलता है जैसे सैतव, काश्यप, राम। परन्तु इन आचार्यों के ग्रन्थों के नाम तक अभी उपलब्ध नहीं हुए। कालिदास को 'श्रुतबोध' ख्यातिप्राप्त ग्रन्थ है सही, पर इसमें बहुत थोड़े छन्दों का निरूपण है अतः यह अधिक महत्त्व नहीं प्राप्त कर सका। गंगादास की 'छन्दोमञ्जरी' छन्द का अच्छा ग्रन्थ है, परन्तु इसका भी अधिक प्रचार नहीं हो पाया। क्षेमेन्द्र का ‘सुवृत्ततिलक' छन्दोनिरूपण की अपेक्षा छन्दों की आलोचना विशेष करता है, इसलिये उसका भी अधिक प्रचार नहीं हुआ। इनके अतिरिक्त और भी छन्द के ग्रन्थ हैं पर प्रायः सब अप्रचलित हैं। इन सब में 'वृत्तरत्नाकर' का ही वर्तमान काल में अधिक प्रचार है। मल्लिनाथ आदि प्राचीन टीकाकारों ने भी छन्द के लक्षणों का जहाँ निर्देश किया है वे सब वृत्तरत्नाकर के हैं-ऐसा विद्वजनों का विचार है।

वृत्तरत्नाकर के अधिक प्रचलित होने का कारण, इसकी दो विशेषताएँ हैं। एक तो यह कि इसमें छन्द का लक्षण उसी छन्द में किया गया है अर्थात् भुजङ्गप्रयात छन्द का लक्षण ‘भुजङ्गप्रयात' छन्द में ही है, जैसे ‘भुजङ्गप्रयातं भवेद् यैश्चतुर्भिः' । तात्पर्य यह है कि लक्षण और उदाहरण एक ही रूप में बताया गया है। स्वयं ग्रन्थकार ने अपने ग्रन्थ की इस विशेषता का उल्लेख किया है। छन्दशास्त्र में ही नहीं अपितु अन्य लक्षण-ग्रन्थों में भी यह बात नहीं पाई जाती। इस शैली से लक्षण का उदाहरण में समन्वय करना अत्यन्त सरल हो गया है। उदाहरण अन्यत्र ढूंढने की आवश्यकता नहीं रही। दूसरी विशेषता यह है कि इसका परिमाण अत्यल्प है। कुल १३६ श्लोक हैं तथापि इसमें सभी प्रचलित आवश्यक छन्दों का निरूपण हो गया है।

वृत्तरत्नाकर के रचयिता केदारभट्ट हैं। इनके पिता का नाम पव्येक है जो एक शिवभक्त विद्वान ब्राह्मण थे। कश्यप इनका गोत्र है। समय के विषय में ग्रन्थकार ने कुछ नहीं लिखा और न किसी ऐतिहासिक विद्वान् ने ही इसके लिये प्रयत्न किया। इतना कहा जा सकता है कि केदारभट्ट भी प्राचीन हैं। अपने को इन्होंने जोर देकर शैव घोषित किया है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि सभवतः ये उस जमाने में हुए हैं जब शैव धर्म का प्राबल्य था या शैव और वैष्णवों का संघर्ष चल रहा था।

वृत्तरत्नाकर पर कई टीकाएँ हो चुकी हैं जिनमें उल्लेख योग्य दो हैं- एक काशीनिवासी नारायणभट्ट की, और दूसरी सेतुटीका।

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ