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ग्रहलाघव

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ग्रहलाघव खगोलविद्या का प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थ है। इसके रचयिता गणेश दैवज्ञ हैं। सूर्यसिद्धान्त तथा ग्रहलाघव ही भारतीय पंचांग के आधारभूत ग्रन्थ हैं।

ग्रहलाघव में १६ अधिकार (अध्याय) हैं जिनके नाम ये हैं-

(१) मध्यमाधिकार (२) रवि-चन्द्र स्पष्टाधिकार (३) पञ्चतारा स्पष्टीकरणाधिकार (४) त्रिप्रश्नाधिकार
(५) चन्द्र ग्रहणाधिकार (६) सूर्यग्रहणाधिकार (७) मासगणाधिकार (८) ग्रहणद्वय साधनाधिकार
(९) उदयास्ताधिकार (१०) छायाधिकार (११) नक्षत्रच्छायाधिकार (१२) शृङ्गोन्नत्ति
(१३) ग्रहयुति और (१४) महापातधिकार तथा (१५) पञ्चाङ्गचन्द्रग्रहणाधिकार और (१६) उपसंहाराधिकार ।

समग्र ग्रन्थ के इन १६ अधिकारों में ग्रह गणित करने की विधियों के १९२ श्लोक मिलते हैं। किस सिद्धान्त से कौन ग्रह दृग्गणितैक्य होता है, इसे बताने के लिए मध्यमाधिकार का श्लोक १६ बड़े महत्त्व का है।

सम्प्रति इस ग्रन्थ के १४ ही अधिकार प्रसिद्ध हैं, परन्तु विश्वनाथ और मल्लारि की टीकाओं में १५ श्लोकों वाला 'पञ्चाङ्गग्रहणाधिकार' नामक एक और १५वाँ अधिकार है। १४ अधिकारों में ४ ग्रहणविषयक हैं। अतः ग्रहणविषयक अन्य अधिकार की आवश्यकता न होने के कारण इसका लोप हुआ होगा। गणित को सरल करने की ओर अधिक झुकाव होने के कारण मालूम होता है, गणेश ने कहीं-कहीं जान-बूझकर सूक्ष्मत्व (परिशुद्धता) की उपेक्षा की है और इसी लिए १४ अधिकारों में चन्द्रसूर्यग्रहणविषयक दो अधिकारों के रहते हुए भी सातवें और आठवें दो और अधिकार लिखे हैं, परन्तु वस्तुतः इनका कोई प्रयोजन नहीं है। ग्रहलाघव में अन्यत्र भी कुछ श्लोक न्यूनाधिक हुए हैं।

ग्रहलाघव पर टापरग्रामस्थ गङ्गाधर की शक १५०८ की टीका है। मस्सारि की टीका शक १५२४ की और विश्वनाथ की शक १५३४ के आसपास की है। उसमें उदाहरण है। इस टीका को उदाहरण भी कहते हैं।

विशेषताएँ

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ग्रहलाधव की एक विशेषता यह है कि इसमें ज्या चाप का सम्बन्ध बिलकुल नहीं रखा गया है और ऐसा होने पर भी प्राचीन किसी भी करणग्रन्थ से यह कम सूक्ष्म नहीं है, यह निःसंकोच कहा जा सकता है। हमारे सिद्धान्तों में प्रति पौने चार अंश की भुजज्याएँ है अर्थात्, उनमें सव २४ ज्यापिण्ड हैं, परन्तु करणग्रन्थों में बहुधा ६ (प्रत्येक १० अंश पर) अथवा इससे भी कम ज्यापिण्ड होते हैं। ग्ररहलाघव में भुजज्याओं का प्रयोग न होते हुए भी उससे लाया हुआ स्पष्ट सूर्य उन करणग्रन्थों की अपेक्षा सूक्ष्म होता है जिनमें ये है। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो २४ ज्यापिण्डों वाले सिद्धान्तग्रन्थों से भी सूक्ष्म आता है। इस ग्रन्थ में गणेश ने सभी पदार्थों को सुलभ रीति से लाने का प्रयत्न किया है, इस कारण कुछ विषयों में स्थूलता तो अवश्य आ गयी है, पर अन्य करण अन्थों की भी यही स्थिति है।

उपसंहार में इन्होंने लिखा है-

पूर्व प्रौढ़तराः क्वचित् किमपि मजकुर्षनुज्यं विना,
ते तेनैव महातिगर्यकुभूदुच्छङ्गेऽधिरोहन्ति हि ।
सिद्धान्तोक्तमहाखिलं सधु कृतं हित्वा अनुज्यं मया
तद्गर्वो मयि मास्तु कि न यदहं तन्छास्त्रतो वृद्धघीः ॥

इसका तात्पर्य यह है कि प्राचीन प्रौढ़तर गणक कहीं-कहीं थोड़ा-सा ही गणितकर्म ज्याचाप के बिना कर गर्व के पर्वत के शिखर पर चढ़ गये हैं तब सिद्धान्तोक्त सब कर्म बिना ज्याचाप के करने का अभिमान मुझे क्यों न हो, परन्तु वह मुझे नहीं है क्योंकि मैंने उन्हीं के ग्रन्थों द्वारा ज्ञान प्राप्त किया है।

गणेश का यह कथन कि मैने सिद्धान्तोक्त सब विषय ग्रहलाघव में दिये हैं, सत्य है और इसी कारण ग्ररहलाघव सिद्धान्तरहस्य कहा जाता है। बहुत से करणग्रन्थ हैं, जिनमें अधिक ऐसे हैं जिनमें केवल ग्रहस्पष्टीकरण मात्र है। करणकुतूहल आदि केवल तीन-चार करण ऐसे हैं जिनके सिद्धातों से अधिकांश कर्म किये जा सकते हैं, पर उनमें ग्रहलाघव जितना पूर्ण कोई नहीं है। इस पर शक १५०८ की गङ्गाधर की, शक १५२४ की मल्लारि की, और लगभग शक १५३४ की विश्वनाथ की टीका है। कुछ और भी टीकाएं हैं। शक १६०५ में लिखी हुई ग्रहलाघव की एक पुस्तक प्राप्त हुई है जिससे ज्ञात होता है कि इसके बनने के थोड़े ही दिनों बाद दूर-दूर तक इसका प्रचार हो गया था। सम्प्रति सम्पूर्ण महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक के अधिकांश भागों में इसी द्वारा गणित किया जाता है। काशी, ग्वालियर, इन्दौर इत्यादि प्रान्त के दक्षिणी लोग इसी से गणित करते हैं। अन्य प्रान्तों में भी इसका पर्याप्त प्रचार है। अत्यन्त सरल गणितपद्धतियुक्त तथा सिद्धान्त की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाले इस ग्रन्थ का सर्वत्र शीघ्र ही प्रचलित हो जाना और इसके कारण प्राचीन करणग्रन्थों का दब जाना बिलकुल स्वाभाविक है।

ग्रहलाघाव तथा ग्रहकौतुक

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ग्रहकौतुक, गणेश के पिता केशव की रचना है। ग्रहलाघव में केशव और गणेश दोनों के अनुभवों का उपयोग होने के कारण ग्रहकौतुक की अपेक्षा उसे अधिक प्रत्ययद होना चाहिए। कहीं-कहीं ग्रहकौतुक की गणित करने की पद्धति ग्रहलाघव की अपेक्षा सरल है पर कुछ बातों में ग्रहलाघव की पद्धति अधिक सुविधाजनक है। लगता है इसी कारण ग्रहकौतुक का लोप और ग्रहलाघव का प्रचार हुआ। सब बातों का विचार करने से गणेश की अपेक्षा केशव की योग्यता अधिक मालूम होती हैं, पर ग्रहलाघव की योग्यता ग्रहकौतुक की अपेक्षा अधिक है, क्योंकि उसमें पिता-पुत्र दोनों के अनुभव एकत्र हो गये हैं।

बाहरी कड़ियाँ

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