असुर

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मैसूर में महिषासुर की प्रतिमा

असुर का अर्थ है असूर्य, जहाँ सूर्य / प्रकाश ना हो या अंधकार या अंधेरे का राजा । दानव, दैत्य, निसाचार, राक्षस, ये सभी जातियां है जो मिलाकर असुर कहलाते है।

आदित्य सूर्य है और दैत्य असूर्य! हिंदुओ के लिए आज का assyria असुरो का देश था क्योंकि वहाँ उनके लिए सूर्य अस्त होता था! भूमध्य सागर के बाद पश्चिम का स्थान असुर लोक समझा जाता है! आज भी प्राचीन assyria की राजधानी assur है! जो संभवतः असुरो की राजधानी मानी जाती थी भूतकाल में! लेकिन इसका एक तार्किक अर्थ है अंतरिक्ष का अंधेरा जो सूर्य से अछूत है, भगवती काली का अर्थ है काल समय की शक्ति! जो स्वयं पुराणो के अनुसार असुरो से लड़ती दिखती है जो इस बात का समर्थन करती है कि ब्रह्मांड में सदैव दो शक्ति हमेशा विचरण करती है जो एक असूर्य है दूसरी सूर्य, एक ब्रह्म दूसरी अब्राह्मण! हिन्दू धर्मग्रन्थों में असुर वे लोग हैं जो 'सुर' (देवताओं) से संघर्ष करते हैं। धर्मग्रन्थों में उन्हें शक्तिशाली, अतिमानवीय, अर्धदेवों के रूप में चित्रित है। असुर का अर्थ होता है जो सुर ( देवता )‌ नहीं हैं। प्राचीन ग्रंथों और पुराणों में असुर तीन प्रकार के बताए गए हैं दैत्य , दानव और राक्षस इनके अतिरिक्त भूत , प्रेत आदि बुरी आत्मों को भी असुर की श्रेणी में ही रखा गया है। जिस प्रकार असुर तीन प्रकार के बताए गए हैं उसी प्रकार असुरों की‌ माता भी तीन हैं। दैत्यों की माता दिति , दानवों की माता दनु और‌ राक्षसों की माता सुरसा। यह शब्द भाषायी रूप से भारतीय-ईरानी लोगों और पूर्व-पारसी धर्म युग के शब्द "अहुर" सेसंबंधित माना जाता है।[1][2][3]

'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'शोभन' अर्थ में किया गया है और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवंत, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: मेधावी') के नाम से विद्यमान है। यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। अनंतर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई। फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरंभ किया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('द एव' के रूप में) अपने धर्म के दानवों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इंद्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रोघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था। (ऋक्. १०।१३८।३-४)।

शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं (तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:)। पतंजलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उद्धृत किया है। शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है। आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का संबंध असुरों से माना जाता है। पुराणों तथा अवांतर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है।

प्रमुख असुर[संपादित करें]

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  1. Hale, Wash Edward (1986). Ásura- in Early Vedic Religion (अंग्रेज़ी में). Motilal Banarsidass Publishe. पृ॰ 6. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-208-0061-8. अभिगमन तिथि 24 January 2021.
  2. Masih, Y. (2000). A Comparative Study of Religions (अंग्रेज़ी में). Motilal Banarsidass Publ. पृ॰ 23. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-208-0815-7. अभिगमन तिथि 24 January 2021.
  3. Boyce, Mary (1989). A History of Zoroastrianism: The Early Period (अंग्रेज़ी में). BRILL. पृ॰ 23. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-90-04-08847-4. अभिगमन तिथि 24 January 2021.