प्रवेशद्वार:इतिहास/चयनित लेख
चयनित लेख सूची
[संपादित करें]लेख 1 – 20
[संपादित करें]प्रवेशद्वार:इतिहास/चयनित लेख/1
गौरवशाली क्रान्ति या सन १६८८ की क्रान्ति, इंग्लैंड राज्य में हुई एक धार्मिक-राजनैतिक क्रांति थी। गौरवपूर्ण क्रांति को रक्तहीन क्रांति के नाम से जाना जाता है क्योंकि यह शांतिपूर्वक संपन्न हुई थी। इंग्लैंड का राजा बदला, इंग्लैंड की शासन व्यवस्था बदली, पर कहीं खून का एक कतरा भी न गिरा। इंग्लैंड के जेम्स द्वितीय द्वारा संसदीय संप्रभुता को चुनौती देने के फलस्वरुप ही इंग्लैंड राज्य में 1688 ईस्वी मे क्रांति हुई थी। राजा जेम्स द्वितीय को अपनी पत्नी ऐनी समेत अपने निरकुंश शासन संसद की अवहेलना करने तथा प्रोटेस्टैंट धर्म विरोधी नीति के कारण गद्दी छोड़नी पड़ी थी। इस क्रांति के बाद विलियम तृतीय और मैरी द्वितीय को इंग्लैंड के सह-शासक के रूप में राजा और रानी बनाया गया। गौरवशाली क्रांति के फलस्वरूप इंग्लैंड में स्वछंद राजतंत्र का काल पूर्णतः समाप्त होगया था। संसदीय शासन पद्धति की स्थापना हो जाने से जनसाधारण के अधिकार सुरक्षित हो गए थे राजनीतिक एवं धार्मिक अत्याचार के भय से मुक्ति पा कर लोग आर्थिक विकास की ओर अग्रसर होने लगे थे। इंग्लैंड का प्रधानमंत्री वालपोल स्वयं एक योग्य अर्थशास्त्रीय था। जॉर्ज तृतीय के शासनकाल में इंग्लैंड को गृह युद्ध या बाह्य आक्रमण की आशंका नहीं थी। आंतरिक शांति और सुदृढ़ता व्यापार की प्रगति में सहायक थी जबकि यूरोप के अन्य देश राजनीतिक उलझन में फंसे हुए थे। ट्यूडर वंश के शक्तिशाली राजाओं के शासन काल में संसद उनके हाथों की कठपुतली बनी रही थी। महारानी एलिजाबेथ प्रथम का संबंध ट्यूडर वंश से था। इंग्लैंड एवं फ्रांस के बीच सौ वर्षीय युद्ध हुआ था।
गुलाबों का युद्ध इंग्लैंड में हुआ था। 1867 ईसवी तथा 1884 ईसवी के सुधार अधिनियम के द्वारा इंग्लैंड में मजदूर वर्ग को मतदान वोटिंग का अधिकार प्राप्त हो गया। मजदूरों को मताधिकार प्राप्त होने से इंग्लैंड में समाजवादी आंदोलन की तेजी से प्रगति का दौर शुरु हुआ। इंग्लैंड में ,जनवरी 1980 ट्रेड यूनियनवादी तथा समाजवादी गुटों जैसे- सोशल डेमोक्रेटिक फेडरेशन, फेबियन सोसाइटी तथा इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के सदस्यों की मिली-जुली बैठक हुई। इस बैठक के परिणाम स्वरुप "लेबर रिप्रजेंटेशन कमेटी" नामक एक संगठन का अस्तित्व सामने आया। 1969 में इंग्लैंड की संसद ने अधिकार का अधिनियम (बिल ऑफ़ राइट्स) को पारित किया। इसके साथ इंग्लैंड में संसद की सर्वोच्चता स्थापित हो गयी। अधिक पढ़ें…
प्रवेशद्वार:इतिहास/चयनित लेख/2
उस्मानी साम्राज्य (उस्मानी तुर्कीयाई:دَوْلَتِ عَلِيّهٔ عُثمَانِیّه देव्लेत-इ-आलीय्ये-इ-ऑस्मानिय्ये) १२९९ में पश्चिमोत्तर अनातोलिया में स्थापित एक तुर्क राज्य था। महमद द्वितीय द्वारा १४५३ में क़ुस्तुंतुनिया जीतने के बाद यह एक साम्राज्य में बदल गया। प्रथम विश्वयुद्ध में १९१९ में पराजित होने पर इसका विभाजन करके इस पर अधिकार कर लिया गया। स्वतंत्रता के लिये संघर्ष के बाद २९ अक्तुबर सन् १९२३ में तुर्की गणराज्य की स्थापना पर इसे समाप्त माना जाता है। उस्मानी साम्राज्य सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी में अपने चरम शक्ति पर था। अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष के समय यह एशिया, यूरोप तथा उत्तरी अफ़्रीका के हिस्सों में फैला हुआ था। यह साम्राज्य पश्चिमी तथा पूर्वी सभ्यताओं के लिए विचारों के आदान प्रदान के लिए एक सेतु की तरह था। इसने १४५३ में क़ुस्तुन्तुनिया (आधुनिक इस्ताम्बुल) को जीतकर बीज़ान्टिन साम्राज्य का अन्त कर दिया। इस्ताम्बुल बाद में इनकी राजधानी बनी रही। इस्ताम्बुल पर इसकी जीत ने यूरोप में पुनर्जागरण को प्रोत्साहित किया था।
एशिया माइनर में सन् १३०० तक सेल्जुकों का पतन हो गया था। पश्चिम अनातोलिया में अर्तग्रुल एक तुर्क प्रधान था। एक समय जब वो एशिया माइनर की तरफ़ कूच कर रहा था तो उसने अपनी चार सौ घुड़सवारों की सेना को भाग्य की कसौटी पर आजमाया। उसने हारते हुए पक्ष का साथ दिया और युद्ध जीत लिया। उन्होंने जिनका साथ दिया वे सेल्जक थे। सेल्जक प्रधान ने अर्तग्रुल को उपहार स्वरूप एक छोटा-सा प्रदेश दिया। आर्तग्रुल के पुत्र उस्मान ने १२८१ में अपने पिता की मृत्यु के पश्चात प्रधान का पद हासिल किया। उसने १२९९ में अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया। यहीं से उस्मानी साम्राज्य की स्थापना हुई। इसके बाद जो साम्राज्य उसने स्थापित किया उसे उसी के नाम पर उस्मानी साम्राज्य कहा जाता है। अधिक पढ़ें…
प्रवेशद्वार:इतिहास/चयनित लेख/3
उत्तरी आयरलैंड संघर्ष, जिन्हें द ट्रबल्स (समस्याएँ) भी कहा जाता है, उत्तरी आयरलैंड में 20 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में व्याप्त जातीय-राष्ट्रवादी संघर्ष थे, जिन्हों ने हिंसक रूप ले लिया था। इसे कभी-कभी "अनियमित युद्ध" या "निम्न-स्तरीय युद्ध" कहकर भी वर्णित किया जाता है। यह संघर्ष 1960 के दशक के अंत में शुरू हुआ और भरी हद तक 1998 के गुड फ्राइडे समझौते के साथ समाप्त हुआ माना जाता है। हालांकि ये मुठभेड़ मुख्य रूप से उत्तरी आयरलैंड में हुईं थीं, मगर कई बार यह हिंसा आयरलैंड गणराज्य, इंग्लैंड और यूरोपीय मुख्यभूमि के अन्य कुछ हिस्सों में भी फैल गई थीं।
ये मुख्य रूप से राजनीतिक और राष्ट्रवादी संघर्ष ऐतिहासिक घटनाओं द्वारा प्रेरित था जो मुख्य रूपसे सम्पूर्ण आयरलैंड के आज़ादी मांग रहे आयरिश राष्ट्रवादियों और उत्तरी आयरलैंड का यूनाइटेड किंगडम का हिस्सा बने रहने का समर्थन कर रहे संघवादियों। संघवादी, जो ज्यादातर प्रोटेस्टेंट थे जबकि अधिकांश आयरिश राष्ट्रवादी, कैथोलिक थे: अतः, इन हिंसक झड़पों में साम्प्रदायिक तनाव की भी स्थिति थी। बहरहाल, इसका मुख्य मुद्दा, उत्तरी आयरलैंड की संवैधानिक स्थिति ही थी। 1960 के दशक से 1990 के दशक तक चले इस संघर्ष में राष्ट्रवादी अर्धसैनिक गुट, संघवादी अर्धसैनिक गुट, ब्रिटिश सशस्त्र बल, राजनीतिक कार्यकर्ता और अनेक राजनेता शामिल थे, तथा इन 40 वर्षों में कुल 3,500 से अधिक लोग मारे गए थे।
प्रवेशद्वार:इतिहास/चयनित लेख/4
कर्कोट या कर्कोटक कश्मीर का एक कायस्थ क्षत्रिय राजवंश था, जिसने गोनंद वंश के पश्चात् कश्मीर पर अपना आधिपत्य जमाया। 'कर्कोट' पुराणों में वर्णित एक प्रसिद्ध नाग का नाम है। उसी के नाम पर इस वंश का नाम पड़ा। गोनंद वंश के अंतिम नरेश बालादित्य पुत्रहीन था। उसने अपनी कन्या का विवाह एक कायस्थ दुर्लभवर्धन से किया जिसने कर्कोंट कायस्थ क्षत्रिय वंश की स्थापना लगभग ६२७ ई. में की। इसी के राजत्वकाल में प्रसिद्ध चीनी चात्री युवान्च्वांग भारत आया था। उसके ३० वर्ष राज्य करने के पश्चात् उसका पुत्र दुर्लभक गद्दी पर बैठा और उसने ५० वर्ष तक राज्य किया। फिर उसके ज्येष्ठ पुत्र चंद्रापीड़ ने राज्य का भार सँभाला। इसने चीनी नरेश के पास दूत भेजकर अरब आक्रमण के विरुद्ध सहायता माँगी थी।
अरबों आक्रमणकारी इस समय तक कश्मीर पहुँच चुके थे। यद्यपि चीन से सहायता नहीं प्राप्त हो सकी तथापि चंद्रापीड़ ने कश्मीर को अरबों से आक्रांत होने से बचा लिया। चीनी परंपरा के अनुसार चंद्रापीड़ को चीनी सम्राट् ने राजा की उपाधि दी थी। संभवत: इसका तात्पर्य यही था कि उसने चंद्रापीड़ के राजत्व को मान्यता प्रदान की थी। कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार चंद्रापीड़ की मृत्यु उसके अनुज तारापीड़ द्वारा प्रेषित कृत्या से हुई थी। चंद्रापीड़ ने साढ़े साठ वर्ष राज्य किया। तत्पश्चात् तारापीड़ ने चार वर्ष तक अत्यंत क्रूर एवं नृशंस शासन किया। उसके बाद ललितादित्य मुक्तापीड़ ने शासनसूत्र अपने हाथ में ले लिया। अधिक पढ़ें…
प्रवेशद्वार:इतिहास/चयनित लेख/5
यूरोप के ईसाइयों ने 1095 और 1291 के बीच अपने धर्म की पवित्र भूमि फिलिस्तीन और उसकी राजधानी जेरूसलम में स्थित यीशु की समाधि का गिरजाघर मुसलमानों से छीनने और अपने अधिकार में करने के प्रयास में जो युद्ध किए उनको सलीबी युद्ध, ईसाई धर्मयुद्ध, क्रूसेड अथवा क्रूश युद्ध कहा जाता है। इतिहासकार ऐसे सात क्रूश युद्ध मानते हैं।
ईसाई मतावलंबियों की पवित्र भूमि और उसके मुख्य स्थान साथ के मानचित्र में दिखाए गए हैं। यात्रा की प्रमुख मंजिल जेरूसलम नगर में वह बड़ा गिरजाघर था जिसे रोम के प्रथम ईसाई सम्राट् कोंस्टेंटैन की माँ ने ईसा की समाधि के पास चौथी सदी में बनवाया था। यह क्षेत्र रोम के साम्राज्य का अंग था जिसके शासक चौथी सदी से ईसाई मतावलंबी हो गए थे। सातवीं सदी में इस्लाम का प्रचार बड़ी तीव्र गति से हुआ और पैग़ंबर के उत्तराधिकारी ख़लीफ़ाओं ने निकट और दूर के देशों पर अपना शासन स्थापित कर लिया। फ़िलिस्तीन तो पैगंबर की मृत्यु के 10 वर्ष के भीतर ही उनके अधीन हो गया था। मुसलमान ईसा को भी ईश्वर का पैगंबर मानते हैं। साथ ही, अरब जाति में सहिष्णुता भी थी, इससे यहूदियों को अपनी पवित्र भूमि के स्थलों की यात्रा में कोई बाधा या कठिनाई नहीं हुई।
11वीं सदी में यह स्थिति बदल गई। मध्य एशियाई तुर्क जाति की इतनी जनवृद्धि हुई कि वह और फैली तथा इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया। ख़ासकर इस समय सल्जूक तुर्कों ने (जो अपने एक सरदार सेल्जुक के नाम से प्रसिद्ध है) कैस्पियन सागर से जेरुशलम तक अपनी शक्ति बहुत बढ़ा ली। उधर पूर्व में तुर्कों की एक दूसरी शाखा ने सुलतान महमूद के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया और उसका पश्चिमोत्तर भाग दबा लिया। सल्जूकों ने कई देशों के अनंतर फिलिस्तीन पर भी कब्जा किया और जेरूसलम तथा वहाँ के पवित्र स्थान 1071 ई. उसके अधीन हो गए। इस समय से ईसाइयों की यात्रा कठिन और आशंकापूर्ण हो गई। अधिक पढ़ें…
प्रवेशद्वार:इतिहास/चयनित लेख/6
फ्रांसीसी क्रांति (फ्रेंच : Révolution française; (रे)वोलूस्योँ फ़्राँसेज़ ; 1789-1799) फ्रांस के इतिहास की राजनैतिक और सामाजिक उथल-पुथल एवं आमूल परिवर्तन की अवधि थी जो 1789 से 1799 तक चली। बाद में, नेपोलियन बोनापार्ट ने फ्रांसीसी साम्राज्य के विस्तार द्वारा कुछ अंश तक इस क्रांति को आगे बढ़ाया। क्रांति के फलस्वरूप राजा को गद्दी से हटा दिया गया, एक गणतंत्र की स्थापना हुई, खूनी संघर्षों का दौर चला, और अन्ततः नेपोलियन की तानाशाही स्थापित हुई जिससे इस क्रांति के अनेकों मूल्यों का पश्चिमी यूरोप में तथा उसके बाहर प्रसार हुआ। इस क्रान्ति ने आधुनिक इतिहास की दिशा बदल दी। इससे विश्व भर में निरपेक्ष राजतन्त्र का ह्रास होना शुरू हुआ, नये गणतन्त्र एव्ं उदार प्रजातन्त्र बने।
आधुनिक युग में जिन महापरिवर्तनों ने पाश्चात्य सभ्यता को हिला दिया उसमें फ्रांस की राज्यक्रांति सर्वाधिक नाटकीय और जटिल साबित हुई। इस क्रांति ने केवल फ्रांस को ही नहीं अपितु समस्त यूरोप के जन-जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया। फ्रांसीसी क्रांति को पूरे विश्व के इतिहास में मील का पत्थर कहा जाता है। इस क्रान्ति ने अन्य यूरोपीय देशों में भी स्वतन्त्रता की ललक कायम की और अन्य देश भी राजतंत्र से मुक्ति के लिए संघर्ष करने लगे। इसने यूरोपीय राष्ट्रों सहित एशियाई देशों में राजशाही और निरंकुशता के खिलाफ वातावरण तैयार किया। अधिक पढ़ें…
प्रवेशद्वार:इतिहास/चयनित लेख/7
हुमायूँ का मकबरा इमारत परिसर मुगल वास्तुकला से प्रेरित मकबरा स्मारक है। यह नई दिल्ली के दीनापनाह अर्थात् पुराने किले के निकट निज़ामुद्दीन पूर्व क्षेत्र में मथुरा मार्ग के निकट स्थित है। गुलाम वंश के समय में यह भूमि किलोकरी किले में हुआ करती थी, और नसीरुद्दीन (१२६८-१२८७) के पुत्र तत्कालीन सुल्तान केकूबाद की राजधानी हुआ करती थी। यहाँ मुख्य इमारत मुगल सम्राट हुमायूँ का मकबरा है और इसमें हुमायुं की कब्र सहित कई अन्य राजसी लोगों की भी कब्रें हैं। यह समूह विश्व धरोहर घोषित है, एवं भारत में मुगल वास्तुकला का प्रथम उदाहरण है। इस मक़बरे में वही चारबाग शैली है, जिसने भविष्य में ताजमहल को जन्म दिया। यह मकबरा हुमायुं की विधवा बेगम हमीदा बानो बेगम के आदेशानुसार १५६२ में बना था। इस भवन के वास्तुकार सैयद मुबारक इब्न मिराक घियाथुद्दीन एवं उसके पिता मिराक घुइयाथुद्दीन थे जिन्हें अफगानिस्तान के हेरात शहर से विशेष रूप से बुलवाया गया था। मुख्य इमारत लगभग आठ वर्षों में बनकर तैयार हुई और भारतीय उपमहाद्वीप में चारबाग शैली का प्रथम उदाहरण बनी। यहां सर्वप्रथम लाल बलुआ पत्थर का इतने बड़े स्तर पर प्रयोग हुआ था। १९९३ में इस इमारत समूह को युनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया। अधिक पढ़ें…
प्रवेशद्वार:इतिहास/चयनित लेख/8
1896 ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक, जो आधिकारिक तौर पर पहले ओलम्पियाड खेल के रूप में जानी जाती है, एक बहु-खेल प्रतियोगिता थी जो यूनान की राजधानी एथेंस में 6 अप्रैल से 15 अप्रैल, 1896 के बीच आयोजित हुई थी। ये आधुनिक युग में आयोजित होने वाली पहली अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक खेल प्रतियोगिता थी। चूँकि प्राचीन यूनान ओलम्पिक खेलों का जन्मस्थान था, अतएव एथेंस आधुनिक खेलों के उद्घाटन के लिए उपयुक्त विकल्प माना गया था। यह सर्वसम्मति से जून 23, 1894, को पियरे डे कोबेर्टिन, फ्रांसीसी शिक्षाशास्त्री और इतिहासकार, द्वारा पेरिस में आयोजित एक सम्मेलन (कांग्रेस) के दौरान मेज़बान शहर के रूप में चुना गया था। अन्तर्राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) भी इस सम्मेलन के दौरान स्थापित की गई थी। अनेक बाधाओं और असफलताओं के बावजूद, 1896 ओलम्पिक एक बड़ी सफलता के रूप में माने गये थे। यह उस समय तक के किसी भी खेल आयोजन की सबसे बड़ी अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी थी। 19वीं सदी में प्रयोग किया एकमात्र ओलम्पिक स्टेडियम, पानाथिनाइको स्टेडियम, किसी भी खेल प्रतिस्पर्धा को देखने के लिए आई सबसे बड़ी भीड़ से उमड़ गया था। विस्तार से पढ़ें...
प्रवेशद्वार:इतिहास/चयनित लेख/9
मॉनमाउथ रेजिमेंटल संग्रहालय कासल हिल, मॉनमाउथ, मॉनमाउथशायर, वेल्स में स्थित एक सैन्य संग्रहालय है। संग्रहालय ग्रेट कासल हाउस की एक शाखा है, जो ग्रेड प्रथम इमारत होने के साथ-साथ मॉनमाउथ हेरिटेज ट्रेल के चौबीस स्थलों में से भी एक है। संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुएँ ब्रिटिश प्रादेशिक सेना में सबसे अधिक एवं सबसे वरिष्ठ रेजिमेंट रॉयल मॉनमाउथशायर रॉयल इंजीनियर्स (मिलिशिया) पर केंद्रित हैं। ग्रेट कासल हाउस रॉयल मॉनमाउथशायर रॉयल इंजीनियर्स का कार्यालय है और संग्रहालय रेजिमेंट के अभिलेखागार का कार्य करता है। संग्रहालय 1989 में राजकुमार रिचर्ड, ग्लौस्टर के ड्यूक, द्वारा स्थापित किया गया था। मॉनमाउथ शहर को अपने योगदान के लिए संग्रहालय प्रिंस ऑफ वेल्स पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। इसमें मिले पुरालेखों से यह स्पष्ट होता है कि कैसे रॉयल मॉनमाउथशायर रॉयल इंजीनियर्स के नाम में अनूठे तौर पर दो "रॉयल" हैं। संग्रहालय अपने कुछ रिकॉर्ड इंटरनेट पर खोज डेटाबेस के रूप में भी उपलब्ध कराता है। विस्तार से पढ़ें...
प्रवेशद्वार:इतिहास/चयनित लेख/10
आमेर दुर्ग (जिसे आमेर का किला या आंबेर का किला नाम से भी जाना जाता है) भारत के राजस्थान राज्य की राजधानी जयपुर के आमेर क्षेत्र में एक ऊंची पहाड़ी पर स्थित एक पर्वतीय दुर्ग है। यह जयपुर नगर का प्रधान पर्यटक आकर्षण है। आमेर का कस्बा मूल रूप से स्थानीय मीणाओं द्वारा बसाया गया था, जिस पर कालांतर में कछवाहा राजपूत मान सिंह प्रथम ने राज किया व इस दुर्ग का निर्माण करवाया। यह दुर्ग व महल अपने कलात्मक विशुद्ध हिन्दू वास्तु शैली के घटकों के लिये भी जाना जाता है। दुर्ग की विशाल प्राचीरों, द्वारों की शृंखलाओं एवं पत्थर के बने रास्तों से भरा ये दुर्ग पहाड़ी के ठीक नीचे बने मावठा सरोवर को देखता हुआ प्रतीत होता है। लाल बलुआ पत्थर एवं संगमर्मर से निर्मित यह आकर्षक एवं भव्य दुर्ग पहाड़ी के चार स्तरों पर बना हुआ है, जिसमें से प्रत्येक में विशाल प्रांगण हैं। इसमें दीवान-ए-आम अर्थात जन साधारण का प्रांगण, दीवान-ए-खास अर्थात विशिष्ट प्रांगण, शीश महल या जय मन्दिर एवं सुख निवास आदि भाग हैं। अधिक पढ़ें...
प्रवेशद्वार:इतिहास/चयनित लेख/11
क्यूबाई मिसाइल संकट (क्यूबा में अक्टूबर संकट के रूप में जाना जाता है) शीत युद्ध के दौरान अक्टूबर 1962 में सोवियत संघ, क्यूबा और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच एक टकराव था। सितंबर 1962 में, क्यूबा और सोवियत सरकारों ने चोरी-छिपे क्यूबा में महाद्वीपीय संयुक्त राज्य अमेरिका के अधिकांश भागों पर मार कर सकने की क्षमता वाली अनेक मध्यम- और मध्यवर्ती-दूरी की प्राक्षेपिक मिसाइलें (MRBMs और IRBM) लगानी शुरू की। 1958 में यूके में थोर आईआरबीएम और 1961 में इटली और तुर्की में जुपिटर आईआरबीएम- मॉस्को पर नाभिकीय हथियारों से हमला करने की क्षमता वाली इन 100 से अधिक अमेरिका-निर्मित मिसाइलों की तैनाती के प्रतिक्रियास्वरूप यह कारवाई की गयी। 14 अक्टूबर 1962 को, एक संयुक्त राज्य अमेरिकी यू-2 फोटोआविक्षण विमान ने क्यूबा में निर्माणाधीन सोवियत मिसाइल ठिकानों के फोटोग्राफिक सबूत जमा किये।
फलस्वरूप बर्लिन नाकाबंदी से पैदा हुआ संकट शीत युद्ध के एक बड़े टकराव का रूप ले लिया और आम तौर पर माना जाने लगा कि शीत युद्ध अब एक नाभिकीय संघर्ष के कगार पर आ पहुंचा है। संयुक्त राज्य अमेरिका ने क्यूबा आकाश और समुद्र मार्ग से हमला करने पर विचार किया और क्यूबा का सैन्य संगरोधन करना तय किया। अमेरिका ने घोषणा की कि वह क्यूबा में आक्रामक हथियारों को ले जाने नहीं देगा और मांग की कि सोवियत संघ क्यूबा में निर्माणाधीन या बन चुके मिसाइल ठिकानों को नष्ट करे और वहां से सभी आक्रामक हथियारों को हटा ले। कैनेडी प्रशासन को बहुत ही कम उम्मीद थी कि क्रेमलिन उनकी मांगों को मान लेगा और वह एक सैन्य टकराव की अपेक्षा कर रहा था। दूसरी ओर सोवियत संघ के निकिता ख्रुश्चेव ने केनेडी को एक पत्र में लिखा कि "अंतरराष्ट्रीय जल मार्ग और आकाश मार्ग के यातायात के" उनके संगरोधन की "कारवाई एक ऐसी आक्रामकता है जो मानव जाति को विश्व नाभिकीय-मिसाइल युद्ध के नरक कुंड में डाल देगी।" अधिक पढ़ें…
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