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कुमांऊँ की लोककला

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कुमांऊँ के इतिहास के प्रारंभ से ही कला विद्यमान थी। जिस कला से यहॉं के जनमानस की अभिव्यक्ति व परम्परागत गूढ़ रहस्यों की गहराइयों की जानकारी प्राप्त होती है, वही कुमांऊँ की लोककला है। कुमांऊँ की लोककला का स्वरूप भारत की अन्य कलाओं व लोककलाओं के समरूप ही पाया जाता है।[1][2]हिमालय की वक्षस्थली में फैला लगभग 1500 वर्ग किलोमीटर अल्मोड़ा, बागेश्वर, चम्पावत, पिथौरागढ़, नैनीताल, व उधमसिंह नगर नामक जिलों को कुमांऊँ क्षेत्र कहा जाता है, जो भारतवर्ष के उत्तराखण्ड नामक राज्य में हैं, इन जिलों की पारम्परिक कलाओं को कुमांऊँनी लोककला अर्थात् कुमांऊँ की लोककला कहते है।

लोककला का स्वरूप

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कुमांऊँ की लोककला का स्वरूप यहॉं की कला परम्पराओं का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आयाम है। यहाँ की लोककला सभी स्वरूपों में, विधाओं में, जहाँ भी इसका अस्तित्व है, धार्मिक व परम्परागत भावनाओं द्वारा ढाली जाती है। कुमांऊँ की लोककला द्वारा ही यहॉं के जनमानस की अभिव्यक्ति व परम्परागत गूढ़ रहस्यों की जानकारी मिलती है। हिमालय की वक्षस्थली में फैला लगभग 1500 वर्ग किलोमीटर अल्मोड़ा, बागेश्वर, चम्पावत, पिथौरागढ, नैनीताल, व उधमसिंह नगर कुमांऊँ कहलाता है,।

विशेषताऐं

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कुमांऊँ की लोककला का स्वरूप अन्य भारतीय कलाओं व लोककलाओं से भिन्न नहीं है। ध्यानपू्र्वक देखा जाय तो यहॉं की लोककला में दूर-दूर तक धार्मिक अभिव्यक्ति की बहुलता पाई जाती है।

मूर्तिकला

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मूर्तिकला के क्षेत्र में आज भी कुमांऊँ का प्रत्येक अंचल दर्शनीय व अग्रणीय है। यहॉं घाट-घाट पर बने शिवालयों तथा पर्वत शिखरों पर सुशोभित देवालयों में यहाँ की मूर्तिकला आज भी सजीव लगती है।

काष्ठकला

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कुमांऊँ के लोकजीवन में काष्ठकला का भी महत्वपूर्ण योगदान है।

धातुकला

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धातुकला के रूप में सोना, चॉंदी, तॉंबा, पीतल आदि से निर्मित पात्र, आभूषण तथा मूर्तियॉं कुमांऊँ क्षेत्र में सर्वत्र दिखाई देती हैं। विशेषकर अल्मोड़ा जिले में तॉबे और पीतल की सुन्दर व पारम्परिक कारीगरी अभी भी विकास और विस्तार पर दिखाई देती है। कुमांऊँ में निर्मित तॉंबा-धातु के पात्रों में विभिन्न प्रकार के बेल-बूटे, मछली, हाथी, मयूर तथा प्रकृति से जुड़े प्राणियों व प्रकृति का बाहुल्य अधिकॉश रूप में मिलता है। आभूषणों में यहॉं की परम्परागत कला दिखाई देती है। चॉंदी व सोने के कलात्मक आभूषण किसी भी क्षेत्र की महिला द्वारा धारण किये हुए दिखाई देते हैं। धातु से बने पात्रों को भी विभिन्न वर्गों द्वारा धार्मिक महत्व प्राप्त होता है। उदाहरण के लिये कुमांऊँ की गगरी को साक्षात् शिव-रूप में प्रतिष्ठित माना जाता है। प्रत्येक शुभ कार्यों में इसका विशेष महत्व के साथ प्रयोग किया जाता है। धातुकला को सजीव बनाए रखने में कुमांऊँ में समुचित जाति-समूह सुविख्यात हैं। आज भी इनके द्वारा निर्मित कलात्मक बर्तनों की मॉंग सर्वत्र दिखाई देती है। विकसित तकनीकी ज्ञान से परम्परागत रूप में यह कला कुमांऊँ की लोककला में अपना विशिष्ट योगदान बनाती चली आ रही है।

चित्रकला

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चित्रकला अर्थात लोक-चित्रकला के क्षेत्र कुमांऊँ का उत्तर भारत में प्राचीन काल से ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कुमांऊँ की चित्रकला काे कुमांऊँ-समाज में अधिकाॅशत: नारी-शक्ति का संरक्षण प्राप्त होता है। कुमांऊँ की नारी ही धार्मिक सभाओं में इस चित्रकला की गुरु व शिष्या दोनों हैं। मॉं गुरु है तो पुत्री शिष्या। इन्हीं दो गुरु-शिष्य परम्परा से ही यह चित्रकला निरंतर प्रगति कर रही है। कुमांऊँ की चित्रकला मात्र अभिव्यक्ति का साधन नहीं है, वरन् इसमें धर्म, दर्शन और कुमांऊँ की संस्कृति की अमिट छाप भी विद्यमान रहती है। कुमांऊँ में अपने पारम्परिक व प्रचलित ऐपण के नाम से विद्यमान यह कला अब भारतवर्ष के अन्य भागों में भी दिखाई देने लगी है। शरीर गोदने की कला से लेकर घर आॅगन की साज-सज्जा , धार्मिक पर्वों व तीज-त्यौहारों में यह कला प्रचुर दिखाई देती है। कुमांऊॅं की चित्रकला में अधिकॉशत: प्रतीक धार्मिक होते हैं।[3][4]

वर्तमान में यहॉं की चित्रकला का एक अौर अद्वितीय रूप दिखाई देता है। देवी-पूजा के लिये पट्टा बनाया जाता है, जिस पर राम, लखन, सीता, अन्यारी व उज्यारी देवी, मॉं, लक्ष्मी, विष्णु, गणेश, ब्रह्मा, स्थानीय देवता भोलेनाथ, गणपति अपने वाहन सहित शीर्ष बनाये जाते हैं। पिछले सात अाठ वर्षों में कुमांऊॅं में नवदुर्गा की भव्य मूर्तियॉं भी विजयादशमी के लिये बनाई जाने लगीं हैं। कुमांऊॅं की चित्रकला में मूर्तियों, ऐपणों एवं अन्य चित्रकलाओं का क्रम बहुविस्त्रित होता है।

संगीत व नृत्यकला

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नृत्य-संगीत कुमांऊँ क्षेत्र की गिरि-कन्दराओं व घाटियों में पुरातन काल से ही सदैव विद्यमान है। यहॉं के पशु-पक्षी, गिरि-कन्दरायें व गाड़-गधेरे (सरितायें-लघु सरितायें) आज भी जीते जागते गवाह के रूप में नृत्यमय-संगीतमय सुनाई तथा दिखाई देते हैं।

काव्यकला

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काव्यकला के क्षेत्र से भी उत्तराखण्ड राज्य का कुमांऊँ क्षेत्र अछूता नहीं है।

लोककला का बदलता स्वरूप

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शनै-शनै समयापरिवर्तन, भौतिकतावाद, पश्चिमीकरण का बोलबाल तथा आर्थिक सम्पन्नता के कारण यहॉं की परम्परागत लोक कलाओं पर भी असर पड़ा है।

सन्दर्भ

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  1. "लोक परंपराओं का महाकुंभ". दैनिक हिन्दुस्तान, नई दिल्ली. मूल से 1 दिसंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 नवम्बर 2017.
  2. "The Pahari Kalam (style of painting) probably also developed in Kumaon". euttaranchal.com. मूल से 26 नवंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 24 नवम्बर 2017.
  3. "Aipan the design made by hand in Kumaoni". euttaranchal.com. अभिगमन तिथि 27 नवम्बर 2017.
  4. "Aipan is one of the traditional art (painting form) of Kumaon". Uttarakhand Worldwide. मूल से 25 अक्तूबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 27 नवम्बर 2017.

इन्हें भी देखें

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