हल्द्वानी का इतिहास
उत्तराखण्ड के नैनीताल ज़िले में स्थित हल्द्वानी राज्य के सर्वाधिक जनसँख्या वाले नगरों में से है। इसे "कुमाऊँ का प्रवेश द्वार" भी कहा जाता है।
प्राचीन इतिहास
[संपादित करें]भाभर क्षेत्र, जहां हल्द्वानी स्थित है, प्राचीन काल में एक अभेद्य जंगल माना जाता था। दलदल भूमि, अत्यधिक गर्मी, महीनों तक चलने वाली बारिश, जंगली जानवर, विभिन्न प्रकार के रोग, और परिवहन के कोई साधन नहीं होने के कारण यहां कभी भी बड़ी संख्या में लोग नहीं बसे। यही वजह है कि इस क्षेत्र में कोई ऐतिहासिक मानव-बस्तियां होने का उल्लेख नहीं हैं।
मुग़ल इतिहासकारों ने इस बात का उल्लेख किया है की १४ वीं शताब्दी में एक स्थानीय शाशक, ज्ञान चन्द, जो चन्द राजवंश से सम्बंधित था, दिल्ली सल्तनत पधारा और उसे भाभर-तराई तक का क्षेत्र उस समय के सुलतान से भेंट स्वरुप मिला। बाद में मुग़लों द्बारा पहाड़ों पर चढ़ाई करने का प्रयास किया गया, लेकिन क्षेत्र की कठिन पहाड़ी भूमि के कारण वे सफल नहीं हो सके। कीर्ति चंद (१४८८-१५०३) के राज से पहले यह क्षेत्र स्थानीय सरदारों के अधीन भी रहा।
१६वीं शताब्दी की शुरुआत में, इस क्षेत्र में बुक्सा जनजाति के लोग बसने लगे थे। हल्दु (कदंब) के वनों की प्रचुरता के कारण इस क्षेत्र को बाद में हल्दु वनी कहा जाने लगा। दक्षिण में तराई क्षेत्र में भी उस समय घने जंगलों का समावेश था, और यहां मुगल बादशाह अक्सर शिकार खेलने आया करते थे।
स्थापना और १९वीं शताब्दी
[संपादित करें]सन् १८१६ में गोरखाओं को परास्त करने के बाद गार्डनर को कुमाऊँ का आयुक्त नियुक्त किया गया। बाद में जॉर्ज विलियम ट्रेल ने आयुक्त का पदभार संभाला और १८३४ में हल्दु वनी का नाम हल्द्वानी रखा। ब्रिटिश अभिलेखों से हमें ये ज्ञात होता है कि इस स्थान को १८३४ में एक मण्डी के रूप में उन लोगों के लिए बसाया गया था जो शीत ऋतु में भाभर आया करते थे। प्राचीन शहर मोटा हल्दु में स्थित था, और उस समय वहां केवल घास के घर थे। १८५० के बाद ही ईंट के घरों का निर्माण शुरू हो पाया। १८३१ में नगर का पहला अंग्रेजी माध्यमिक विद्यालय स्थापित किया गया था।
सन् १८५६ में सर हेनरी रैम्से ने कुमाऊँ के आयुक्त का पदभार संभाला। १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इस क्षेत्र पर थोड़े समय के लिये रोहिलखण्ड के विद्रोहियों ने अधिकार कर लिया। तत्पश्चात सर हेनरी रैम्से द्वारा यहाँ मार्शल लॉ लगा दिया गया और १८५८ तक इस क्षेत्र को विद्रोहियों से मुक्त करा लिया गया। वो रोहिल्ला, जिन पर हल्द्वानी पर हमला करने का आरोप लगा था, नैनीताल के फांसी गधेरा में अंग्रेजों द्वारा फांसी पर चढ़ा दिये गये थे। इसके बाद सन् १८८२ में रैम्से ने नैनीताल और काठगोदाम को सड़क मार्ग से जोड़ दिया। सन् १८८३-८४ में बरेली और काठगोदाम के बीच रेलमार्ग बिछाया गया। २४ अप्रैल, १८८४ के दिन पहली रेलगाड़ी लखनऊ से हल्द्वानी पहुंची और बाद में रेलमार्ग काठगोदाम तक बढ़ा दिया गया।
१८९१ तक अलग नैनीताल ज़िले के बनाने से पहले तक हल्द्वानी कुमांऊ ज़िले का भाग था जिसे अब अल्मोड़ा ज़िले के नाम से जाना जाता है। १८८५ में टाउन अधिनियम लागू होने के बाद १ फरवरी, १८९७ को हल्द्वानी को नगरपालिका घोषित किया गया। सन् १८९९ में यहां तहसील कार्यालय खोला गया था, जब यह भाभर का तहसील मुख्यालय बनाया गया। भाभर नैनीताल ज़िले के चार भागों में से एक था, और कुल ४ क़स्बों और ५११ ग्रामों के साथ १९०१ में इसकी कुल जनसँख्या ९३,४४५ थी और ये ३,३१३ वर्ग किमी क्षेत्र में फैला हुआ था।
२० वीं और २१ वीं सदी
[संपादित करें]सन् १९०१ में यहाँ की जनसँख्या ६,६२४ थी और आगरा व अवध के सयुंक्त प्रान्त के नैनीताल ज़िले के भाभर क्षेत्र का मुख्यालय हल्द्वानी में ही स्थित था। भाभर क्षेत्र का मुख्यालय के साथ ही ये कुमाऊँ मण्डल और नैनीताल ज़िले की शीत कालीन राजधानी भी हुआ करता था। सन् १९०१ में आर्य समाज भवन और १९०२ में सनातन धर्मं सभा का निर्माण किया गया। सन् १९०४ में हल्द्वानी की नगर पालिका को रद्द कर इसे "अधिसूचित क्षेत्र" की श्रेणी में रख दिया गया था। १९०७ में हल्द्वानी को क़स्बा क्षेत्र घोषित किया गया। शहर का पहला अस्पताल १९१२ में खुला।
१९१८ में हल्द्वानी ने कुमाऊं परिषद के दूसरे सत्र की मेजबानी की। पंडित तारा दत्त गैरोला रायबहादुर के नेतृत्व में १९२० में रॉलेट एक्ट और कुली-बेगार के विरोध में विरोध प्रदर्शन किया गया। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान भी १९३० और १९३४ के बीच शहर में कई जुलूस निकाले गए थे। १९४० के हल्द्वानी सम्मेलन में ही बद्री दत्त पाण्डेय ने संयुक्त प्रांत में कुमाऊं के पहाड़ी इलाकों को विशेष दर्जा देने के लिए आवाज़ उठाई थी।
१९४७ में जब भारत ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र हुआ तब हल्द्वानी एक मध्यम आकार का शहर था और इसकी आबादी लगभग 2५,००० थी। शहर का १९५० में विद्युतीकरण किया गया था। नागा रेजिमेंट की दूसरी बटालियन, जिसे हेड हंटर के नाम से भी जाना जाता है, ११ फरवरी १९८५ को हल्द्वानी में ही स्थापित की गई थी। हल्द्वानी ने उत्तराखंड आंदोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई।
जब १८३७ में हल्द्वानी की स्थापना की गई थी, तो ज्यादातर इमारतें मोटा हल्दु के आसपास थीं। शहर धीरे-धीरे उत्तर की ओर वर्तमान बाजार और रेलवे स्टेशन की ओर विकसित होता गया। हल्द्वानी बाजार से ४ किमी दूर दक्षिण में गोरा पड़ाव नामक क्षेत्र है। १९ वीं सदी के मध्य में यहाँ एक ब्रिटिश कैंप हुआ करता था जिसके नाम पर इस क्षेत्र का नाम पड़ा। विकास प्राधिकरण की अनुपस्थिति के कारण २००० के दशक की शुरूआत में बिना किसी नियमन के, संकीर्ण सड़कों के साथ ही, दर्जनों कालोनियों की स्थापना हुई। ३१ अक्टूबर २००५ को उत्तराखंड सरकार द्वारा उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।
हल्द्वानी के गौलापार क्षेत्र में ९ मई २०१७ को हल्द्वानी आईएसबीटी के निर्माण के दौरान ४० मानव कंकाल और ३०० 'कब्र-जैसी संरचनाएं' पाई गई। इन मानव अस्थि अवशेषों के बारे में विशेषग्यों का मानना था कि ये बरेली के रोहिला सरदारों के हो सकते हैं जो १८५७ में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए शहीद हुए थे। एक और मत यह भी था कि ये अवशेष किसी महामारी, मलेरिया या अकाल के दौरान काल कवलित हो गये लोगों के भी हो सकते हैं। लेकिन जांच में पता चला है कि नरकंकाल केवल एक से डेढ़ साल पुराने थे।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- "Haldwani, The Imperial Gazetter of India" [हल्द्वानी, इम्पीरियल गजेटियर आफ़ इण्डिया] (अंग्रेज़ी में). मूल से 3 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 1 अगस्त 2017.
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के एक से अधिक मान दिए गए हैं (मदद)
- "Nainital District, The Imperial Gazetter of India" [नैनीताल जिला, इम्पीरियल गजेटियर आफ़ इण्डिया] (अंग्रेज़ी में). मूल से 3 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 1 अगस्त 2017.
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के एक से अधिक मान दिए गए हैं (मदद)
- "कंकाल मिलने के बाद हल्द्वानी में आइएसबीटी का निर्माण कार्य रूका". देहरादून: नवभारत टाइम्स. 12 मई 2017. मूल से 11 अप्रैल 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 सितंबर 2017.
सन्दर्भ
[संपादित करें]- पाण्डेय, बद्री दत्त (1937). कुमाऊं का इतिहास. अल्मोड़ा: श्याम प्रकाशन.
- मित्तल, अरुण के. (1986). British Administration in Kumaon Himalayas [कुमाऊं हिमालय में ब्रिटिश प्रशासन] (अंग्रेज़ी में). दिल्ली: मित्तल प्रकाशन.
- हांडा, ओ.सी. (2002). History of Uttaranchal [उत्तरांचल का इतिहास] (अंग्रेज़ी में). नई दिल्ली: इंडस प्रकाशन कंपनी. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7387-134-5.