नैनीताल

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नैनीताल
Nainital
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Nainital Skyline from Kaladhungi Road
Church of St. John in the Wilderness
Nainital Lake
Naina Devi Temple
Raj Bhavan, Nainital
St. Joseph's College, Nainital
ऊपर से दक्षिणावर्त: सायंकाल में नैनीताल का दृश्य, नयना देवी मन्दिर, सेंट जोसेफ कॉलेज, राज भवन, सेंट जॉन इन द वाइल्डरनेस गिरिजाघर तथा नैनीताल झील
नैनीताल is located in उत्तराखंड
नैनीताल
नैनीताल
उत्तराखण्ड में स्थिति
निर्देशांक: 29°23′31″N 79°27′14″E / 29.392°N 79.454°E / 29.392; 79.454निर्देशांक: 29°23′31″N 79°27′14″E / 29.392°N 79.454°E / 29.392; 79.454
देश भारत
प्रान्तउत्तराखण्ड
ज़िलानैनीताल ज़िला
ऊँचाई2084 मी (6,837 फीट)
जनसंख्या (2011)
 • कुल41,377
भाषा
 • प्रचलितहिन्दी, कुमाऊँनी
पिनकोड263001(मल्लीताल) / 263002(तल्लीताल)
टेलीफोन कोड+91 – 5942
वाहन पंजीकरणUK 04
वेबसाइटnainital.nic.in

नैनीताल (Nainital) भारत के उत्तराखण्ड राज्य के नैनीताल ज़िले में स्थित एक नगर और महत्वपूर्ण पर्यटक स्थल है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है।[1] कुमाऊँ क्षेत्र में नैनीताल का विशेष महत्व है। यह 'छखाता' परगने में आता है। 'छखाता' नाम 'षष्टिखात' से बना है। 'षष्टिखात' का तात्पर्य साठ तालों से है। इस अंचल में पहले साठ मनोरम ताल थे। इसीलिए इस क्षेत्र को 'षष्टिखात' कहा जाता था। आज इस अंचल को 'छखाता' नाम से अधिक जाना जाता है। इसे भारत का लेक डिस्ट्रिक्ट कहा जाता है, क्योंकि यह पूरी जगह झीलों से घिरी हुई है। 'नैनी' शब्द का अर्थ है आँखें और 'ताल' का अर्थ है झील। बर्फ़ से ढ़के पहाड़ों के बीच बसा यह स्‍थान झीलों से घिरा हुआ है। इनमें से सबसे प्रमुख झील नैनी झील है जिसके नाम पर इस जगह का नाम नैनीताल पड़ा है।[2][3]

लंबाई– 1500 मीटर , चौड़ाई –510मीटर, गहराई –10से 156मीटर

भूगोल[संपादित करें]

नैनीताल हिमालय की कुमाऊँ पहाडि़यों की तलहटी में स्थित है। समुद्र तल से नैनीताल की कुल ऊंचाई लगभग 1938 मीटर (6358 फुट) है। नैनीताल की घाटी में नाशपाती के आकार की एक झील है जो नैनी झील के नाम से जानी जाती है। यह झील चारों ओर से पहाड़ों से घिरी है तथा इसकी कुल परिधि लगभग दो मील है। इस झील के चारों ओर स्थित पहाडो़ के उत्तर में इनकी सबसे ऊंची चोटी नैना पीक है जिसकी ऊँचाई (2615 मीटर (8579 फीट)) है, जबकि पश्चिम की ओर देवपाठा (2438 मीटर (7999 फुट)) और दक्षिण में अयार पाठा (2278 मीटर (7474 फुट)) स्थित है। इन चोटियों से संपूर्ण क्षेत्र के मनोरम दृश्य दिखते हैं।

नैनीताल में ग्रीष्मकाल समशीतोष्ण होता है, जिसके दौरान अधिकतम तापमान 27 डिग्री सेल्सियस (81°F) तथा न्यूनतम तापमान 10 डिग्री सेल्सियस (50°F) के करीब रहता है। गर्मियों में नैनीताल की आबादी उसकी कुल आबादी से लगभग पाँच गुणा से भी अधिक तक बढ़ जाती है जिसका मुख्य कारण मैदानी इलाकों से आने वाले पर्यटकों की वार्षिक आमद है। सर्दियों में, नैनीताल में दिसंबर से फरवरी के मध्य हिमपात होता है और इस दौरान तापमान अधिकतम 15 डिग्री सेल्सियस (59°F) से लेकर न्यूनतम -3 डिग्री सेल्सियस (27°F) तक चला जाता है।

यहाँ पर 'नैनीताल' नगर, जो नैनीताल जिले के अन्दर आता है। यहाँ का यह मुख्य आकर्षण केन्द्र है। तीनों ओर से घने-घने वृक्षों की छाया में ऊँचे - ऊँचे पहाड़ों की तलहटी में नैनीताल समुद्रतल से १९३८ मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इस ताल की लम्बाई १,३५८ मीटर, चौड़ाई ४५८ मीटर और गहराई १५ से १५६ मीटर तक आंकी गयी है। नैनीताल के जल की विशेषता यह है कि इस ताल में सम्पूर्ण पर्वतमाला और वृक्षों की छाया स्पष्ट दिखाई देती है। आकाश मण्डल पर छाये हुए बादलों का प्रतिबिम्ब इस तालाब में इतना सुन्दर दिखाई देता है कि इस प्रकार के प्रतिबिम्ब को देखने के लिए सैकड़ो किलोमीटर दूर से प्रकृति प्रेमी नैनीताल आते-जाते हैं। जल में विहार करते हुए बत्तखों का झुण्ड, थिरकती हुई तालों पर इठलाती हुई नौकाओं तथा रंगीन बोटों का दृश्य और चाँद-तारों से भरी रात का सौन्दर्य नैनीताल के ताल की शोभा बढ़ाने में चार - चाँद लगा देता है। इस ताल के पानी की भी अपनी विशेषता है। गर्मियों में इसका पानी हरा, बरसात में मटमैला और सर्दियों में हल्का नीला हो जाता है।

इतिहास[संपादित करें]

प्राचीन इतिहास[संपादित करें]

प्राचीन काल में कुमाऊँ कई छोटी-छोटी रियासतों में विभाजित था, और नैनीताल क्षेत्र एक खसिया परिवार की विभिन्न शाखाओं के अधीन था। कुमायूँ पर समेकित प्रभुत्व प्राप्त करने वाला पहला राजवंश चन्द वंश था। इस वंश के संस्थापक इलाहाबाद के पास स्थित झूसी से आये सोम चन्द थे, जिन्होंने लगभग सातवीं शताब्दी में, कत्यूरी राजा की बेटी से शादी की, फिर कुमाऊं के अंदरूनी हिस्सों में बढ़ गए। दहेज के रूप में उन्हें चम्पावत नगर और साथ ही भाबर और तराई की भूमि दी गयी थी। चम्पावत में अपनी राजधानी स्थापित कर सोम चन्द और उनके वंशजों ने धीरे धीरे आस पास के क्षेत्रों पर आक्रमण और फिर अधिकार करना शुरू किया।

इस प्रकार चम्पावत ही वह नाभिक था, जहाँ से पूरे कुमायूं पर चन्द प्रभुत्व का विस्तार हुआ, लेकिन यह पूरा होने में कई शताब्दियाँ लग गयी थी, और नैनीताल तथा इसके आसपास का क्षेत्र अवशोषित होने वाले अंतिम क्षेत्रों में से एक था। भीमताल, जो नैनीताल से केवल तेरह मील की दूरी पर है, वहाँ तेरहवीं शताब्दी में त्रिलोकी चन्द ने अपनी सरहदों की रक्षा के लिए एक किला बनाया था। लेकिन उस समय, नैनीताल स्वयं चन्द शासन के अधीन नहीं था, और राज्य की पश्चिमी सीमा से सटा हुआ था। सन १४२० में राजा उद्यान चन्द के शासनकाल में, चन्द राज्य की पश्चिमी सीमा कोशी और सुयाल नदियों तक विस्तृत थी, लेकिम रामगढ़ और कोटा अभी भी पूर्व खसिया शासन के अधीन थे। किराट चन्द, जिन्होंने १४८८ से १५०३ तक शासन किया, और अपने क्षेत्र का विस्तार किया, आखिरकार नैनीताल और आस पास के क्षेत्र पर अधिकार स्थापित कर पाए, जो इतने लंबे समय तक स्वतंत्र रहा था।

खसिया राजाओं ने अपनी स्वतंत्रता का पुन: प्राप्त करने का एक प्रयास किया। १५६० में, रामगढ़ के एक खसिया के नेतृत्व में, उन्होंने सफलता के एक संक्षिप्त क्षण का आनंद लिया, लेकिन बालो कल्याण चंद द्वारा निर्ममतापूर्वक गंभीरता के साथ उन्हें वश में कर लिया गया। इस अवधि में पहाड़ी क्षेत्र के प्रशासन पर बहुत कम या कोई प्रयास नहीं किया गया था। आइन-ए-अकबरी में कुमाऊँ के जिन भी महलों का उल्लेख किया गया है, वे सभी मैदानी क्षेत्रों में स्थित हैं। देवी चंद के शासनकाल के दौरान, जो १७२० में राजा बने थे, कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा द्वारा आक्रमण किया गया, लेकिन उन्होंने क्षेत्र पर कोई कब्ज़ा नहीं किया। इसके बीस वर्ष बाद कुमाऊं की पहाड़ियों पर फिर से आक्रमण हुआ, इस बार रुहेलों द्वारा, जिनके साथ वर्ष १७४३ में युद्ध छिड़ गया था। रुहेला लड़ते हुए भीमताल तक घुस गए, और इसे लूट लिया। हालाँकि, उन्हें अंततः गढ़वाल के राजा द्वारा खरीद लिया गया, जिन्होंने उस समय कुमाऊं के तत्कालीन राजा कल्याण चंद के साथ एक अस्थायी गठबंधन बना लिया था। एक और आक्रमण, दो साल बाद, कल्याण चंद के प्रधान मंत्री शिव देव जोशी द्वारा निरस्त कर दिया गया।

१७४७ में कल्याण चंद की मृत्यु के साथ, कुमायूं के राजाओं की शक्ति क्षीण होने लगी। अगले राजा उनके बेटे दीप चंद बने, एक बेहद कमजोर नौजवान, जिसके हित पूरी तरह से धार्मिक थे और जिसने खुद को मंदिरों के निर्माण के लिए समर्पित कर दिया। भीमताल में स्थित भीमेश्वर मंदिर भी उन्होंने ही बनवाया था। हालांकि, शिव देव जोशी अभी भी प्रधान मंत्री थे, और उनके जीवनकाल के दौरान कुमाऊं समृद्ध रहा। १७६४ में वह उत्परिवर्ती सैनिकों द्वारा मारा गया था, और उस तारीख से सभी मैदानी क्षेत्र कुमाऊं के पहाड़ी राज्य से व्यावहारिक रूप से स्वतंत्र हो गया थे। शिव देव जोशी की मृत्यु के बाद, कुमायूं के मामले और अधिक उलझन में पड़ गए, जहाँ एक और तत्कालीन रानी (दीप चंद की पत्नी) थी, और दूसरी ओर मोहन सिंह, एक युवा रौतेला। अगले कुछ वर्षों में मोहन सिंह ने रानी को मौत के घाट उतारने के बाद १७७७ में दीप चंद और उनके दो बेटों की हत्या करने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने खुद को मोहन चंद के रूप में राजा घोषित किया।

मोहन चंद का शासन, जो जोशी परिवार के उत्पीड़न के लिए जाना गया, १७७९ तक ही चला, जब कुमाऊं पर गढ़वाल के राजा ललित शाह द्वारा आक्रमण किया गया था, जिन्होंने क्षेत्र पर कब्ज़ा कर अपने बेटे, प्रद्युम्न को सिंहासन पर बैठा दिया। मोहन चंद भाग गए और जोशी, जिनमें से हरख देव अब प्रमुख थे, नए राजा के प्रमुख सलाहकारों में शामिल हुए। प्रद्युम्न ने गढ़वाल को कुमायूं के अपने नए अधिग्रहित राज्य में जोड़कर राजधानी श्रीनगर ले जाने का प्रयास किया। उनकी अनुपस्थिति के दौरान, मोहन चंद फिर सामने आए। उनके और जोशियों के बीच युद्ध हुआ, जो गढ़वाल शासन के प्रति वफादार थे। मोहन चंद को मार दिया गया, लेकिन उनकी जगह उनके भाई, लाल सिंह ने ले ली थी, और १७८८ में जोशी लोगों की भीमताल के पास बुरी तरह से हार हुई, उसके बाद लाल सिंह सर्वोच्च हो गए, और अधिकतर जोशियों को मार दिया गया।

पराजित हरख देव जोशी की सहायता से, गोरखाओं ने कुमायूं पर आक्रमण किया, और राज्य भर में हाल ही के सालों में कई प्रतिद्वंद्वी गुटों की लड़ाई के कारण उपजे भ्रम का लाभ उठाकर इसे अधीन करने में सफल रहे। गोरखा शासन के दौरान क्षेत्र में बहुत कम कार्य हुए। उनकी नीति दमन की थी, हालांकि कुमाऊं में प्रशासन गढ़वाल की तुलना में कम गंभीर था। गोरखा वर्चस्व लंबे समय तक नहीं रहा। १८१४ में, ब्रिटिश सरकार ने कुमाऊं की ओर अपना ध्यान आकर्षित किया। ईस्ट इंडिया कंपनी को पहाड़ियों में दिलचस्पी थी, वहाँ पैदा होने वाले गांजे के कारण, जिसकी एक बड़ी मात्रा काशीपुर में स्थित कंपनी के कारखाने से होकर गुजरती थी। तत्कालीन गवर्नर-जनरल, लॉर्ड हेस्टिंग्स ने कुमाऊं को शांतिपूर्वक निर्वासित करने का प्रयास किया, और गार्डनर को कुमायूं के राज्यपाल बाम साह के साथ वार्ता के लिए दिल्ली से भेजा गया। ये वार्ता विफल रही, और, १८१५ की शुरुआत में, युद्ध की घोषणा की गई।

युद्ध में नेपाल की हार हुई और अंग्रेजों ने दिसंबर १८१५ में कुमाऊं का आधिपत्य प्राप्त किया। अल्मोड़ा में मुख्यालय के साथ, गार्डनर को कुमाऊं का पहला आयुक्त नियुक्त किया गया था, लेकिन कुछ ही समय बाद उनका स्थान ट्रेल ने ले लिया। ट्रेल, जिसका प्रशासन व्यावहारिक रूप से किसी भी केंद्रीय प्राधिकरण द्वारा अपरिवर्तित था, १८३० तक आयुक्त बने रहे। उनके बाद कर्नल गोवन को अगला आयुक्त बनाया गया, जिसके बाद १८३९ में लुशिंगटन अगले आयुक्त हुए। १८४८ में, बैटन कमिश्नर बने, और उनके बाद, १८५६ में कैप्टन रामसे अगले आयुक्त हुए, जो बाद में मेजर जनरल सर हेनरी रामसे बने। सर हेनरी रामसे अठाईस वर्षों तक आयुक्त रहे।

पर्यटन स्थल[संपादित करें]

नैना देवी मंदिर[संपादित करें]

नैनी झील के उत्‍तरी किनारे पर नैना देवी मंदिर स्थित है। १८८० में भूस्‍खलन से यह मंदिर नष्‍ट हो गया था। बाद में इसे दुबारा बनाया गया। यहां सती के शक्ति रूप की पूजा की जाती है। मंदिर में दो नेत्र हैं जो नैना देवी को दर्शाते हैं। नैनी झील के बारें में माना जाता है कि जब शिव सती की मृत देह को लेकर कैलाश पर्वत जा रहे थे, तब जहां-जहां उनके शरीर के अंग गिरे वहां-वहां शक्तिपीठों की स्‍थापना हुई। नैनी झील के स्‍थान पर देवी सती की आँख गिरी थी। इसी से प्रेरित होकर इस मंदिर की स्‍थापना की गई है। माँ नैना देवी की असीम कृपा हमेशा अपने भक्‍तों पर रहती है। हर वर्ष माँ नैना देवी का मेला नैनीताल में आयोजित किया जाता है।

पौराणिक नैनादेवी[संपादित करें]

पौराणिक कथा के अनुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री उमा का विवाह शिव से हुआ था। शिव को दक्ष प्रजापति पसन्द नहीं करते थे, परन्तु यह देवताओं के आग्रह को टाल नहीं सकते थे, इसलिए उन्होंने अपनी पुत्री का विवाह न चाहते हुए भी शिव के साथ कर दिया था। एक बार दक्ष प्रजापति ने सभी देवताओं को अपने यहाँ यज्ञ में बुलाया, परन्तु अपने दामाद शिव और बेटी उमा को निमन्त्रण तक नहीं दिया। उमा हठ कर इस यज्ञ में पहुँची। जब उसने हरिद्वार स्थित कनरवन में अपने पिता के यज्ञ में सभी देवताओं का सम्मान और अपना और अपने पति का निरादर होते हुए देखा तो वह अत्यन्त दु:खी हो गयी। यज्ञ के हवनकुण्ड में यह कहते हुए कूद पड़ी कि 'मैं अगले जन्म में भी शिव को ही अपना पति बनाऊँगी। आपने मेरा और मेरे पति का जो निरादर किया इसके प्रतिफल - स्वरुप यज्ञ के हवन - कुण्ड में स्यवं जलकर आपके यज्ञ को असफल करती हूँ।' जब शिव को यह ज्ञात हुआ कि उमा सति हो गयी, तो उनके क्रोध का पारावार न रहा। उन्होंने अपने गणों के द्वारा दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। सभी देवी - देवता शिव के इस रौद्र - रूप को देखकर सोच में पड़ गए कि शिव प्रलय न कर ड़ालें। इसलिए देवी-देवताओं ने महादेव शिव से प्रार्थना की और उनके क्रोध के शान्त किया। दक्ष प्रजापति ने भी क्षमा माँगी। शिव ने उनको भी आशीर्वाद दिया। परन्तु, सति के जले हुए शरीर को देखकर उनका वैराग्य उमड़ पड़ा। उन्होंने सति के जले हुए शरीर को कन्धे पर डालकर आकाश - भ्रमण करना शुरु कर दिया। ऐसी स्थिति में जहाँ - जहाँ पर शरीर के अंग गिरे, वहाँ-वहाँ पर शक्ति पीठ हो गए। जहाँ पर सती के नयन गिरे थे, वहीं पर नैनादेवी के रूप में उमा अर्थात् नन्दा देवी का भव्य स्थान हो गया। आज का नैनीताल वही स्थान है, जहाँ पर उस देवी के नैन गिरे थे। नयनों की अश्रुधार ने यहाँ पर ताल का रूप ले लिया। तब से निरन्तर यहाँ पर शिवपत्नी नन्दा (पार्वती) की पूजा नैनादेवी के रूप में होती है।

ईष्ट देवी-नंदा देवी[संपादित करें]

यह भी एक विशिष्ट उदाहरण है कि समस्त गढ़वाल-कुमाऊँ की एकमात्र इष्ट देवी 'नन्दा' ही है। इस पर्वतीय अंचल में नंदा की पूजा और अर्चना जिस प्रकार की जाती है वह अन्यत्र देखने में नहीं आती। नैनीताल के ताल की बनावट भी देखें तो वह आँख की आकृति का 'ताल' है। इसके पौराणिक महत्व के कारण ही इस ताल की श्रेष्ठता बहुत आँकी जाती है। नैनी (नंदा) देवी की पूजा यहाँ पर पुराण युग से होती रही है।

कुमाऊँ के चन्द राजाओं की इष्ट देवी भी नंदा ही थी, जिनकी वे निरन्तर यहाँ आकर पूजा करते रहते थे। एक जनश्रुति ऐसी भी कही जाती है कि चन्द्रवंशीय राजकुमारी नंदा थी जिसको एक देवी के रूप में पूजी जाने लगी। परन्तु इस कथा में कोई दम नहीं है, क्योंकि समस्त पर्वतीय अंचल में नंदा को ही इष्ट देवी के रूप में स्वीकारा गया है। गढ़वाल और कुमाऊँ के राजाओं की भी नंदा देवी इष्ट रही है। गढ़वाल और कुमाऊँ की जनता के द्वारा प्रतिवर्ष नंदा अष्टमी के दिन नंदापार्वती की विशेष पूजा होती है। नंदा के मायके से ससुराल भेजने के लिए भी 'नन्दा जात' का आयोजन गढ़वाल-कुमाऊँ की जनता निरन्तर करती रही है। अतः नन्दापार्वती की पूजा - अर्चना के रूप में इस स्थान का महत्व युगों-युगों से आंका गया है। यहाँ के लोग इसी रूप में नन्दा के 'नैनीताल' की परिक्रमा करते आ रहे हैं।

नैनी झील[संपादित करें]

नैनीताल का मुख्‍य आकर्षण यहाँ की झील है। स्‍कंद पुराण में इसे त्रिऋषि सरोवर कहा गया है। कहा जाता है कि जब अत्री, पुलस्‍त्‍य और पुलह ऋषि को नैनीताल में कहीं पानी नहीं मिला तो उन्‍होंने एक गड्ढा खोदा और मानसरोवर झील से पानी लाकर उसमें भरा। इस झील के बारे में कहा जाता है यहां डुबकी लगाने से उतना ही पुण्‍य मिलता है जितना मानसरोवर नदी से मिलता है। यह झील 64 शक्ति पीठों में से एक है।

इस खूबसूरत झील में नौकायन का आनंद लेने के लिए लाखों देशी-विदेशी पर्यटक यहाँ आते हैं। झील के पानी में आसपास के पहाड़ों का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है। रात के समय जब चारों ओर बल्‍बों की रोशनी होती है तब तो इसकी सुंदरता और भी बढ़ जाती है। झील के उत्‍तरी किनारे को मल्‍लीताल और दक्षिणी किनारे को तल्‍लीताल करते हैं। यहां एक पुल है जहां गांधीजी की प्रतिमा और पोस्‍ट ऑफिस है। यह विश्‍व का एकमात्र पुल है जहां पोस्‍ट ऑफिस है। इसी पुल पर बस स्‍टेशन, टैक्‍सी स्‍टैंड और रेलवे रिज़र्वेशन काउंटर भी है। झील के दोनों किनारों पर बहुत सी दुकानें और खरीदारी केंद्र हैं जहां बहुत भीड़भाड़ रहती है। नदी के उत्‍तरी छोर पर नैना देवी मंदिर है। नैनीताल में तल्लीताल डाट से मछलियों का झुंड उनको खाना आदि देने वालों के लिए आकर्षण का केंद्र है।

तल्ली एवं मल्ली ताल[संपादित करें]

नैनीताल झील

नैनीताल के ताल के दोनों ओर सड़के हैं। ताल का मल्ला भाग मल्लीताल और नीचला भाग तल्लीताल कहलाता है। मल्लीताल में फ्लैट का खुला मैदान है। मल्लीताल के फ्लैट पर शाम होते ही मैदानी क्षेत्रों से आए हुए सैलानी एकत्र हो जाते हैं। यहाँ नित नये खेल - तमाशे होते रहते हैं। संध्या के समय जब सारी नैनीताल नगरीय बिजली के प्रकाश में जगमगाने लगती है तो नैनीताल के ताल के देखने में ऐसा लगता है कि मानो सारी नगरी इसी ताल में डूब सी गयी है। संध्या समय तल्लीताल से मल्लीताल को आने वाले सैलानियों का तांता सा लग जाता है। इसी तरह मल्लीताल से तल्लीताल (माल रोड) जाने वाले प्रकृतिप्रेमियों का काफिला देखने योग्य होता है।

नैनीताल, पर्यटकों, सैलानियों, पदारोहियों और पर्वतारोहियों का चहेता नगर है जिसे देखने प्रति वर्ष हजारों लोग यहाँ आते हैं। कुछ ऐसे भी यात्री होते हैं जो केवल नैनीताल का "नैनी देवी" के दर्शन करने और उस देवी का आशीर्वाद प्राप्त करने की अभिलाषा से आते हैं। यह देवी कोई और न होकर स्वयं 'शिव पत्नी' नंदा (पार्वती) हैं। यह तालाब उन्हीं की स्मृति का द्योतक है। इस सम्बन्ध में पौराणिक कथा कही जाती है।

त्रिॠषि सरोवर[संपादित करें]

'नैनीताल' के सम्बन्ध में एक और पौराणिक कथा प्रचलित है। 'स्कन्द पुराण' के मानस खण्ड में एक समय अत्रि, पुस्त्य और पुलह नाम के ॠषि गर्गाचल की ओर जा रहे थे। मार्ग में उन्हें यह स्थान मिला। इस स्थान की रमणीयता में वे मुग्ध हो गये परन्तु पानी के अभाव से उनका वहाँ टिकना (रुकना) और करना कठिन हो गया। परन्तु तीनों ॠथियों ने अपने - अपने त्रिशूलों से मानसरोवर का स्मरण कर धरती को खोदा। उनके इस प्रयास से तीन स्थानों पर जल धरती से फूट पड़ा और यहाँ पर 'ताल' का निर्माण हो गया। इसिलिए कुछ विद्वान इस ताल को 'त्रिॠषि सरोवर' के नाम से पुकारा जाना श्रेयस्कर समझते हैं।

मॉल रोड[संपादित करें]

झील के एक ओर स्थित है माल रोड‍ जिसे अब गोविंद बल्‍लभ पंत मार्ग कहा जाता है। यहां बहुत सारे होटल, रेस्‍टोरेंट, ट्रैवल एजेंसी, दुकानें और बैंक हैं। सभी पर्यटकों के लिए यह रोड आकर्षण का केंद्र है। माल रोड मल्‍लीताल और तल्‍लीताल को जोड़ने वाला मुख्‍य रास्‍ता है। झील के दूसरी ओर ठंडी रोड है। यह रोड माल रोड जितनी व्‍यस्‍त नहीं रहती। यहां पशान देवी मंदिर भी है। ठंडी रोड पर वाहनों को लाना मना है।

एरियल रोपवे[संपादित करें]

यह रोपवे नैनीताल का मुख्‍य आकर्षण है। यह स्‍नो व्‍यू पाइंट और नैनीताल को जोड़ता है। रोपवे मल्‍लीताल से शुरु होता है। यहां दो ट्रॉली हैं जो सवारियों को लेकर जाती हैं। एक तरफ की यात्रा में लगभग १५१.७ सेकंड लगते हैं। रोपवे से शहर का खूबसूरत दृश्‍य दिखाई पड़ता है।

सात चोटियाँ[संपादित करें]

नैनीताल झील और नगर का दृश्य

यहाँ की सात चोटियों नैनीताल की शोभा बढ़ाने में विशेष, महत्व रखती हैं:

(१) चीनीपीक (नैनापीक)

सात चोटियों में चीनीपीक (नैना पीक या चाइना पीक) २,६११ मीटर की ऊँचाई वाली पर्वत चोटी है। नैनीताल से लगभग साढ़े पाँच किलोमीटर पर यह चोटी पड़ती है। यहां एक ओर बर्फ़ से ढ़का हिमालय दिखाई देता है और दूसरी ओर नैनीताल नगर का पूरा भव्य दृश्‍य देखा जा सकता है। इस चोटी पर चार कमरे का लकड़ी का एक केबिन है जिसमें एक रेस्तरा भी है।

(२) किलवरी २५२८ मीटर की ऊँचाई पर दूसरी पर्वत - चोटी है जिसे किलवरी कहते हैं। यह पिकनिक मनाने का सुन्दर स्थान है। यहाँ पर वन विभाग का एक विश्रामगृह भी है। जिसमें पहुत से प्रकृति प्रेमी रात्रि - निवास करते हैं। इसका आरक्षण डी. एफ. ओ. नैनीताल के द्वारा होता है।

(३) लड़ियाकाँटा २४८१ मीटर की ऊँचाई पर यह पर्वत श्रेणी है जो नैनीताल से लगभग साढ़े पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ से नैनीताल के ताल की झाँकी अत्यन्त सुन्दर दिखाई देती है।

(४) देवपाटा और केमल्सबौग यह दोनों चोटियाँ साथ - साथ हैं। जिनकी ऊँचाई क्रमशः २४३५ मीटर और २३३३ मीटर है। इस चोटी से भी नैनीताल और उसके समीप वाले इलाके के दृश्य अत्यन्त सुन्दर लगते हैं।

(५) डेरोथीसीट वास्तव में यह अयाँरपाटा पहाड़ी है परन्तु एक अंग्रेज केलेट ने अपनी पत्नी डेरोथी, जो हवाई जहाज की यात्रा करती हुई मर गई थी, की याद में इस चोटी पर कब्र बनाई, उसकी कब्र - 'डारोथीसीट' के नाम पर इस पर्वत चोटी का नाम पड़ गया। नैनीताल से चार किलोमीटर की दूरी पर २२९० मीटर की ऊँचाई पर यह चोटी है।

(६) स्नोव्यू और हनी - बनी नैनीताल से केवन ढ़ाई किलोमीटर और २२७० मीटर की ऊँचाई पर हवाई पर्वत - चोटी है। 'शेर का डाण्डा' पहाड़ पर यह चोटी स्थित है, जहाँ से हिमालय का भव्य दृश्य साफ - साफ दिखाई देता है। इसी तरह स्नोव्यू से लगी हुई दूसरी चोटी हनी - बनी है, जिसकी ऊँचाई २१७९ मीटर है, यहाँ से भी हिमालय के सुन्दर दृश्य दिखाई देते हैं।

जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान[संपादित करें]

यह गौरवशाली पशु विहार है। यह रामगंगा की पातलीदून घाटी में ५२५.८ वर्ग किलोमीटर में बसा हुआ है। कुमाऊँ के नैनीताल जनपद में यह उद्यान विस्तार लिए हुए हैं।

दिल्ली से मुरादाबाद - काशीपुर - रामनगर होते हुए कार्बेट नेशनल पार्क की दूरी २९० कि॰मी॰ है। कार्बेट नेशनल पार्क में पर्यटकों के भ्रमण का समय नवंबर से मई तक होता है। इस मौसम में कई ट्रैवल एजेन्सियाँ कार्बेट नेशनल पार्क में पर्यटकों को घुमाने का प्रबन्ध करती हैं। कुमाऊँ विकास निगम भी प्रति शुक्रवार को दिल्ली से कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान तक पर्यटकों को ले जाने के लिए संचालित भ्रमणों (कंडक टेड टूर्स) का आयोजन करता है। कुमाऊँ विकास निगम की बसों में अनुभवी मार्गदर्शक होते हैं जो पशुओं की जानकारी, उनकी आदतों को बताते हुए बातें करते रहते हैं।

यहाँ पर शेर, हाथी, भालू, बाघ, सुअर, हिरण, चीतल, साँभर, पाण्डा, काकड़, नीलगाय, घुरल और चीता आदि 'वन्य प्राणी' अधिक संख्या में मिलते हैं। इसी प्रकार इस वन में अजगर तथा कई प्रकार के साँप भी निवास करते हैं।

नैनीताल का नाम नैनीताल क्यों पड़ा?[संपादित करें]

नैनीताल, भारत का एक लोकप्रिय हिल स्टेशन है, जिसका नाम नैनी झील से लिया गया है, जो शहर का केंद्रबिंदु है। शब्द “नैनी” संस्कृत शब्द “नैना” से लिया गया है, जिसका अर्थ है “आंख”। स्थानीय किंवदंतियों के अनुसार, नैनी झील को भगवान शिव की पत्नी, हिंदू देवी पार्वती की पन्ना हरी आंखों में से एक माना जाता है। नैनीताल नाम इस प्रकार “आँख की झील” या “देवी की आँख की झील” का प्रतीक है।

आवागमन[संपादित करें]

वायु मार्ग

निकटतम हवाई अड्डा पंतनगर विमानक्षेत्र नैनीताल से 68 किलोमीटर दूर है। यहाँ से दिल्‍ली,देहरादून,पिथौरागढ़ आदि के लिए उड़ानें हैं।

रेल मार्ग

निकटतम रेलहेड काठगोदाम (हल्द्वानी) रेलवे स्‍टेशन (35 किलोमीटर) है जो सभी प्रमुख नगरों से जुड़ा है। अन्य रामनगर 67 किमी, बाजपुर 64 किमी और लालकुआं 59 किमी दूर है।

सड़क मार्ग

नैनीताल राष्ट्रीय राजमार्ग 109 से जुड़ा हुआ है। हल्द्वानी, दिल्ली, आगरा, देहरादून, हरिद्वार, लखनऊ, कानपुर और बरेली से रोडवेज की बसें नियमित रूप से यहां के लिए चलती हैं।

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बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]