खाप

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खाप या सर्वखाप एक सामाजिक प्रशासन की पद्धति है जो भारत के उत्तर पश्चिमी प्रदेशों यथा राजस्थान, हरियाणा, पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में अति प्राचीन काल से प्रचलित है। इसके अनुरूप अन्य प्रचलित संस्थाएं हैं पाल, गण, गणसंघ, सभा, समिति, जनपद अथवा गणतंत्र।पंचायत|व ग्राम पंचायत]] का जन्म हुआ।[1]

समाज पर नियंत्रण के लिए एक व्यवस्था दी। इस व्यवस्था में परिवार के मुखिया को सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में स्वीकार किया गया है। जिसकी सहायता से प्रबुद्ध व्यक्तियों की एक पंचायत होती थी। जाट समाज में यह न्याय व्यवस्था आज भी प्रचलन में है। और जाटों कि इस खाप व्यवस्था के कारण ही आज उतरी भारत में सैकड़ों सालों तक मुगलों और अंग्रेजों का राज रहते हुए भी हिन्दू समाज संरक्षित रहा, जहां जाटों ने कई अन्य जातियों को पनाह दी। और समय समय पर इस देश के लिए बलिदान दिए। मुगल काल में जब दिल्ली के आस पास का हिन्दू समाज घोर संकट में था,तब भी जाट खाप के बल पर सर उठा कर जीते थे। वर्तमान में हर्षवर्धन के काल से आजादी तक का खाप का लिखित रिकार्ड है। और यही एक पुख्ता सबूत है कि हर्षवर्धन एक जाट था।[1]

जब अनेक गाँव इकट्ठे होकर पारस्परिक लेन-देन का सम्बन्ध बना लेते हैं तथा एक दूसरे के साथ सुख-दुःख में साथ देने लगते हैं तब इन गांवों को मिलकर एक नया समुदाय जन्म लेता है जिसे जाटू भाषा में गवाहंड कहा जाता है। यदि कोई मसला गाँव-समाज से न सुलझे तब स्थानीय चौधरी अथवा प्रबुद्ध व्यक्ति गवाहंड को इकठ्ठा कर उनके सामने उस मसले को रखा जाता है। प्रचलित भाषा में इसे गवाहंड पंचायत कहा जाता है। गवाहंड पंचायत में सभी सम्बंधित लोगों से पूछ ताछ कर गहन विचार विमर्श के पश्चात समस्या का हल सुनाया जाता है जिसे सर्वसम्मति से मान लिया जाता है।[1]

जब कोई समस्या जन्म लेती है तो सर्व प्रथम सम्बंधित परिवार ही सुलझाने का प्रयास करता है। यदि परिवार के मुखिया का फैसला नहीं माना जाता है तो इस समस्या को समुदाय और ग्राम समाज की पंचायत में लाया जाता है। दोषी व्यक्ति द्वारा पंचायत फैसला नहीं माने जाने पर ग्राम पंचायत उसका हुक्का-पानी बंद करने, गाँव समाज निकला करने, लेन-देन पर रोक आदि का हुक्म करती है। यदि समस्या गोत्र से जुडी हो तो गोत्र पंचायत होती है जिसके माध्यम से दोषी को घेरा जाता है।

खाप व्यवस्था[संपादित करें]

खाप या सर्वखाप एक सामाजिक प्रशासन की पद्धति है जो भारत के उत्तर पश्चिमी प्रदेशों यथा राजस्थान, हरयाणा, पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में अति प्राचीन काल से प्रचलित है। इसके अनुरूप अन्य प्रचलित संस्थाएं हैं पाल, गण, गणसंघ, जनपद अथवा गणतंत्र. समाज में सामाजिक व्यवस्थाओं को बनाये रखने के लिए मनमर्जी से काम करने वालों अथवा असामाजिक कार्य करने वालों को नियंत्रित किये जाने की आवश्यकता होती है। यदि ऐसा न किया जावे तो स्थापित मान्यताये, विश्वास, परम्पराए और मर्यादाएं ख़त्म हो जावेंगी और जंगल राज स्थापित हो जायेगा. मनु ने समाज पर नियंत्रण के लिए एक व्यवस्था दी। इस व्यवस्था में परिवार के मुखिया को सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में स्वीकार किया गया है। जिसकी सहायता से प्रबुद्ध व्यक्तियों की एक पंचायत होती थी। जाट समाज में यह न्याय व्यवस्था आज भी प्रचालन में है। इसी अधर पर बाद में ग्राम पंचायत का जन्म हुआ।

जब अनेक गाँव इकट्ठे होकर पारस्परिक लें-दें का सम्बन्ध बना लेते हैं तथा एक दूसरे के साथ सुख-दुःख में साथ देने लगते हैं तब इन गांवों को मिलकर एक नया समुदाय जन्म लेता है जिसे जाटू भाषा में गवाहंड कहा जाता है। यदि कोई मसला गाँव-समाज से न सुलझे तब स्थानीय चौधरी अथवा प्रबुद्ध व्यक्ति गवाहंड को इकठ्ठा कर उनके सामने उस मसले को रखा जाता है। प्रचलित भाषा में इसे गवाहंड पंचायत कहा जाता है। गवाहंड पंचायत में सभी सम्बंधित लोगों से पूछ ताछ कर गहन विचार विमर्श के पश्चात समस्या का हल सुनाया जाता है जिसे सर्वसम्मति से मान लिया जाता है।

जब कोई समस्या जन्म लेती है तो सर्व प्रथम सम्बंधित परिवार ही सुलझाने का प्रयास करता है। यदि परिवार के मुखिया का फैसला नहीं माना जाता है तो इस समस्या को समुदाय और ग्राम समाज की पंचायत में लाया जाता है। दोषी व्यक्ति द्वारा पंचायत फैसला नहीं माने जाने पर ग्राम पंचायत उसका हुक्का-पानी बंद करने, गाँव समाज निकाला करने, लेन-देन पर रोक आदि का हुक्म करती है। यदि समस्या गोत्र से जुडी हो तो गोत्र पंचायत होती है जिसके माध्यम से दोषी को घेरा जाता है।

सामाजिक न्याय व्यवस्था दोषी को एक नया जीवन देने का प्रयास करती है। लम्बे अनुभव के आधार पर हमारे पूर्वजों ने इस सामाजिक न्याय व्यवस्था को जन्म दिया है जिसके अनेक स्तर हैं। जब गोत्र और गवाहंड की पंचायतें भी किसी समस्या का निदान नहीं कर पाती तो एक बड़े क्षेत्र के लोगों को इकठ्ठा करने का प्रयास किया जाता है जिसमें अनेक गवाहंडी क्षेत्र, अनेक गोत्रीय क्षेत्र और करीब-करीब सभी हिन्दू जातियों के संगठन शामिल होते हैं। इस विस्तृत क्षेत्र को खाप का नाम दिय जाता है। कहीं-कहीं इसे पाल के नाम से भी जाना जाता है। गवाहंडी का क्षेत्र ५-७ की। मी. तक अथवा पड़ौस के कुछ गिने चुने गावों तक ही सीमित होता है। जबकि पाल या खाप का क्षेत्र असीमित होता है। हर खाप के गाँव निश्चित होते हैं, जैसे बालियान गौत्र के 84 गाव, बड़वासनी बारह के १२ गाँव, कराला सत्रह के १७ गाँव, चौहान खाप के ५ गाँव, तोमर खाप के ८४ गाँव, दहिया चालीसा के ४० गाँव, पालम खाप के ३६५ गाँव, मीतरोल खाप के २४ गाँव आदि।

खाप शब्द का विश्लेषण करें तो हम देखते हैं कि खाप दो शब्दों से मिलकर बना है। ये शब्द हैं ‘ख‘ और ‘आप‘. ख का अर्थ है आकाश और आप का अर्थ है जल अर्थात ऐसा संगठन जो आकाश की तरह सर्वोपरि हो और पानी की तरह स्वच्छ, निर्मल और सब के लिए उपलब्ध अर्थात न्यायकारी हो। अब खाप एक ऐसा संगठन माना जाता है जिसमें कुछ गाँव शामिल हों, कई गोत्र के लोग शामिल हों या एक ही गोत्र के लोग शामिल हों. इनका एक ही क्षेत्र में होना जरुरी नहीं है। एक खाप के गाँव दूर-दूर भी हो सकते हैं। बड़ी खापों से निकल कर कई छोटी खापों ने भी जन्म लिया है। खाप के गाँव एक खाप से दूसरी खाप में जाने को स्वतंत्र होते हैं। इसी कारण समय के साथ खाप का स्वरुप बदलता रहा है। आज जाटों की करीब ३५०० खाप अस्तित्व में हैं।

सर्व पाल खाप[संपादित करें]

सर्व पाल खाप में २२ गाँव हैं। यह फरीदाबाद, बल्लभगढ़ से लेकर मथुरा जिले के छाता, कोसी तक फैला एक विशाल संगठन है। इसमें करीब १००० गाँव हैं। इस खाप में कोसी की डींडे पाल, बठैन की गठौना पाल, कामर की बेनीवाल पाल, होडल की सौरोत पाल, सौंख की कुंतल धत्तीर अल्लिका की मुंडेर पाल, जनौली की तेवतिया पाल, पैगांव की रावत पाल आदि सम्मिलित हैं। यह पाल दहेज़ निवारण में सबसे आगे है।

सर्व गोत्रीय जाट खाप[संपादित करें]

सर्व गोत्रीय जाट खाप का मुख्यालय आगरा जनपद के बिचपुरी गाँव में है। इस खाप में जाटों के अनेक गोत्रीय गाँव सामिल हैं।

गंधार गोत्र के बिचपुरी, जउपुरा, लड़ामदा, नौहवार गोत्र के सुनारी, पनवारी, सिरौली, नगला बसुआ, सोलंकी गोत्र के अंगूठी, मिढाकुर, सहाई, सकतपुरा, बडौदा, सहारा, आदि ८ गाँव, ढिल्लों गोत्र के दहतोरा, नरवार गोत्र के पथौली, भिलावती, कठमारी, छोंकर गोत्र के अटूस, मौहमदपुर, लखनपुर, घेन्घार गोत्र के पथौली आदि चाहर गोत्र के अलबतिया, गोधे गोत्र के लोह करेरा आदि,

अनेक गाँव इसी खाप के अर्न्तगत आते हैं। मुख्यतः यह जाटों की खाप है।

सामाजिक न्याय व्यवस्था[संपादित करें]

खाप पंचायत सतयुग से कलयुग तक[संपादित करें]

“खाप पंचायत” ये नाम तो अब लगभग सभी सुन चुके होंगे ! पिछले कुछ दिनों से ये काफी चर्चा में है और इनके चर्चा में होने का कारण है इनके जारी किये गए अनोखे फरमान, जिन्हें लोगो द्वारा तुगलकी फरमान कि संज्ञा दी गई !

खाप पंचायतो का इतिहास बहुत पुराना है और ये महाभारत काल से लेकर रामायण काल और उसके बाद मुग़ल शासन का सफ़र करते हुए अब इस इकिस्वी सदी (कलयुग) के समाज में अपने वजूद के साथ आज भी कायम है !

कहा जाता है कि जब “राजा दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव को ना बुलाकर उनका अपमान किया गया तब पार्वती जी ये अपमान सह ना पाई और उन्होंने यज्ञ के हवन कुंड कि अग्नि में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए थे, जब शिवजी को ये पता लगा तो बहुत क्रोधित हुए और तब उन्होंने वीरभद्र को ये आज्ञा दी कि वो अपनी गन सेना के साथ जा कर राजा दक्ष का यज्ञ नष्ट करके उसका सर काट दे” ! खाप पंचायतो कि ये सबसे पुरानी घटना मानी जाती है !

रामायण काल में भी इन खाप पंचायतो का उल्लेख मिलता है, कहा जाता है कि हनुमान जी कि वानर सेना वास्तव में एक सर्व खाप पंचायत ही थी जिसमे भील, कोल, वानर, रीच, जटायु, रघुवंशी आदि विभिन्न जातियों तथा खापो के लोग सम्मिलित थे लेकिन क्योकि इसमें वानर अधिक थे इसलिए इन्हें वानर सेना कहा गया ! इस सेना के अध्यक्षता महाराजा सुग्रीव ने कि थी और इनके सलाहकार थे वीर जामवंत !

समय के चक्र के साथ काल बदलते गए युग बदलते गए लेकिन ये खाप पंचायते हर युग में देखने को मिलती रही ! सतयुग से लेकर मुग़ल शासन और उसके बाद अंग्रेजो के शासन काल तक इन खाप पंचायतो के वजूद को कोई हिला ना सका ! मुग़ल काल में समाज को एक स्वस्थ वातावरण देने के लिए इन पंचायतो का सहारा लिया जाने लगा क्योकि उस समय हर व्यक्ति से राजा निजी तौर पर मिल कर समस्या हल नहीं कर सकते थे इसलिए ये खाप पंचायते ज़रूरी हो गई ! ये तब एक तरह कि प्रशासन पद्दति के रूप में काम करने लगी और गाँव तथा प्रान्तों के छोटे बड़े फैसले यही पंचायते करने लगी इसके बदले इन्हें राजाओं से ऊँचे ओहदे तथा अन्य भेट मिलने लगी ! इनके द्वारा लिए गए हर फैसले को इनके अधीन आने वाले सभी गाँव तथा प्रान्तों को मानना ज़रूरी था !

लेकिन भारत कि आज़ादी के बाद से इन खाप पंचायतो कि ताकतों को देश के राजनीतिज्ञों ने भली भांति भाप लिया ! और तब ये राजनीतिज्ञ इस बात को अच्छी तरह से समझ चुके थे कि पंचो द्वारा लिया गया कोई भी फैसला गाँव के हर व्यक्ति के लिए किसी पत्थर की लकीर के समान ही था और उस लकीर को मिटाने की हिम्मत किसी में भी ना थी और यही वजह रही की राजनीतिज्ञों द्वारा इन खाप पंचायतो का इस्तेमाल अपने वोट बैंक को बढाने के लिए किया जाने लगा और यही से ये खाप पंचायते सियासी रूप लेने लगी जिनका लाभ राजनेताओ ने जम कर उठाया !

सामाजिक न्याय व्यवस्था[संपादित करें]

दोषी को एक नया जीवन देने का प्रयास करती है। लम्बे अनुभव के आधार पर हमारे पूर्वजों ने इस सामाजिक न्याय व्यवस्था को जन्म दिया है जिसके अनेक स्तर हैं। जब गोत्र और गवाहंड की पंचायतें भी किसी समस्या का निदान नहीं कर पाती तो एक बड़े क्षेत्र के लोगों को इकठ्ठा करने का प्रयास किया जाता है जिसमें अनेक गवाहंडी क्षेत्र, अनेक गोत्रीय क्षेत्र और करीब-करीब सभी हिन्दू जातियों के संगठन शामिल होते हैं। इस विस्तृत क्षेत्र को खाप का नाम दिय जाता है। कहीं-कहीं इसे पाल के नाम से भी जाना जाता है। गवाहंडी का क्षेत्र ५-७ कि .मी. तक अथवा पड़ौस के कुछ गिने चुने गावों तक ही सीमित होता है। जबकि पाल या खाप का क्षेत्र असीमित होता है। हर खाप के गाँव निश्चित होते हैं, जैसे बड़वासनी बारह के १२ गाँव, कराला सत्रह के १७ गाँव, चौहान खाप के ५ गाँव, तोमर खाप के ८४ गाँव, दहिया चालीसा के ४० गाँव, पालम खाप के ३६५ गाँव, मीतरोल खाप के २४ गाँव आदि।[1]

अंग्रेजी राज और सर्वखाप पंचायतें[संपादित करें]

२३ अप्रैल १८५७ को मेरठ छावनी में सैनिक विद्रोह हुआ और १० मई १८५७ को सर्वखाप पंचायत के वीरों ने अंग्रेजों को गोली से उड़ा दिया। ११ मई १८५७ को चौरासी खाप तोमर के चौधरी शाहमल गाँव बिजरोल (बागपत) के नेतृत्व में पंचायती सेना के ५००० मल्ल योद्धाओं ने दिल्ली पर आक्रमण किया। शामली के मोहर सिंह ने आस-पास के क्षेत्रों पर काबिज अंग्रेजों को ख़त्म कर दिया। सर्वखाप पंचायत ने चौधरी शाहमल और मोहर सिंह की सहायता के लिए जनता से अपील की। इस जन समर्थन से मोहर सिंह ने शामली, थाना भवन, पड़ासौली को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया गया। बनत के जंगलों में पंचायती सेना और हथियार बंद अंग्रेजी सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ जिसमें मोहर सिंह वीर गति को प्राप्त हुए परन्तु अंग्रेज एक भी नहीं बचा। चौहानों, पंवारों और तोमरों ने रमाला छावनी का नामोनिशान मिटा दिया। सर्वखाप पंचायत के मल्ल योद्धाओं ने अंततः दिल्ली से अंग्रेजी राज ख़त्म कर बहादुर शाह को दिल्ली की गद्दी पर बैठा दिया। ३० और ३१ मई १८५७ को मारे गए कुछ अंग्रेज सिपाहियों और अधिकारीयों की कब्रें गाजियाबाद जिले में मेरठ मार्ग पर हिंडोन नदी के तट पर देखी जा सकती हैं।

जुलाई १८५७ में क्रांतिकारी नेता शाहमल को पकड़ने के लिए अंग्रेजी सेना संकल्पबद्ध हुई पर लगभग 7 हजार सैनिकों सशस्त्र किसानों व जमींदारों ने डटकर मुकाबला किया। शाहमल के भतीजे भगत के हमले से बाल-बाल बचकर सेना का नेतृत्व कर रहा अंगेज अफसर डनलप भाग खड़ा हुआ और भगत ने उसे बड़ौत तक खदेड़ा। इस समय शाहमल के साथ 2000 शक्तिशाली किसान मौजूद थे। गुरिल्ला युद्ध प्रणाली में विशेष महारत हासिल करने वाले शाहमल और उनके अनुयायियों का बड़ौत के दक्षिण के एक बाग में खाकी रिसाला से आमने सामने घमासान युद्ध हुआ।

डनलप शाहमल के भतीजे भगता के हाथों से बाल-बाल बचकर भागा. परन्तु शाहमल जो अपने घोडे पर एक अंग रक्षक के साथ लड़ रहा था, फिरंगियों के बीच घिर गया। उसने अपनी तलवार के वो करतब दिखाए कि फिरंगी दंग रह गए। तलवार के गिर जाने पर शाहमल अपने भाले से दुश्मनों पर वार करता रहा। इस दौर में उसकी पगड़ी खुल गई और घोडे के पैरों में फंस गई। जिसका फायदा उठाकर एक फिरंगी सवार ने उसे घोड़े से गिरा दिया। अंग्रेज अफसर पारकर, जो शाहमल को पहचानता था, ने शाहमल के शरीर के टुकडे-टुकडे करवा दिए और उसका सर काट कर एक भाले के ऊपर टंगवा दिया।

बाद में अंग्रेज पुनः सत्ता पर काबिज हुए तथा उन्होंने भारी दमन चक्र चलाया। सर्वखाप पंचायत फिर से निष्क्रिय हो गई। मुस्लिम काल में सर्वखाप पंचायत ने अनेक-उतर चढाव देखे परन्तु अंग्रेज बड़े चालक थे उन्होंने सर्वखाप पंचायत की जड़ों पर प्रहार किया। विशाल हरियाणा को उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश आदि प्रान्तों में विभाजित कर दिया। अंग्रेज सरकार में लार्ड मैकाले ने सर्वखाप पंचायत पर रोक लगादी थी। फलस्वरूप १९४७ तक खुले रूप में पंचायत का आयोजन नहीं हो सका।

सन १९२४ में बैसाखी अमावस्या को मुजफफरनगर के सोरम गाँव में सर्वखाप की पंचायत हुई थी जिसमें मुजफ्फरनगर के सोरम के चौधरी कबूल सिंह को सर्वखाप पंचायत का सर्वसम्मति से महामंत्री नियुक्त किया था। वे इस संगठन के २८ वें महामंत्री बताये जाते हैं। इनके पास सम्राट हर्षवर्धन से लेकर स्वाधीन भारत तक का सर्वखाप पंचायत का सम्पूर्ण रिकार्ड उपलब्ध है जिसकी सुरक्षा करना पंचायती पहरेदारों की जिम्मेदारी है। इस रिकार्ड को बचाए रखने के लिए पंचायती सेना ने बड़ा खून बहाया है।

आजाद भारत में सर्वखाप पंचायतें[संपादित करें]

आजाद भारत में ८, ९ मार्च १९५० में गाँव सोरम में सर्वखाप पंचायत का आयोजन पंडित जगदेव सिंह सिद्धान्ती मुख्याधिष्टाता गुरुकुल महा विद्यालय किरठल की प्रधानता में हुआ था। इसमें ६०००० पंचों ने भाग लिया था। तत्पश्चात पूर्व न्यायाधीश श्री महावीर सिंह को हरियाणा सर्वखाप का प्रधान बनाया गया।

१२ जून १९८३ और ५ मार्च १९८८ को स्वामी कर्मपाल जी की अध्यक्षता में दो बार हरियाणा सर्वखाप की पंचायतें हुईं जिनमें जाट जाति के उत्थान पर विचार कर समाज को दिशा निर्देश जरी किये गए।

आजादी के बाद पंचायती राज्य व्यवस्था लागू हो गई इससे सर्वखाप व्यवस्था का महत्त्व घट गया। अब वोट की राजनीति होने से जातियों ने अलग-अलग पंचायतें बनाली हैं। जातीय पंचायतों, गोत्रीय पंचायतों, पालों और खापों का महत्त्व बढ़ गया है। आजकल लोग न्यायालाओं में प्रकरणों का निराकरण चाहते हैं इसमें समय और धन दोनों की ही बर्बादी होती है और अनिश्चित लम्बे समय तक विवादों का निराकरण भी नहीं हो पाता है।

आज अखिल भारतीय जाट महासभा जाटों की सर्वोच्च संस्था है। इसके अधीन प्रदेशों में प्रादेशिक जाट महा सभाएं काम कर रही हैं।

खाप शब्द का विश्लेषण[संपादित करें]

खाप शब्द का विश्लेषण करें तो हम देखते हैं कि खाप दो शब्दों से मिलकर बना है। ये शब्द हैं 'ख' और 'आप'. ख का अर्थ है आकाश और आप का अर्थ है जल अर्थात ऐसा संगठन जो आकाश की तरह सर्वोपरि हो और पानी की तरह स्वच्छ, निर्मल और सब के लिए उपलब्ध अर्थात न्यायकारी हो। अब खाप एक ऐसा संगठन माना जाता है जिसमें कुछ गाँव शामिल हों, कई गोत्र के लोग शामिल हों या एक ही गोत्र के लोग शामिल हों। इनका एक ही क्षेत्र में होना जरुरी नहीं है। एक खाप के गाँव दूर-दूर भी हो सकते हैं। बड़ी खापों से निकल कर कई छोटी खापों ने भी जन्म लिया है। खाप के गाँव एक खाप से दूसरी खाप में जाने को स्वतंत्र होते हैं। इसी कारण समय के साथ खाप का स्वरुप बदलता रहा है। आज जाटों की करीब ३५०० खाप अस्तित्व में हैं।[2]

खाप पंचायत[संपादित करें]

पिछले कुछ समय से ‘खाप’ पंचायतें चर्चा में हैं। चर्चा में तो वे पहले भी रही हैं, प्रेमी-युगलों को मौत का फरमान जारी करने के कारण, पर इस बार चर्चा का मुद्दा ज़रा गम्भीर है। इस बार उन्होंने जिस प्रकार से सगोत्र विवाह के खिलाफ अपना तालिबानी झण्डा बुलंद किया है और जिस प्रकार चौटाला से लेकर गडकरी तक अपनी छुद्र राजनीति के कारण उनके सुर में सुर मिला रहे हैं, उससे मामला ज्यादा गम्भीर हो गया है।

कितना दम है समगोत्री विवाह विरोधी तर्क में?[संपादित करें]

खाप पंचायतों का कहना है कि किसी गोत्र में जन्मे सभी व्यक्ति एक ही आदि पुरूष की संतानें हैं, इसलिए हिन्दू धर्म में समगोत्री विवाह को वर्जित माना गया है।

क्या है विरोध का वैज्ञानिक कारण?[संपादित करें]

पहले तो खाप पंचायतों ने अपनी माँग के समर्थन में प्राचीन परम्परा की दुहाई देती रही हैं, लेकिन जबसे उनका वादा कमजोर पड़ गया है, अब वे इस सम्बंध में वैज्ञानिक कारणों को गिनाने लगी हैं। उनका कहना है कि एक गोत्र में विवाह करने से कई तरह की आनुवाँशिक बीमारियों की सम्भावना रहती है।

आनुवाँशिक विज्ञान के अनुसार इनब्रीडिंग या एक समूह में शादी करने से हानिकारक जीनों के विकसित होने की सम्भावनाएँ ज्यादा होती है, जिससे आने वाली संतानों में कई प्रकार के रोग पनप सकते हैं। लेकिन अगर इस मत को और व्यापक रूप दिया जाए, तो एक जाति अथवा उपजाति में भी विवाह करने से ऐसी सम्भावनाएँ बनी रहती हैं। इसका कारण यह है कि जिस प्रकार हिन्दू समाज में एक गोत्र के लोग एक पिता के वंशज बताए गये हैं, ठीक उसी प्रकार एक जाति अथवा उपजाति के लोग भी एक आदिपुरूष की संतान माने गये हैं। इस हिसाब से देखा जाए तो अंतर्जातीय विवाह और अंतर्धार्मिक विवाह ज्यादा उचित हैं। लेकिन खाप पंचायतें अतर्जातीय विवाह और अंतर्धार्मिक विवाह की भी घोर विरोधी हैं।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि खाप पंचायतों की इस दलील में ज़रा भी दम नहीं है कि समगोत्री विवाह पर रोक लगाई जाए। उनकी यह माँग पुरातनपंथी मानसिकता की परिचायक है, जो नारीवादी उत्थान और अपने असीमित अधीकारों को मिलने वाली चुनौतियों से परेशान है। इसीलिए वह इस तरह की मध्युगीन मानसिकता का परिचय दे रही है। जाहिर सी बात है कि इस तरह की मानसिकता को जायज ठहराना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता।

Abhimanyu Singh Tomar यह खाप पंचायत की खिलाफत करने वाले वह दो अगले जाट है जिन्हें यह नहीं पता की सच क्या है | यह नसल की लड़ाई है। खाप System prevailing in Jats only and this is the reason why our “नसल” is best in the world. अंग्रेजो ने जाट रेजिमेंट क्यों बनाई थी क्यों नहीं उन्होने चमार और चूड़ा रेजिमेंट बनाई क्या वजे है जब कारगिल में हर रेजिमेंट फ़ैल हो गयी थी तो फिर जाट रेजिमेंट को बुलाया गया था। और जाटों ने कारगिल पर देश का झंडा फैलाया था। आज यही पूरा देश और मीडिया हमारी जाति के खिलाफ दुश्पर्चार कर रहे है क्यों? यह गोत्र सिस्टम हमारी परंपरा है और इसका एक scientific reason है। हमारी जाट नसल आज भी दुनिया की best Nasal.

खाप पंचायत पहली बार महाराजा हर्षवर्धन के कल में 643 ईस्वी में अस्तित्व में आई। प्राचीन काल में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर जिले का व्यक्ति ही इस पंचायत का महामंत्री हुआ करता था। गुलामी के समय में भी सबसे बडी खाप पंचायत मुजफ्फरनगर की ही हुआ करती थी। सर्वखाप का उदय पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा की खाप पंचायतों से मिलकर हुआ है। खाप पंचायतों ने देश में कई बडी पंचायतें की हैं और समाज तथा देश के हित में महत्वपूर्ण निर्णय लिए हैं। इन पंचायतों ने दहेज लेने और देने वालों को बिरादरी से बाहर करने और छोटी बारात लाने जैसे फरमान जारी किए तथा जेवर और पर्दा प्रथा को खत्म किए जाने जैसे सामाजिक हित के निर्णय भी लिए। युद्ध के समय में भी खाप पंचायतों ने देशभक्ति की मिसाल कायम की है और प्राचीन काल में युद्ध के दौरान राजाओं और बादशाहों की मदद की है। वैसे देखा जाए तो देश में परिवार की इजत के नाम पर कत्ल की पुरानी परम्परा रही है। हरियाणा. पंजाब. राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश इनमें सबसे आगे हैं। आनर किलिंग के यादातर मामलों में लडके. लडकी का एक ही गोत्र.सगोत्र. में विवाह करना एक कारण रहा। अंतरजातीय प्रेम विवाह इस अपराध की दूसरी वजह रही। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो एक गोत्र में विवाह से विकृत संतान के जन्म लेने की आशंका रहती है लेकिन इससे पंचायतों को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह अपने फरमान से प्रेमी युगल को इतना विवश कर दें कि वह आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाए या समाज उन्हें इजत के नाम पर मौत के घाट उतार दे। संवेदनशील सामाजिक मुद्दा होने के कारण सरकार इन मामलों में हस्तक्षेप करने से कतराती रही है। लेकिन अब खाप पंचायतें भी इस सन्दर्भ में कानून की जरूरत महसूस कर रही हैं। इसीलिए वे राजनीतिक दलों पर दबाव बनाकर सरकार से गुजारिश कर रही हैं कि वह इस सन्दर्भ में कानून में बदलाव लाए। हालांकि कानून के साथ जरूरत इस बात की भी है कि समाज अपनी मानसिकता में बदलाव लाए और आनर किलिंग के लिए जिम्मेदार कारणों में एक भ्रूण हत्या जैसे अपराधों पर रोक लगायी जाए. जिनकी वजह से इन क्षेत्रों में लिंग अनुपात कम होता जा रहा है।

सर्व पाल खाप[संपादित करें]

सर्व पाल खाप में २२ गाँव हैं। यह फरीदाबाद, बल्लभगढ़ से लेकर मथुरा जिले के छाता, कोसी तक फैला एक विशाल संगठन है। इसमें करीब १००० गाँव हैं। इस खाप में कोसी की डींडे पाल, बठैन की गठौना पाल, कामर की बेनीवाल पाल, होडल की सौरोत पाल, धत्तीर अल्लिका की मुंडेर पाल, जनौली की तेवतिया पाल, पैगांव की रावत पाल आदि सम्मिलित हैं। यह पाल दहेज़ निवारण में सबसे आगे है।[3]

खाप पंचायत – जाट जाति की सर्वोच्च पंचायत व्यवस्था[संपादित करें]

खाप या सर्वखाप एक सामाजिक प्रशासन की पद्धति है जो भारत के उत्तर पश्चिमी प्रदेशों यथा राजस्थान, हरियाणा, पंजाब एवं उत्तर प्रदेश में अति प्राचीन काल से प्रचलित है। इसके अनुरूप अन्य प्रचलित संस्थाएं हैं पाल, गण, गणसंघ, सभा, समिति, जनपद अथवा गणतंत्र।

समाज में सामाजिक व्यवस्थाओं को बनाये रखने के लिए मनमर्जी से काम करने वालों अथवा असामाजिक कार्य करने वालों को नियंत्रित किये जाने की आवश्यकता होती है, यदि ऐसा न किया जावे तो स्थापित मान्यताये, विश्वास, परम्पराए और मर्यादाएं ख़त्म हो जावेंगी और जंगल राज स्थापित हो जायेगा। मनु ने समाज पर नियंत्रण के लिए एक व्यवस्था दी। इस व्यवस्था में परिवार के मुखिया को सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में स्वीकार किया गया है। जिसकी सहायता से प्रबुद्ध व्यक्तियों की एक पंचायत होती थी। जाट समाज में यह न्याय व्यवस्था आज भी प्रचलन में है। इसी अधार पर बाद में ग्राम पंचायत का जन्म हुआ।

जब अनेक गाँव इकट्ठे होकर पारस्परिक लेन-देन का सम्बन्ध बना लेते हैं तथा एक दूसरे के साथ सुख-दुःख में साथ देने लगते हैं तब इन गांवों को मिलकर एक नया समुदाय जन्म लेता है जिसे जाटू भाषा में गवाहंड कहा जाता है। यदि कोई मसला गाँव-समाज से न सुलझे तब स्थानीय चौधरी अथवा प्रबुद्ध व्यक्ति गवाहंड को इकठ्ठा कर उनके सामने उस मसले को रखा जाता है। प्रचलित भाषा में इसे गवाहंड पंचायत कहा जाता है। गवाहंड पंचायत में सभी सम्बंधित लोगों से पूछ ताछ कर गहन विचार विमर्श के पश्चात समस्या का हल सुनाया जाता है जिसे सर्वसम्मति से मान लिया जाता है।

जब कोई समस्या जन्म लेती है तो सर्व प्रथम सम्बंधित परिवार ही सुलझाने का प्रयास करता है। यदि परिवार के मुखिया का फैसला नहीं माना जाता है तो इस समस्या को समुदाय और ग्राम समाज की पंचायत में लाया जाता है। दोषी व्यक्ति द्वारा पंचायत फैसला नहीं माने जाने पर ग्राम पंचायत उसका हुक्का-पानी बंद करने, गाँव समाज निकला करने, लेन-देन पर रोक आदि का हुक्म करती है। यदि समस्या गोत्र से जुडी हो तो गोत्र पंचायत होती है जिसके माध्यम से दोषी को घेरा जाता है।

सामाजिक न्याय व्यवस्था[संपादित करें]

सामाजिक न्याय व्यवस्था दोषी को एक नया जीवन देने का प्रयास करती है। लम्बे अनुभव के आधार पर हमारे पूर्वजों ने इस सामाजिक न्याय व्यवस्था को जन्म दिया है जिसके अनेक स्तर हैं। जब गोत्र और गवाहंड की पंचायतें भी किसी समस्या का निदान नहीं कर पाती तो एक बड़े क्षेत्र के लोगों को इकठ्ठा करने का प्रयास किया जाता है जिसमें अनेक गवाहंडी क्षेत्र, अनेक गोत्रीय क्षेत्र और करीब-करीब सभी हिन्दू जातियों के संगठन शामिल होते हैं। इस विस्तृत क्षेत्र को खाप का नाम दिय जाता है। कहीं-कहीं इसे पाल के नाम से भी जाना जाता है। गवाहंडी का क्षेत्र ५-७ की। मी. तक अथवा पड़ौस के कुछ गिने चुने गावों तक ही सीमित होता है। जबकि पाल या खाप का क्षेत्र असीमित होता है। हर खाप के गाँव निश्चित होते हैं, जैसे बड़वासनी बारह के १२ गाँव, कराला सत्रह के १७ गाँव, चौहान खाप के ५ गाँव, तोमर खाप के ८४ गाँव, दहिया चालीसा के ४० गाँव, पालम खाप के ३६५ गाँव, मीतरोल खाप के २४ गाँव आदि।

खाप शब्द का विश्लेषण[संपादित करें]

खाप शब्द का विश्लेषण करें तो हम देखते हैं कि खाप दो शब्दों से मिलकर बना है। ये शब्द हैं ‘ख’ और ‘आप’. ख का अर्थ है आकाश और आप का अर्थ है जल अर्थात ऐसा संगठन जो आकाश की तरह सर्वोपरि हो और पानी की तरह स्वच्छ, निर्मल और सब के लिए उपलब्ध अर्थात न्यायकारी हो। अब खाप एक ऐसा संगठन माना जाता है जिसमें कुछ गाँव शामिल हों, कई गोत्र के लोग शामिल हों या एक ही गोत्र के लोग शामिल हों। इनका एक ही क्षेत्र में होना जरुरी नहीं है। एक खाप के गाँव दूर-दूर भी हो सकते हैं। बड़ी खापों से निकल कर कई छोटी खापों ने भी जन्म लिया है। खाप के गाँव एक खाप से दूसरी खाप में जाने को स्वतंत्र होते हैं। इसी कारण समय के साथ खाप का स्वरुप बदलता रहा है। आज जाटों की करीब ३५०० खाप अस्तित्व में हैं।

सर्व पाल खाप[संपादित करें]

सर्व पाल खाप में २२ गाँव हैं। यह फरीदाबाद, बल्लभगढ़ से लेकर मथुरा जिले के छाता, कोसी तक फैला एक विशाल संगठन है। इसमें करीब १००० गाँव हैं। इस खाप में कोसी की डींडे पाल, बठैन की गठौना पाल, कामर की बेनीवाल पाल, होडल की सौरोत पाल, धत्तीर अल्लिका की मुंडेर पाल, जनौली की तेवतिया पाल, पैगांव की रावत पाल आदि सम्मिलित हैं। यह पाल दहेज़ निवारण में सबसे आगे है।

सर्वखाप[संपादित करें]

सर्वखाप में वे सभी खाप आती हैं जो अस्तित्व में हैं। समाज, देश और जाति पर महान संकट आने पर विभिन्न खापों के बुद्धिजीवी लोग सर्वखाप पंचायत का आव्हान करते हैं। निःसन्देश पाल और खाप में अंतर करना काफी कठिन है। साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि पाल छोटा संगठन है जबकि खाप में कई छोटी पालें सम्मिलित हो सकती हैं। खाप और पाल पर्याय वाची माने जाएँ तो अधिक तर्कसंगत होगा। एक ही गोत्र का संगठन पाल हो सकता है जबकि खाप में कई गोत्रीय संगठन और कई जातियां शामिल होती हैं। ऐसा भी देखने में आया है कि कुछ गोत्र और गाँव कई खाप में शामिल होते हैं। जाट संगठन पूर्णतः स्वतंत्र अस्तित्व वाले होते हैं तथा लोगों की इच्छानुरूप इनका आकर घटता-बढ़ता है। चूँकि ये संगठन न्याय प्राप्त करने और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए लोगों को एकजुट करते हैं अतः जहाँ जिस गोत्र, गाँव, पाल को अधिक विश्वास होता है वे वहीँ सम्मिलित हो सकते हैं। सदस्यता ग्रहण करने पर कोई रोक-टोक नहीं है।

उक्त खापों, पालों के अतिरिक्त जाटों के अनेक संगठन और भी हैं जो कम प्रचारित हैं। राजस्थान में डागर, गोदारा, सारण, खुटैल और पूनिया जाटों के छोटे-बड़े कई संगठन हैं। नागौर तो जाटों का रोम कहलाता है। मध्य प्रदेश में ग्वालियर से लेकर मंदसौर और रतलाम तक जाटों के अनेक संगठन विभिन्न नामों से अस्तित्व में हैं। कहीं कहीं संगठनों के खाप और पाल जैसे नाम न होकर गावों के मिले-जुले संगठन बने हुए हैं जैसे बड़वासनी बारहा, जिसमें लाकड़ा, छिकारा आदि १२ जाट गोत्रीय गाँव शामिल हैं। सोनीपत जिले में बड़वासनी, जाहरी, चिताना आदि इस बारहा के प्रमुख गाँव हैं। कराला सतरहा भी लाकड़ा सेहरावतों का संगठन है। इसमें मुंडका, बक्करवारा प्रमुख हैं। दिल्ली के पूर्व मुख्य मंत्री साहिब सिंह वर्मा मुंडका के मूल निवासी थे। इसी प्रकार मीतरोल पाल में भी अनेक गाँव हैं जिनमें मीतरोल औरंगाबाद और छज्जुनगर इसके प्रमुख गाँव हैं। जिनमें लाकड़ा गोत्रीय चौहान वंशी जाट रहते हैं। जाटों के प्रसिद्द उद्योगपति चेती लाल वर्मा इसी पाल के गाँव छज्जुनगर की देन हैं। उड़ीसा के गोल कुंडा एरिया में बसे जाटों के अपने संगठन हैं। जहाँ जाटों की पाल या खाप नहीं हैं वहां जाट सभाएँ खड़ी कर रखी हैं।

सर्वखाप पंचायत[संपादित करें]

सर्वखाप पंचायत जाट जाति की सर्वोच्च पंचायत व्यवस्था है। इसमें सभी ज्ञात पाल, खाप भाग लेती हैं। जब जाति, समाज, राष्ट्र अथवा जातिगत संस्कारों, परम्पराओं का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है अथवा किसी समस्या का समाधान किसी अन्य संगठन द्वारा नहीं होता तब सर्वखाप पंचायत का आयोजन किया जाता है जिसके फैसलों का मानना और दिशा निर्देशानुसार कार्य करना जरुरी होता है। सर्वखाप व्यवस्था उतनी ही पुराणी है जितने की स्वयं जाट जाति। समय-समय पर इसका आकर, कार्यशैली और आयोजन परिस्थितियां तो अवश्य बदलती रही हैं परन्तु इस व्यवस्था को आतताई मुस्लिम, अंग्रेज और लोकतान्त्रिक प्रणाली भी समाप्त नहीं कर सकी।

‘प्राचीन काल के गणराज्यों की संचालन व्यवस्था सर्वखाप पद्धति पर आधारित थी। शिवाजी के आव्हान पर की पंचायती सेना ने राजा दक्ष का सर काट डाला था। महाराजा शिव की राजधानी कनखल (हरिद्वार) में थी। एक बार दक्ष ने यज्ञ किया था जिसमें शिव को छोड़कर सभी राजाओं को बुलाया था। पार्वती बिना बुलाये ही वहां पहुंची. वहां पर शिव का अपमान किया गया। यह अपमान पार्वती से सहन नहीं हुआ और वह हवनकुंड में कूद कर सती हो गई। शिव को जब पता लगा तो बहुत क्रोधित हुए। शिव ने वीरभद्र को बुलाया और कहा कि मेरी गण सेना का नेतृत्व करो और दक्ष का यज्ञ नष्ट कर दो। वीरभद्र शिव के गणों के साथ गए और यज्ञ को नष्ट कर दक्ष का सर काट डाला। सर्व खाप पंचायत और उसके गणों की यह सबसे पुरानी घटना है।

रामायण काल में इतिहासकार जिसे वानर सेना कहते हैं वह सर्वखाप की पंचायत सेना ही थी जिसका नेतृत्व वीर हनुमान ने किया था और जिसका प्रमुख सलाहकार जामवंत नामक वीर था। राम और लक्ष्मन की व्यथा सुनकर हनुमान और सुग्रीव ने सर्व खाप पंचायत बुलाई थी जिसमें लंका पर चढाई करने का फैसला किया गया। उस सर्व खाप में तत्कालीन भील, कोल, किरात, वानर, रीछ, बल, रघुवंशी, सेन, जटायु आदि विभिन्न जातियों और खापों ने भाग लिया था। वानरों की बहुतायत के कारण यह वानर सेना कहलाई। इस पंचायत की अध्यक्षता महाराजा सुग्रीव ने की थी।

महाभारत काल में सर्वखाप पंचायत ने धर्म का साथ दिया था। महाभारत काल में तत्कालीन पंचायतो या गणों के प्रमुख के पद पर महाराज श्रीकृष्ण थे। श्रीकृष्ण ने कई बार पंचायतें की। युद्ध रोकने के लिए सर्व खाप पंचायत की और से संजय को कौरवों के पास भेजा, स्वयं भी पंचायत फैसले के अनुसार केवल ५ गाँव देने हेतु मनाने के लिए हस्तिनापुर कौरवों के पास गए। शकुनी, कर्ण और दुर्योधन ने पंचायत के फैसले को ताक पर रख कर ऐलान किया कि सुई की नोंक के बराबर भी जगह नहीं दी जायेगी। इसी का अंत हुआ महाभारत युद्ध के रूप में. महाभारत के भयंकर परिणाम निकले। सामाजिक सरंचना छिन्न-भिन्न हो गई। राज्य करने के लिए क्षत्रिय नहीं बचे। महाभारत काल में भारत में अराजकता का व्यापक प्रभाव था। यह चर्म सीमा को लाँघ चुका था। उत्तरी भारत में साम्राज्यवादी शासकों ने प्रजा को असह्य विपदा में डाल रखा था। इस स्थिति को देखकर कृष्ण ने अग्रज बलराम की सहायता से कंस को समाप्त कट उग्रसेन को मथुरा का शासक नियुक्त किया। कृष्ण ने साम्राज्यवादी शासकों से संघर्ष करने हेतु एक संघ का निर्माण किया। उस समय यादवों के अनेक कुल थे किंतु सर्व प्रथम उन्होंने अन्धक, भोज और वृष्नी कुलों का ही संघ बनाया। संघ के सदस्य आपस में सम्बन्धी होते थे इसी कारण उस संघ का नाम ‘ज्ञाति-संघ’ रखा गया। यह संघ व्यक्ति प्रधान नहीं था। इसमें शामिल होते ही किसी राजकुल का पूर्व नाम आदि सब समाप्त हो जाते थे। वह केवल ज्ञाति के नाम से ही जाना जाता था। प्राचीन ग्रंथो के अध्ययन से यह बात साफ हो जाती है कि परिस्थिति और भाषा के बदलते रूप के कारण ‘ज्ञात’ शब्द ने ‘जाट’ शब्द का रूप धारण कर लिया।

ठाकुर देशराज लिखते हैं कि महाभारत काल में गण का प्रयोग संघ के रूप में किया गया है। बुद्ध के समय भारतवर्ष में ११६ प्रजातंत्र थे। गणों के सम्बन्ध में महाभारत के शांति पर्व के अध्याय १०८ में विस्तार से दिया गया है। इसमें युधिष्ठिर पूछते हैं भीष्म से कि गणों के सम्बन्ध में आप मुझे यह बताने की कृपा करें कि वे किस तरह वर्धित होते हैं, किस प्रकार शत्रु की भेद-नीति से बचते हैं, शत्रुओं पर किस तरह विजय प्राप्त करते हैं, किस तरह मित्र बनाते हैं, किस तरह गुप्त मंत्रों को छुपाते हैं। इससे यह स्पस्ट होता है कि महाभारत काल के गण और संघ वस्तुतः वर्त्तमान खाप और सर्वखाप के ही रूप थे।

सर्वखाप[संपादित करें]

सर्वखाप में वे सभी खाप आती हैं जो अस्तित्व में हैं। समाज, देश और जाति पर महान संकट आने पर विभिन्न खापों के बुद्धिजीवी लोग सर्वखाप पंचायत का आव्हान करते हैं। निःसन्देश पाल और खाप में अंतर करना काफी कठिन है। साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि पाल छोटा संगठन है जबकि खाप में कई छोटी पालें सम्मिलित हो सकती हैं। खाप और पाल पर्याय वाची माने जाएँ तो अधिक तर्कसंगत होगा। एक ही गोत्र का संगठन पाल हो सकता है जबकि खाप में कई गोत्रीय संगठन और कई जातियां शामिल होती हैं। ऐसा भी देखने में आया है कि कुछ गोत्र और गाँव कई खाप में शामिल होते हैं। जाट संगठन पूर्णतः स्वतंत्र अस्तित्व वाले होते हैं तथा लोगों की इच्छानुरूप इनका आकर घटता-बढ़ता है। चूँकि ये संगठन न्याय प्राप्त करने और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए लोगों को एकजुट करते हैं अतः जहाँ जिस गोत्र, गाँव, पाल को अधिक विश्वास होता है वे वहीँ सम्मिलित हो सकते हैं। सदस्यता ग्रहण करने पर कोई रोक-टोक नहीं है।[4]

उक्त खापों, पालों के अतिरिक्त जाटों के अनेक संगठन और भी हैं जो कम प्रचारित हैं। राजस्थान में डागर, गोदारा, सारण, खुटैल और पूनिया जाटों के छोटे-बड़े कई संगठन हैं। नागौर तो जाटों का रोम कहलाता है। मध्य प्रदेश में ग्वालियर से लेकर मंदसौर और रतलाम तक जाटों के अनेक संगठन विभिन्न नामों से अस्तित्व में हैं। कहीं कहीं संगठनों के खाप और पाल जैसे नाम न होकर गावों के मिले-जुले संगठन बने हुए हैं जैसे बड़वासनी बारहा, जिसमें लाकड़ा, छिकारा आदि १२ जाट गोत्रीय गाँव शामिल हैं। सोनीपत जिले में बड़वासनी, जाहरी, चिताना आदि इस बारहा के प्रमुख गाँव हैं। कराला सतरहा भी लाकड़ा सेहरावतों का संगठन है। इसमें मुंडका, बक्करवारा प्रमुख हैं। दिल्ली के पूर्व मुख्य मंत्री साहिब सिंह वर्मा मुंडका के मूल निवासी थे। इसी प्रकार मीतरोल पाल में भी अनेक गाँव हैं जिनमें मीतरोल, औरंगाबाद और छज्जुनगर इसके प्रमुख गाँव हैं।[4] जिनमें लाकड़ा गोत्रीय चौहान वंशी जाट रहते हैं। जाटों के प्रसिद्द उद्योगपति चेती लाल वर्मा इसी पाल के गाँव छज्जुनगर की देन हैं। उड़ीसा के गोल कुंडा एरिया में बसे जाटों के अपने संगठन हैं। जहाँ जाटों की पाल या खाप नहीं हैं वहां जाट सभाएँ खड़ी कर रखी हैं।[5]

सर्वखाप पंचायत[संपादित करें]

सर्वखाप पंचायत[6] जाट जाति की सर्वोच्च पंचायत व्यवस्था है। इसमें सभी ज्ञात पाल, खाप भाग लेती हैं। जब जाति, समाज, राष्ट्र अथवा जातिगत संस्कारों, परम्पराओं का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है अथवा किसी समस्या का समाधान किसी अन्य संगठन द्वारा नहीं होता तब सर्वखाप पंचायत का आयोजन किया जाता है जिसके फैसलों का मानना और दिशा निर्देशानुसार कार्य करना जरुरी होता है। सर्वखाप व्यवस्था उतनी ही पुराणी है जितने की स्वयं जाट जाति। समय-समय पर इसका आकार, कार्यशैली और आयोजन परिस्थितियां तो अवश्य बदलती रही हैं परन्तु इस व्यवस्था को आतताई मुस्लिम, अंग्रेज और लोकतान्त्रिक प्रणाली भी समाप्त नहीं कर सकी।

'प्राचीन काल के गणराज्यों की संचालन व्यवस्था सर्वखाप पद्धति पर आधारित थी। शिव के आव्हान पर ही पंचायती सेना ने राजा दक्ष का सर काट डाला था। महाराजा शिव की राजधानी कनखल (हरिद्वार) में थी। एक बार दक्ष ने यज्ञ किया था जिसमें शिव को छोड़कर सभी राजाओं को बुलाया था। सती बिना बुलाये ही वहां पहुंची. वहां पर शिव का अपमान किया गया। यह अपमान सती से सहन नहीं हुआ और स्वयं को योगाग्नि में भस्म कर दिया था।. शिव को जब पता लगा तो बहुत क्रोधित हुए। शिव ने वीरभद्र को बुलाया और कहा कि मेरी गण सेना का नेतृत्व करो और दक्ष का यज्ञ नष्ट कर दो। वीरभद्र शिव के गणों के साथ गए और यज्ञ को नष्ट कर दक्ष का सर काट डाला। सर्व खाप पंचायत और उसके गणों की यह सबसे पुरानी घटना है।

रामायण काल में इतिहासकार जिसे वानर सेना कहते हैं वह सर्वखाप की पंचायत सेना ही थी जिसका नेतृत्व वीर हनुमान ने किया था और जिसका प्रमुख सलाहकार जामवंत नामक वीर था। राम और लक्ष्मन की व्यथा सुनकर हनुमान और सुग्रीव ने सर्व खाप पंचायत बुलाई थी जिसमें लंका पर चढाई करने का फैसला किया गया। उस सर्व खाप में तत्कालीन भील, कोल, किरात, वानर, रीछ, बल, रघुवंशी, सेन, जटायु आदि विभिन्न जातियों और खापों ने भाग लिया था। वानरों की बहुतायत के कारण यह वानर सेना कहलाई। इस पंचायत की अध्यक्षता महाराजा सुग्रीव ने की थी।

महाभारत काल में सर्वखाप पंचायत ने धर्म का साथ दिया था। महाभारत काल में तत्कालीन पंचायतो या गणों के प्रमुख के पद पर महाराज श्रीकृष्ण थे। श्रीकृष्ण ने कई बार पंचायतें की। युद्ध रोकने के लिए सर्व खाप पंचायत की और संजय को कौरवों के पास भेजा, स्वयं भी पंचायत फैसले के अनुसार केवल ५ गाँव देने हेतु मनाने के लिए हस्तिनापुर कौरवों के पास गए। शकुनी, कर्ण और दुर्योधन ने पंचायत के फैसले को ताक पर रख कर ऐलान किया कि सुई की नोंक के बराबर भी जगह नहीं दी जायेगी। इसी का अंत हुआ महाभारत युद्ध के रूप में. महाभारत के भयंकर परिणाम निकले। सामाजिक सरंचना छिन्न-भिन्न हो गई। राज्य करने के लिए क्षत्रिय नहीं बचे। महाभारत काल में भारत में अराजकता का व्यापक प्रभाव था। यह चर्म सीमा को लाँघ चुका था। उत्तरी भारत में साम्राज्यवादी शासकों ने प्रजा को असह्य विपदा में डाल रखा था। इस स्थिति को देखकर कृष्ण ने अग्रज बलराम की सहायता से कंस को समाप्त कर उग्रसेन को मथुरा का शासक नियुक्त किया। कृष्ण ने साम्राज्यवादी शासकों से संघर्ष करने हेतु एक संघ का निर्माण किया। उस समय यादवों के अनेक कुल थे किंतु सर्व प्रथम उन्होंने अन्धक, भोज और वृष्नी कुलों का ही संघ बनाया। संघ के सदस्य आपस में सम्बन्धी होते थे इसी कारण उस संघ का नाम 'ज्ञाति-संघ' रखा गया।[7][8] .[9] यह संघ व्यक्ति प्रधान नहीं था। इसमें शामिल होते ही किसी राजकुल का पूर्व नाम आदि सब समाप्त हो जाते थे। वह केवल ज्ञाति के नाम से ही जाना जाता था।[8] प्राचीन ग्रंथो के अध्ययन से यह बात साफ हो जाती है कि परिस्थिति और भाषा के बदलते रूप के कारण 'ज्ञात' शब्द ने 'जाट' शब्द का रूप धारण कर लिया।

ठाकुर देशराज[10] लिखते हैं कि महाभारत काल में गण का प्रयोग संघ के रूप में किया गया है। बुद्ध के समय भारतवर्ष में ११६ प्रजातंत्र थे। गणों के सम्बन्ध में महाभारत के शांति पर्व के अध्याय १०८[11] में विस्तार से दिया गया है। इसमें युधिष्ठिर पूछते हैं भीष्म से कि गणों के सम्बन्ध में आप मुझे यह बताने की कृपा करें कि वे किस तरह वर्धित होते हैं, किस प्रकार शत्रु की भेद-नीति से बचते हैं, शत्रुओं पर किस तरह विजय प्राप्त करते हैं, किस तरह मित्र बनाते हैं, किस तरह गुप्त मंत्रों को छुपाते हैं। इससे यह स्पस्ट होता है कि महाभारत काल के गण और संघ वस्तुतः वर्त्तमान खाप और सर्वखाप के ही रूप थे।

खाप पंचायतों के फरमान बनाम संविधान[संपादित करें]

‘ढ़राणा-प्रकरण’, ‘वेदपाल-’हत्याकाण्ड’, ‘बलहम्बा-हत्याकाण्ड’, ‘सिवाना हत्याकाण्ड’ आदि एक के बाद एक कानून की धज्जियां उड़ाने वाली घटनाओं ने हरियाणा की खाप पंचायतों के विभत्स होते स्वरूप, स्वार्थपूर्ण राजनीतिकों की ‘वोटनीति’ और बेबस कानूनी सिपाहियों के बंधे हाथों ने २१वीं सदी के प्रबुद्ध समाज और ६३वां स्वतंत्रता दिवस मनाने वाले वि’व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश को गहन चिन्तन करने के लिए विवश कर दिया है। यह सब वर्जनाओं को तोड़ती आधुनिक युवापीढ़ी और कानून व न्याय प्रणाली से सर्वोपरि समझने वाली समाज की खाप पंचायतों की तानाशाही के आपसी वैचारिक व सैद्धान्तिक टकरावों का परिणाम है।

सर्वखाप पंचायतों की लालफीताशाही और उसे खूनी, असभ्य व गैर-कानूनी ‘तुगलकी फरमानों’ एवं ‘फतवों’ को देखते हुए यह कदापि नहीं कहा जा सकता कि हमने स्वतंत्रता के छह दशक पार कर लिए हैं और हम २१वीं सदी के लोकतांत्रिक देश व सुसभ्य समाज के नागरिक हैं। सहज यकीन नहीं होता कि एक मासूम व निर्दोष व्यक्ति समाज के कुछ स्वयंभू ठेकेदारों की संकीर्ण, उन्मादी व बर्बर सोच का शिकार हो जाता है। किसी की जघन्य हत्या कर दी जाती है और किसी को उसके मौलिक अधिकारों से वंचित करके खानाबदोश जिन्दगी जीने के लिए विवश कर दिया जाता है और हमारा प्रजातांत्रिक कानून मूक-दर्शक व असहाय खड़ा नजर आता है।

सदियों से हमारे देश में जाति-पाति, धर्म-सम्प्रदाय, छुआछूत, उंच-नीच, स्त्री-पुरूष आदि सब भेदभावों को मिटाने के लिए सदियों से जागरण अभियान चल रहे हैं। इन सब सामाजिक विकृतियों से तो हम निजात हासिल नहीं कर पाए, लेकिन ‘गोत्र-विवाद’ नामक एक और समस्या के शिकार हो गए। सर्वखाप पंचायतों की एक स्पष्ट मांग उभरकर सामने आई है कि वे गाँव एवं गुहाण्ड (पड़ौसी गाँव) के गौत्र की लड़की को अपनी बेटी मानते हैं, इसलिए उसे बहू के रूप में कदापि स्वीकार नहीं कर सकते। कुछ बुद्धिजीवी लोग अपनी इस हजारों वर्ष पुरानी परंपरा, रीति-रिवाज एवं संस्कार को जीवन्त बनाए रखने एवं कानूनी मान्यता प्राप्त करने के लिए संवैधानिक नियमों के तहत ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ में संशोधन करवाने की राह पर आगे बढ़ने के लिए एकजूट हो रहे हैं, जोकि स्वागत योग्य है। संवैधानिक राह पर चलते हुए अपनी बात रखना सराहनीय कदम कहलाएगा और असंवैधानिक रूप से अपने रौब व धाक प्रदर्शित करने के लिए गैर-कानूनी रूप से बेसिर-पैर के फैसले सुनाना एकदम गलत, बेतुका एवं तुगलकी फरमान अथवा फतवा ही करार दिया जाएगा।

कुछ उन्मादी लोग मीडिया जगत को ‘नौसिखिए’ और ‘बेवकूफ’ बताकर अपने गाल बजाते हैं, क्या उन्होने कभी आत्म-मन्थन किया है? क्या उन्हे ‘खाप’ अथवा ‘सर्वखाप’ की वास्तविक परिभाषा, सिद्धान्तों, मूल्यों एवं ध्येयों का भी ज्ञान है? ‘सर्वखाप’ की परिभाषा के अनुसार ‘ऐसा सामाजिक संगठन जो आकाश की तरह सर्वोपरी हो और पानी की तरह स्वच्छ, निर्मल एवं सबके लिए उपलब्ध अर्थात न्यायकारी हो।’ क्या समाज के उन्मादी ठेकेदारों ने कभी सोचा है कि वे चौधर के अहंकार एवं नाक व मूच्छों के सवाल के नाम पर मदान्ध होकर ‘सर्वखाप’ के मूल सिद्धान्तों से कितनी कोसों दूर निकल गए हैं? सबसे बड़े आश्चर्य का विषय तो यह है कि अधिकतर जिन लोगों की अपने घर में कोई अहमियत नहीं हैं, वे बाहर पंचायती बने बैठे हैं। हालांकि खाप पंचायतों में चन्द बुजुर्ग एवं विद्वान लोग ऐसे बचे हुए हैं, जिनका समाज में पूरा मान-सम्मान है, लेकिन उनकी आजकल कोई अहमियत ही नहीं मान रहा है। उन्मादी एवं असामाजिक तत्वों के दबाव में आकर उन्हें हाँ में हाँ मिलानी पड़ रही है। इसी के परिणास्वरूप आज खाप पंचायतों पर गहरा प्र’नचिन्ह उठ खड़ा हुआ है।

आज निश्चित रूप से पंचायतों, गोत्र पंचायतों, खाप पंचायतों एवं सर्वखाप पंचायतों की कार्यप्रणाली व कार्यशैली में दिनरात का अन्तर आ चुका है। पहले पंचायतें जोड़ने का काम करती थीं, आज पंचायतें तोड़ने का काम कर रही हैं। पहले लोगों को बसाने के पूरे प्रयास किए जाते थे, आज उजाड़ने के किए जाते हैं। पहले व्यक्ति की जान, माल, संपत्ति, सम्मान आदि हर तरह की सुरक्षा की जाती थी, लेकिन आज किसी तरह की कोई परवाह ही नहीं की जाती। पहले खाप पंचायतें सामाजिक समस्याओं एवं कुरीतियों के खिलाफ ऐतिहासिक निर्णय लेने बैठती थीं और अपने स्तर पर ही हर विवाद का निष्पक्ष एवं सर्वमान्य हल करके कानून की मदद किया करती थीं। लेकिन आज ये सब खाप पंचायतें विवाह-शादियों के ‘गोत्र’ संबम्धी मामलों में उलझकर केन्द्रित सी हो गई हैं और कानून को ठेंगा दिखाने व उसे अपने हाथ में लेने के के लिए गैर-कानूनी व तुगलकी फरमान सुनाने को आतुर हुई दिखाई देती हैं। पहले खाप पंचायतों में बड़े बुजुर्ग बड़ी शांति, धैर्य, संयम एवं सौहार्द भाव से निष्पक्ष निर्णय सुनाते थे, आज उन्हीं पंचायतों में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की तर्ज पर फैसले होते हैं और उन्मादी व असामाजिक तत्वों के लठ्ठ के जोर पर पंचायती नुमाइन्दे बेसिर-पैर के निर्णय लेते हैं।

आज जब भी कोई प्रबुद्ध व्यक्ति इन तथाकथित समाज सुधारक खाप पंचायतों को वास्तविक आईना दिखाने की कोशिश भर करता है अथवा लोकतांत्रिक देश में कानून के सम्मान के लिए कलम चलाता है तो समस्त खाप पंचायतों की भौहें तन जाती हैं। खाप-पंचायतों के कथित प्रतिनिधि सरेआम मंचों से कानून की सीख देने वाले बुद्धिजीवियों, पत्रकारों एवं कलमकारों को गालियां देने लगते हैं और अनर्गल प्रलाप करने लगते हैं। इसी दुर्भावना के चलते ही लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर किसी न किसी रूप में हमले किए जाते हैं और अपनी भड़ास निकाली जाती है। सर्वखापों द्वारा सजाए गए ऐतिहासिक मंचों पर ही बुरी तरह से सरेआम नैतिकता, न्याय, सिद्धान्तों, मूल्यों, संस्कृति एवं संस्कारों की बुरी तरह से धज्जियां उड़ती दिखाई देती हैं और कानून व प्रशासन मूक-दर्शक बना बेबसी के आंसू बहाने के सिवाय कुछ नहीं कर पाता है। गत ९ अगस्त २००९ को बेरी में हुई सर्वखाप पंचायत इसका ताजा उदाहरण कहा जा सकता है।

हर अति का एक अंत होता है। सर्वखाप पंचायतों के विभत्स होते स्वरूप को देखकर लगता है कि संभवत: हजारों वर्ष पुरानी खाप परंपरा अपने चरम पर पहुंच चुकी है। आज की नई पीढ़ी अपनी ही पुरानी पीढ़ी के खिलाफ बगावती तेवर अपना चुकी है। आधुनिक युवावर्ग समाज की जाति-पाति, उंच-नीच, धर्म-मजहब आदि पुरानी विकृतियों को छोड़कर एवं समाज की वर्जनाओं को तोड़ते हुए अपनी जिन्दगी के स्वयं फैसले करने लगी है और समाज के कथित ठेकेदारों को खुली चुनौती देना शुरू कर दिया है। आधुनिक युवापीढ़ी की इस पहल के पक्ष में कानून एवं प्रबुद्ध वर्ग भी खुलकर सामने आ चुका है। केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम द्वारा ‘सम्मान’ के नाम पर हो रही हत्याओं पर रोक लगाने व उनके दोषियों को वर्तमान कानून के तहत ही सजा देने का बयान और मीडिया, बुद्धिजीवी एवं महिला संगठनों द्वारा खाप पंचायतों को गैर-कानूनी घोषित करवाने की तेज होती माँग संभवत: खाप-पंचायतों की मनमानी पर अंकुश लगाने में कामयाब हो सके और उन्हें ‘आत्म-मन्थन’ करने के लिए विवश कर सके।

यदि सर्वखाप प्रतिनिधि स्वविवेक, एकाग्रचित, निष्पक्ष, मानवीय, संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक होकर ‘आत्म-मंथन’ करें तो उन्हें स्वत: ही ज्ञान हो जाएगा कि निश्चित रूप से हमारी सामाजिक एकता, सौहार्द, भाईचारे एवं सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतीक खाप पंचायतें अपने मूल्यों को बरकरार रख पाने में कहीं न कहीं असफल रही हैं और जिसके चलते उन पर उंगलियां उठ रही हैं। खाप पंचायतों में उन्मादी, अहंकारी, न’ोड़ी, अल्पबुद्धि, संकीर्ण एवं हिंसक प्रवृति वाले व्यक्तियों की अधिक संख्या में घूसपैठ हो गई और बुजुर्ग एवं बुद्धिजीवी लोगों की निरन्तर कमी होती चली गई। इसी के चलते खाप पंचायतों द्वारा एक के बाद एक गैर-कानूनी, दोगले, बेसिर-पैर के खूनी, दहशतनुमा फैसले व फतवे सुनाए गए और सर्वखाप पंचायतें बदनाम होकर रह गईं।

कुल मिलाकर खाप पंचायतों को इस समय गहन आत्म-मंथन करने व समय की माँग को सहज व सहर्ष स्वीकार करते हुए संवैधानिक डगर पर चलने की कड़ी आवश्यकता है। सर्वखाप पंचायतों के लिए समयानुरूप ऐतिहासिक निर्णय लेने, अपनी उदार व सामाजिक छवि को प्रकट करने, लोकतंत्र एवं कानून में आस्था जताने, भविष्य में खाप-पंचायतों के अनर्गल प्रलाप, बेसिर-पैर के तुगलकी फतवों एवं फैसलों पर रोक लगाने, उन्मादी एवं असामाजिक तत्वों द्वारा खाप पंचायतों की आड़ में अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए पुख्ता पाबन्दी लगाने, सामाजिक सौहार्द के नवीनतम मूल्य स्थापित करने, सामाजिक कुरीतियों एवं रूढ़ियों के खिलाफ सामाजिक अभियान चलाने की घोषणा करने एवं मानवीय मूल्यों को स्थापित करते हुए भविष्य में होने वाले गोत्र-विवादों का आसान एवं सर्वमान्य हल निकालने एवं ‘सम्मान’ के नाम पर होने वाली हत्याओं, आजीवन गाँव निर्वासनों एवं अन्य गैर-कानूनी गतिविधियों आदि पर रोक लगाने के सशक्त कदम उठाने जैसे मुद्दों पर एकमत बनाने के लिए महत्वपूर्ण पहल करने की तत्काल आवश्यकता है।

यदि इन मुद्दों पर हम सार्थक पहल करने और उनका समाजहित में लाभ उठाने में सफल हो जाते हैं तो निश्चित तौरपर न केवल हजारों वर्ष पुरानी सर्वखाप पंचायतों का अस्तित्व बचाया जा सकेगा, अपितु लोगों की आस्था भी सर्वखाप पंचायतों के प्रति पुन: बहाल हो सकेगी। यदि खाप पंचायतें ऐसा करने में सफल नहीं हो सकीं तो यह उनके लिए सबसे बड़े दुर्भाग्य का विषय होगा। क्योंकि अब वो समय आ गया है, जब खाप पंचायतों को भी हर हालत में समयानुरूप बदलना ही पड़ेगा। यदि से स्वयं नहीं बदलीं तो निश्चित तौरपर ‘समय’ का कालचक्र उन्हें स्वयं ही बदलकर रख देगा।

भरतपुर जाट राज्य का उदय[संपादित करें]

सिकन्दरा की लूट के बाद राजा राम ही सर्वखाप पंचायत के सर्वे-सर्वा बन गए। १४ जुलाई १६८८ को बीजल, अलवर, स्थान पर शेखावाटी राजपूतों और चौहान राजपूतों की लड़ाई में राजा राम शहीद हो गए। राजा राम की मृत्यु के बाद सर्वखाप पंचायत का सक्रीय मुख्यालय सिनसिनी गाँव बन गया। औरंगजेब ने राजपूतों को पक्ष में कर जाटों को दबाना शुरू किया। सन १६९४ में शाह आलमगीर ने राजा बिशन सिंह राजपूत और कल्याण सिंह भदौरिया को आगरा के जाटों को दबाने भेजा. २० फ़रवरी १६९५ में जाटों को घेरने की कोशिशे शुरू हुई और अप्रेल तक उनको दबाया न जा सका। अंत में एक रक्त रंजित युद्ध में राजपूत और मुगलिया सेना का सिनसिनी के आस-पास की जाट गढ़ियों पर तो कब्जा हो गया परन्तु जाट नेता नन्द राम अपने सभी पुत्रों सहित बच निकालने में सफल रहा। सिनसिनी हाथ से निकलने के बाद फिर गुप्त जगह पंचायत का आयोजन किया गया। भज्जा राम और उनके लघु भ्राता ब्रज राज अज्ञात वास से बहार निकल आये तथा पंचायत के फैसले के अनुसार ब्रज राज के पुत्र चुडा्मन को जाटों का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी सौंपी. जाटों की पंचायती सेना ने गढ़ियों पर काबिज मुस्लिम और राजपूत फौजदारों को कत्ल कर दिया तथा जगह -जगह जाट चौकियां स्थापित करली. सन १६९६ में एक बार फिर शाही सेना से पंचायती सेना का मुकाबला हुआ। जाट अंतिम सांस तक लड़े. इस युद्ध में ब्रज राज काम आये और भाई के गम में भज्जा राम भी चल बसे।

ब्रज राज के बाद जाटों ने बन्दूक छोड़कर हल चलाना शुरू किया तथा धीरे-धीरे जाट संगठन सर्वखाप पंचायत को भी सुद्रढ़ किया। चुड़ामन ने सिनसिनी में जाट प्रमुखों की एक पंचायत बुलाई जो सर्वखाप पंचायत का ही लघु रूप था। चुड़ामन ने धीरे-धीरे ब्रज मंडल से मुग़ल शासन समाप्त कर दिया तथा जाटों की एक सुद्रढ़ सेना तैयार कर भरतपुर जाट राज्य की स्थापना की।

सर्वखाप पंचायतों का ऐतिहासिक महत्त्व[संपादित करें]

मौर्य काल में खापों की न्याय व्यवस्था वर्णन मिलता है।

महाराजा हर्षवर्धन (थानेसर के राजा) ने अपनी बहन राज्यश्री को मालवा नरेश की कैद से छुड़ाने में खाप पंचायत की सहायता मांगी थी जिसके लिए खापों के चौधरियों ने मालवा पर चढाई करने के लिए हर्ष की और से युद्ध करने के लिए ३०,००० मल्ल और १०,००० वीर महिलाओं की सेना भेजी थी। खाप की सेना ने राज्यश्री को मुक्त कराकर ही दम लिया।

महाराजा हर्षवर्धन ने सन ६४३ ई. में क्षत्रियों को एकजुट करने के लिए कन्नौज शहर में विशाल सम्मलेन कराया था वह सर्वखाप पंचायत ही थी जिसका नाम ‘हरियाणा सर्वखाप पंचायत‘ रखा गया था चूँकि उन दिनों विशाल हरियाणा उत्तर में सतलज नदी तक, पूर्व में देहरादून, बरेली, मैनपुरी तथा तराई एरिया तक, दक्षिण में चम्बल नदी तक और पश्चिम में गंगानगर तक फैला हुआ था। सर्वखाप के चार केंद्र थानेसर, दिल्ली, रोहतक और कन्नौज बनाये गए थे। इस सर्वखाप पंचायत में करीब ३०० छोटी-बड़ी पालें, खाप और संगठन शामिल थे। पंचायत ने थानेसर सम्राट हर्षवर्धन का कनौज के राजा के रूप में राज्याभिषेक किया। सम्राट हर्ष ने वैदिक विधि विधान से सर्वखाप पंचायत का गठन किया। इससे पूर्व विभिन्न खापों के विभिन्न स्वरुप, संविधान और कार्य करने के तौर तरीके अलग-अलग थे।

सन ६६४ ई. में बगदाद के खलीफा ने अब्दुल्ला नामक सरदार के साथ ३५ हजार सेना भेजकर सिंध पर चढाई की। सिंध के राजा दाहिर द्वारा सहायता मांगे जाने पर पंचायत ने सेना भेजी जिसमें दाहिर के पुत्र जस्सा को प्रधान सेनापति, मोहना जाट को सेनापति तथा भानु गुज्जर को उपसेनापति नियुक्त किया गया। भयंकर युद्ध में मोहना जाट ने अब्दुल्ला को ढाक पर चढाकर जमीन पर पटका और मार दिया। अब्दुल्ला की २७००० सेना मारी गई, बाकी ८००० सिंध नदी में डूब गए क्योंकि जाटों और रोड़ योद्धाओं ने पहले से ही पार ले जाने वाली नावों पर कब्जा कर रखा था। खलीफा ने थोड़े थोड़े अंतराल से चार बार आक्रमण किये पर हर बार पंचायत सेना ने उसे मार भगाया. सन ११९१ में मोहम्मद गौरी का सामना करने के लिए सर्वखाप पंचायत ने २२००० जाट मल्ल वीरों को दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज चौहान के साथ लड़ने भेजा था। दिल्ली सम्राट ने सर्वखाप पंचायत से सहायता मांगी थी। सर्वखाप पंचायत में १०८ राजाओं ने दिल्ली सम्राट के नेतृत्व में गौरी से लड़ने का फतवा जारी किया गया था। इस पंचायती और सम्राट की संयुक्त सेना के सामने गौरी की सेना नहीं टिक सकी और मैदान छोड़कर गौरी की सेना को भागना पड़ा. मगर अगले ही वर्ष ११९२ में गौरी ने पुनः आक्रमण किया और विजयी रहा।

खाप पंचायतों ने नव स्थापित दास वंस के खिलाफ अपना विरोध लम्बे समय तक जारी रखा और मौका पाते ही वह विद्रोह करके इनका शासन समाप्त करने के प्रयास करते रहे

सन ११९२-११९३ ई. में दिल्ली के नये बादशाह के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक के साथ सर्वखाप पंचायत की सेना और रोड़ योद्धाओं ने सबसे भयंकर युद्ध लड़ा। इस युद्ध को मुस्लिम लेखक भी भयंकर मानते हैं। इसमें जाट वीरों ने अपने परंपरागत हथियारों यथा लाठी, बल्लम, कुल्हाडी, गंडासी, भाला, बरछी, जेळी, कटार आदि से अंतिम दम तक 'शाही' सैनिकों को कत्ल किया। युद्ध कई दिन चला और अधिकतर मल्ल योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए. जीत ऐबक की हुई परन्तु कहते हैं वह अपनी आधी सेना के शवों को देखकर दहाड़-दहाड़ कर रोया और रोते हुए उसने कहा कि मुझे पता होता कि सर्वखाप पंचायत योद्धा इतने लड़ाकू होते हैं तो वह उनसे भूलकर भी न लड़ता, सर्वखाप पंचायत जैसे योद्धाओं को अपने साथ करके मैं सारी धरती जीत सकता था। इतिहासकार लिखते हैं कि यह पहला अवसर था जब जीतने के बाद भी कोई मुस्लिम शासक रोते हुए दिल्ली लौटा और उसने जश्न की जगह मातम मनाया। इस युद्ध से स्पष्ट हो जाता है कि सर्व खाप पंचायत उस समय भी अपना काम कर रही थी तथा गोपनीय स्थलों, जंगलों, बीहडों में इसकी पंचायत होती थी।

सन ११९७ ई. में राजा भीम देव की अध्यक्षता में बावली बडौत के बीच विशाल बणी में सर्वखाप पंचायत की बैठक हुई थी जिसमें बादशाह द्वारा हिन्दुओं पर जजिया कर लगाने तथा फसल न होने पर पशुओं को हांक ले जाने के फरमानों का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए ठोस कार्रवाई करने पर विचार किया गया। इस पंचायत में करीब १००,००० लोगों ने भाग लिया। पंचायती फैसले के अनुसार सर्वखाप की मल्ल सेना ने शाही सेना को घेर कर हथियार छीन लिए और दिल्ली पर चढाई करने का एलान किया। बादशाह ने घबराकर दोनों फरमान वापिस लेकर पंचायत से समझौता कर लिया।

सन १२०८ में दिल्ली के पश्चिम मोर्चे पर बादली में कुतुबुद्दीन ऐबक के साथ एक और संघर्ष हुआ जिसमें कुतुबुद्दीन कूटनीति से विजयी हुआ और दिल्ली से उसकी सत्ता को उखाड़ने की योजना निष्फल हो गई।

सन १२११ ई. और १२३६ ई में गुलाम वंश का सुल्तान इल्तुतमिश दो बार सर्वखाप की सेना से हारा था। हारने के बाद उसे सर्वखाप की ८ शर्तों को स्वीकार करना पड़ा था। ये शर्तें थी: पंचायतो को अपने निर्णय स्वयं करने का अधिकार, पंचायत को सेना रखने का अधिकार, पंचायतो को पूर्ण स्वतंत्रता देना, हिन्दुओं को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता देना, जजिया कर की समाप्ति और दरबार में पंचायत को प्रतिनिधित्व देना. इससे स्पष्ट है कि १३ वीं सदी में सर्वखाप पंचायतें इस स्थिति में थी कि वे सरकार से अपनी बात मनवा लेती. पंचायत सेना भी इतनी शक्तिशाली थी कि शाही सेना को कई बार हराया था।

सन १२३७ ई. में दिल्ली तख्त पर आसीन रजिया बेगम घरेलू झगडों से परेशान हो गई थी। अमीर उसकी हत्या करना चाहते थे। जब कोई रास्ता न बचा तो रजिया सुल्ताना ने तत्कालीन सर्वखाप पंचायत के चौधरी को सहायता के लिए पुकारा. इस प्रस्ताव पर विचार करने के लिए एक गुप्त स्थान पर आयोजन हुआ जिसमें पंचायती सेना द्वारा रजिया सुल्ताना का साथ देने का फैसला लिया गया। पंचायती सेना ने अचानक दिल्ली पर धावा बोलकर रजिया सुल्ताना के विरोधियों को कुचल डाला। रजिया ने खुश होकर पंचायती मल्ल योद्धाओं के लिए ६०००० दुधारू पशु उपहार में दिए।

सन १२४६ से १२६६ ई. में गुलाम वंशी नासिरुद्दीन ने शासन किया। उसके विरोधियों की संख्या कम न थी। जब उसे लगा कि उसकी गद्दी कभी भी छिन सकती है तो उसने अपने भतीजे को सहायता के लिए सर्वखाप के मुख्यालय सौरम (मुज़फ्फरनगर) भेजा. इस मांग पर खापों के चौधरियों ने कई दिन तक विचार किया। अंत में नासिरुद्दीन को अपनी कुछ मांगें मानने का प्रस्ताव उसके भतीजे के साथ भेजा. नासिरुद्दीन ने पंचायत की सभी मांगे मान ली और बदले में पंचायत की सेना ने नसीरुद्दीन के विरोधियों को नष्ट कर उसे निष्कंटक बना दिया।

सन १२८७ ई. में महानदी के तट पर सर्वखाप की एक विशाल पंचायत हुई जिसकी अध्यक्षता चौधरी मस्त पाल सिरोहा ने की। इस पंचायत में ६०००० जाट, २५००० अहीर, ४०००० गुर्जर, ३८००० राजपूत, तथा ५००० सैनिकों ने भाग लिया। इस पंचायत में कुछ प्रस्ताव पास किये गए जैसे २५००० व्यक्ति हमेशा युद्ध के लिए तैयार रहेंगे, १८ से ४० वर्ष के बीच के लोग शाही सेना से लड़ने का प्रशिक्षण लें, जजिया कर बिलकुल नहीं देंगे, शादी-विवाहों में शाही हुक्म नहीं मानेंगे और अपनी परंपरागत भारतीय शैली ही अपनाएंगे, फसल का आधा भाग कर के रूप में जमा नहीं करेंगे, पंचायत अपने निर्णय स्वयं लेगी आदि। इस पंचायत में यह स्पष्ट होता है कि सर्वखाप पंचायत एक सर्वजातीय संगठन था।

सन १२९५ में अलाउद्दीन खिलजी ने पंचायत को कुचलने के लिए अपने एक सेनापति मलिक काफूर को २५००० की सेना लेकर वर्तमान पश्चिम उत्तर प्रदेश के जाट बाहुल्य इलाके में भेजा. हिंडन और काली नदियों के संगम पर अर्थात बरनावा गाँव के आस-पास सर्वखाप के मल्ल वीरों और खिलजी की सेना के बीच भयानक युद्ध हुआ। अधिकतर मुस्लिम सैनिक काट डाले गए, जो बचे वे अपने सेनापति सहित मैदान छोड़कर भाग गए। पंचायती फैसले के अनुसार इस युद्ध में खिलजी सेना से लड़ने हर घर से एक योद्धा ने भाग लिया था।

सन १३०५ में चैत्रबदी दूज को सोरम (मुजफ्फरनगर) में एक विशाल सर्वखाप पंचायत हुई थी जिसमें सभी खापों के ४५००० गणमान्यों ने भाग लिया था तथा राव राम राणा को सर्वखाप पंचायत का महामंत्री नियुक्त किया गया था तथा गाँव सौरम को वजीर खाप का पद प्रदान किया था। इसी पंचायत में ८४ गांवों की बालियान खाप को प्रमुख खाप के रूप में स्वीकार किया गया। यदि इस पंचायत के आयोजन पर गहन विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन हरियाणा का क्षेत्र काफी विस्तृत था जिसमें सम्पूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश समाहित था।

सन १३१९ ई. में मुबारकशाह खिलजी के सेनापति जाफ़र अली ने बैशाखी की अमावस्या के दिन कोताना (बडौत के निकट) यमुना नदी में कुछ हिन्दू ललनाओं को स्नान करते देखा तो उसकी कामवासना भड़क उठी. उसने हिन्दू बालाओं को घेर कर पकड़ने का प्रयास किया तो बालाओं ने डटकर मुकाबला किया। आस-पास के लोग भी सैनिकों से जा भिडे. भारी मारकाट मची. इस बात की खबर सर्वखाप पंचायत को लगने पर पंचायती मल्लों को जाफर अली को सबक सिखाने भेजा. बताया जाता है कि इससे पहले ही एक हिन्दू ललना ने जाफ़र का सर काट दिया था। बीस कोस तक पंचायती मल्लों ने बाकी बचे कामांध सैनिकों का पीछा किया और इन्हें कत्ल कर दिया। बादशाह ने अंत में इस घटना के लिए पंचायत से लिखित में माफ़ी मांगी.

दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के किनारे १३३६ से १६१४ ई. तक हिन्दुओं का विजयनगर नामक राज्य रहा है। इस राज्य के लोगों को निकटवर्ती मुस्लिम शासक बहुत तंग करते थे। विजयनगर के राजा देव राज II ने सर्वखाप पंचायत से लिखित में मांग की कि सर्वखाप पंचायत कुछ मल्ल यौद्धा भेजे जो वहां प्रशिक्षण दें और शत्रुओं से उनकी रक्षा करें। सर्वखाप पंचायत ने विचार कर १००० योद्धाओं को विजयनगर भेजा. वहां पहुँच कर इन योद्धाओं ने हिन्दुओं को अभय दान देने के साथ-साथ गाँव-गाँव में अखाड़े चालू करवाए. शत्रुओं को पछाड़ कर मार डाला। वहां जाने वाले मल्ल योद्धाओं में प्रमुख थे शंकर देव जाट, शीतल चंद रोड, चंडी राव रवा, ओझाराम बढ़ई जांगडा, ऋपल देव जाट, शिव दयाल गुजर . यह घटना सर्वखाप की शक्ति और सरंचनाओं पर प्रकाश डालती है।

सन १३९८ में तैमूर लंग ने जब ढाई लाख सेना के साथ भारत पर आक्रमण किया तो पंचायती सेना ने उसकी आधी सेना को काटकर यमुना, कृष्ण, हिंडन और काली नदी में फेंक दिया था। तैमूर लंग को रोकने के लिए बेरोगोलिया, बादली, सिसौली तथा सैदपुर में चार सर्वखाप पंचायतें हुई। इसके बाद सर्वखाप की सामूहिक पंचायत चौगामा के गांवों, निरपड़ा, दाहा, दोघट, टीकरी के बीच २२५ बीघे वाले विशाल बाग में हुई जिसकी अध्यक्षता निरपड़ा गाँव के योद्धा देव पाल राणा ने की। इस महापंचायत ने अस्सी हजार वीरों को चुना गया जिनमें किसी का भी वजन दो कुंतल से कम न था। पंचायती सेना का सेनापति ४५ वर्षीय पहलवान योगराज जाट को चुना। ४०००० वीरांगनाओं को भी चुना गया। ५०० घुड़ सवारों की गुप्त सेना बनाई। हिसार के गाँव कोसी के पहलवान धोला को उपसेनापति बनाया। युद्ध के पहले ही दिन उस क्षेत्र से गुजर रहे तैमुर लंग के करीब एक लाख साठ हजार सैनिक मौत के घाट उतारे गए। पंचायती सेना के भी ३८ सेनापति और ३५००० मल्ल तथा वीरांगनाएँ काम आई. तैमूर मरते मरते बचा और बिना रुके घबरा कर जम्मू के रास्ते स्वदेश लौट गया। इससे पहले उसने जी भर कर दिल्ली को लूटा था परन्तु पंचायती मल्लों ने उससे दिल्ली से लूटी गई पाई-पाई को छीन लिया तथा हजारों युवतियों को उसकी कैद से छुडाया. यदि एक दिन तैमूर और रुक जाता तो वह और उसकी सेना को पंचायती सेना सदा के लिए गंगा-यमुना के मैदान में दफ़न कर देती.

सन १४२१ में मेवाड़ के राणा लाखा ने ५० वर्ष की आयु में मारवाड़ के राजा रणमल की पुत्री से विवाह किया जिससे मोकल नामक पुत्र पैदा हुआ। मोकल जब ५ वर्ष का था तो राणा लाखा चल बसे। उसकी सहायता के लिए मोकल के नाना और मामा जोधा चित्तौड़ में आकर बस गए। उन्होंने सत्ता की चाह में मोकल को मार डालने का षड़यंत्र रचा तथा पड़ोसी राजपूत राजाओं से सौदेबाजी कर ली. मोकल की माता को जब और कोई सहारा नजर नहीं आया तो सर्वखाप को दूत भेज कर सहायता मांगी. पंचायत ने तुंरत सहायता के लिए मल्ल वीरों को मेवाड़ भेजा. वहां पहुँच कर पंचायती मल्ल योद्धाओं ने राजमहल को घेर लिया। राजमाता और राजकुमार मोकल को सुरक्षित निकाल कर विद्रोहियों को मार डाला। उस समय बहुत से जाट वहींं बस गए जिनके वंशज आज वहां शान से रहते हैं।

सन १४९० में दिल्ली पर सिकंदर लोदी का शासन था। उसने प्रजा पर राजस्व कर बढा दिए और हिन्दुओं पर जजिया कर लगा दिया। किसानों की हालत ख़राब हो गई और हाहाकार मच गया। लोदी के आतंक के विरुद्ध सर्वखाप पंचायत के नेतृत्व में किसानों की महा पंचायत हुई। पंचायत ने दिल्ली को घेरने का संकल्प लिया। दिल्ली में जब लोदी को पता लगा कि सर्वखाप पंचायत के मल्ल योद्धा दिल्ली के लिए कूच कर गए हैं तो सुलतान डर गया। वह सर्वखाप पंचायत के मुख्यालय सौरम गया और पंचायत से समझौता कर लिया तथा ५०० अशर्फियाँ भी पंचायत को भेंट की, बदले में पंचायत ने अपनी सेना वापिस बुला ली।

सिकंदर लोदी की मृत्यु के बाद उसका लड़का इब्राहीम लोदी गद्दी पर बैठा, परन्तु उसके छोटे भाई जलालुद्दीन ने विद्रोह कर दिया। इब्राहीम लोदी ने सर्वखाप पंचायत की सहायता मांगी. सर्वखाप के मल्ल योद्धाओं ने जलालुद्दीन और उसके हजारों सैनिकों को रमाला (बागपत) के जंगलों में घेर लिया और आत्मसमर्पण के लिए मजबूर कर दिया।

सन १५०८ में राणा सांगा चितौड़ की गद्दी पर बैठा. उसने अपने जीवन काल में ६० युद्ध लड़े परन्तु जब बाबर विशाल सेना लेकर चितौड़ की और बढा तब राणा सांगा ने सर्वखाप पंचायत से सहायता मांगी. पंचायत ने राणा सांगा के पक्ष में युद्ध करने का निर्णय लिया। कनवाह के मैदान में भयंकर युद्ध हुआ। राणा सांगा घायल होकर अचेत होने लगे तो पास ही लड़ रहे सर्वखाप पंचायत के मल्ल योद्धा कीर्तिमल ने राणा का ताज उतार कर स्वयं पहन लिया और राणा सांगा को सुरक्षित युद्ध क्षेत्र से बहार निकाला. बाबर की सेना ताज देखकर राणा सांगा समझती रही। अंततः कीर्तिमल शहीद हो गए। राजपूत राणा को बचाकर एक बार फिर सर्वखाप पंचायत की श्रेष्ठता सिद्ध कर दिखाई.

बाबर और सर्वखाप पंचायत में मनमुटाव चलता रहा। अंत में १५२८ में बाबर स्वयं गाँव सौरम गया तथा तत्कालीन सर्वखाप पंचायत चौधरी रामराय से संधि कर ली और चौधरी को एक रुपया तथा पगड़ी सम्मान के १२५ रपये देकर सम्मानित किया।

सन १५४० में बादशाह हुमायूं का सर्वखाप पंचायत ने साथ नहीं दिया। इस टकराव का शेरशाह ने भरपूर फायदा उठाया. शेरशाह ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया और हुमायूं को अफगानिस्तान तक दौड़ाकर मुल्क से खदेड़ दिया। शेरशाह ने गद्दी पर बैठते ही किसानों को तंग करना शुरू कर दिया तथा सर्वखाप की एक न मानी. उधर इरान पहुँच कर हुमायूँ को सर्वखाप पंचायत की याद आई. उसने अपना दूत भेजकर सर्वखाप पंचायत से सहायता मांगी. सर्वखाप पंचायत ने इस शर्त पर सहायत दी कि गद्दी पर बैठने पर वह सर्वखाप की सभी मांगे स्वीकार कर लेंगे. हुमायूँ ने शेरशाह सूरी के उत्तराधिकारी सिकंदरशाह सूरी को खाप पंचायत की मदद से सरहिंद के युद्ध में हराकर दिल्ली पर फिर अधिकार कर लिया (जून, १५५५) और कुछ समय बाद उसकी मृत्यु हो गई।

बादशाह अकबर के जमाने में सर्वखाप पंचायत का पुनर्गठन किया गया। अकबर के समय पंचायत के १० मंत्री चुने गए थे। चौधरी पच्चुमल को अकबर बादशाह ने मंत्री के रूप में मान्यता दी थी। अन्य मान्यता प्राप्त मंत्री थे – चौधरी भानी राम, हरी राम, टेकचंद, किशन राम, श्योलाल, गुलाब सिंह, सांई राम और सूरज मल. यह मान्यता बादशाह मुहम्मदशाह के जमाने अर्थात १७४८ तक चलती रही। मुग़लों ने सर्वखाप पंचायत के साथ समझौता नीति को अधिक अपनाया. मुग़ल काल में सर्वखाप पंचायत का आयोजन होता रहा तथा पंचायत के नेताओं ने अनेक कुर्बानियां दी थी और इस बेमिसाल पंचायत व्यवस्था को बनाये रखा।

सन १६२८ में शाहजहाँ ने किसान-मजदूरों के प्रति कठोर निति अपनाई. सर्वखाप पंचायत ने इसका विरोध किया, शाही खजानों और चौकियों पर हमला किया। शाहजहाँ ने दो सेनापतियों आमेर (वर्तमान जयपुर) के मिर्जा राजा जयसिंह और कासिम खान को विद्रोह दबाने के लिए भेजा. पंचायती सेना ने इन दोनों को घेर लिया और तभी छोड़ा जब शाहजहाँ ने अपना किसान विरोधी फरमान वापस लिया। सन १६३५ में शाहजहाँ ने फिर किसानों पर भारी कर लगा दिए। सर्वखाप पंचायत ने लगान के रूप में कर न देने का फैसला किया। आगरा, मथुरा, गोकुल, महावन, पहाडी, मुहाल, खोह आदि में मेव, गुर्जर, राजपूत और जाट एक हो गए। शाही सेना से टकराव चलता रहा मगर बादशाह पंचायत विरोध को दबा न सका। और समझौता करना पड़ा.

सन १६६० में ठेनुआ गोत्र के जाट नन्द राम नें सर्वखाप पंचायत का आयोजन किया तथा स्वयं ही उसकी अध्यक्षता की। औरंगजेब ने धर्म परिवर्तन के लिए अनेक तरीके अपनाए. किसानों पर भारी कर लगाये, हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया, हिन्दुओं के त्योहारों और मेलों पर रोक लगादी. नन्द राम ने जनसमर्थन से अलीगढ, मुरसान, हाथरस और मथुरा पर अपनी छापामार शैली से कब्जा कर लिया। औरंगजेब कुछ नहीं कर सका और अंत में नन्द राम को फौजदार की उपाधि देकर समझौता कर लिया।

९ अप्रैल १६६९ कोऔरंगजेब का नया फरमान आया – “काफ़िरों के मदरसे और मन्दिर गिरा दिए जाएं“. फलत: ब्रज क्षेत्र के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गया। कुषाण और गुप्त कालीन निधि, इतिहास की अमूल्य धरोहर, तोड़-फोड़, मुंड विहीन, अंग विहीन कर हजारों की संख्या में सर्वत्र छितरा दी गयी। सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील उड़ते दिखाई देते थे। और दिखाई देते थे धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें- उनमें से निकलते हुए शाही घुडसवार. हिन्दुओं को दबाने के लिए औरंगजेब ने अब्दुन्नवी नामक एक कट्टर मुसलमान को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया। अब्दुन्नवी ने सिहोरा नामक गाँव को जा घेरा. क्रान्तिकार जाट गोकुलसिंह ने सर्वखाप पंचायत के सहयोग से एक बीस हजारी सेना तैयार कर ली थी। गोकुलसिंह अब्दुन्नवी के सामने जा पहुंचे। मुग़लों पर दुतरफा मार पड़ी. फौजदार गोली प्रहार से मारा गया। बचे खुचे मुग़ल भाग गए। गोकुलसिंह आगे बढ़े और सादाबाद की छावनी को लूटकर आग लगा दी। इसका धुआँ और लपटें इतनी ऊँची उठ गयी कि आगरा और दिल्ली के महलों में झट से दिखाई दे गईं। दिखाई भी क्यों नहीं देतीं. साम्राज्य के वजीर सादुल्ला खान (शाहजहाँ कालीन) की छावनी का नामोनिशान मिट गया था। मथुरा ही नही, आगरा जिले में से भी शाही झंडे के निशाँ उड़कर आगरा शहर और किले में ढेर हो गए थे। निराश और मृतप्राय हिन्दुओं में जीवन का संचार हुआ। इस युद्ध को दुनिया के भयानक युद्धों में गिना जाता है। इस युद्ध में ५००० जाट शाही सेना के ५०००० सैनिकों को कत्ल कर जान पर खेल गए। ७००० किसानों को बंदी बनाकर आगरा की कोतवाली के सामने बेरहमी से कत्ल कर दिया गया। गोकुलसिंह और उनके ताऊ उदयसिंह को सपरिवार बंदी बना लिया गया। अगले दिन गोकुलसिंह और उदयसिंह को आगरा कोतवाली पर लाया गया-उसी तरह बंधे हाथ, गले से पैर तक लोहे में जकड़ा शरीर. गोकुलसिंह की सुडौल भुजा पर जल्लाद का पहला कुल्हाड़ा चला, तो हजारों का जनसमूह हाहाकार कर उठा. कुल्हाड़ी से छिटकी हुई उनकी दायीं भुजा चबूतरे पर गिरकर फड़कने लगी। परन्तु उस वीर का मुख ही नहीं शरीर भी निष्कंप था। उसने एक निगाह फुव्वारा बन गए कंधे पर डाली और फ़िर जल्लादों को देखने लगा कि दूसरा वार करें। परन्तु जल्लाद जल्दी में नहीं थे। उन्हें ऐसे ही निर्देश थे। दूसरे कुल्हाड़े पर हजारों लोग आर्तनाद कर उठे. उनमें हिंदू और मुसलमान सभी थे। अनेकों ने आँखें बंद करली. अनेक रोते हुए भाग निकले। कोतवाली के चारों ओर मानो प्रलय हो रही थी। एक को दूसरे का होश नहीं था। इधर आगरा में गोकुलसिंह का सिर गिरा, उधर मथुरा में केशवरायजी का मन्दिर!

सत्ता की लडाई में दारा शिकोह का साथ देने के कारण औरंगजेब ने बादशाह बनते ही सर्वखाप पंचायत को सबक सिखाने के लिए एक घिनौनी चाल चली. उसने सुलह सफाई के लिए सर्वखाप पंचायत को दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा. सर्वखाप ने निमंत्रण स्वीकार कर जिन २१ नेताओं को दिल्ली भेजा उनके नाम थे- राव हरिराय, धूम सिंह, फूल सिंह, शीशराम, हरदेवा, राम लाल, बलि राम, माल चंद, हर पाल, नवल सिंह, गंगा राम, चंदू राम, हर सहाय, नेत राम, हर वंश, मन सुख, मूल चंद, हर देवा, राम नारायण, भोला और हरिद्वारी. इनमें एक ब्रह्मण, एक वैश्य, एक सैनी, एक त्यागी, एक गुर्जर, एक खाँ, एक रोड़, तीन राजपूत और ग्यारह जाट थे। इन २१ नेताओं के साथ औरंगजेब ने धोखा किया और इनको बंदी बना लिया। सर्वखाप के प्रतिनिधियों को इस्लाम या मौत में से एक चुनने का फ़रमान दिया। दल के मुखिया राव हरिराय ने औरंगजेब से जमकर बहस की तथा कहा कि सर्वखाप पंचायत शांति चाहती है वह टकराव नहीं। औरंगजेब ने जिद नहीं छोड़ी तो इन नेताओं ने इस्लाम धर्म स्वीकार करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। परिणाम स्वरुप सन १६७० ई. की कार्तिक कृष्ण दशमी के दिन चांदनी चौक दिल्ली में इन २१ नेताओं को एक साथ फांंसी पर लटका दिया गया। जब यह खबर पंचायत के पास पहुंची तो चहुँओर मातम छा गया। इसके बाद धर्मान्तरण (मज़हब) की आंधी चलने लगी। साथ ही सर्वखाप पंचायत का अस्तित्व खतरे में पड़ गया।

सन १६८५ में सिनसिनी के राजा राम ने मृत प्रायः सर्व खाप सेना में जान डाली। राजा राम के नेतृत्व में एक विशाल सेना तैयार हो गई। पंचायती सेना ने सिकन्दरा को जा घेरा. आस-पास की गढ़ियों में आग लगा दी। सिकन्दरा के मकबरा रक्षक मीर अहमद जान बचाकर भागे. गोकुल सिंह की बर्बर हत्या का बदला लेने पर उतारू क्रांतिकारियों ने अकबर की कब्र खोदकर उसकी हड्डियों को निकालकर सरे आम फूंक डाला। मुग़लों के इस प्रसिद्द मकबरे को नेस्तनाबूद कर क्रांतिकारी पंचायती गोकुल सिंह जिंदाबाद के नारे लगाते वापिस लौट गए।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. डॉ ओमपाल सिंह तुगानिया : जाट समुदाय के प्रमुख आधार बिंदु, आगरा, 2004, पृ . 10
  2. डॉ ओमपाल सिंह तुगानिया : जाट समाज की प्रमुख व्यवस्थाएं, आगरा, 2004, पृ . 13
  3. डॉ ओमपाल सिंह तुगानिया : जाट समुदाय के प्रमुख आधार बिंदु, आगरा, 2004, पृ . 22
  4. डॉ ओमपाल सिंह तुगानिया : जाट समुदाय के प्रमुख आधार बिंदु, आगरा, 2004, पृ . 23
  5. डॉ ओमपाल सिंह तुगानिया : जाट समुदाय के प्रमुख आधार बिंदु, आगरा, 2004, पृ . 24
  6. डॉ ओमपाल सिंह तुगानिया : जाट समुदाय के प्रमुख आधार बिंदु, आगरा, 2004, पृ . 25-26
  7. महाभारत नारद-श्रीकृष्ण संवाद
  8. ठाकुर गंगासिंह: "जाट शब्द का उदय कब और कैसे", जाट-वीर स्मारिका, ग्वालियर, 1992, पृ. 6
  9. किशोरी लाल फौजदार: "महाभारत कालीन जाट वंश", जाट समाज, आगरा, जुलाई 1995, पृ 7
  10. ठाकुर देशराज: जाट इतिहास, महाराजा सूरजमल स्मारक शिक्षा संस्थान, दिल्ली, 1934, पेज 89.
  11. शांति पर्व महाभारत पुस्तक XII अध्याय १०८