"राज योग": अवतरणों में अंतर
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19:02, 29 जुलाई 2012 का अवतरण
राज योग सर्व प्रधान योग यह सबसे प्रधन योग है । तप त्याग व तपस्या करना। योग का अर्थ है चित्तवृत्ति का निरोध । चित्तभूमि या मानसिक अवस्था के पाँच रूप हैं (१) क्षिप्त (२) मूढ़ (३) विक्षिप्त (४) एकाग्र और (५) निरुद्व । प्रत्येक अवस्था में कुछ न कुछ मानसिक वृत्तियों का निरोध होता है । क्षिप्त अवस्था में चित्त एक विषय से दूसरे विषय पर दौड़ता रहता है । मूढ़ अवस्था में निद्रा, आलस्य आदि का प्रादुर्भाव होता है । विक्षिप्तावस्था में मन थोड़ी देर के लिए एक विषय में लगता है पर तुरन्त ही अन्य विषय की ओर चला जाता है । यह चित्त की आंशिक स्थिरता की अवस्था है जिसे योग नहीं कह सकते । एकाग्र अवस्था में चित्त देर तक एक विषय पर लगा रहता है । यह किसी वस्तु पर मानसिक केन्द्रीकरण की अवस्था है । यह योग की पहली सीढ़ी है । निरुद्ध अवस्था में चित्त की सभी वृत्तियों का (ध्येय विषय तक का भी) लोप हो जाता है और चित्त अपनी स्वाभाविक स्थिर, शान्त अवस्था में आ जाता है । इसी निरुद्व अवस्था को ‘असंप्रज्ञात समाधि’ या ‘असंप्रज्ञात योग’ कहते हैं । यही समाधि की अवस्था है ।
जब तक मनुष्य के चित्त में विकार भरा रहता है और उसकी बुद्धि दूषित रहती है, तब तक तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता । चित्त की शुद्धि के लिए योग आठ प्रकार के साधन बतलाता है :-
१- यम
२- नियम
३- आसन
४- प्राणायाम
५- प्रत्याहार
६- धारणा
७- ध्यान
८- समाधि
उपर्युक्त प्रथम पाँच योग के बहिरंग साधन तथा धारणा, ध्यान और समाधि ये तीन योग के अंतरंग साधन हैं । ध्येय विषय ईश्वर होने पर मुक्ति मिल जाती है । यह परमात्मा से संयोग प्राप्त करने का मनोवैज्ञानिक मार्ग है जिसमें मन की सभी शक्तियों को एकाग्र कर एक केन्द्र या ध्येय वस्तु की ओर लाया जाता है ।