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अन-नबा

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कुरआन का सूरा क्र.- 78

वर्गीकरण मक्की

सूरा अन-नबा (इंग्लिश: An-Naba) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 78 वां सूरा (अध्याय) है। इसमें 40 आयतें हैं।

इस सूरा के अरबी भाषा के नाम को क़ुरआन के प्रमुख हिंदी अनुवाद में सूरा अन-नबा[1]और प्रसिद्ध किंग फ़हद प्रेस के अनुवाद में सूरा अन्-नबा[2] नाम दिया गया है।

नाम दूसरी आयत के वाक्यांश “उस बड़ी ख़बर (अन-नबा) के बारे में" के शब्द 'अन-नबा' को इसका नाम दिया गया है और यह केवल नाम ही नहीं है, बल्कि विषय वस्तु की दृष्टि से इस सूरा की वार्ताओं का शीर्षक भी है, क्योंकि 'नबा' ( ख़बर ) से अभिप्रेत क़ियामत और आख़िरत (प्रलय और परलोक) की ख़बर है और सूरा में सारी वार्ता इसी पर की गई है।

अवतरणकाल

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मक्की सूरा अर्थात् पैग़म्बर मुहम्मद के मदीना के निवास के समय हिजरत से पहले अवतरित हुई।

सूरा 75 (क़ियामा) से सूरा 79 (नाज़िआत) तक सभी सूरतों की विषय-वस्तु मिलती-जुलती है और ये सब मक्का मुअज़्ज़मा के प्रारम्भिक काल की अवतरित मालूम होती हैं।

विषय और वार्ता

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इस्लाम के विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि इसका विषय है क़ियामत और आख़िरत की पुष्टि और उसको मानने या न मानने के परिणामों से लोगों को सावधान करना। मक्का मुअज़्ज़मा में जब पहले-पहल अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने इस्लाम के प्रचार का आरम्भ किया तो वह तीन चीज़ों पर आधारित था:

(एकेश्वरवाद , हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की पैग़म्बरी और आख़िरत। इन तीनों चीज़ों में से पहली दो चीज़े भी, यद्यपि मक्कावालों को अत्यन्त अप्रिय (और अग्राह्य थीं, किन्तु फिर भी स्पष्ट कारणों से ये उन के लिए उतनी ज़्यादा उलझन का कारण न थीं, जितनी तीसरी बात थी। उसको जब उनके सामने पेश किया गया तो उन्होंने सबसे ज़्यादा उसी की हँसी उड़ाई। किन्तु इस्लाम की राह पर उनको लाने के लिए यह बिलकुल अवश्यम्भावी था कि आख़िरत की धारणा उनके मन में उतारी जाए, क्योंकि इस धारणा को स्वीकार किए बिना यह सम्भव ही न था कि सत्य और असत्य के मामले में उनके सोचने के ढंग में गंभीरता आ सकती। यही कारण है कि मक्का मुअज़्ज़मा के प्रारम्भिक काल की सूरतों में ज़्यादा ज़ोर आख़िरत की धारणा को दिलों में बिठाने पर दिया गया है। इस कालखण्ड की सूरतों में आख़िरत के विषय की इस पुनरावृत्ति का कारण भली-भाँति समझ लेने के पश्चात् अब इससूरा की वार्ताओं पर एक निगाह डाल लीजिए। इसमें सबसे पहले उन चर्चाओं और अटकलबाज़ियों की ओर संकेत किया गया है जो क़ियामत की ख़बर सुनकर मक्का की हर गली और बाज़ार और मक्कावालों की हर बैठक में हो रही थीं। इसके बाद इनकार करनेवालों से पूछा गया है कि क्या तुम्हें (धरती से लेकर आकाश तक का प्रकृति का कारख़ाना और उसमें पाई जाने वाली हिकमतें और सोद्देश्यता दिखाई नहीं देतीं? इसकी सारी चीजें क्या तुम्हें यही बता रही है कि जिस सर्वशक्तिमान ने इनको पैदा किया है उसकी शक्ति क़ियामत लाने और आख़िरत को अस्तित्व प्रदान करने में असमर्थ है? और इस पूरे कारखाने में जो पूर्ण श्रेणी की तत्त्वदर्शिता और बुद्धिमत्ता स्पष्टतः क्रियाशील है, क्या उसको देखते हुए तुम्हारी समझ में यह आता है कि इस कारख़ाने का एक - एक अंश और इसकी एक-एक क्रिया तो सोद्देश्य है , किन्तु ख़ुद पूरे-का-पूरा कारख़ाना निरुद्देश्य है? आख़िर इससे अधिक व्यर्थ और निस्सार बात क्या हो सकती है कि कारखाने में मनुष्य को पेशकार (foreman) के पद पर नियुक्त करके उसे यहाँ अत्यन्त विस्तृत अधिकार तो दे दिए जाएँ, किन्तु जब वह अपना कार्य पूरा करके यहाँ से विदा हो तो उसे यूँ ही छोड़ दिया जाए, न काम बनाने पर पेंशन और इनाम, न बिगाडने पर पूछ - गछ और दण्ड? यह प्रमाण देने के पश्चात् पूरे ज़ोर के साथ कहा गया है कि फैसले का दिन निश्चय ही अपने निश्चित समय पर आकर रहेगा। तुम्हारा इनकार इस घटना को घटित होने से नहीं रोक सकता। इसके बाद आयत 21 से 30 तक बताया गया है कि जो लोग हिसाब-किताब की आशा नहीं रखते और जिन्होंने हमारी आयतों को झुठला दिया है, उनकी एक-एक करतूत गिन-गिनकर हमारे यहाँ लिखी हुई है और उनकी ख़बर लेने के लिए नरक घात लगाए हुए तैयार है। फिर आयत 31 से 36 तक उन लोगों का उत्तम प्रतिदान वर्णित हुआ है जिन्होंने अपने आपको ज़िम्मेदार और उत्तरदायी समझकर संसार में अपना परलोक सुधारने की पहले ही चिन्ता कर ली है। अन्त में ईश्वरीय न्यायालय का चित्रण किया गया है कि वहाँ किसी के अड़कर बैठ जाने और अपने आश्रितों को क्षमादान दिलाकर मुक्त करने का क्या प्रश्न, वहां तो कोई बिना अनुमति के ज़बान तक न खोल सकेगा, और अनुमति भी इस शर्त के साथ मिलेगी कि जिसके हक़ में सिफ़ारिश की अनुमति हो, केवल उसी के लिए सिफ़ारिश करे और सिफ़ारिश में कोई अनुचित बात न कहे। तदधिक सिफ़ारिश की अनुमति केवल उनके हक़ में दी जाएगी जिन्होंने दुनिया में सत्य-वचन को माना और केवल गुनहगार हैं। ईश्वर के विद्रोही और सत्य से इनकार करनेवाले किसी सिफ़ारिश के पात्र न होंगे। फिर वार्ता का समापन इस चेतावनी पर किया गया है कि जिस दिन के आने की ख़बर दी जा रही है उसका आना सत्य है; उसे दूर न समझो; वह निकट ही आ लगा है ; (जो आज उसके इनकार पर तुला बैठा है , कल) वह पछता-पछताकर कहेगा कि क्या ही अच्छा होता कि मैं दुनिया में पैदा ही न होता। उस समय उसका यह एहसास उसी दुनिया के प्रति होगा, जिस पर आज वह लटटू हो रहा है।

सुरह "अन-नबा का अनुवाद

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बिस्मिल्ला हिर्रह्मा निर्रहीम अल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है।

इस सूरा का प्रमुख अनुवाद:

क़ुरआन की मूल भाषा अरबी से उर्दू अनुवाद "मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ खान", उर्दू से हिंदी [3]"मुहम्मद अहमद" ने किया।

पिछला सूरा:
अल-मुर्सलात
क़ुरआन अगला सूरा:
अन-नाज़िआत
सूरा 78 - अन-नबा

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इन्हें भी देखें

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सन्दर्भ

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  1. सूरा अन-नबा,(अनुवादक: मौलाना फारूक़ खाँ), भाष्य: मौलाना मौदूदी. अनुदित क़ुरआन - संक्षिप्त टीका सहित. p. 938 से.
  2. "सूरा अन्-नबा का अनुवाद (किंग फ़हद प्रेस)". https://quranenc.com. Archived from the original on 22 जून 2020. Retrieved 16 जुलाई 2020. {{cite web}}: External link in |website= (help)
  3. "An-naba सूरा का अनुवाद". http://tanzil.net. Archived from the original on 25 अप्रैल 2018. Retrieved 15 जुलाई 2020. {{cite web}}: External link in |website= (help)

बाहरी कडियाँ

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इस सूरह का प्रसिद्ध अनुवादकों द्वारा किया अनुवाद क़ुरआन प्रोजेक्ट पर देखें

  1. "Quran Text/ Translation - (92 Languages)". www.australianislamiclibrary.org. Archived from the original on 30 जुलाई 2020. Retrieved 15 March 2016.